Hari Vishnu Awasthi Ki Rachnayen हरी विष्णु अवस्थी की रचनाएं

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Hari Vishnu Awasthi का जन्म ओरछा राज्य के टीकमगढ़ में फाल्गुन कृष्ण पंचमी संवत् 1989 अर्थात् 15 फरवरी 1933 को हुआ, आपके पिताजी का नाम पं. रामकिशोर अवस्थी तथा माताजी का नाम श्रीमती काशीबाई था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा टीकमगढ़ में ही हुई। आपने 1948 में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की, इसके बाद 1949 से शिक्षा विभाग के विभिन्न पदों (सहायक शिक्षक, प्रधानाध्यापक तथा सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक) पर काम किया।

टेर-टेर कैं हारे कनइया आय न मोरे द्वारे।
कभउ कहत गउअन में जाने, जसुदा नंद दुलारे।।

कुंजन बाल सखन संग डोलत, मोहन मुरली बारे।
खेलत गैंद गिरी जमना में, नाग नाथ लय कारे।

सखियन के संग रास रचाउत, किशन कनइया प्यारे।
गैल चलत सखियन खों छेड़त, तुम छलिया मतवारे।।

जब-जब कई घरै आवे की, बना बहाने टारे।
सौलों गिनती काँनों करिये, हा-हा कर-कर हारे।।

तनक पसीजौ अब तो मोहन, कारी कमरी बारे।
पलक पाँवड़े बिछा खड़े हैं जिन तरसाओ प्यारे।।

हे कृष्ण! मैं तुम्हें बार-बार पुकार कर थक गया हूँ किन्तु आप मेरे दरवाजे नहीं पधारे हैं। जशोदा व नंद के प्रिय कभी कहते हो कि मुझे गायों के साथ जाना है। कभी मुरली लेकर कुंजों में बाल सखाओं के साथ घूमते हो। आपके खेलते समय गेंद यमुना में गिर गई तो आपने कालिया को नाथ लिया। आप कभी कृष्ण कन्हैया बनकर गोपिकाओं के साथ रहस लीला करते हो।

आप कभी राह चलती सखियों को मतवाला छलिया बनकर छेड़ते हो। जब-जब मैंने आपसे घर आने की कही तभी आपने कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया। मैं सौ की गिनती कहाँ तक गिनाऊँ? मैं विनय करते हुए थक गया हूँ। हे कृष्ण! अब थोड़ी सी दया दिखाकर पधार जाओ। मैं पलकों रूपी पाँवड़े बिछाये खड़ा हूँ। अब मत तरसाओ। हरि सें करकें प्रीति पसतानी।

हटकी हती सास नंदन ने, बात एक न मानी।
सपनन सुना परत है गुइयाँ, मुरली टेर सुहानी।।

वे निर्मोही संग छोड़ दें, ऐसी कभउँ न जानी।
कछु न सुहावै उन बिन मोखों, रुचे न रोटी पानी।।

श्याम बिना मोय कल न परत है फिरत रहत बोरानी।
मुरली छुड़ा कमरिया झटकी कभउँ रार न ठानी।।

अब कै रूठे बे सखि ऐसें, विनती एक न मानी।
हे हरि दया करौ अब मो पै तुमरे हात बिकानी।।
मैं कृष्ण से प्रेम करके पछता रही हूँ। मुझे सास व ननद ने मना किया था किन्तु मैंने उनकी एक भी बात नहीं मानी। सखी, मुझे अब स्वप्न में ही बाँसुरी की मधुर टेर सुनाई देती हैं। वे निर्मोही होकर इस तरह से साथ छोड़ देंगे ऐसा मैंने कभी सोचा नहीं था। मुझे उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, न ही खाना-पीना रुचिकर लगता है।

मुझे कृष्ण के बिना चैन नहीं मिलता है, मैं पागलों की तरह घूमती रहती हूँ। मैं कभी भी न मुरली छुड़ाई न कमरिया छुड़ाई और न ही कभी झगड़ा किया। हे सखी! वे अब की बार इतने रूठ गए हैं कि मेरी एक भी प्रार्थना नहीं सुन रहे हैं। हे दयानिधि! आप मुझ पर दया कीजिए, मैं तुम्हारे हाथ बिक चुकी हूँ।

लगा आइ मैं तो हरि प्यारे सें नेहा।
एक दिना जमना तट गइती छी लई मोरी देहा।
बो दिन बिसरत नइयाँ मोखौं तबइ सैं बड़ो सनेहा।

बरसन मो संग रास रचाई, बड़ा बड़ा कैं नेहा।
अब तो उनने ठान ठान लइ, आय न मोरे गेहा।।

जो दुख किये सुनाबें गुइयाँ, अखियन बरसत मेहा।
ऐसौ तंत-टोटका कर दो, बे आवें मोरे गेहा।।

मैं एक दिन कृष्ण से प्रेम का रिश्ता जोड़ आई हूँ। मैं एक दिन यमुना के किनारे गई थी तो वहाँ उन्होंने मेरी देह का स्पर्श कर लिया। वह दिन मुझे विस्मृत नहीं होता, तभी से प्रेम का रिश्ता और बढ़ गया है। उन्होंने मुझसे प्रेम बढ़ाकर बरसों तक रास रचाई और अब प्रतिज्ञा कर ली है कि वे मेरे घर तो नहीं आयेंगे। उन्होंने जो दुख दिए हैं उनको सुनाने में मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। तुम कोई ऐसा जादू-टोना कर दो जिससे वे (कृष्ण) मेरे घर पधार जायें।

दरश बिन तलफत राधा प्यारी।

रात-दिना आँखन में झूलत बिसरी खबर हमारी।
नई पटरानी मिल गई कौनउँ, मोरी खबर बिसारी।

सपनन रोज दिखात रातभर, का गत करी मुरारी।
दूर रनै तो मो सैं तुम खौं, काय मोहनी डारी।।

करकैं प्रीत हमें जिन छोड़ौ हुहये हँसी तुमारी।
कौन सहारौ दै है मोखों फिरहों मारी-मारी।।

कैसे आहो मोय बता दो, पूँछ-पूँछ कैं हारी।
हे हरि तुमरे पाँव परत हों अब सुद लेव हमारी।।

दर्शनों के बिना राधा प्यारी तड़फ रही हैं। उन्होंने मुझे भुला दिया है किन्तु वे मेरी आँखों में रातदिन झूलते हैं। लगता है कि उन्हें कोई पटरानी मिल गई है जिससे उन्होंने मुझे भुला दिया है। वे मुझे रोज रात्रि भर स्वप्न में दिखते हैं। उन्होंने मेरी हालत खराब कर दी है। यदि तुम्हें इसी तरह दूर रहना था तो तुमने क्यों मोहनी रूप से मेरा मन मोहा।

यदि आपने प्रेम करके मुझे छोड़ दिया तो संसार में आपकी ही हँसी होगी। मुझे कौन आश्रय देगा? मैं यहाँ-वहाँ मारी-मारी भटक रही हूँ। आप कैसे पधारेंगे? यह मुझे बता दीजिए। मैं पूछ-पूछ कर हार गई हूँ। हे कृष्ण! मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ अब आप मेरी सुधि ले लीजिए।

भजन में लगत न एक छिदाम सुमर लो सीतापति श्री राम।
अपने संग कछू नइँ जाने धरो रहे धन धाम।
जो तन है माटी की मूरत, बिकै न कोनउँ दाम।।

जाने कबै किते हो जाने, ई को काम तमाम।
पशू चाम की बनत पनइयाँ, वृथा मनुस को चाम।।

तिरिया बैना कुटुम कवीला, कोऊ न आबे काम।
बिरधापन रोगन नें घेरौं, कड़ौ न मुख सें राम।।

आज मरे कल दिना दूसरौ लेय न कोऊ नाम।
एक राम को नाम सार है, भज लो आठों याम।।

भजन करने में एक छदाम (मुद्रा की लघुतम इकाई) व्यय नहीं होता है इसलिए सीता पति श्रीराम का स्मरण कर लीजिए। अपने साथ कुछ नहीं जाएगा सभी धन व वैभव यहाँ रखे रह जाएंगे। यह तन मिट्टी की मूर्ति के समान है, मृत्यु होने पर मूल्यहीन हो जाएगा। कब और कहाँ इसका अन्त हो जाएगा, अज्ञात है।

पशु चर्म के तो जूता भी बन जाते हैं किन्तु मनुष्य चर्म इस मामले में भी व्यर्थ है। पत्नी, बहिन, परिवार व समाज कोई काम नहीं आता है। वृद्धावस्था में रोग ग्रस्त होने से मुख से राम शब्द नहीं निकलता है। मरने के दूसरे ही दिन से कोई नाम लेने वाला नहीं रहता है। एक मात्र राम नाम का स्मरण ही संसार का सारांश है इसी को दिन रात भजना चाहिए।

कछू तो कऔं, काय कनइया कारौ।
तनको कारौ मन को कारौ, कारी अलकन वारौ।।
माता जसोदा गोरीं नारीं, नंद लय रंग बारौ।
दिआ जरैं उजयारै होवे, परबै काजर कारौ।।

बसो रात राधे की आँखन, निश दिन प्रान प्यारौ।
कजरारीं अखियाँ राधा कीं, ऐइ सैं पर गओ कारौ।

जो कोउ संग करै करिया कौ, पर जैहै बो कारौ।
राधा बचीं रहो करियन सें ऐइ में भलौं तुमारौ।

कुछ तो कहिए कि कृष्ण काले क्यों हैं? ये शरीर व मन के काले हैं इनकी केश राशि भी काली है। माता यशोदा तो गौर वर्ण हैं, नन्द का रंग कृष्ण लिये हैं। दीपक जलने से प्रकाश फैलता है और उसकी लौ की कालिमा से काला काजल बनता है।

प्रतिदिन प्राणों से प्रिय कृष्ण राधा की आँखां में बसे रहते हैं। राधा की आँखें कजरारी (काजलयुक्त) हैं इसीलिए कृष्ण काले पड़ गए हैं। यदि कोई इस काले रंग वाले की संगत करेगा, तो वह भी काला पड़ जाएगा। राधिका तुम इस काले रंग वाले से सावधान रहना, इसी में तुम्हारी भलाई है।

भोरइ सैं बादर सी गरजैं, फिर वे मूड़ फिकारे जू।
सास जिठानी का देवरानी, सबकी कॉय उतारे जू।।

देउर-जेठ की का बिसाँत है ससुरा खों ललकारे जू।
घण्टन दौरें ठांड़ी रैबें छैलन कोद निहारे जू।।

ऐसी बऊ जा आ गई घर में सबके कंडा काड़े जू।
सबरे मूड़ पकर कैं रो रए तर-तर असुआ ढारें जू।।

प्रातः से ही बादलों जैसी गर्जना करती है और सिर खोले (सिर पर बिना पल्लू डाले) घूमती हैं। सास, जेठानी और देवरानी की कॉगें उतारती हैं। देवर, जेठ की हैसियत ही क्या? वह ससुर को भी ललकारती है। घण्टों तक दरवाजे पर खड़ी होकर अपने छैलों (नायकों) को निहारती रहती हैं। ऐसी बहू घर में आ गई है जो सबको गालियाँ देती हैं। परिवार के सभी सदस्य अपना सिर पकड़कर रो रहे हैं।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

श्री हरी विष्णु अवस्थी का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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