Gopal Das Rusiya Ki Rachnayen  गोपाल दास रूसिया की रचनाएं

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श्री गोपाल दास रूसिया का जन्म 22 नवम्बर 1927 ई. को हरपालपुर कस्बे के एक वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिताजी का नाम श्री मथुरा प्रसाद रूसिया था। Gopal Das Rusiya का रुझान साहित्य व संस्कृति के प्रति बाल्यावस्था से ही रहा। इनकी प्राथमिक शिक्षा हरपालपुर कस्बे में ही हुई। ये धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। इन्होंने आजादी की लड़ाई में भी सक्रिय भागीदारी की है। श्री गोपाल दास रूसिया ने अध्यक्ष, न्याय पंचायत,मंत्री जिला, सचिव जिला पंचायत परिषद आदि पदों पर सक्रियता से कार्य किया है। Gopal Das Rusiya Ki Rachnayen शृंगार प्रधान हैं । 

चौड़ियाँ
चिठिया मिली बड़े भुनसारे, खोलत मोय किबारे।
पंखा होते उड़ भग जाती, जल्दी पास तुम्हारे।।

एक दिना की छुट्टी लेकर, तुम आ जाओ सकारे।
रोज ‘गुपाल’ काम है रानें, चैन न तुम बिन प्यारे।।

अपने प्रिय की आस लगाए बैठी नायिका को जब प्रिय का पत्र मिलता है तो नायिका अपनी मनोदशा को व्यक्त करती है कि आज तड़के दरवाजे खोलते ही मुझे प्रियतम की चिट्ठी मिली है, अगर मेरे पास पक्षियों की भाँति पंख होते तो मैं उड़कर तुम्हारे पास आ जाती।

अर्थात् मेरा तुम्हारे पास आ पाना बहुत ही मुश्किल है इसलिए तुम ही एक दिन की छुट्टी लेकर आओ, कल ही आ जाओ। आगे कवि गोपाल कहते हैं कि नायिका कहती है- हे प्यारे! काम-काज तो हरदिन बने रहते हैं और आगे भी बने रहेंगे लेकिन तुम्हारे बिना मेरी दशा क्या है ? शायद इसका आभास तुम्हें न हो। यहाँ एक पल के लिए भी चैन नहीं है।

होरी कढ़ी जात है कोरी, नईं खबर लई मोरी।
घर होती तो नोनों लगतो, मिल लेते छुप चोरी।

आँख बचा सबकी आँखन सें, मुसका लेते थोरी।
कहत ‘गुपाल’ पढ़त ही चिठिया, चिठिया दइयो गोरी।।

इस छंद में, जब नायक नायिका को चिट्ठी भेजता है तो उसमें अपनी विरह की दशा को बताता है इस बार की होली खाली जा रही है क्योंकि तुमने मेरी कोई खबर ही नहीं ली है, अर्थात् लगता है कि इस साल की होली में तुमने मुझे भुला दिया है इसीलिए यह होली बिना खेले हुए जा रही है।

अगर तुम घर (मायके) में होती तो अच्छा लगता और चोरी-चोरी ही सही लेकिन दोनों मिलकर होली खेलते, सभी लोगों की आँखों से अपनी नजरों को बचाकर थोड़ा हँस लेते। आगे कवि गोपाल कहते हैं कि नायक कहता है कि हे गोरी! तुम मेरी चिट्ठी पढ़ते ही इसका जवाब लिखकर पाती अवश्य भेजना।

दुर की लटकन लगे प्यारी, अंखियां है कजरारी।
झुमका झूम रहे गालन पे, धुतिया पैरें कारी।।

लाँगा नुगरो चोली कसकें, चाल चले लटकारी।
सुरत बिसार ‘गुपाल’ मोह बस, सुध बुध भूले सारी।।

कवि गोपाल कहते हैं कि नायक अपनी नायिका की हर अदा पर आसक्त है और कहता है कि तुम्हारे द्वारा आभूषण की लटकन प्रिय लगती है और काजल युक्त तुम्हारी काली आँखें देखता हूँ तो अच्छी लगती है। तुमने जो झुमका पहन रखे हैं वे गालों पर आ करके झूले की भाँति हिल-डुल रहे हैं और तुम्हारे गोरे रंग में काली साड़ी का मेल तो अद्वितीय है।

आगे कवि कहते हैं कि लँहगा को पहनकर चोली कस करके जब तुम हिरनी जैसी चाल चलती हो तो अपनी सुध-बुध तो भूलते ही हैं साथ ही साथ और सब कुछ भूलकर तुम्हारे मोहपाश में बँध जाते हैं।

कंगना बंगलिया कर धारे, पटिया दोऊ सभारें।
बिंदिया ऊपर बेंदी सोहे, काजर कोर निकारे।।

नाक नथुनिया कानन झुमका, पहिन कछोटा मारें।
तिल देखत गुपाल गोरी को, सुध बुध सबई बिसारें।।

इस छंद में नायक नायिका के श्रृँगार का वर्णन करता हूआ कहता है कि उसने अपने हाथों में बंगाली कँगन पहन रखे हैं और अच्छी तरह से दोनों चोटी (बालों की) बनाई है। बिंदिया के ऊपर जो एक छोटी सी बिंदी होती है और आँखों में लगा काजल उसके रूप-सौन्दर्य को बढ़ा रहा है।

नाक में नथुनी और कानों में झुमका पहनकर कछौंटा मारकर धोती पहने है। आगे कवि गोपाल कहते हैं कि नायिका के गालों पर जो तिल है, उसे देखकर सभी लोग अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं अर्थात् उन्हें यह होश तक नहीं रहा है कि वे कहाँ और किस दशा में हैं ?

जा है गमई गांव की रानी, मोरी निछल स्यानी।
अपने राजा के बल निंधड़क, होके यह दीवानी।।

मार कछोटा फैंटा कस के, चले चाल मरदानी।
दई ‘गुपाल’ देश के हित में, अपनी हसत जबानी।।

नायक अपनी नायिका से निष्कपट, निःस्वार्थ भाव को प्रकट करता है और कहता है कि यह जो मेरी निश्छल प्रेयसी है वह गाँव की रानी है, अपने पति के बल पर, बिना किसी भय के वह दीवानी घूमती है। वह कछौटा मारकर धोती पहनती है। वह मर्दों वाली चाल चलती है, कवि गोपाल कहते हैं कि उसने (नायिका ने) जो सबसे बड़ा पुण्य का कार्य है वह उसने सब माया मोह के बंधन को छोड़ते हुए, हँसते-हँसते अपनी जवानी को देशभक्ति में न्यौछावर कर दी है।

बेंदा चन्दा जैसो चमकत, सूरज माफक दमकत।
कारे केश भाल के ऊपर उचक उचक कर बमकत।।

नथनी को नग जुगनू जैसो, हीरा माफिक दमकत।
कमर गुपाल लचीली ऐसी, बिन फरकाये फरकत।।

इस छंद में नायिका जिन-जिन चीजों से अपना श्रृँगार करती है उसका नायक वर्णन करता हुआ कहता है कि उसकी बिंदिया चन्द्रमा के जैसी चमकती है और जो उसका दमकना है वह सूर्य की भाँति है। माथे के ऊपर काले-काले बाल इतने मुलायम हैं कि उछल-कूदकर बढ़ते जा रहे हैं, नाक में जो नथुनी है उसका नग आकार में तो जुगनू के बराबर है परन्तु उसका तेज हीरे की भाँति है। आगे वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उसकी कमर तो ऐसी है कि बिना हिलाए ही वह फरकती है।

चुटिया दोऊ कंदन पर डारे, नागिन सी फुफकारें।
भोंहें बनी नुकीली ऐसी, ज्यों होबे तरबारें।।

तीखे नयनन से सैनन में, लगा लगा फटकारें।
बिना अस्त्र घायल गुपाल कर, तड़पा तड़पा मारें।।

प्रियतम अपनी प्रेयसी के बारे में बताता है कि वह जब अपने कंधों पर दोनों चोटियाँ डालकर चलती है तो वे ऐसी लगती है मानो नागिन फुँफकार रही हों क्योंकि चलने के कारण वे ऊपर नीचे होने लगती हैं।

उसकी भौंहें तलवार की भाँति नुकीली (पैनी) है और अपनी तिरछी आँखों से सभी को घायल कर रही हैं। आगे वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि अन्य लोग तो शस्त्रों से घायल करते हैं लेकिन उसके घायल करने का अंदाज विचित्र है क्योंकि वह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के घायल करके तड़पा-तड़पा कर मारती है।

नोनी लगे तुम्हारी मुइयां, हंसत परे गड़कुइयां।
बिंदिया लाल मसो गालन को, लगबे बेर मकुइयां।।

सदा बोलती टुइयां जैसी, मोरी चतुर मुनइयां।
कजरा देख गुपाल भूल गये, सुध बुध सारी गुइयां।।

नायक-नायिका के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि हे प्रेयसी! तुम्हारा मुख देखने में बहुत ही अच्छा लगता है और जब तुम हँसती हो तो हँसने के कारण तुम्हारे गालों पर छोटे से गड्डे हो जाते हैं जो मुख शोभा को बढ़ा देते हैं। तुम्हारे गालों पर जो लाल रंग का मस्सा है वह बेर मकुइयाँ की भाँति है। मेरे मन को भाने वाली चतुर नायिका सदैव ही टुइंयाँ (तोते) जैसी बोलती है। आगे कवि कहता है कि उसके आँखों में लगे काजल को देखकर होश-हवाश खो बैठा हैं।

श्री गोपाल दास रूसिया का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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