Fag Ka Udbhav Aur Vikas फाग का उद्भव और विकास

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‘फाग’ शब्द की व्युत्पति फल्गु (बसंत) फागु फाग से सिद्ध होती है।फागोत्सव पर जो गीत अथवा लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ‘फाग’ कहते हैं। Fag Ka Udbhav Aur Vikas प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों एवं पुराणों में भी फागोत्सव का वर्णन सविस्तार मिलता है। होली की कथा ( जिसके उपलक्ष्य में फागोत्सव मनाया जाता है) पुराणों से भी अधिक प्राचीन बताई जाती है।

फाग की उत्पत्ति

‘फागु’ की उत्पत्ति संस्कृत के फाल्गुन शब्द से मानते हैं। बुंदेली में फाग शब्द बना है। प्राकृत फागु या वैश्य फागु का अर्थ ‘बसंत

का उत्सव’ है। इस आधार पर फागु और फाग का अर्थ भी बसन्तोत्सव रहा होगा। बुंदेलखण्ड में आज भी फाग का प्रयोग रंगोत्सव के लिए होता है।

फाग खेलना रंग डालने के लिए एक प्रचलित मुहावरा है। यहाँ तक कि विवाहों में भी रंग डालने को ‘फाग होना’ कहते हैं। इससे सिद्ध है कि बुंदेली का फाग शब्द फागोत्सव का पूरा अर्थ देता है और यह प्राकृत फग्गु का ही रूपान्तरण है।

फाग का स्वरूप
बुंदेली फाग का जो स्वरूप हमारे सामने है उसका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि फाग के विभिन्न रूपों की सर्जना के लिए फागकारों ने विभिन्न काव्य रूपों एवं लोकगीतों से गुणभार अवश्य लिया होगा। बुदेली फाग का स्वरूप ईसुरी पूर्व की समयावधि में बीज के रूप में तथा उसके बाद विशाल वट वृक्ष के रूप में लिखित एवं मौखिक दोनों आधारों पर विपुल परिमाण में उपलब्ध हुआ है।

पूर्व में फाग गीत होलिकोत्सव तक ही परिमित होने के कारण कम विकसित थे। जिस प्रकार नवरात्रि ओर शरद पूर्णिमा पर रास गाये जाते थे और ताली रास अथवा लकुटा रास के रूप में खेले जाते थे, उसी प्रकार फाल्गुन और चैत्र मास में बसन्तागमन पर ये फाग गाये और खेले जाते थे।  

गुजरात की भाँति बुंदेलखण्ड में भी वसंन्तागमन पर फाग गाये और खेले जाते रहे। आज भी यही परम्परा लोक में विद्यमान है। फाग का विषय प्रारम्भ से ही मदन महोत्सव रहा है। फाग या होली मदनोत्सव रूप में ही मानई जाती थी। इसलिए मात्र फागुन महीने में मनाये जाने वाले

होलिकात्सव या फागोत्सव या रंगोत्सव या मदनोत्सव या बसंतोत्सव पर ही गाये जाने के कारण फाग का स्वरूप विस्तृत एवं व्यापक नहीं था। लेकिन धीरे धीरे ये फागगीत विभिन्न राग रागनियों में लोक मानस को आनंदित करने के लिए गाये जाने लगे, जिससे फाग के स्वरूप की व्यापकता में वृद्धि हुई और परम्परा के सीमित कटघरों से ‘मुक्त होकर सहज ही यह लोक विधा (फाग) सबका मन आकृष्ट करने लगी।  

आज यह विशेष उत्सव अथवा पर्व तक सीमित नहीं रही, अपितु धीरे-धीरे अन्य अवसरों पर फाग गायकी का प्रयोग एवं व्यवहार किया जाने लगा है। आज कल लोक कवियों एवं लोक गायकों द्वारा विभिन्न लोक धुनों पर मुग्ध होकर इसे (फाग को) गाया जाने लगा है।

फाग का उद्भव और विकास
फागोत्सव पर जो गीत अथवा लोकगीत गाये जाते हैं उन्हें ‘फाग’ कहते हैं। Fag Ka Udbhav Aur Vikasप्राचीन धार्मिक ग्रन्थों एवं पुराणों में भी फागोत्सव का वर्णन सविस्तार मिलता है। होली की कथा ( जिसके उपलक्ष्य में फागोत्सव मनाया जाता है) पुराणों से भी अधिक प्राचीन बताई जाती है।

हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद अपने पिता की रूचि एवं आचरण के प्रतिकूल भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकश्यप मन, वचन एवं कर्म से प्रजा को अपना भक्त बनाना चाहता था। पर उसका पुत्र प्रहलाद पिता की प्रवृत्ति के प्रतिकूल आचरण कर रहा था। फलतः प्रहलाद को अनेक असहनीय यातनायें सहन करना पड़ी। उसे विष पिलवाया गया, सर्पों से कटवाया गया एवं हाथियों से कुचल वाया गया। किन्तु हिरण्यकश्यप के ये सारे उपाय व्यर्थ सिद्ध हुए ।

तब उसने अपनी बहिन होलिका को जिसे अग्नि में प्रवेश करने पर भी न जलने का वरदान प्राप्त था उसे बुलवाया और प्रहलाद को अंक में लेकर प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करने के लिए आज्ञा प्रदान की। भाई की आज्ञा से होलिका भतीजे को लेकर जलती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई। लेकिन फल विपरीत हुआ होलिका जलकर भस्म हो गई और प्रहलाद बाहर निकल आया। तभी से होलिका दाह प्रतिवर्ष उल्लास पूर्वक मनाया जाता है।

बुंदेलखण्ड में होली का उत्सव मनाने की प्रथा के अनुसार इस उत्सव के एक डेढ माह पहले से गांव मंजीरे की झंकार और फीके की झन झनाहट के मध्य फाग गायकों के सुरीले आलाप गूँजने लगते हैं। होली के सात आठ दिन पूर्व से घर-घर में गोबर के बरूले बनाये जाते हैं तथा पूर्णिमा को बालक युवा और वृद्ध सोल्लास चौराहों पर अथवा गांव के बाहर होली जलाते हैं।

तत्पश्चात् उसी होली की अग्नि को सभी लोग अपने-अपने घर में लाकर चौक पूरकर उन बरूलों की होली जलाते हैं। अगले दिन प्रातः से दोपहर पूर्व तक कीचड़ की होली खेली जाती है तथा पूर्णिमा की द्वितीया को दोपहर के बाद रंग, गुलाल एवं अबीर द्वारा फाग मनाई जाती है।

सामान्यतः बुंदेली फाग गीत बुंदेलखण्ड जनपद के लोकगीत हैं जो बसन्तोत्सव, होलिकात्सव, फागोत्सव या रंगोत्सव पर गाये जाते है । पर धीरे धीरे इन गीतों ने व्यापकता पाई और अन्य अवसरों पर भी इनका उपयोग होने लगा।

फाग की उत्पत्ति के साथ उसके विकास की चर्चा करना आवश्यक है। बुंदेली फागों की परम्परा मौलिक और लिखित दोनों रूपों में उपलब्ध है। बाह्य आक्रमणों के कारण बुदेली की प्राचीन फाग कृतियाँ नष्ट हो गई है। इसलिए लिखित रूप में उपलब्ध नहीं है। फिर भी मौखिक रूप में प्राप्त संकेतों से फागों की सर्जना के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है।

वस्तुतः बुंदेली फाग लोकगीत के रूप में ही था और उसमें नृत्य और संगीत का मेल था। इस प्रकार सबसे पहले लोकगीत के रूप में फाग का जन्म हुआ। भाषा और बोलियों में उनके उद्भव और विकास के साथ ही फाग का उद्भव और विकास होता रहा है। इसी बुंदेली भाषा के फागगीत चौकड़िया फागों के सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गीतकार ईसुरी से भी सात आठ सौ वर्ष पूर्व से गाये जाते रहे हैं।

महाकवि ईसुरी के समय से बुंदेली फाग का विकास इतनी तीव्र गति से हुआ कि साहित्य में फाग काव्य एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में उपस्थित है और यह लोकगीत की विधा अपनी बिरादरी को छोड़कर साहित्य की श्रेणी  में आ गई है। ईसुरी से प्रभावित फाग विधा को हरा-भरा करने के लिए इतने फागकार हुए है कि उनका नामांकन करना भी अत्यन्त कठिन है।

ईसुरी, गंगाधर, ख्यालीराम, रसिया, मनभावन, भुजबल सिंह, परशुराम, रामदास, खेत सिंह यादव ‘राकेश ‘ आदि फागकारों ने फाग विधा को विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया है।

महाकवि ईसुरी का जीवन परिचय 

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