Dr. Durgesh Dixit Ki Rachnayen  डॉ. दुर्गेश दीक्षित की रचनाएं

Photo of author

By admin

कविवर Dr. Durgesh Dixit का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी सोमवार, संवत् 1995 को ग्राम कुण्डेश्वर जिला टीकमगढ़ (मप्र.) में श्रीमती रामकुँवर देवी की कुक्षि से हुआ। इनके पिता श्री महादेव प्रसाद दीक्षित साधारण कृषक थे। प्रारंभिक अध्ययन पं प्रेमनारायण जी मिश्र के सान्निध्य में रहकर किया।

सवैया
घूंघट ओट छिपे कित हैं, दृग चंचल सैन करें कजरारे।
घायल हाय हजार करें, जिमि वान सरासन सैं धर मारे।।।

खोल न घूँघट देव अबैं, नहिं बेयर में मर जेंय विचारे।

/> छूटत वान हुए बहुते ‘दुर्गेश’, हिया बिच घाव करारे।।
इस मत्तगयंद सवैये में चंचल नेत्रों वाली रमणी के नेत्रों का वर्णन किया गया है। घूँघट की आड़ लेकर रमणी के कजरारे चंचल नेत्र इशारे कर रहे हैं। जिस प्रकार किसी धनुर्धर के तीक्ष्ण बाणों से योद्धा गण घायल हो जाते हैं। उसी प्रकार उस सुन्दरी के चंचल कजरारे नेत्रों के इशारों से लोग घायल हो जाते हैं। अभी उसे घूँघट न खोलने दो अन्यथा उसके झोंके से लोग मर जायेंगे। इन बाणों के छूटने से अनेकों के हृदय में गहरे घाव हो गये हैं।

हेर हमार हिया हरती, करती मन कौ धन धान धनारी।
आनन पै मुस्कान धरी, लख पागल हो गये प्रेम पुजारी।।

चोट करें तनपै मनपै, अरु भीतर मार कटार दुधारी।
भूल गई सुधि आज मनो, उर आन बसी अति प्रानन प्यारी।।
सुन्दरी अपने मद भरे नेत्रों से देखकर हमारे मन को धन्य करती है। उसकी चेहरे की मधुर-मधुर मुस्कान से प्रेमियों का मन पागल हो जाता है। वह तन और मन पर प्रहार करती है और भीतर कटारी सी चुभ जाती है। वह प्रान प्रिया उनके हृदय में हमेशा के लिए बस जाती है।

कुण्डलियाँ
मोरे तौ मन में बसे, जे रतनारे नैंन।
गिरत गाजसी हिये पै, कर देती जब सैंन।।

कर देती जब सैन, चैन निठुँअई नई परबै।
जगत रात दिन रैन, जिया नई धीरज धरबैं।।

ऐसैं लग रओ आज, मुँदे है दुख के दोरे।
सोसत हैं ‘दुर्गेश’, भाग खुल गये हैं मोरे।।
इस कुण्डलियाँ में सुन्दरी के रतनारे नेत्रों के प्रभाव का वर्णन किया गया है। मेरे मन में लालिमायुक्त नेत्रों ने निवास कर लिया है। उस युवती के दृष्टि निक्षेपण मात्र से हृदय पर गाज सी गिर जाती है। जब वह नेत्रों से संकेत करती है तो तनिक भी शांति नहीं रहती। उस प्रेम की पीर के कारण रात दिन नींद नहीं आती और हृदय में धैर्य नहीं बंधता। ऐसा लगता है मानो दुर्दिन निकल गये हैं और भाग्योदय हो गया है।

कीसैं कयें अब को सुनत, मोरे मन की बात।
हेर हेर हँस काँ गई, बैठे मल रये हात।।

बैठे मल रये हात, हिरा गई कितै मुनइयाँ।
प्रेम बिरछ की आज, मिलै अब कैसें छइयाँ।।

सुन सुन कैं इठलाँय, कबै हम मनकी जीसैं।
सोसत रये ‘‘दुर्गेश’’ कबै हम मन की कीसैं।।

अपने मन की व्यथा कथा किससे कहें, कौन सुनेगा ? किसी दूसरे को सुनाने में लाभ नहीं है। वह मुस्कान भरी चितवन के साथ कहां चली गई। हम पछताते रह गये। मन को मोहित करने वाली प्रियतमा आँखों से ओझल हो गई है। अब हमें प्रेम वृक्ष की छाया का सुख कैसे मिलेगा ? यदि हम किसी से अपना दर्द सुनाने जाते हैं तो लोग उपहास करेंगे। दुर्गेश कवि सोचते हैं कि हम किससे अपने मन की बात कहें। (चुपके-चुपके दर्द सहना ही अच्छा है।)

दोहे
मुरक मुरक हेरत हँसत, लसत नबेली बाल।
मंद मंद पग धरत मग, हथिनी कैसी चाल।।
(इस दोहे में नवेली नारी की विविध क्रियाओं का चित्रण है।) मुड़-मुड़कर देखती और मुस्कराती हुई नव यौवना सुशोभित हो रही है। वह धीरे-धीरे मार्ग में पग रखते हुए हाथी की गति के समान चलती है।

कजर भरे अरु मद भरे, नये नैनन की चोट।
बूढ़न तक के मनन में, आ आ जा रई खोट।।
नवेली के कजरारे मद से भरे हुए नेत्रों के कारण वृद्धों तक के मन में कामोत्तेजन होने लगता है।

गोल गोल गुलगुले फल, लगे विटप तिय डाल।
कतरें को सुअना सजन, बैठ विटप पर हाल।
युवती रूपी वृक्ष की डाल पर गोल-गोल कोमल फल सुशोभित हो रहे हैं। उन सुस्वादु फलों का रसास्वादन प्रियतम ही प्रेमपूर्वक करता है। जिस प्रकार वृक्ष पर बैठकर तोते फलों को प्रेम से कुतरते रहते हैं।

कछू और टकराय सैं, दर्द होत अधिकात।
नैनन के टकराय सैं, मिसरी सी घुर जात।।
अर्थ – किसी अन्य अंग के टकराने से दर्द का अनुभव होने लगता है किन्तु नेत्रों की टकराहट से आनंद की अनुभूति होती है।

कीसैं कयें मन में गुनें, प्रेम प्रभाव विचित्र।
झूलत रत सोते परे, आँखन सामैं चित्र।।
प्रेम का प्रभाव बड़ा ही विचित्र है। किसी दूसरे से कहने की अपेक्षा मन ही मन उसका अनुभव करना अधिक सुखकर है। आँखों के सामने वह प्यारी मूर्ति रात दिन झूलती रहती है।

चौकड़ियाँ
मनहर मुँह मुस्कावन गोला, बरसैं बीती सोला।
अरुन अधर हैं ईगुर कैसे, मंजुल लोल कपोला।।

दाँतन की का सोबा बरनें, ज्यों मुतियाँ अनमोला।
धन्न धन्न जिन सुगर करन सै, रचो विधाता चोला।

भली बसत ‘दुर्गेश’ दई जा, जय शिव शंकर भोला।
(उपर्युक्त चौकड़िया में षोडस वर्षीया के अंग प्रत्यंगों के आकर्षण का वर्णन किया गया है।) सोलह वर्ष पूरे करने वाली इस नव यौवना के गोल मुँह की मुस्कान मन को हरने वाली है। लाल-लाल ईंगुर के समान अधर, मनोहर गोल कपोल अमूल्य मोती जैसी दंत पंक्ति। विधाता ने इस सुन्दर स्वरूप की संरचना जिन सुन्दर करों से की है वह धन्य है। कवि दुर्गेश कहते हैं कि हे भोले शंकर जी! विधाता द्वारा निर्मित इसका निवास उत्तम है।

पंछी पिया पिया कत रइयौ, कछू दिनन गम खइयौ।
नरवा नदियाँ भौत भरे हैं, भूल न उनपै जइयौ।।

अपनें ऊ बेचैन हिया में, धीरज तौ धर लइयौ।
उतई आँय ‘दुर्गेश’ बदरवा, मन की प्यास बुझइयौ।
इस चौकड़िया में विरह व्यथा का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि प्यासा हूँ। चिल्लाने वाले हे पपीहे! कुछ दिनों तक धैर्य रखना। नदी-नालों में बहुत पानी है किन्तु भूलकर भी उन पर मत जाना। अपने अशान्त हृदय में धैर्य धारण करो, बादल वही आयेंगे तब तुम अपनी-अपनी प्यास बुझा लेना।

नाहक नाँय माँय तुम हेरत, साजौ बुरओ नबेरत।
सब कँऊ समजौ बसत एकसी, का है ढको उगेरत।

कड़ने करिया सेत तिली में, तेल एक सौ पेरत।
ठिया जमा ‘दुर्गेश’ लेव नई, दिन कड़ जाने गेरत।।
इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने में कोई लाभ नहीं है। व्यर्थ में अच्छा-बुरा छांटते हो। सभी को एक समान समझना चाहिए क्यों आवरण को हटाते हो ? काली और श्वेत तिली में एक ही प्रकार का तेल निकलता है। एक में आस्था रखकर स्थिर हो लो अन्यथा इसीप्रकार चक्कर लगाते समय समाप्त हो जायेगा।

उनकी हेरन हँसन सुहानी, मन के बीच समानी।
भीतर भीतर उखरा बूँड़ी, हो रई ऐंचा तानीं।।

कान ललच रये उनकी प्यारी, सुनबे खौं वा बानीं।
ऐसैं लग रओ ई आशा पै, फिर नई जाबै पानी।

धोके में ‘दुर्गेश’ धमाकौ, हो रई खतम कहानी।।
नव युवती का मधुर-मधुर मुस्कराते हुए देखना मन के भीतर घर कर गया। भीतर-भीतर उथल-पुथल होने लगी। उनकी मधुर रस भरी वाणी को सुनने के लिए ये कान लालायित हैं। कहीं ऐसा न हो कि निराश होना पड़े। दुर्गेश कवि कहते हैं कि अचानक यह कहानी यहीं समाप्त न हो जाए अर्थात् अन्त में वे मुख मोड़कर चली न जाँय।

जीखौं हमनें अपनौ मानौं, वो भओ आज बिरानौ।
काम सटैं दुख बिसरै साँसौं, हो गओ आज अहानौ।।

तनक तनक कामन के काजैं, हो रओ भौत बहानौ।
ऊसई फूले फिरत भरम में, धोखौ होत दिखानौ।

देख चुके ‘दुर्गेश’ नयन सैं, जौ मतलबी जमानौ।
जिसे अपना मानकर हमने प्रेम किया वह पराया सिद्ध हुआ। अपना स्वार्थ-सिद्ध होने के पश्चात् लोग दुख भूल जाते हैं। वह उक्ति आज सच हो गई। थोड़े-थोड़े से काम के लिए आज बहाने किये जाते हैं। व्यर्थ संबंधों के भ्रम में भूल कर रहे हो, हमें तो धोखा होता दिखाई दे रहा है। कवि दुर्गेश कहते हैं कि हमने परख लिया है यह सारा संसार तो घोर स्वार्थी है।

ऊसई नियत डुला रये भैया, जा विष की बौलैया।
छिन भर की सुख सुविधा काजै, उड़त फिरत कनकैया।।

समर समर कैं पग रखियौ तुम, जा काँटन की सैया।
चार दिना की रात चाँदनी, फिर लगनें लौलैया।

कजन तुमई ‘दुर्गेश’ चूक गये, को है गैल बतैया।।
बिना सोचे समझे काम-वासना के चक्र में फँसना उचित नहीं है। यह तो विष की बेलि है। क्षणिक सुख प्राप्ति के लिए पतंग की भाँति फड़फड़ाना ठीक नहीं है। इस जीवन में संभलकर कदम रखना, ये कांटों की सेज है। ये सारे के सारे सुख कुछ ही दिन के लिए है। फिर जीवन की शाम होने वाली है। कवि दुर्गेश कहते हैं कि यदि तुम ही चूक गये तो फिर कोई रास्ता बताने वाला नहीं है।

उनखौं हम सैं मतलब नैया, उनके औरये सैयाँ।
ऊसई उनकी बाट निहारैं, गिन रये सरग तरैयाँ।

बिना बरेदी की जे बगरऊ, बिड़रत फिर रई गैयाँ।
इतै अकेले कौवा रै गये, उड़ गई सगुन चिरैयाँ।

पकरैं नई ‘दुर्गेश’ भूलकैं, ई बिरछा की छैयाँ।।
(अपनी प्रेमिका के बदले हुए दृष्टिकोण से प्रेमी मन पछता रहा है) वह सोचता है कि उन्हें (प्रेमिका को) हमसे कोई लगाव नहीं है उनका प्रेम दूसरे व्यक्ति से हैं। हम व्यर्थ ही इनके पीछे पागल बने फिरते हैं। जिस प्रकार बिना गाय चराने वाले के अपने मन से उजार करने वाली गैया घूमती रहती हैं उसी प्रकार इनके क्रियाकलाप हैं। यहाँ केवल कौवा बचे हैं सगुन की चिड़ियाँ पयान कर गई हैं। कवि दुर्गेश कहते हैं कि भूलकर भी इस वृक्ष की छाया नहीं पकड़ेंगे।

ऊसई उनपै गरब करत रये, पर की पीर हरत रये।
हमका जानें धोकौ हुइयै, अपनौ जान मरत रये।।

पूरी हुइयै आश अधूरी, भारी धीर धरत रये।
खा खा मन की मुलक मिठाई, रीतौ पेट भरत रये।

कीसैं कये ‘दुर्गेश’ विरह की, आगी बीच बरत रये।
(एक विरह का मारा प्रेमी विश्वासघात के कारण पीड़ित है। उसे अपनी प्रेम-पिपासा की पुष्टि की पूर्ण संभावना थी। मन ही मन मोदक खाते रहे फिरभी रहे भूखे के भूखे। न जाने कब से इस विरहाग्नि में जल रहे हैं। अब यह अन्तर्व्यथा किसके समक्ष प्रकट करें) व्यर्थ ही उनके ऊपर गर्व करते रहे और दूसरों के दुख मिटाते रहे।

हम क्या जानते थे कि हमारे साथ धोखा होगा ? अपना समझकर प्रान देने को तत्पर रहे। मन में यह धैर्य रखे रहे कि कभी मन की आशा पूरी होगी। मन के लड्डू खाकर खाली पेट भरने का झूठा संतोष करते रहे। कवि दुर्गेश कहते हैं कि आप बीती किसे सुनाये, विरह की अग्नि में अभी तक जलते रहे।

कड़ गई पूरी जबर जबानी, अबका खैंचातानीं।
जेठमास में सूकौ सबरौ, नेह नदी कौ पानीं।।

ठाँढे रै गये ठूँट पुरानें, दिन कड़ गये तूफानी।
अब का नदिया पार करें हम, लैकें नांव पुरानीं।

कैबे खौं ‘‘दुर्गेश’’ हमेशा, रै गई एक कहानी।।
यौवन के मद से अंधे होने का समय निकल गया है, अब कुछ आकर्षण की क्या आवश्यकता ? युवाकाल समाप्त होने के पश्चात् कामोद्दीपन होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। विषय-वासना का आवेग और काम का ज्वर तो युवावस्था में ही कष्ट देता है।

जिस प्रकार ज्येष्ठ के महीने में नदी का पानी सूख जाता है उसी प्रकार आयु ढलते ही शारीरिक शैथिल्य के साथ ही वासना का आवेग भी शांत हो जाता है। अब पुरानी नाव को लेकर हम नदी पार करने का प्रयास क्यों व्यर्थ में करें ? कवि दुर्गेश कहते हैं कि केवल कहने को कहानी शेष रह गई है। (केवल यौवन की स्मृति मात्र ही शेष रह जाती है।)

मनकी विषय वासना त्यागौ, मोंह नींद सैं जागौ।
विष सै बुझी वासना रससैं, मन अपनौ नईं पागौ।

इन इन्दिन खौं वश में करकें, संयम गोला दागौ।
तुमें शरम नई दुर्भावन कौ, पैरें फिर रये बागौ।

नेह नदी ‘‘दुर्गेश’’ सूक गई, तीर छोड़ कै भागौ।।
वृद्धावस्था के आते ही विषय वासना से मन को दूर रखना उचित है। इसलिये आशक्ति को त्यागकर मोह रूप नींद से जग जाओ। काम-वासना तो विष के समान है। अब तो संयम-नियम का विधिवत् पालन करते हुए इन्द्रियों को नियंत्रित रखना आवश्यक है। यदि हम इस अवस्था में भी इनसे दूर नहीं हट सके, तो इससे बड़ी लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है। कवि दुर्गेश कहते हैं कि नेह रूपी नदी सूख चुकी है अब इसका किनारा छोड़ ईश्वर की आराधना की ओर चले जाओ।

बूँदा माथैं लगें सुहानौ, बरनन करबैं कानौं।
जैसें चौरे नभमण्डल में, सूरज उगत दिखानौ

कै अदराते दमकत नौनौं, पूरौ चंदा मानौ।
जियै देख ‘दुर्गेश’ बिचारौ, झुक झुक जात जमानौ।
एक युवती के माथे पर लगी हुई गोल बिन्दी सुशोभित हो रही है। उसका कहाँ तक वर्णन किया जाय। वह आकाश मण्डल में उगते हुए प्रातःकालीन सूर्य के समान अथवा पूर्णमासी के आधी रात के चन्दा के समान प्रतीत हो रहा है। जिसके कारण सारा संसार उसकी ओर आकर्षित हो रहा है। कवि दुर्गेश उसे देखते हुए जीवित हैं।

जिनपै नशा काम कौ छा रओ, हँसी बसंत उड़ा रओ।
छरी छबीली छनकीली सी, तिरियँन खौ चमका रओ।।

कुहू कुहू कह कोयलियँन सैं, का का बोल सुना रओ।
कुंद कलिन सी नई बधुवँन सै हँस हँस दाँत दिखारओ।

लाल पात नये नये मूँगा से, ओंठन सैं इतरा रओ।।
बसंत ऋतु उन लोगों की दशा पर हँसी कर रहा जिन पर काम का नशा चढ़ा हुआ है। नवेली सुन्दर और चंचल नारियों की यौवन आभा को बढ़ा रहा है। कोयल की कुहुक और प्रकृति का मनमोहक सौन्दर्य काम-पिपासा की वृद्धि करने में समर्थ होता है। कुंद पुष्प की कलियाँ नववधू की तरह मानो हँसकर अपनी दंत पंक्ति दिखा रही हो। मूंगा की तरह लाल पत्तों को देखकर लगता है जैसे बसंत अपनी ठसक दिखा रहा हो।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

डॉ. दुर्गेश दीक्षित का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

Leave a Comment

error: Content is protected !!