Chhtrasal Ka Rajya छत्रसाल का राज्य

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महाराज Chhtrasal Ka Rajya काफी विस्तृत था। कालपी, जालौन, कोंच और एरच महाराज छत्रसाल के राज्य में थे। झांसी  पहले ओरछा  के राज्य में थी परंतु जब वहादुरशाह ने छत्रसाल महाराज से संधि की तब झॉसी छत्रसाल महाराज के पास आ गई थी। दक्षिण में महाराज छत्रसाल का राज्य नर्मदा तट तक पहुँचा था। सिरौन, गुना, धामौनी, गढ़ाकोटा, सागर, बाँसा, दमोह, मैहर ये सब छत्रसाल महाराज के राज्य में थे।

महाराज छत्रसाल, बाजीराव पेशवा पर बहुत प्रसन्न हुए । बाजीराव पेशवा का अद्भुत पराक्रम देख वीर छत्रसाल को बहुत खुशी हुई। राजा छत्रसाल ने बाजीराव को पन्ना में बुलाया और यहाँ उनका हर प्रकार से सम्मान किया। इस समय राजा छत्रसाल  वृद्ध हो गए थे। उन्होंने बाजीराव पेशवा को गले से लगा लिया और उनकी आँखें से आनंदाश्रु बहने लगे। राजा छत्रसाल का हार्दिक प्रेम देखकर बाजीराव पेशवा को भी बड़ा हर्ष हुआ । भरे दरबार में राजा छत्नसाल ने बाजीराव को अपना पुत्र माना।

जिस समय राजा छत्रसाल ने पेशवा को सहायता के लिये बुलाया था उस समय राजा छत्रसाल ने पेशवा को वचन दिया था कि वे पेशवा को भी अपना एक पुत्र समझेंगे और पेशवा को अपने राज्य का एक भाग देंगे। जब पेशवा युद्ध जीतकर पन्ना पहुँचे तब पेशवा को  अपने भाग की फिकर पड़ गे । राजा छत्रसात्न के कई पुत्र थे। उस समय राजाओं में कई रानियों के साथ ब्याह करने की अनुचित प्रथा थी । इस प्रथा के अनुसार राजा छत्रसाल  के भी कई ब्याह हुए थे।

कई लोग अपनी पुत्रियों का, उनकी रक्षा के निमित्त, किसी प्रसिद्ध वीर के साथ व्याह कर देते थे और  वीर का यह कर्तव्य समझा जाता था कि वह उस विवाह संबंध को स्वीकार करे। इस प्रकार राजा छत्रसाल के कई विवाह हुए थे और इनकी 17 रानियाँ थीं। मराठे शासकों और सरदारों में भी यही प्रथा थी। इन रानियों से छत्रसाल के 69 पुत्र थे। बाजीराव पेशवा को मालूम हुआ था कि राजा छत्रसाल के 56  पुत्र हैं।

संभव है कि उन्हें शेष पुत्रों के बारे मे मालूम न हुआ हो। पुत्रों की संख्या के बारे मे जानकर बाजीराव ने सेचा कि यदि राज्य का सतावनवाँ हिस्सा मिला तो बहुत ही कम हुआ। इस कारण बाजीराव चाहते थे कि ऐसे खुशी के मौके छत्रसाल  कोई बड़ा हिस्सा देने का वचन दे दें। जब राजा छत्रसाल ने बाजीराव को अपना पुत्र कहा और बाजीराव को पुत्रों मे बैठने की आज्ञा दी तब बाजीराव पेशवा को संतोष नहीं हुआ।

बाजीराव पेशवा ने कहा कि महाराज आपके 56  पुत्र हैं इनसे मै कहाँ बैठूँ?  राजा छत्रसाल बाजीराव के वाक्यों का अर्थ समझ  गए। वे सवय बहुत उदार थे। उन्हें अधिक राज्य का लालच न था और वे चाहते थे कि उनके पुत्र भी लालची न हों। जो कुछ राज्य उन्होंने लिया था वह स्वार्थ बुद्धि से नहों किंतु हिंदू जनता की रक्षा के हेतु परमार्थ बुद्धि से लिया था। वे जानते थे कि महाराष्ट्र लोग हिंदू धर्म की रक्षा उसी प्रकार कर सकेंगे जिस प्रकार कि बुंदेले करते हैं।

बाजीराव पेशवा की योग्यता के विषय में भी उन्‍हें  कोई संदेह न था। उन्होंने तुरंत बाजीराव पेशवा का उत्तर दे दिया कि मेरे पहले पुत्र हृदयशाह, दूसरे जगतराज और तीसरे आप हैं। आप इनके ही समीप बैठिए।  बाजीराव राजा छत्रसाल का अर्थ  समझ  गए और राजा छत्रसाल से राज्य का तीसरा भाग देने की प्रतिज्ञा लेकर बहुत प्रसन्न हुए।

इनके पश्चात्‌ वृद्ध छत्रसाल महाराज ने स्वयं उठकर बाजीराव पेशवा की अपने पुत्र जगवराज के पास बैठाया। उन्हें उत्तम वस्त्र और नजराने दिए और उसका बड़ा मान -सम्मान किया। फिर हृदयशाह ने और जगतराज ने पेशवा को अपना भाई मानकर उनसे पाग बदली। इसके पश्चात्‌ महाराजा छत्रसाल का दरबार बर्खास्त हुआ । बाजीराव पेशवा फिर थोड़े दिन पन्ना मे रहे और महाराज छत्रसाल  की आज्ञा लेकर दक्षिण की ओर चले  गए।

अब महाराज छत्रसाल को यवनों से कोई डर न रहा और वे  स्वतंत्रतापूर्वक  राज्य करने लगे। महाराज छत्रसाल ने आत्मशक्ति के भरोसे पर ही असंभव दिखने वाले कार्य कर डाले हैं। जिस समय महाराज छत्रसाल  के पिता मारे  उस समय महेवा जागीर की आमदनी के सिवाय कुछ न था।

महाराज छत्रसाल के पिता चंपतराय ने अपने बाहुबल से काल्‍पी की जागीर तो  ली थी, परंतु ओरछा वालों  ने यह जागीर भी चंपतराय के हाथ में नही  रहने दी। चंपतराय को उनके मरते समय यही महेबा की जागीर के हिस्से की आय मिलती थी। जो आय चंपतराय के हिस्से में पड़ती थी वह ३५०रुपये वार्षिक थी। चंपतराय के मरने पर यह इनके पुत्रों मे बॉटी गई और छत्रसाल  के हिस्से में तीन आने रोज की आमदनी पड़ी होगी ।

इतनी आमदनी वाले पुरुष का छत्रपति राजा हो जाना पृथ्वी पर आश्चर्य जनक बात है। महाराज छत्रसाल ने संसार को दिखला  दिया कि मनुष्य के लिये कोई बात असंभव नहीं। महाराज छत्रसाल को उनके कुटुंबियों ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध न करने की सलाह दी।  परंतु महाराज छत्रसाल  को अपनी आत्मा पर विश्वास था और  जो कार्य  उन्होंने हाथ में लिया था उस कार्य के लिये महाराज छत्रसाल ने जो  संकल्प किया वह भी दृढ़ रहा और अंत में इश्वर ने उन्हें विजय दी।

इस समय भारत को यवनों के दुराचारी शासन से मुक्त करने के कार्य मे जो वीर पुरुष सफल हुए उनमें महाराज छत्रसाल और महाराज शिवाजी अग्रगणीय हैं। दोनों का जीवन भी अधिकतर समान ही रहा।  जिस प्रकार शिवाजी एक मराठे जागीर- दार के पुत्र थे उसी प्रकार छत्रसाल भी एक बुंदेले जागीरदांर के पुत्र थे। यवनों के दुराचार से प्रजा  विचलित हो गई थी । दोनों ही वीरों ने प्रजा को  इस दुराचार से मुक्त करने का प्रण  बाल्यकाल में ही कर लिया था।

दोनों वीरों का ईश्वर की कुपा से, धर्मगुरु भी समान ही मिल गए थे। महाराज छत्रसाल के धर्मगुरु प्राणनाथजी महाराज थे। ये जामनगर के क्षेमजी नामक एक धनी सेठ के लड़के थे और इनका पहला नाम मेहराज ठाकुर था। एक धनी सेठ के पुत्र होने  पर भी ये सदा ईश्वर की आराधना में लगे रहते थे । बाद मे इन्होंने वैराग्य ले लिया। वैराग्य ले लेने के पश्चात्‌ इनका नाम प्राणनाथ हुआ।

प्राणनाथजी के गुरु का नाम देवचंद था। प्राणनाथ जी  सदा छत्रसाल की सहायता करते रहते थे। प्राणनाथजी बुंदेलखंड में जूदेव के नाम से प्रख्यात हैं। इनकी समाधि पन्ना के निकट बनी है। इसी प्रकार महाराज शिवाजी के गुरु रामदास समर्थ  थे। इन्होंने भी शिवाजी का देश स्वतंत्र करने के पवित्र कार्य में सदा सहायता की। महाराज छत्रसाल और बाबा प्राणनाथ का बुंदेलखंड में उसी प्रकार का आदर है जिस प्रकार देवताओं का होता है। इसी प्रकार  महाराष्ट्र मे शिवाजी और रामदासजी का आदर है ।

उत्तरीय सीमा यमुना नदी थी। महाराज छत्रसाल  का राज्य कीर्ति वर्मा चंदेल  के राज्य से बड़ा था। महाराज छत्रसाल  प्रजा  का पालन बड़े प्रेम से करते थे। प्रजा उनसे बहुत संतुष्ट थी।महाराज छत्रसाल  के राज्य में प्रत्येक कार्य महाराज की ही अनुमति से होता था। सारे भारत से इस समय शासक के कहने के अनुसार शासन होता था।  मंत्रिमंडल को कोई विशेष अधिकार नही  थे। छोटे से छोटा मनुष्य भी महाराज के पास जाकर अपनी फर्याद सुना सकता था।

राज दरबार मे मंत्रिमंडल रहता था। राजा अपने इच्छानुसार मंत्रिमंडल  से सहायता लिया करते थे । इस मंत्रिमंडत में प्रत्येक जाति के दो  प्रतिष्ठित पुरुष रहते थे। तहसीलों  में भी जाति की सभाएँ थीं और इन जातियों की सभाओं को अपनी जाति के मनुष्यों को दंड देने के अधिकार थे।

महाराज छन्नसाल के समय में बुन्देलखण्ड मे कई प्रसिद्ध कवि हुए हैं जिन्होंने हिंदी के साहिय को  उत्तम कविताओं से विभूषित कर दिया है। इन कवियों की भाषा बुन्देलखंडी ही थी, परंतु किसी किसी कवि की भाषा में ब्रजभाषा का मिश्रण है। कवि केशवदास महाराज छत्रसाल  के समय के पहले के थे। इनका पद ओरछा राज्य में था । इनकी बनाई रामचंद्रिका नामक पुस्तक छत्रसाल  महाराज को बहुत प्रिय थी।

केशवदास का जन्म विक्रम संवत्‌ 1612  मे हुआ और उनका देहांत 1674  में हुआ । केशवदास के बड़े भाई बलभद्र मिश्र भी बुंदेलखंड के कवियों में हैं। ये छत्नसाल महाराज के दरबार मे कुछ दिन रहे हैं ।

चिंतामण प्रसिद्ध कवि भूषण के बड़े भाई थे। इनका जन्म विक्रम संवत्‌ 1666  मे हुआ था । ये बुंदेलखंड मे कम रहे और बाहर अधिक रहे । नागपुर के भोंसले मकरंदशाह के यहाँ भी ये कवि रहे हैं।

कविराज भूषण कानपुर के समीप तिकवॉपुर नामक गाँव में पैदा हुए थे। इनका जन्म विक्रम संवत्‌ 1670  में हुआ था ।  ये महाराज छत्रसाल के यहाँ और महाराज शिवाजी के दरबार मे रहा करते थे। इनकी कविता में बुन्देलखंडी और ब्रजभाषा का मिश्रण है, परंतु भाषा अधिकतर बुन्देलखंडी ही है इनकी कविताओं में शिवाबावनी और छत्रसाल दशक नामक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। शिवाबावनी महाराज शिवाजी के यश के वर्णन मे लिखी गई है और छत्रसालदशक में महाराज छत्रसाल  के यश का वर्णन है। भूषण की कविताओं मे बीररस की ही प्रधानता है । भूषण की मृत्यु संबत्‌ 1772  मे हुई।

मतिराम, भूषण कवि के सगे भाई थे। इनका जन्म संवत्‌ 1674 का है और इनकी मृत्यु विक्रम संवत्‌ 1773  में हुई। ये बूँदी के महाराज भावसिंह के यहाँ रहा करते थे। इनकी कविताओं में शृंगार रस ही अधिक है । ये बुन्देलखण्ड में भी रहे हैं और महाराज शाहू जी के ऊपर भी इन्होंने कविताएँ की हैं। महाराज शाहू के ऊपर जो  कविताएँ इन्होंने की हैं वे वीररस की हैं । बूँदी के महाराज भावसिंह  के ऊपर इनकी कई कविताएँ हैं। इनकी कविताओं की भाषा भी बुन्देलखंडी है।

गोरेलाल पुरोहित (उपनाम लाल कवि ) वीररस के ही कवि थे। इनका जन्म-काल विक्रम संवत्‌ 1714  के लगभग माना जाता है। ये महाराज छत्रसाल के दरबार मे रहते थे और इनकी मृत्यु महाराज छत्रसाल के एक युद्ध में हुई। इन्होंने छत्रप्रकाश नामक पुस्तक दोहे चोपाइयों में लिखे  है । इनकी भाषा भी बुन्देलखंडी है।

नेवाज कवि महाराज छत्रसाल  के समय में हुए थे। ये जाति के ब्राम्हण  थे। इनका जन्म अंतर्वेद के किसी स्थान में, संवत्‌ 1734  के लगभग, हुआ था । ये  रसिक कवि थे। इनके ग्रंथों मे शकुंतला नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है।

महाराज छत्रसाल के दरबार में कुछ बाहर के  कवि भी आए थे। कवियों का महाराज छत्रसाल के दरबार में बहुत आदर होता था, इसलिये अनेक कवि आया करते थे और पुरस्कृत होकर जाया करते थे। जो कवि इस दरबार में आए उनमें पुरुषोत्तम, पंचम और लालमणि के बनाए कवित्त महाराज छत्रसाल की प्रशंसा में मिलते हैं ।

महाराज छत्रसाल के समकालीन अनन्य  नाम के एक प्रसिद्ध कवि हो गए हैं।  अनन्य दतिया राज्य के अंतर्गत  सेंहुड़ा के निवासी और जाति के कायस्थ थे। दतिया के राजा दलपतराय के पुत्र और सेहुँड़ा के जागीरदार पृथ्वीचंद के ये गुरु थे। इनका दूसरा नाम अक्षर अनन्य भी है। इनका जन्म संवत्‌ 1710  के लगभग हुआ । महाराज छत्रसाल इनकी कविताओं को पसंद करते थे एक बार इनको महाराज ने दरबार में भी बुलाया था। पर सुनते हैं कि अनन्य कवि नही  आए।  अनन्य कवि की कविता में तत्वज्ञान और धर्मोपदेश भरा रहता था। दुर्गासप्तशती का हिंदी-अनुवाद सबसे पहले अनन्य कवि ने ही किया था।

दतिया राज्य से अनन्य कवि को एक जागीर मिली थी । इस जागीर पर अब भी अनन्य कवि के वंशजों का अधिकार है। अनन्य  कवि की पुस्तकों मे ज्ञानपचासा, राजयोग और विज्ञानयोग प्रसिद्ध हैं।  इनसे और महाराज छत्रसाल से भी इसी विषय पर प्रश्नोत्तर हुए थे ।

राय न देष न ह न सोक न बंध न मोक्ष की आस रही है।
बेर न भीति न हार न जीत न गारि न गीत सुरीति गही है ॥

रक्त विरक्त न मान कछू  शिवशक्ति निरंतर जोति छही हे ।
पूरन ज्ञान अनन्य भने अवधूत अतीत की रीति यही है ॥

मूरख के प्रतिमा परमेसुर घालक रीति गद्दी सु ल्ही है।
उत्तम जाति सुरूप विचार सु आतम ध्यान में बुद्धि दुई है ॥

एक बेतत्व की मांडू सबे कह केवल्ष ब्रह्म बसे सु बही है ।
पूरन ज्ञान अनन्य भने सरवश्नि को शिवशक्ति मई है॥

कोड कहै बैकुंठ बसे प्रभु काठ कहें नित्र धामहु लीचे।
कोड कहे ब्रह्मांड परे परत्रद्म सबे कहे सो अवधीचे ॥

वस्तु भ्रत्मत्त अनन्य भने जिमि आपुद्दि गोप्य करे इग मीचे ।
ध्योम समान अखदित देश्वर जैसोई ऊपर तैसाई नीचे॥

हरि में हरि सो सुर में सुर से हर में हर थे सुखदायक है ।
मर में नर से तर में तरु सों घर में घर सें घर घायक है ॥

बट में बट सो है अनत्य भने घट में घट सों घट नायक है।
हममें हमसे तुममें तुम से सब में सबसे सब ज्ञायक है ॥

हक निगुन रूप निहपत हैं इक सगुन रूप ही देखत हैं ।
इक जोति सुरूप बखान करें हृक सून्य सुरुपहिं ल्लेखत हैं ॥

इक मानत हैं अवतारन के करता विधि एक बिसेखत हैं ।
सरवज्ञ से धन्य अनन्य भने अभु में सबके सब देखत हैं ॥

जबि वेद पुरानन में भरमे! जमि संत अपतंतन से उरसे ।
जनि इंद्विन के वश भूल रहे! जनि राजत तामस में छुरको ॥

ज्हि आतम ब्रह्म प्रमोद रहे जनि जीव दूसा गद्दि के उरके ।
करि तत्त्व विचार अनन्य भने क्रम ते इन कर्मन तें सुरको ॥

हरि में हर में सुर में नर में गिरि में तरु में धर मंडित है।
तन में मन में घन मे जन में बन में घर में सुअहंडित है ॥

हम में सब में सु अनन्य भने परिपूरन ब्रह्म अखंदित हे ।
सब्र झंगन में सरवत् वहे सरवज्ञ ज्ञहै सोह पंडित है॥

अनन्य के प्रश्न
धर्म की टेक तुम्हारे  बँधी नृप दूसरि बात कहैं हुल पावत।
टेक न राखत हैं हम काहु की जैसे को तैसे प्रमाण बतावत ॥

माने कोऊ (जु) सल्ली या चुरी नहिं आसरो काहु को चित्त में स्यावत ।
टेक विवेक ते बीच बढ़ा इसका किहि कारण राज बुलावत ॥ १ ॥

जो धरिए हुठ टेक उपासन तो चरचा में ( पुथि ) चित्त न दीजे।
जो चरचा में राखिए चित्त ते ज्ञान विषे हठ टेक न कीजे॥

जो भरिए उर ज्ञान विचार तो अक्षर सार क्रिया गुन लीजे।
अपर में उर है त्तर है त्तर अक्तर अत्तरातीत कहीजे॥ २॥

प्राणी सबै हर रूप कहावत अत्तर अह्म को ताम प्रमानी ।
मिंदुत स्वप्त सुषुप्ती जागृति ब्रह्म तुरीय दशा ठहरानी ॥

क्यों तिहि में सुपना अबरह्म भासति छुत्न नरेश विचत्तण -ज्ञानी।
अचर है कि अनपचर है हम के जिखि भेजवी एक जबानी ॥ ३ ॥

छुन्न नरेश विचित्र महा अरु संगति घामी बड़े घड़े ज्ञानी।
शान अखंड स्वरूप की राखत भाषत पूरण ब्रह्म अमानी ॥

क्यों शिशुपात्त की ज्योति गद्टे उततें फिर कान्ह में आय समानी ।
खंडित है कि अखंडित है हमकों लिखि भेजवी एक जबानी ॥

नारितें हेत नहीं नर रूप नहीं नर तें पुन नारि बखानी।
जाति नहीं पत्रटे सुपने मरेहू तें भूत चुरैल् बखानी।॥

क्यो सखिया निज धास की राजि मई नर रूप सो जाति हिरानी ।
वेद सही कियों बाद सही हमके। लिखि भेजवी एक जवानी ॥

जाति नहीं पत्नटै नर नारि की क्‍यों सखियाँ नर रूप बखानी।
जे नर रूप भये। तो भये। पुरुषोत्तम सो ऋतु कैसे के मानी ॥

जो पुरुषोत्तम सें ऋतु होय तो इते कित नारिन के रस सानी।
यह द्विविधा में प्रमाण नहीं हमका लिख भेजवी एक जबानी ॥

महाराज छत्रसाल के उत्तर—
दूर करहु द्विविधा दिल सो अरु ब्रह्म खरूप को रूप घखाने।।
जागृति सुप्ति सुधुध्ति हु के तजि का तुरिया उनको पहिचाने॥

तीनहू श्रेष्ठ कह्दे सब वेद सो पूतर ऋषी हमहू ढहराने।।
कारण ज्यों! भसमासुर तारण कामिचि से प्रभु आप दिखाने | १ ॥

वाद भय पुरुषोत्तम से अरू बेह बढ़ावन को उर आनी।
ब्रह्म प्रताप तें थों पत्नटे तलु ज्यों पलटे सब रंग से पानी॥

महाराज छत्रसाल स्वयं कवि थे। उन्होंने कृष्ण चरित्र नाम का एक काव्य ग्रंथ लिखा है। इनके लिखे कई राजनीति से भरे पत्र भी हैं जो  कविता में लिखे गए हैं ।

जे नर नारि कहे हमको अजहूँ तिनकी मति जाति हिरानी ।
भूत चुरेल अहै सब्र रूठ महा हमतों सुव लीजिए एक जवानी ॥

एक समय पतिनी पति से हठ पूछी यही दिज्न घास की बानी ।
कही नहीं करि देव कही भए सोरहु अंश कल्ना के निधानी ॥

इत ते शिशुपाल की ज्योति गई उत्त ते फिर कृष्ण में अनि समानी ।
खंडित ऐसे अखंदित हैं हम सें सुचि लीजिए एक जबानी ॥

राखत हैं हम टेक उपासन वात यथारथ वेद घखानी ।
पीवत हैं चरचा करि अप्नत बात विज्ञासन के रस सानी ॥

महाराज छत्रसाल की राजधानी कुछ दिनों तक मऊ के निकट महेबा में रही, तत्पश्चात्‌ पन्ना में हुईं। छतरपुर नामक नगर महाराज छत्रसाल का बसाया हुआ है। यह नगर बाबा लालदास नाम के एक संत की  आज्ञानुसार महाराज छत्रसाल ने बसाया था।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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