Bundelo Ki Utpatti  बुंदेलों की उत्पत्ति

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By admin

जिस प्रदेश को आजकल बुंदेलखंड कहते हैं, परंतु पूर्व में इसे जेजाभुक्ति और  जुझौति कहते थे। इसका “बुंदेलखंड” नाम पड़ने का यही कारण है कि यहाँ पर बहुत समय तक  बुंदेले ठाकुरों का राज्य रहा है। Bundelo Ki Utpatti  के बारे मे कहा जाता है कि इनके पूर्वजों ने विंध्यवासिनी देवी की उपासना की हो इसी से “बुंदेला” नाम विंध्य से बहुत कुछ संबंध रखता है। अब  इस नामकरण की दंतकथाओं की उलझन में न पड़ ऐतिहासिक बातों का उल्लेख करना ठीक होगा।

बुन्देलखंड में बुंदेलों का उद्भव और राज्य काल – Bundelo Ka Udbhav 

चंदेल राजा परमर्दिदेव के समय गढ कुंडार एक किला था। यहाँ पर राजा परमर्दिदेव की ओर से शिवा नाम का एक परमार ज्ञत्रिय किलेदार था और वही यहाँ की सेना का अधिनायक भी था। इसकी अधीनस्थ सेना में खूबसिंह नाम का एक खंगार था। यह सदा स्वतंत्रता का स्वप्न देखा करता था।

जब बि० सं० 1239 में पृथ्वीराज चौहान से परमर्दिदेव हार गये और शिवा भी लड़ाई मे मारा गया तब खूबसिंह स्वतंत्न हो गया और इसी युद्ध से गोंड़ लोग भी पूर्वी-पश्चिमी भाग के मालिक बन बैठे । राजा पृथ्वीराज चौहान वि० सं० 1249 में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी से युद्ध में हारा और कैद किया गया। तब उसके सरदार लोग जो धसान नदी के पश्चिमी भाग में सूबेदार थे, स्वतंत्र हो गए। किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक की चढ़ाई के पश्चात ये सब उसके अधीन हो गए और जगमनपुर में एक अफगान सूबेदार नियुक्त किया गया।

इसी समय बुंदेले भी अपना राज्य स्थापित करने लगे । झाँसी के आस-पास खंगारों का राज्य बहुत दिनों तक बना रहा, मुसलमानों के आने के पश्चात भी ये लोग कुछ भाग पर राज्य करते रहे । इससे बुंदेलों ने राज्य के लिये पहले खंगारों से मुठभेड हुई। इनसे राज  लेने वाले बुंदेले राजा का नाम सोहनपाल है ।

इसमें संदेह नहीं है कि बुंदेलों की उत्पत्ति काशी के गहरवार राजघराने से है। पूर्वकाल मे इनका राज्य बुंदेलखंड की पश्चिमी सीमा तक फैला हुआ था। परंतु यह कब और  कैसे निकल गया इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगता । जिस भाग पर गहरवारों का राज्य था उसे अब भी गहोरा कहते हैं। इसके अधिकांश भाग पर फिर चेदि देश के राजाओं ने अधिकार कर लिया था। इसी प्राचीन गहरवार राजवंश से बुंदेलों की उत्पत्ति हुई है ।

करनपाल के वीर, हेमकरन और अरिब्रम्हा नाम के तीन लड़के थे । हेमकरन था तो  छोटा पर बड़ा बुद्धिमान था। इससे पिता का इस पर विशेष प्रेम था, जिससे पिता ने इसे राजगद्दी दी और दूसरों को जागीरें दीं। पिता के मरते ही वीर और अरिब्रम्हा ने हेमकरन से राज्य छीन लिया। इससे उदास होकर इसने काशी के शनि  राजा के पुरोहित गजाधर पंडित की सम्मृति से विंध्यवासिनी देवी की आराधना की और  वैशाख सुदी 14  संबत्‌ 1105  को वरदान पाया। 

वि. सं. 1112 बुंदेलखंड मे चंदेलों के राज्य का हास होना आरंभ हो चुका था । बुंदेलखंड का पश्चिमी भाग मुसलमानों के हाथ में था और उत्तरीय भाग का अधिकांश भाग भी मुसलमानों के अधिकार में आ गया था। दक्षिणी भाग मे गौंड लोग अपना राज्य जमाने के प्रयत्न मे लगे हुए थे। जो  राज्य इस समय थे वे सब शक्ति के सहारे ही चल रहे थे। जो शक्तिमान होता था वही अपनी सेना के जोर से स्वतंत्र शासक बन सकता था । दिल्ली के मुसलमान शासक अपने राज्य में सूबेदार नियुक्त कर दूर से  प्रदेशों का शासन करते थे। पर ये  ही लोग केंद्रस्थ राज्य की शक्ति- हीनता से लाभ उठाकर स्वतंत्र बन जाते थे।

वुंदेलखंड में मुसलमानों का राज्य पक्के तौर से बिलकुल ही नही जम पाया। थोड़े दिनों तक इनका राज्य यदि कहीं रहा भी तो  बुंदेले इनकी ओर से सूवेदार रहे और वे ही फिर स्वतंत्र बन बैठे। अकबर के समय से बुंदेलखंड मे मुसलमानों का जोर रहा, पर वह भी बहुत दिनों तक नही  ठहर सका।

देश की ऐसी अनिश्चित दशा में हेमकरन को अपने पराक्रम द्वारा राज्य स्थापित करने का अच्छा मौका हाथ लगा ।  यह पराक्रमी और शूर तो  था ही, थोड़ी-बहुत सेना इकठ्ठी कर इसने अपना स्वतंत्र राज्य कायम कर लिया। परंतु इसने कितना देश जीता था, इसका पता लगना कठिन है। अलबता ऐसा मालूम होता है कि इसने मिरजापुर के पास गहरवारपुरा ( गौर ) नाम का एक गॉव बसाया था। इसे पंचम भी कहते थे। यह लगभग 16  वर्ष राज्य कर वि० सं० 1128  मे मृत्यु हो गई । इसके लड़के  नाम वीरभद्र था। छत्रप्रकाश मे इसे बीर लिखा है ।

वीर  ( वीरभद्र ) अपने पिता के मरने पर वि० सं० 1128 में, गद्दी का अधिकारी हुआ । इसके 4  विवाह हुए थे। पहला विवाह डोंडियाखेरे के बैस क्षत्रिय रामसिंह की कन्या से हुआ ।  दूसरा रामपुर के बघेल राजा की पुत्री से, तीसरा छिनपरसोंदा के वैस राजा प्रेमचंद की कन्या से, चौथा मानपुर के चौहान राजा छत्नसाल की पुत्री से और पॉचवॉ विवाह पाटन के प्रतापपाल तोमर की कन्या से हुआ था ।  वीर भी अपने पिता के समान पराक्रमी था। इसने सारे वुंदेलखंड से मुसलमानों को निकाल देने का निश्चय किया।

सबसे पहले इसने भदोरिया राजपूतों से युद्ध कर अंटेर ले लिया । फिर अफगान सरदार तातार खाँ के साथ जगमनपुर में युद्ध किया । इस युद्ध में तातार खाँ और  उसके सब साथी सरदार हार गए, जिससे उसके अधिकार का वह सब प्रदेश जो कालपी के आस-पास था वीर ने ले लिया । ऐसा कहते हैं कि इस समय तातार खाँ के  अधीन छोटे-बड़े 72 सरदार थे। किसी किसी का ऐसा भी मत है कि वीर ने कलचुरियों से कालिंजर का किला भी ले लिया था ।

इस प्रकार वीर (वीरभद्र) ने बुदेलखंड के अधिकांश हिस्से पर अपनी राज – सत्ता स्थापित कर ली और महोनी अपनी राजधानी बनाई ।  वीर ने अपनी तलवार के जोर से बहुत सा प्रदेश अपने अधिकार मे कर लिया, इससे इसका नाम लोहधार पड़ गया। इसकी दूसरी रानी से रणधीर, तीसरी से करनपाल और पॉचवीं से हीराशाह, हंसराज और कल्यानशाह नाम के  पुत्र हुए। यह 16  वर्ष राज्य कर बि० सं० 1144 में मृत्यु हो गयी । इसका ज्येष्ठ पुत्र रणधीर छोटी ही उम्र मे मर  गया था इससे करनपाल राजगद्दी पर बैठा।

करनपाल भी अपने पिता के समान पराक्रमी था। इसके चार विवाह हुए थे । पहला विवाह हिरदेशाह परिहार की कन्या से हुआ था। इसके कन्नरशाह, उदयशाह और जामशाह नाम के तीन लड़के हुए थे । दूसरा विवाह मोरी के अमरशाह चेोहान की कन्या से हुआ था। इससे शौनकदेव और  नौनकदेव नाम के दे लड़के हुए थे। तीसरा विवाह जसवंतसिंह राठौर की कन्या से और चौथा कान्हपुर के राठौर खुमानसिंह की कन्या से हुआ था । इससे वीरसिंह नाम का पुत्र हुआ था। इन्होंने बनारस के मानसिंह घाट का जीर्णोद्वार करवाया था। इसे अब मणिक्नर्णिका घाट कहते हैं। ये बड़े दी दानी थे।

करनपात की मृत्यु के पश्चात्‌ वि० सं० 1169 में कन्नरशाह राजा हुआ । यह 18  वर्ष राज्य कर निसंतान मर गया। इसके पीछे इसका भाई शौनकदेव वि० सं० 1187 मे गद्दी पर बैठा। इसका विवाह पृथ्वीपुर के मजबूतसिंह राठौर की कन्या से हुआ था, पर कोई संतान नहीं हुईं। यह 22  वर्ष राज्य कर स्वर्गवासी हुये इनकी मृत्यु के पश्चात्‌ इसका भाई नौनकदेव वि० सं० 1209 में गद्दी पर बैठा। इसका विवाह इंदुरखा के बल्लारशाह गौड़ की कन्या से हुआ था, पर कोई संतान नहीं हुई ।

वि० सं० 1226 मे नौनकदेव की मृत्यु हो गई , परंतु इसने अपनी मृत्यु के पूर्व ही अपने भतीजे बीरसिंह के पुत्र मोहनपति को बि० सं० 1219 में गोद लेकर उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था ।  इससे यही गद्दी पर बैठा । पर इसके भी कोई संतान न हुई इससे यह उदास हो राजगद्दी अपने भाई अभय भूपति को दे तप करने चला  गया । अभय भूपति वि० सं० 1254 में राजा हुआ था, और इसने 18 वर्ष राज्य किया था।

अभय भूपति के समय मे राज्य की वृद्धि नहीं हुईं। इसके दो  विवाह हुए थे। पहला विवाह नीमरान के जगशाह चौहान की कन्या से और दूसरा अंटेर के गौड़ राजपूत तेजसिंह को कन्या से हुआ था। ज्येष्ट राजमहिषी से अर्जुनपाल और महेशपाल नाम के दो  पुत्र हुए थे। यह वि० सं० 1272 में अपने पुत्र अर्जुनपाल को राज्य दे काशी चले गये ।

अर्जुनपाल महोनी से ही राज्य करते रहे । इनके तीन विवाह हुए थे। पहला शाहाबाद के मुकुटमणि चैाहान की कन्या से और दूसरा हीरासिंह तोमर की कन्या  से हुआ था। इसके सोहनपाल नाम का पुत्र हुआ था। इसका तीसरा विवाह वीरम के धंधेरे ठाकुर ईसुरीसिंह की कन्या से हुआ था। इससे वीरपाल और दयापाल नाम के दो लड़के हुए थे। वीरपाल के वंशज आज कल  कोंच के पास बीओना, विरोदा, कुरार और देवगाँव में रहते हैं। अर्जुनपाल वि० संवत्‌ 1288 में स्वर्गवासी हुए।

अर्जुनपाल के मरने पर क्या-क्या हुआ यह ते पूर्ण रूप से विवरण  नहीं मिलता पर ऐसा पता लगता है कि वीरपाल अपने भाई सोहनपाल को गद्दी से उतार स्वयं राजा हो गया । इसने सोहनपाल को  भरण-पोषण के लिये कुछ जागीर दे दी पर यह बात उसे बहुत ही बुरी लगी । इससे सोहनपाल जागीर छोड़ घर से निकल गया। वह कुछ दिनो तक इधर-उधर घूमता रहा पर अंत मे गढ़ कुंडार आया ।

यहाँ पर खूबसिंह खंगार का वंशज हुरमतसिंह राज्य करता था। सोहनपाल ने इससे महोनी निकालने के लिये सहायता मांगी । परंतु हुरमतसिंह ने सहायता देना स्वीकार न किया । सोहनपाल हिम्मत नही हारा और अपने उद्देश्य में लगा रहा । इस समय राजपूत लोग मुसलमानों के आक्रमणों से बहुत ही निर्बल हे रहे थे। इससे मुसलमानो ने इनके साथ वैवाहिक संबंध करने का प्रयास किया पर राजपूतों ने इसे स्वीकार नही ।

सोहनपाल बढ़ा ही साहसी था । इसने अपना स्वतंत्र राज्य कायम करने की ठान ली  थी। इससे यह धीरे धीरे लोगों को अपनी ओर मिलने लगा और राजपूत भी दिल्ली से सहायता देने लगे। अंत  में इसके पास एक बड़ी सेना हो गई। इसने पहले हुरमतसिंह से सहायता मॉगी थी पर उसने न दी थी, इससे सोहनपाल ने उससे बदला लेना चाहा और अपनी सेना लेकर वेतवा के किनारे डेरा डाल दिया।

यहाँ से इसने अपने पुत्र सहजेंद्र को, अपने पुरोहित और धरि नामक प्रधान के साथ, गढ़ कुंडार के राजा हुरमतसिंह के पास दुबारा भेजा । इस समय इसने अपने साहूकार विष्णु पॉड़े के कहने पर सहायता देना तो  स्वीकार कर लिया, परंतु अपनी लड़की का विवाह राजकुमार के साथ करने का वचच लेना चाहा ।

इसे सुन सोहनपाल बहुत दुखित हुआ और  उसने वि० सं० 1314 मे इस पर चढ़ाई कर दी । इस समय इसे सिर्फ परमार और धंधेरों ने ही सहायता दी और चौहान, कछवाहे, शिक्षिगा तथा तोमरों ने सहायता देने से मुँह मोड़ लिया ।  हुरमतसिह लड़ाई मे हार गया। इससे सोहनपाल ने गढ़ कुंडार पर अधिकार कर लिया ।

इस समय कछवाहे आदि ज्ञत्रियों ने सोहनपाल को मदद नही दी थी इससे इसने इन सब क्षत्रियों के साथ वैवाहिक संबंध बंद करा दिया । इसका विवाह भवानी के रघुनाथसिंह धंधेरे की कन्या से हुआ था। इससे इसके सहजेंद्र और रामसिंह नास के दो  पुत्र हुए थे। इसकी धर्मकुंवरि नाम की कन्या का विवाह पवायां ( ग्वालियर ) के परमार राजा पुण्यपाल के साथ हुआ था, जो ग्वालियर के तोमर राजा बीरपाल का भांजा था और दूसरी मुकुटमणि ध॑धेरे को ब्याही थी।

इन संबंधों से परमार और घंघेरों के साथ इसकी घनिष्ठ मित्रता हो गई, परंतु कई बुंदेले इससे नाराज हो गए। अन्य कई लोगों ने इससे खान-पान भी बंद कर दिया ।  इस समय सोहनपाल ने गढ़ कुंडार अपनी राजधानी बनाई ।  पीछे से उसने जेतपुर भी जीत लिया । यह ८ वर्ष राज्य कर वि० सं० 1316 में मृत्यु हो गई ।

अपने पिता के पश्चात्‌ सहजेंद्र राजगद्दी पर बैठा। इसने अपना राज्य कालपी  और चौरागढ़ तक बढ़ा लिया था। यह 23 वर्ष राज्य किया और वि० सं० 1340 मे इसकी मृत्यु हो गई । इसके पश्चात इसका पुत्र नौनकदेव गद्दी पर बैठा। इसका विवाह देवपुर के धंधेरे ठाकुर मकुंदसिह की कन्या से हुआ था । इसके पृथ्वीराज और इंद्रराज नाम के दे लड़के हुए थे। नौनकदेव ने 24 वर्ष राज्य किया और वि० सं० 1264 मे इसकी मृत्यु हो गई ।  इसकी मृत्यु के पश्चात्‌ ज्येष्ठ  पुत्र पृथ्वीराज राजा हुआ ।

पृथ्वीराज बढ़ा ही योग्य शासक था । यह हिंदूधर्म की रक्षा करना अपना धर्म मानता था। इस समय मुसलमान लोग हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाना और  हिंदू मंदिरों को  अपवित्र करना ही अपना धर्म मानते थे। इस कारण इनसे और हिहुओं से सदा वैमनस्य रहा । बुंदेले शासक लोग हिंदुओं की सदा सहायता किया करते थे। पृथ्वीराज जैसा प्रतापी और प्रजापालक  था वैसा ही वह धर्म रक्षक भी था। इसे धार्मिक कर्मों से बड़ा प्रेम था। इसके समय मे धर्म-संबंधी कामों मे बढ़ी उन्नति हुई। इससे और चंदेल राजा शशांक भूप से युद्ध हुआ था । यह उसी युद्ध मे घायल हुआ और  वि० सं० 1386 में इसकी मृत्यु हो गई ।

रामसिंह वि० सं० 1396 में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात राजा हुआ। यह 36  वर्ष राज्य कर वि० सं० १४३२ में इसकी मृत्यु हो गई ।  इसका विवाह हरपुरा (टीकमगढ़ के पास) के मुकुंदसिंह धंधेरे की कन्या से हुआ था । इससे रामचंद्र और मेदनीमल नाम के दे लड़के हुए थे। इसकी मृत्यु के पश्चात्‌ रामचंद्र राजा हुआ | यह 16 वर्ष राज्य कर निस्संतान मरा । इसके पश्चात मेदनीमल वि० सं० 1441 में गद्दी पर बैठा।

कोई कोई इसे मदनपाल भी कहते थे। इसने सिंहुड़ा और महोबा भी अपने राज्य मे मिला  लिए थे । मदनपाल का विवाह करैया के धंधेरे ठाकुर राजसिंह की कन्या से हुआ था। इससे अर्जुनदेव नाम का पुत्र हुआ । मदनपाल ने  43  वर्ष राज्य कर वि० सं० 1464 मे इसकी मृत्यु हो गई । इसके बाद अर्जुनदेव राजा हुआ ।

अर्जुनदेव का विवाह वरेछा ( बेरछा ) के नवलसिंह परमार की कन्या से हुआ था। इसके मलखान सिंह नाम का पुत्र हुआ था। अर्जुनदेव ने  31  वर्ष राज्य कर अपने पुत्र कुँवर मलखानसिंह को राज्य दे वि० सं० 1525 मे काशी चले गये । इसके दो विवाह हुए थे। पहला शाहाबाद के दीवान प्रेमचंद्र की कन्या से और  दूसरा वरेछा ( बेरछा ) के परमारों के यहाँ हुआ था ।

वि० संवत्‌ 1535 में बहलोल ने ग्वालियर के राजा कीरत सिंह तोमर पर चढ़ाई की और  उससे ८० लाख रुपए दंड के लेकर इसलिये चला गया कि राजा कीरतसिंह ने जौनपुर के हुसेनशाह शर्की की सहायता की थी। इसी समय राजा मलखान सिंह ने भी राजा कीरतसिंह की मदद की, इससे इन्हें भी बहलोल के साथ युद्ध करना पड़ा। यह युद्ध वि० सं० 1535 में हुआ था । यहाँ से बहलोल इटावा होते हुए दिल्ली गया था। रास्ते में इसने राजा संगतसिंह को हराया था।

अब तक राजधानी गढ़ कुंडार ही  में थी, पर किसी किसी का मत है कि ये ही राजधानी गढ़ कुंडार से ओरछा लाये थे | इनके छः पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र रुद्रप्रताप गद्दी पर बैठा था। शेष  खडकसिंह, जोगजीतसिंह, सिंघजेतसिंह ( जैतसिंह ), शाह दीवान, (मित्रसैन) और देवीसिह थे। इन सब को अलग-अलग जागीरें दी गई थीं। इससे जो जहाँ रहे उनकी संतति अब उसी नाम से पुकारी जाती है। खडगसिंह को बरेठी मिली । जोगजीतसिंह खाली में बसे। जैतसिंह ने तलेहट पाया। शाह दीवान को असाटी मिली और  देवीसिंह ने नेवारी/निवाडी पाई। मलखानसिंह ने 33  वर्ष राज्य किया और मृत्यु हो गई ।

महाराज मलखानसिंह के पश्चात्‌ ज्येष्ठ कुमार रुद्रप्रताप राजगद्दी पर बैठे। इन्होंने ओरछा  की बहुत उन्नति की। ऐसा कहते हैं कि पूर्व काल  मे यहाँ परिहारों का राज्य था और ओरछा उनकी राजधानी थी। चंदेलों से परास्त होने पर ‘पड़िहारों का राज्य तो  नष्ट ही हो गया था पर राजधानी ओरछा उसकी स्मृति दिलाता हुआ बच रहा था । किंतु मुसलमानों और खंगारों के राज काल  में यह भी राजा विहीन हो गया था । इसे महाराज रुद्रप्रताप ने एक वैभवशाली नगर बनाया।

इसी से ये इसके बसाने वाले माने जाते हैं। महाराज रुद्रप्रताप ने ओरछे का किला बनवाने की नींव डाली थी ओर यह वि० सं० 1596 में बनकर तैयार हुआ था। यदि शहर की नींव के साथ ही  साथ किले का भी आरंभ हुआ हो ते इसके बनने में 8 वर्ष लग गए थे। महाराज रुद्रप्रताप के दो  विवाह हुए थे। प्रथम विवाह करेरा वाले परमार गंगादास की कन्या से और  दूसरा सहरावाले दीवान मानसिंह धंधेरे की कन्या से हुआ था। करेरावाली महारानी के 3 और  छोटी रानी से 9 पुत्र हुए थे।

इनमें से भारतीचंद और मधुकरशाह को राजगद्दी दी गई थी। राव उदयाजीत आदि 7 लड़कों को जागीरें दी गई थीं और तीन बल्यकाल मे  ही मर गए थे।  ये  सब बड़े ही पराक्रमी, वीर और  विद्वान भी थे। महाराज रुद्रप्रताप के राज-काल के समय बाबर की चढ़ाइयों का जोर था। इससे इन्होंने अपने बाहुबल से बहुत सा इलाका जीतकर अपने राज्य मे मिला लिया। इन्हें अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने को सिकंदर और इब्राहीम लोदी से समय समय पर युद्ध करने पड़े थे । ये बड़े ही धार्मिक थे। गोरक्षा करना तो इन्होंने अपना मुख्य धर्म मान रखा था।

ऐसा कहते हैं कि महाराज रुद्रप्रताप एक समय अपने पुत्र भारतीचंद को राज्यभार सौंप गढ़ कुंडार की ओर जा रहे थे। इतने मे इन्हें जंगल से एक कराहती हुईं गाय की आवाज सुनाई दी। फिर क्या था, तुरंत गाय के पास पहुँच शेर को सार डाला। परंतु क्रोध मे आकर  शेर ने भी महाराजा को घायल कर दिया।  ऐसा कहना अनुचित नही  होगा कि पूर्वकाल मे क्षत्रिय लोग गोरक्षा करना अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझते थे। महाराज रुद्रप्रताप गोरक्षा करने के समय शेर से घायल हो गए थे। और  इसी घाव के कारण महाराज रुद्रप्रताप की  वि० सं० 1588 में मृत्यु हो गई थी।

महाराज रुद्रप्रताप की मृत्यु के बाद भारतीचंद्र राजा हुआ।  इसके समय  में, वि० सं० 1602 में, शेरशाह सूरी ने कालिंजर पर चढ़ाई की थी । उस समय उसका आक्रमण रोकने के लिये राजा भारती चंद्र ने अपने भाई मधुकरशाह को भेजा था, पर कुछ भी लाभ नही  हुआ।  किला मुसलमानों के हाथ में चला  ही गया।

शेर शाह के मरने पर भारतीचंद्र ने इस्लामाबाद (जतारा) पर चढ़ाई की। इसके समय में ओरछे के महल और किला वि० सं० 1596 में बन कर तैयार हुए। इसी साल राजधानी भी गढ कुंडार से पूर्ण रूप से ओरछे में लाई गई। यह 23  वर्ष राज्य कर वि० सं० 1611 में भारतीचंद्र की मृत्यु हो गई  और इसका छोटा भाई मधुकरशाह गद्दी पर बैठा।

जिस समय मधुकरशाह गद्दी पर बैठा उस समय मुसलमानों का जोर था। ये लोग हर तरह से हिंदुओं को सताया करते थे। ये कभी उन पर आक्रमण करते और कभी उनके धार्मिक चिन्हो को नष्ट करते। ऐसे कठिन समय में महाराज मधुकर शाह के समय  घार्मिक राजाओं का स्वतंत्रतापूर्वक राज्य करना अकबर को बहुत खटकता था। कहते हैं कि अकबर ने एक बार हुक्म दिया कि कोई सरदार शाही दरवार में तिलक लगाकर और माला पहनकर न आए, पर मधुकरशाह बड़े ही कट्टर धार्मिक राजा थे। ये  ऐसी बातों को कब मानने वाले थे। उस दिन और भी अधिक तिलक मुद्रा लगाकर शाही दरबार में गए।

यह देख अकबर उपर से तो बहुत खुश हुआ पर अंदर ही अंदर में बहुत कुढा । उसे मधुकरशाह की यह चाल  बहुत बुरी लगी । मधुकरशाह नृसिंह के उपासक थे। एक दिन अकबर ने इन्हें भी आखेट मे चलने के लिये कहा, पर महाराज मधुकरशाह ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया कि मै  अपने इृष्ट को मारने नहीं जा सकता। यह सुन बादशाह चुप रह गया। इस तरह धीरे धीरे इन दोनों मे वेमनस्थ बढ़ता गया। अंत  में अकबर ने इसे वश में ज्ञाने के लिये दे बार सेना भेजी। पहली बार न्यामतकुली खाँ और अलीकुली खॉ आए और दूसरी बार जामकुली खॉ और सैयदकुली खॉ आए थे, पर दोनों बार शाही फौज को ही नीचा देखना पड़ा ।

अंत मे अकबर ने वि० सं० 1634  में मुहम्मद सादिक खां  के सेनापतित्व मे सेना भेजी।  ग्वालियर के राजा आस करन तोमर भी साथ आए थे। इन्होंने संधि करने की बहुत कुछ कोशिश की, पर राजा ने सुलह करना मंजूर नही  किया। इससे युद्ध छिड़ गया । इस युद्ध में राजकुमार होरलदेव की मृत्यु हो गई और  रामशाह जख्मी हो रणक्षेत्र से चले  आए।  इसलिये दोनों में सुलह हो  गई पर यह बहुत दिन न चली ।

वि० सं० 1645 में फिर अकबर ने आस करन और  अब्दुल्ला खाँ को ओरछे पर आक्रमण करने को भेजा।  इस बार ओरछे का बहुत सा भाग मुगलों के हाथ लग गया । किंतु राजा मधुकरशाह ने नही  माना।  इससे अकबर ने मुराद के सेनापतित्व में वि० से० 1648 में सेना भेजी। राजा हार गया और इस समय ओरछे पर अकबर का अधिकार हो गया।  

इसके कुछ दिनों के पीछे वि० सं० 1648 में राजा मधुकरशाह का देहांत हो गया। इनके छः विवाह हुए थे। इन सब में महारानी गणेशकुँवरि प्रथम थी। ये भी राजा सधुकरशाह के समान धार्मिक थी। इन्हें श्री रामजी भक्त थी । श्रीरामराजा की मूर्ति अयोध्या से ओरछा लाई थीं। इनके आठ लड़के थे ।

ज्येष्ठ कुमार रामसिंह (रामशाह ) अपने पिता के पश्चात्‌ राजा हुआ। शेष सात पुत्रों मे से होरलदेव वि० सं० 1634 के  युद्ध मे मारे गए थे। इन्हें पिछौर की जागीर मिली थी । तीसरे पुत्र इंद्रजीत का कच्छौवा की जागीर मिली थी। यहाँ पर अब  तक इनके महल के अवशेष हैं। वीरसिंहदेव ने वड़ोनी पाई थी । ये बड़े ही रणकुशल, पराक्रमी और  शूर थे ।

इन्होंने ही अकबर जैसे प्रवल शत्रु पर अपना आतंक जमाया था। ऐसे ही हरिसिंहदेव को भसनेह ( झांसी जिले में ), प्रतापराव को कुच पहरिया, रतनसिंह का गोरझामर और रनसिंहदेव को शिवपुर ( खालियर की सिपरी ) जागीर मे दिए गए थे। इस प्रकार अब ओरछा रियासत के आठ भाग हो गए ।

यद्यपि ये सब ओरछा के अधीन कहलाते थे पर यथार्थ में स्वतंत्र थे। रामशाह अपने अधीनस्थ जागीरदारों को दवा न सका। इससे एक के बाद दूसरे का हौसला बढ़ा और वे स्वतंत्र होते गए।  अंत में ओेरछा रियासत में 22 जागीरें हो गई । इनमे से 7 में तो  इन्हीं के भाई-वंध थे, शेष 14  में परमार, कछवाहे और गोंड़ लोग थे। अकबर के मरने पर जब सलीम जहाँगीर के नाम से तख्त पर बैठा तब उसने वीर सिंह को ओरछे की गद्दी दे दी और रामशाह को चंदेरी और बानपुर की जागीर दी। इस समय इसकी आमदनी 10  लाख रुपए थी।

महाराज रुद्रप्रताप के तीसरे पुत्र उदयाजीत थे। इन्हे महेवा गाँव जागीर में मिला था । उदयाजीत के प्रेमचंद, हृदय नारायण, भारतीचंद, गंगादास, काशीदास और राधेदास ये ६ पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र प्रेमचंद वड़ा ही पराक्रमी और गुणवान था। इसने कई स्थानों मे मुसलमानों से लड़ाइयाँ लड़ी और विजय प्राप्त की।  प्रेमचंद के  तीन बेटे थे। उनके नाम कुवरसिंह, मानशाह और भगवानदास थे । समरोहा नामक गांव कुंवरसिंह का वसाया हुआ है।

मानशाह ने अपना निवास शाहपुर से किया । भगवानदास इनमें बड़ा विद्वान और पराक्रमी समझा जाता था । भगवानदास के पुत्र का नाम कुलनंदन था। यह भी अपने पिता की भाँति बड़ा दयाशील, धार्मिक और सदगुणी था। कुलनंदन के चार लड़के थे जिनके नाम खड़गराय, चंद, सुभानराय और  चंपतराय थे। नियमानुसार जागीर के हिस्से सब पुत्रों में बॉटे जाते थे और इस प्रकार चंपतराय को जो जागीर मिली उसकी वार्षिक आय कुल  350 रुपये थी ।

सब राजवंशजों को जागीरें मिली, परंतु राज्य पहले भारतीचंद्र और फिर मधुकरशाह के पास रहा । राजा भारतीचंद्र ने 23  वर्ष और राजा मधुकरशाह ने 36  वर्ष राज्य किया। राजा भारतीचंद्र की मृत्यु विक्रम संवत्‌ 1611 में हुईं। जिस समय मधुकरशाह राजगद्दी पर बैठे उस समय दिल्ली में अकबर बादशाह का राज्य था।

अकबर बादशाह ने दूर दूर तक के प्रांत अपने वश मे कर लिए थे। मालवा, भेपाल और दक्षिण बुंदेलखंड का छुछ भाग अकबर के राज्य से था। कड़ा मानिकपुर और उसके आस- पास का देश भी अकबर के अधिकार में था । दमोह और  सागर जिले का कुछ भाग गोंड राज्य में था, पर ये गोंड़ लोग  भी रानी दुर्गावती की मृत्यु के पश्चात्‌ अकबर के अधीन हो गए थे ।

बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों से संधियाँ 

संदर्भ – आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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