Bundelkhand Me Mughlon Ka Patan बुन्देलखण्ड मे मुगलों का पतन

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औरंगजेब अहमदनगर में विक्रम संवत्‌ 1764  में मरा। उसके तीन लड़के थे जिनके नाम मुअज्जम, आजमशाह और कामबक्स थे। इनमें से बड़ा लड़का मुअज्जम कावुल में था इस कारण दूसरा लड़का आजमशाह बादशाह बन गया और उसने कामबकस को, दक्षिण का राज्य देने का वचन देके मिला लिया। यहीं से Bundelkhand Me Mughlon Ka Patan होना आरंभ हो  गया था ।

औरंगजेब बादशाह ने अपने सब दरबारियों को बुलाया और बुंदेलों से लड़ने के लिये सबसे अधिक योग्य सेनापति नियत करने का विचार किया। अभी तक जितने लोग बुंदेलों  से लड़ने के लिये गए थे वे सब हार गए थे। मिर्जा

सदरुद्दीन नामक एक सरदार ने बुंदेलों का हराकर छत्रसाल  को गिरफ्तार करने का बीड़ा उठाया। औरंगजेब ने इस सरदार का बड़ा मान किया और इसने जितनी सेना मांगी  उतनी दी । मिर्जा सदरुद्दीन शूर-वीर  और कूटनीतिज्ञ भी था। औरंगजेब ने इसे धामौनी का सूबेदार भी नियुक्त कर दिया। धामौनी उस समय मुगलों के सूबों की राजधानी थी। सागर, दमोह और भोपाल का शासन इसी स्थान से होता था।

गोंड लोगों से ओड़छे (ओरछा) के राजा वीरसिंहदेव ने ले लिया था। अब जुझारसिंह गोंड राजाओं के साथ युद्ध करता मारा गया तब यह किला मुगलों ने ले लिया। सदरुद्दीन इसी किले का सूवेदार नियुक्त  किया गया था। सदरुद्दीन और छत्रसाल के युद्ध का वर्णन छत्रप्रकाश मे लाल कवि ने किया है। मिर्जा सदरुद्दीन ने चाहा कि छत्रसाल को धोखा  देकर मिला लें और औरंगजेब के अधीन रहने का वचन ले लें। इस उद्देश्य से मिर्जा सदरुद्दीन ने छत्रसाल  के पास दूत भेजा।

इस दूत ने छत्रसाल  के सामने, मिर्जा सदरुद्दीन की उदारता की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि मिर्जा साहब औरंगजेब से कहकर आपके सब कुसूर माफ करा देंगे । इसके उत्तर मे छत्रसाल ने दूत से कह दिया कि मिर्जा सदरुद्दीन मुझसे यवनों की सत्ता स्वीकार कराने का बेकार प्रयास न करें, मैं कभी मुगलों के अधीन रहना पसंद नहीं करूँगा। इसके सिवा छत्रसाल ने सदरुद्दीन से चौथ भी मांगी ।

छत्रसाल ने कई बार मुग़लों  के प्रसिद्ध, सेनापतियों का हरा दिया था, परंतु इस बार सदरुद्दीन से खुले मैदान युद्ध करना कठिन था। छत्रसाल के पास बहुत सा प्रदेश था और उनकी सेना राज्य के भिन्न भिन्न भागों मे थी। सब सेना को ऐसे युद्ध के समय वे एक ही स्थान पर नहीं ला सकते थे । इसलिये छत्रसाल  ने सारी सेना का एक ही स्थान पर एकत्र कर लेना  ठीक नहीं समझा । मिर्जा सदरुद्दीन ने अपनी असंख्य सेना लेकर  छत्रसाल की सेना पर हमला किया परंतु वीर बुंदेलों ने धैर्य नहीं  छोड़ा।  

यह युद्ध बहुत बड़ा हुआ और बुंदेलों  के कई सरदार मारे गए। फिर भी बुंदेले वीरता से लड़ते रहे । छत्रसाल की ओर से परशुराम, नारायणदास, अजीतराय, बालकृष्ण, गंगाराम, मेघराज इत्यादि सरदारों ने बहुत पराक्रम दिखाया । धनघोर युद्ध के पश्चात्‌ बुंदेलों के विजय मिली। मुसलमानी सेना भागी, मिर्जा सदरुद्दीन और उनके साथी कई सरदार छत्रसाल के हाथ मे बंदी हो गए, परंतु छत्रसाल ने उदारता से मिर्जा सदरुद्दीन को चौथ देने का वचन देने पर छोड़ दिया।

मिर्जा सदरुद्दीन के चले जाने के पश्चात् छत्रसाल ने अपने जीते हुए प्रदेश में दौरा किया और सब स्थानों की राज्य- व्यवस्था देखी । जहाँ के जागीरदार छत्रसाल के अधिकार में थे उन जागीरदारों से नजराना इत्यादि, वसूल किया। इसके बाद छत्रसाल ने चित्रकूट के तीर्थ स्थानों मे जाने का विचार कर रहे थे कि खबर मिली कि चित्रकूट के समीप अब्दुल हमीदखाँ  नामक एक मुसलमान सरदार हिंदू यात्रियों को कष्ट दे रहा है।

यह समाचार पाते ही बाल दिवान पाँच सौ सवार लेकर हमीदखाँ के पास पहुँचे । रात मे उन्होंने हमीदखाँ को घेर लिया। हमीदखाँ प्राण बचाके भागा। उसका सब साज सामान बुंदेलों  के हाथ लगा । फिर छत्रसाल  चित्रकूट गए और वहाँ पर चार दिन रहे। यहाँ पर खबर लगी  कि भागे हुए हमीदखां ने महोबे के जमीदारों को भडकाया है और  जमीदार भी छत्रसाल  के विरुद्ध हो गए हैं।

महोबे के जमीदारों को अधिकार मे करने के लिये और उन्हें अपने किए का दंड देने के लिये छन्नसाल अपनी सेना लेकर  महोबे की ओर गए । बुंदेलों की फौज  के आने की खबर सुनते ही वे जमीदार तो भाग गए परंतु उन जमीदारों को भड़काने वाला हमीदखाँ, कुछ थोड़े पठानों को लेकर, बरहट्टा में लड़ने को तैयार हुआ।  छत्रसाल के आाज्ञानुसार कुंअरसेन धंधेरे ने हमीदखाँ और उसके साथियों को मार भगाया।

महोबे से छत्रसाल  महाराज ने अपनी सेना दक्षिण की ओर भेजी। इस समय सागर जिले का कुछ भाग राजपूतों के अधिकार में था। वे  राजपूत निहालसिंह राजपूत के वंश के थे । निहालसिंह ने अपना अधिकार यहां  संवत्‌ 1080  में जमाया था।  इसका पौत्र राजा पृथ्वीपति गढ़पहरा में राज्य करता था और वह मुगलों की  ओर से जागीरदार की हैसियत से रहता था।

महाराज छत्रसाल ने विक्रम संबत्‌ 1746 में यह इलाका पृथ्वीपति से छीन लिया और  गढ़पहरा उजड़ जाने से यहाँ के निवासी सागर में आकर रहने लगे । फिर छत्रसाल ने देवगढ़ पर आक्रमण करके उसे भी अपने अधिकार में कर लिया। यहाँ पर महाराज  छत्रसाल को सालहूस हुआ कि काल्‍पी के समीप के स्थानों के जमीदार फिर से उठ खड़े हुए हैं, इससे काल्‍पी की ओर फौज भेजी गई।

छत्रसाल ने फौज लेकर कौंच -कालपी आदि स्थान अपने अधिकार मे कर लिए और फिर कोटरे पर आक्रमण किया। कोटरे में मुललमानों की ओर से सैयद लतीफ नाम का किलेदार था। बुंदेलों  का इससे खूब युद्ध हुआ और जब मुसलमानों के पास गोला बारूद नही  रहा तब उन्होंने छत्रसाल  की अधीनता स्वीकार कर ली। एक लाख रुपए भी भेंट मे दिए ।

औरंगजेब की सेना हर बार छत्रसाल से हारती थी परंतु औरंगजेब छत्रसाल  को हराने का प्रयत्न नहीं छोड़ता  था। अब  की बार खास दिल्ली के सूबेदार अब्दुल समद को छत्रसाल  से लड़ने का हुक्म मिला । बादशाह औरंगजेब की आज्ञा पाते ही अब्दुल समद ने तीस हजार सवार और कई सौ  पैदल  सिपाहियों की सेना  तैयार की, और वह बुंदेलखंड की ओर चला इस विशाल सेना का मुकाम मौदहा हुआ ।

इस महायुद्ध में छत्रसाल  धायज्ल  भी हो गए थे। इस कारण जब तक छत्रसाल  के घाव अच्छे नही  हुए तब तक वे अपनी सेना को लिए पन्ना में रहे, और कहीं और आक्रमण नहीं किया । दो महीने बाद कोठी  सुहावल के जागीरदार हरिलाल गजसिंह ने बुंदेलों के विरुद्ध तैयारियाँ की थीं इस कारण छत्रसाल  की सेना ने उस पर घावा किया और हरीलाल  ने छत्रसाल  के अधीन रहना स्वीकार कर लिया और चौथ देने का वचन भी दिया ।

मिलसे के किले को  छत्रसाल  ने ले लिया था परंतु छत्रसाल के वापस आने पर मिलसे  में फिर मुगलों का अधिकार हो गया था । इसलिये छत्रसाल अपनी सेना लेकर मिलसे पर अपना अधिकार करने के लिये चले । ज्यों ही छत्रसाल अपनी सेना लेकर मिलसे की ओर चले तभी इस बात की खबर धामौनी के सरदार बहलूलखाँ को लग गई। वह 9000 काबुली फौज लेकर मिलसे की ओर छत्रसाल  से लड़ने के लिये चला ।

छत्रसाल से बहलूल के साथ युद्ध हुआ। इस युद्ध में बहलूल की सहायता करने वाला ,जगतसिंह नाम का एक जागीरदार भी मारा  गया। बहलूल फिर पीछे हट गया परंतु छत्रसाल की सेना ने उसका पीछा नहीं  छोड़ा। छत्रसाल बहलूल खाँ  का पीछा करते चले आए और  शाहगढ़ का किला ले लिया। शाहगढ़ का किला ले लेने के पश्चात्‌ उस किले में छत्रसाल  ने अपना थानेदार नियुक्त कर दिया और फिर धामैनी पर आक्रमण किया। इस समय बहलूल खाँ खूब लड़ा, पर उसे हारना पड़ा और  वह युद्ध  मे मारा गया । छत्रसाल ने धमौनी पर भी अधिकार कर लिया।

धामौनी से वीर छत्रसाल  मऊ  को चले और बलदिवान  ने कोटरे पर अपना अधिकार कर लिया। फिर वे महोबे पहुँचे। महोबा और में अपना प्रबंध देखते हुए वे सेहुँड़ा पहुँचे। उस समय सेहुँड़ा दलेलखाँ के सूबे में था और  दलेलखाँ की ओर से उसका नायब मुरादखाँ इस प्रांत का प्रबंध देखता था। छत्रसाल  ने मुराद खाँ की सेना से युद्ध किया ।  सेना-हार गई और मुराद खाँ मारा गया।

इस बात का पता लगते ही दल्लेखॉ को बहुत फिकर हुई। वंह चंपतराय का मित्र था और चंपतराय और दलेल खाँ के बीच पाग बाँधऊअल भी हुईं थी। इसी नाते से दलेल खाँ चंपतराय के भाई होने का और छत्रसाल के काका होने का दावा करता था।  दलेल खाँ ने छत्रसाल से छड़ने मे कोई लाभ न देख छत्रसाल  को बड़ी नम्नता से, अपना पुराना नाता बताते हुए, पत्र लिखा और  सेहुँड़ा  का प्रांत छत्तसाल से वापिस माँगा। छत्रसाल ने उसकी नम्नता देखकर उदारता से वह प्रांत वापिस कर दिया।

बलदिवान छत्रसाल  के आज्ञानुसार सेहुँड़े को खाली करके वापस आा रहे थे कि रास्ते में रात को कई जागीरदारों ने अपनी सेना लेकर उनकी सेना पर छापा मारा। छापा मारने के बाद ये जागीरदार मरोंद के किले में जा छिपे। बतलदिवान ने इस किले पर आक्रमण कर दिया और उन सब जागीरदारों को मारकर उनकी सेना का नाश कर दिया। इस युद्ध में बलदिवान का एक प्रिय सरदार राममन दौआ  मारा गया ।  

औरंगजेब ने बुंदेलखंड  जीतने के लिये फिर दूसरा सेनापति शाहकुली को  भेजा। शाहकुली बहुत बड़ी सेना लेकर बुन्देलखण्ड  मे घुसा और  थुरहट, कोटरा, जलालपुर इत्यादि छत्रसाल के फतेह किए हुए स्थान लेता हुआ नौली पर ठहरा। यह खबर पाते ही छत्रसाल मऊ से बाल दीवान  और अपनी सारी सेना को साथ लेकर शाहकुली से युद्ध करने के लिये पहुँचे ।

इसी समय असमदखाँ  नामक एक दूसरा मुसलमान सरदार भी, शाहकुली की सहायता के लिये पहुँच गया और इन दोनों की सेना ने छत्रसाल और उनकी सेना को घेर लिया । बड़ा भयंकर युद्ध हुआ और छत्रसाल की सारी सेना छिन्न-मिन्न हो गई। छत्रसाल  को इस समय पीछे भी हटना पड़ा। परंतु उन्होंने सब बुंदेलों को अपने वीर रस पूर्ण शब्दों से उत्तेजना  दी और उन योद्धाओं  में फिर से युद्ध करने का उत्साह आ गया।

बुंदेले लोग फिर हिस्मत बाँधकर लड़े और युद्ध हुआ । इस युद्ध में बुंदेलों  की विजय हुई। असमद्खाँ कैद कर लिया गया। छत्रसाल ने दंड देकर उसे छोड़ दिया। शाहकुली इस समय अपनी सेना लेकर अलग रह गया था। उसने दिल्ली दरबार से और  सेना अपनी सहायता के लिये मँगाई। दिल्ली से बादशाह के आज्ञानुसार सैदराम नाम का एक सरदार 800 सवार और सेना लेकर पहुँचा। शाहकुली ने इस सेना की सहायता से फिर मऊ पर आक्रमण  किया । यह युद्ध इसी स्थान पर हुआ जहाँ आजकल नवगाँव की छावनी है।

यहाँ पर फिर छत्रसाल ने शाहकुली  की सेना को अच्छी तरह से हरा दिया। शाहकुली  यहाँ से भागकर अलीपुर के निकट ठहरा था । वहाँ पर छत्रसाल  ने इसे घेरकर कैद कर लिया और जब इसने बहुत सा दंड दिया तब छोड़ा ।

शाहकुली  की हार के बाद  दिल्ली दरबार मे कुछ ऐसे फेरबदल  हुए जिससे छत्रसाल को मुगलों  की ओर से कोई कष्ट न हुआ और दिल्ली दरबार छत्रसाल से प्रसन्न  हो गया । औरंगजेब अहमदनगर में विक्रम संवत्‌ 1764  में मरा। उसके तीन लड़के थे जिनके नाम मुअज्जम,  आजमशाह और  कामबक्स थे। इनमें से बड़ा लड़का मुअज्जम कावुल में था इस कारण दूसरा लड़का आजमशाह बादशाह बन गया और उसने कामबकस  को, दक्षिण का राज्य देने का वचन देके मिला लिया।

परंतु राजगद्दी का असली मालिक औरंगजेब का बड़ा लड़का मुअज्जम था, इस कारण वह कावुल से बहुत बड़ी सेना लेकर भारत पहुँचा। औरंगजेब के स्वाभाव से कई मुसलमान सरदार नाराज थे और औरंगजेब हिंदुश्नों को बहुत  कष्ट देता था इससे हिंदू लोग भी नाराज हो गए थे। औरंगजेब के मरते ही राज्य शासन शिथिल हो गया और सूबेदार स्वतंत्र बनने का प्रयास  करने लगे। ऐसे समय से मुअज्जम ने देशी राजाओं को मिलाकर उनसे सहायता लेने में ही अपना भला समझा ।

उसने शाहू महाराज को केद से छुटकारा दे दिया। शाहू महाराज शिवाजी महाराज के नाती थे। इन्हें औरंगजेब ने दिल्ली में कैद कर लिया  था। यही शाहू महाराज महाराष्ट्र राज्य के अधिकारी थे । शाहू महाराज को छोड़ देने के पश्चात्‌ मुअज्जम ने अपने वजीर खानखाना को छत्रसाल  से मित्रता कर लेने के लिये भेजा। खानखाना  ने छत्रसाल की वीरता की तारीफ की और  छत्रसाल से लेहगढ़ फतह करने के लिये सहायता माँगी। छत्रसाल  ने सहायता दी और वि० सं० 1768 में लेहगढ़ का किला जीतकर दे दिया। इस पर मुअज्जम बहुत प्रसन्न हुआ। वह छत्रसाल की स्वतंत्रता स्वीकार करके उनके साथ बराबरी का बर्ताव करने लगा।

मुअज्जम ने छत्रसाल को मनसबदारी देने का वचन दिया परंतु छत्रसाल  ने मुगलों का मनसबदार बनना स्वीकार नही  किया और स्वाभिमान के साथ कह दिया कि हम स्वतंत्र हैं और  हमारे पास बहुत सा देश है, हम किसी दूसरे शासक के अधीन मनसबदार बनना पसंद नहीं करते। मुअज्जम ने अपना नाम अब बहादुरशाह रख लिया था । बुंदेलखंड को इस प्रकार स्वतंत्र करने के पश्चात्‌ छत्रसाl  पन्ना में आकर राज्य करने लगे ।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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