Bundelkhand Me Himmatbahadur Ki Ladaiyan बुन्देलखण्ड में हिम्मतबहादुर की लड़ाइयाँ

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By admin

बुन्देलखण्ड में हिम्मतबहादुर और अलीबहादुर दो साल तक बराबर लड़ते रहे पर कालिंजर का किला इनके हाथ में न आया । इसी युद्ध के समय, विक्रम संवत्‌ 1856 में, अलीबहादुर की मृत्यु हो गई। अलीबहादुर की मृत्यु बाद Bundelkhand Me Himmatbahadur Ki Ladaiyan का तांता सा लग गया । हिम्मतबहादुर ने कालिंजर लेने का प्रयन्न नही छोड़ा । हिम्मतबहादुर की ओर से सबसुखराम सेनापति थे।

अलीबहादुर ने रीवाँ-नरेश को हरा दिया परंतु कालिंजर के चौबे ने अली बहादुर की अधीनता स्वीकार नही की।  फालिंजर का किला  कायमजी चौबे के पुत्र रामकिसन के अधिकार में था। यह चौबे वास्तव में जागीरदार था परंतु अब पन्ना राज्य से स्वतंत्र हो गया था और अलीबहादुर का आधिपत्य भी स्वीकार नही  करता था।

अलीबहादुर को जहाँ जहाँ पर विजय हुई उसका मूल कारण हिम्मतबहादुर की वीरता ही थी । अरब कालिंजर को वश में करने के लिये अलीबहादुर ने हिम्मतबहादुर से सलाह ली । कलिंजर का किला ऊंचे पहाड़ पर है और बहुत मजबूत बना हुआ है। इसको लेने के  लिये हिम्मतबहादुर ने बड़ी भारी तैयारी की।

फिर किले पर आक्रमण किया परंतु किला  दुर्भेध होने से वह किसी प्रकार हिम्मतबहादुर के अधिकार में नही  आ सका । हिम्मतबहादुर और अलीबहादुर दोनों ने प्रयत्न नही  छोड़ा और किले के लेने के लिये ये लोग लड़ते ही रहे । जब इन्हें मालूम हुआ कि किले  के लेने में कई वर्ष लग जायेँगे तब अलीबहादुर  और हिम्मतबहादुर ने किले के समीप मैदान में रहने के लिए  मकान भी वनवा लिए।

यहाँ से हिम्मतबहादुर और अलीबहादुर  दो साल तक बराबर लड़ते रहे पर कालिंजर का किला  इनके हाथ में न आया । इसी युद्ध के समय, विक्रम संवत्‌ 1856  में, अलीबहादुर की मृत्यु हो गई। उसके मरने पर भी हिम्मतबहादुर ने कालिंजर लेने का प्रयन्न नही छोड़ा । हिस्मतबहादुर की ओर से सबसुखराम सेनापति थे ।

अलीबहाहुर के दो लड़के थे जिनके नाम शमशेरबहादुर और जुल्फिकारअली थे। इनमें से शमशेरबहादुर बढ़ा था परंतु जब अलीबहादुर की मृत्यु हुई तब शमशेरबहादुर पूना में था। इसलिये अलीबहादुर के चाचा गनीबहादुर और हिम्मतबहादुर ने मिलकर जुत्फिकारअली को ही अलीबहादुर की जगह नवाब बना दिया। यह बात शमशेरबहादुर को पूना मे मालूम हुआ।

समाचार पाते ही शमशेरबहादुर पेशवा से सहायता लेकर कालिंलर पहुँचा। पेशवा भी गनीबहादुर से नाराज था। गनीबहादुर ने जुल्फिकारअली को नवाब बनाकर सब राज्य-कार्य अपने हाथ में कर लिया था। गनीबहादुर वास्तव में स्वतंत्र ही हो गया था । पेशवा से उसका कोई संबंध न रह गया था। इस कारण पेशवा ने शमशेरबहादुर को सहायता देना ठीक समझता। शमशेरबहादुर ने मराठों की सेना की सहायता से अली बहादुर का राज्य अपने अधिकार में कर लिया और कालिंजर में जाकर गनीबहादुर का पकड़कर अजयगढ़ के किले  में कैद कर दिया।

इस किले में गनीबहादुर को शमशेरबहादुर ने जहर दिलवाकर मार डाला। हिम्मतबहादुर गनीबहादुर का सहायक था। जब उसने देखा कि गनीबहादुर मार डाला गया है तब उसने भी शमशेरबहादुर से सब संबंध तोड़ दिए। जो युद्ध हुए थे उनमें हिम्मतबहादुर के कारण ही अलीबहादुर को विजय मिली  थी। जब शमशेरबहादुर ने देखा कि हिम्मतवहादुर ने सहायता देना बंद कर दिया तब उसने भी कालिंजर के किले को लेने का प्रयत्न छोड़ दिया। वह बॉदा को वापिस आ गया।

हिम्मतबदहादुर ने बाँदा के नवाब को सहायता देकर बुंदेलखण्ड  का बहुत सा भाग बॉदा के नवाब के अधिकार में कर दिया था। हिम्मतबहादुर ने देखा कि नवाब से अनबन होने के कारण मुझे कोई लाभ न पहुँच सकेगा इसलिये उसने अंग्रेजों  से बातचीव आरंभ की। विक्रम संवत्‌ 1858  में मराठों और अंगरेजें के बीच बसीन नामक नगर मे एक संधि हुई थी जिसके अनुसार बाजीराव पेशवा हुआ और उसने अंग्रेजों  का आधिपत्य स्वीकार किया। परंतु इस संधि से सब मराठे सरदार असंतुष्ट थे और थोड़े ही दिनों के बाद पेशवा ने फिर से अँगरेजों से स्वतंत्र होने का प्रयन्न किया।

जिस समय हिम्मतबहादुर ने अंग्रेज  से मेल करने की बातचीत की उस समय अंग्रेज बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें हिम्मतबहादुर की सहायता से मराठों को दबाने का मौका मिल गया। इस समय नागपुर के भोंसले और सिंधिया पूना के पेशवा से मिल  गए थे और पेशवा को अंग्रेजों के हाथ से बचाने का प्रयत्न कर रहे थे। ऐसे समय मे अंग्रेजों को हिम्मतबहादुर की सहायता बहुत लाभदायक प्रतीत हुई। हिम्मतबहादुर  की वीरता सारे भारत मे प्रसिद्ध थी।  बुन्देलखण्ड  के प्रत्येक भाग का उसे पूरा ज्ञान था। अत: अंग्रेज लोगों को वह बहुत सहायता पहुँचा सकता था ।

हिम्मतबहादुर की सेना में कर्नल मिसाइल बैक नामक एक सरदार था। अंग्रेजों  की और हिम्मतबहादुर की बातचीत इसी की सहायता से हुई। हिम्मतबहादुर ने जो शर्तें अंग्रेजों से कहीं, उन्होंने मान ली । अँगरेजों ने हिम्मतबहादुर से राजा के समान बर्ताव करने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा की कि वे हिम्मतबहादुर के भाई उमरावगिर को अवध के नवाब के बंधन से मुक्त करा देंगे। अंग्रेजों  ने अंतर्वेद  में सिकंदरा और बिंदकी के  परगने हिम्मतबहाहुर को देने का वचन दिया।

बुंदेलखंड मे भी हिम्मतबहाहुर को  एक लाख की जागीर देने का वादा अंग्रेजों ने किया। ये शर्तें कराके हिम्मतबहादुर ने अँगरेजों की सहायता की। अंग्रेजों से हिम्मतबहादुर से प्रसन्न होकर उसको महाराजा बहादुर की पदवी भी दी। इस समय अँगरेजों का राज्य बंगाल और  बिहार में जम गया था और बनारस तक पहुँच गया था। मद्रास के तट  पर भी बहुत दूर तक फैला  हुआ था। बंबई के निकट के कई नगर भी अंग्रेजों के अधिकार में थे।

इसके सिवा कई राजा लोग अगरेजों के अधीन हो चुके थे। हिम्मतबहादुर  और अंग्रेजों  की संधि का हाल  सुनते ही शमशेरबहादुर  ने पेशवा से सहायता मांगी । इस समय सिंधिया और होल्कर आदि सब मराठे सरदार अँगरेजों के विरुद्ध हो रहे थे। इस समय जालौन में गेविंदराव गंगाधर उर्फ  नाना साहब सूबेदार थे। इन्होंने शमशेरबहादुर की सहायता के लिये अपनी सेना भेजी ।

हिम्मतबहादुर के पास भी  बहुत बड़ी सेना थी। इस सेना का खर्च  हिम्मत बहादुर को अंग्रेजों से मिल रहा था। अँगरेजों का एक सेनापति कर्नल पोल भी अ पनी सेना लिए हुए हिम्मतबहादुर के साथ था। यह सब  सेना लेकर हिम्मतबहादुर बुंदेलखंड में घुसा। पहला युद्ध केन  नदी के किनारे के “बरा” नासक ग्राम  के पास हुआ। शमशेरबहादुर इस युद्ध में हार गया और उसे भागना पड़ा। शमशेरबहादुर फिर मैंरागढ़ पहुँचा परंतु यहाँ पर भी हिम्मतबहादुर ने उसे हराया। इसके पश्चात्‌ कैशा नामक ग्राम  में तीसरी लड़ाई हुई। यहाँ पर शमशेरबहादुर अच्छी तरह से हरा दिया गया।

शमशेरबहादुर यहाँ से भागा और  अगरेजों ने उसका पीछा किया। शमशेरबहादुर ने अंग्रेजों  से युद्ध करने में कोई लाभ न देखकर संधि कर ली।  यह संधि अंग्रेजों की ओर से कैप्टेन बेली और  शमशेरबहादुर के बीच में हुई । संधि के अनुसार शमशेरबहाहुर का सब प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिया गया और शमशेरबहादुर को चार लाख रुपयों की जागीर दी गई। यह संधि विक्रम संवत्‌ 1861 में हुई ।

इस युद्ध मे अंग्रेजों के विजय का कारण हिम्मतबहादुर ही था। हिम्मतबहादुर बड़ा ही वीर सैनिक था परंतु अपने स्वार्थ के लिए उसने जो कुछ सामने देखा, बिना परिणाम सोचे कर डाला। अवध के नवाब की हार होने पर वह सिंधिया से मिल  गया और सिंधिया  के विरुद्ध होकर फिर वह अलीबहादुर  से मिल  गया। बाद मे इसी अलीबहादुर के लड़के  के विरुद्ध होकर वह अंग्रेजों से जा मिला।

हिम्मतबहादुर को अंग्रेजों से शर्तों के अनुसार अंतर्वेद के परगने और बुंदेलखंड में मौदहा, छौन, हमीरपुर और दोसा के परगने मिले । हिम्मतबहादुर  इस समय बहुत वृद्ध हो गया था और थोड़े ही दिनों के बाद विक्रम संबत्‌ 1861  में उसकी मृत्यु हे गई। हिम्मतबहादुर के मरने पर उसका पुत्र निरंदगिर (नरेंद्रगिर ) हिम्मतबहादुर की जागीरों का अधिकारी हुआ। परंतु निरंदगिर की अवस्था बहुत कम थी, इस कारण हिम्मतबहादुर का भाई उमरावगिर उन सब जागीरों की देख-भाल करता था।

यह उमरावगिर पहले अवध के नवाब के यहाँ कैद था परंतु अंग्रेजों ने इसे छुड़वा दिया। विक्रम संवत्‌ 1867  में निरंद गिर मर गया और अंग्रेजों ने उसकी जागीर जब्त कर ली। उस समय उमरावगिर के खर्च  के लिये अंग्रेजों की ओर से  1000 रुपए मासिक तय  हुए और निरंदगिर के भाई कंचनगिर को 2000  रुपए मासिक तय कर दिए गए। इनके मरने के पश्चात्‌ इनके वंशजों को अंग्रेजों की ओर से पेंशन दी गई ।

अंग्रेजों ने शमशेरबहादुर को चार लाख रुपयों की पेंशन देकर बाँदा को अपने अधिकार में कर लिया था। परंतु थोड़े ही दिनों के बाद उसी वर्ष अर्थात्‌ विक्रम संवत्‌ 1861 में शमशेरबहादुर मर गया। शमशेर बहादुर के बाद उसके भाई जुल्फिकार अली और उसके ल ड़के अलीबहादुर  को  चार लाख की पेंशन मिली और ये सब लोग नवाब बाँदा कहलाते रहे। इनके वंशज अभी तक इंदौर  मे मौजूद हैं ।

अलीबहादुर ने बुंदेलखंड के जिन राजाओं को अपने अधिकार में कर लिया था वे सब अब अंग्रेजों के अधिकार में हो गए। ओरछा, दतिया और  समथर को छोड़कर लगभग सब राजा अंग्रेजों के अधीन हो गए। अंग्रेजों ने इन राजाओं को अपने अपने राज्य का अधिकारी बना रहने दिया और उन्हें सनदें दीं। इन सनदों के पाने पर ये सब सदा अंग्रेजों के भक्त बने रहे।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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