Bundeli Lok Sahitya बुंदेली लोक साहित्य

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लोकसाहित्य लोकभाषा का वह साहित्य है, जो अपने अन्तर्निहित लोकत्व के कारण  लोकमान्य होकर लोकगृहीत हो गया हो और लोकमुख में जीवित हो। Bundeli  Lok Sahitya में लोकत्व के वे प्रमुख गुण है, जो साहित्य को लोकसाहित्य के रूप में ढालने की अद्भुत क्षमता रखता है।

 

बुंदेली लोक साहित्य Bundeli Lok Sahitya

Bundeli Folk Literature

बुन्देलखंड का लोकसाहित्य Folk Literature of Bundelkhand

जिस तरह साहित्य की अनुभूति के तीन पक्ष-भाव, विचार और कल्पना होते हैं, उसी प्रकार लोकसाहित्य की लोकानुभूति

के लोकभाव, लोकविवेक और लोककल्पना, तीनों का अस्तित्व महत्त्वपूर्ण है। लोकभाव लोकरचना का केन्द्रीय तत्त्व है, जबकि लोकविवेक से पुष्टि confirmed होकर वह विविधता, व्यापकता और सघनता पाता है।

लोकविवेक और लोककल्पना का स्तर लोक के अनुरूप रहता है। अगर ध्यान से परखा जाए, तो लोकभाव दोनों तत्त्वों लोकविवेक और लोककल्पना की अपेक्षा अधिक मात्रा में रहता है। इसीलिए लोककाव्य में भावुकता की प्रधानता और अधिकता रहती है। लोकगाथाओं में तीन तत्त्वों में बहुत कुछ सन्तुलन रहता है। जबकि लोककथाओं में लोकविवेक की अनिवार्यता उसके महत्त्व को बढ़ा देती है।

बुंदेली लोकसाहित्य का वर्गीकरण
Classification of Bundeli Folk Literature
बुन्देलखंड जनपद जितना विशाल है, उतना ही समृद्ध भंडार है लोक साहित्य का। इसी प्रकार यहाँ के लोक की विविधता के कारण  लोकसाहित्य भी विविधता के रंगों से रंजित है। मोटे तौर पर लोकसाहित्य की सम्पदा का वर्गीकरण  निम्नानुसार किया जा सकता है।

विधागत वर्गीकरण
A-  लोककाव्य Folklore जिसमें लोकगीत और लोकगाथाएँ, दोनों सम्मिलित हैं।
B-  लोककथा Folk tale
C-  लोकनाट्य Folk Drama
D-  लोकोक्ति Proverb, जिसमें कहावतें और पहेलियाँ सम्मिलित हैं।

विषयगत वर्गीकरण
A-  पारिवारिक- सामाजिक लोकसाहित्य Family – Social Folk literature
B-  ऐतिहासिक- राजनीतिक लोकसाहित्य Historical- Political Folk literature
C-  औद्योगिक- आर्थिक  लोकसाहित्य Industrial-Economic, Folk literature
D-  लोकोत्सवी धार्मिक लोकसाहित्य Folk festival religious folk Literature
E-  लोकरंजक लोकसाहित्य folk literature
F- रीतिरिवाज- संस्कृति-परक लोकसाहित्य Custom-Cultural Oriented folk Literature
G- लोकोक्ति नीति-परक लोकसाहित्य Proverb -Moral folk Literature

निर्वैयक्तिकता impersonality
निर्वैयक्तिकता का अर्थ है व्यक्तित्व का सर्वथा अभाव। लोकसाहित्य की रचना-प्रक्रिया में रचनाकार दो रूपों में भाग लेता है एक सदय (भोक्ता) के रूप में और दूसरा रचनाकार (सृष्टा) के रूप में। दोनों रूप लोकत्व के धर्म को धारण करने के कारण लोकमय रहते हैं और उनकी अनुभूति से व्यक्तित्व बिल्कुल विसर्जित हो जाता है।

तुलसी दास या सूर दास की रचना भले ही लोकप्रिय होकर लोकमुख में आ गई हो, पर उसमें तुलसी या सूर का व्यक्तित्व सन्निविष्ट रहता है। लोकगीत गाने-सुनने से गायक या गायकों का आभास होता है। विवाद के मुद्दे दो हैं। पहला है समूचे लोकसाहित्य को लोकरचित मानना। इसके समर्थक कुछ लोकगीतों का उदाहरण दे सकते हैं, जिनमें गीत की एक कड़ी कुछ प्रचलित शब्दों के साथ दोहराई जाती है। एक उदाहरण…..

अबेरे दूला काये सजे महराजा ?
बना के आजुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज।
बना के काबुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज…।

इसी तरह फूफा, ननदेउ और न जाने कितने नातेदारों के नाम जोड़कर काई भी गायक गा सकता है। यदि ऐसे गीतों को लोकरचित कहा जाता है, तो क्या इनके आधार पर पूरा लोकसाहित्य लोकरचित माना जाता उचित है ? कुछ लोकगीतों में लोककवियों के नामों की छाप पड़ी है और वे लोकगीत पारम्परिक मान्य होकर गाए जाते रहे हैं,

लोकसाहित्य में परिवर्तन या परिवर्द्धन की पूरी छूट है, पर यह सही नहीं है। एक पारम्परिक लोकगीत गाते समय यदि गायिका की भूल से एक शब्द भी बदलता है, तो दूसरी गायिका टोककर सही शब्द की याद दिला देती है। दूसरे, भारतीय परिवारों में हर महिला को गीत सीखने और याद करने की ललक होती है। हर परिवार में बच्चों को याद करने की आदत डालने के लिए अभ्यास कराया जाता है, इस लिये बड़े होने पर लोकगीत बहुत जल्दी याद हो जाते हैं। साथ ही उन गीतों के अभ्यास के लिए उचित अवसर भी बार-बार आते हैं।

लोक वाचिकता
लोकसाहित्य का प्रमुख तत्त्व उसकी लोकवाचिकता है, जिसका अर्थ है उसका मौखिक परम्परा में जीवित रहना। लोकसाहित्य लोकमुख में ही रहता है और उसकी गतिशीलता मौखिक प्रसारण में है। वाचिकता तो परिनिष्ठित साहित्य में भी होती है, क्योंकि उसमें वही साहित्य आता है, जिसमें वक्ता का श्रोता से सीधा सम्बन्ध हो। लेकिन समूचे लोकसाहित्य में गायक या वक्ता श्रोताओं से सीधे साक्षात्कार द्वारा जुड़ता है और वाचिकता उसका अनिवार्य तत्त्व है।

लोकवाचिकता में इतनी शक्ति है कि एक जनपद से दूसरे जनपद तक यात्रा करते हुए देशभर को जगा देती है। बुन्देलखंड की आल्हा और हरदौल गाथाएँ पूरे उत्तर भारत में ही नहीं, देश के अधिकांश भागों में यात्राएँ कर चुकी हैं और हर जनपद की लोकभाषा में जीवित होकर वहीं की हो गई हैं। इसी तरह ब्रज के कृष्णपरक आख्यानक गीतों और अवध की रामपरक गाथाओं ने कई जनपदों को प्रभावित किया है।

सार्वभौमिकता
लोकसाहित्य जनपदों की अपनी-अपनी लोकभाषाओं में होते हुए और जनपदीय संस्कृतियों को अपनाकर भी केवल अपने जनपदों तक सीमित नहीं रहता, वरन् क्षेत्रीयता की दीवारें लाँघकर सर्वदेशीय हो जाता है। असल में, लोकसाहित्य उन मानवीय लोकभावों और लोकानुभूतियों का साहित्य है, जो सार्वभौमिक हैं।

भाई-बहिन, ननद, भौजी, माता-पुत्री, पति-पत्नी, सास-बहू, पिता-पुत्रा, प्रेमिका-प्रेमी आदि के सम्बन्धों और खासतौर पर उनमें निहित भावनाओं का चित्रण सब जगह एक-सा है। इसी प्रकार हर जनपद के गीतों के विषय, विम्ब या चित्र, प्रतीक और शैलियाँ भी एक समान हैं। हर जनपद का लोकसाहित्य एक कालविशेष में एक-सी वस्तु और शिल्प का प्रयोग करता रहा है।

यह बात अलग है कि लोकभाषा की भिन्नता और स्थानीयता कुछ कठिनाई उत्पन्न करती हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस निजता के कारण उतपन्न विविधताओं के होते हुए भी उनमें अन्दरूनी एकता है। ऐसे लोकसाहित्य पर क्षेत्रावाद का आरोप मढ़ दिया जाता है, जबकि वह भारतीय साहित्य के एक अंग के रूप में ही अपनी निजता बनाए रखता है।

जिस तरह बुन्देली भाषा भारत का एक अंग है, ठीक उसी तरह उसका लोकसाहित्य भी। जनपदीय लोकसाहित्य में भारत की आत्मा रहती है और देश के सुख-दुख में जब भी जरूरत होती है, लोकसाहित्य उसमें साथ देता है। इस तथ्य का साक्षी है राष्ट्रीय लोकसाहित्य, जो देश की गुलामी के खिलाफ अपनी गायकी द्वारा आक्रमण  करता रहा।

लोकसाहित्य की गत्यात्मकता
हर जनपद के लोकसाहित्य में देश और काल का महत्त्व है, क्योंकि लोकोपयोगिता के मानदंड का निर्धारण  देश-काल पर निर्भर है। आशय यह है कि लोककवियों की दृष्टि तत्कालीन परिस्थितियों पर टिकी रहती है। समाज या लोक परिवर्तनशील है, इसलिए उसे वर्णित करनेवाला लोकसाहित्य भी गतिशील है। लोक के लिए उपयोगी लोकगीत तब तक ताजा रहता है।

आवश्यकता के कारण लोकगीतों का जन्म होता है और लोकमुख में आते ही यौवन शुरू होता है।  कभी-कभी सैकड़ों वर्ष की आयु पाकर भी वह पुराना नहीं होता। परिनिष्ठित साहित्य की तरह उसके शब्द बासी नहीं होते। फिर भी कोई नियमितता या निश्चितता और नियमबद्धता को लोकसाहित्य में स्थान नहीं है। ठहरे जल की गतिहीनता उसे सह्य नहीं, वह तो निर्झर की गतिशीलता के प्रवाह का हामी है।

लोकसाहित्य की पारम्परिकता
लोकसाहित्य में लोक परम्परा से पहचान की अपार क्षमता है। चाहे वस्तु हो या शिल्प, दोनों में परम्परा का निर्वाह सहज रूप में होता रहता है। शर्त यह है कि वह परम्परा लोकोपयोगी हो और लोकप्रचलन में भी हो। लोकसाहित्य के विषय लोक से  गृहीत होते हैं, इसलिए लोकप्रचलित परम्पराएँ उसकी वस्तु बनते हैं।

लोकसंस्कार और लोकोत्सवों की परम्पराओं के उदाहरण सम्बंधित लोककाव्य में विद्यमान हैं। परम्परित सूक्तियाँ और शब्दावली दोहराने के अनेक साक्ष्य भी मिलते हैं। कंचन, कलश, मुतियन चैक, चन्दन पटरी, चैमुख दियरा, सोने को गड़ुआ, गंगाजल पानी, ताती जलेबी, दूध के लडुआ आदि न जाने कितने लोकगीतों में बार-बार आए हैं।

इन पारम्परिक प्रयोंगों का अर्थ लोक द्वारा आसानी से समझ लिया जाता है, अतएव नये या वैयक्ति शब्द समूहों के बाहर होने कारण  उचित नहीं समझा जाता। इसी कारण परम्परित प्रतीक और सूक्तियाँ दोहराने को शिल्प का गुण ही माना जाता है। जिस प्रकार जंगल के पौधों में हर बार वही पुष्प आते हैं, पर वे हर बार मोहक होते हैं, ठीक उसी प्रकार पारम्परिक प्रयोग हर बार अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं।

लोकसाहित्य की सामाजिकता
लोकसाहित्य का मनुष्य, सहज और निश्छल लोकमनुष्य है। इसमें कुंठा या दुराव-छिपाव नहीं है। उसे कोई भी मनोग्रन्थि या मनोविकृति नहीं जकड़ती। वह जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर। इसी कारण  उसे लोकमनुष्य कहना उचित है। यदि कोई लोकादर्श या लोकहित के लिए अपने को निछावर कर देता है अथवा कोई लोकमूल्य स्थापित करता है, तो वह लोकसाहित्य की वस्तु बन जाता है। लोकमानस में छा जानेवाला व्यक्ति लोक का विषय होने से लोकसाहित्य में स्थान पा लेता है।

गहराई से विचार करें, तो लोकसाहित्य में वैयक्तिक व्यक्ति का लोकव्यक्ति के रूप में ही ग्रहण  किया जाता है और दैवी व्यक्तित्वों या देवों का अपना दैवीपन या देवत्व दौड़कर लोकमानवीय भूमिका में उतरना पड़ता है। एक तरफ आल्हा- दल, जगदेव या जगद्देव, हरदौल और गांधी जैसे व्यक्ति हैं, तो दूसरी तरफ शिव, राम, कृष्ण, पार्वती, सीता, दुर्गा, कौशिल्या, यशोदा आदि दैवी व्यक्तित्व हैं। लोकसाहित्य दोनों को लोक के साँचों में ढालकर ही अपनाता है।

अक्सर लोकसाहित्य में अंकित समाज पर सामन्ती होने के आरोप मढ़े जाते रहे हैं, जबकि वह समाज में किसी मतवादी  दृष्टि से अछूती रही है। उसमें उसी समाज का चित्रण है, जो तत्कालीन लोक में जीवित है।

लोकसाहित्य में मांगलिकता
लोकमंगल ही लोकसाहित्य का प्रधान उद्देश्य है। वह लोकहित के लिए ही गाया या कहा जाता है और तन्मय होकर उसे सुनने से मन उल्लसित रहता है। लोककथाओं में अपार पीड़ा,ईष्र्या-द्वेष, प्रतिहिंसा, कलह, संघर्ष आदि के बाद अन्त में मांगलिक भरत वाक्य रहता है, जिसका तात्पर्य लोककल्याण ही है। हर लोककथा की अन्तिम पंक्तियाँ कुछ निम्न प्रकार होती हैं…
जैसी उनकी मंसा पूरी करी, ऐसई करियौ।
जैसी उनकी लाज राखी, वैसई सबकी राखियौ।
जैसो उनें आनन्द भओ, बैसई सबखों होय। आदि।

लोककाव्य में सरसुती, महादेव तथा अन्य देवों की स्तुति का भी समावेश हुआ है। स्थानीय लोकदेवी और लोकदेवता की भक्ति में भी लोककाव्य रचा गया है। उन भक्तिपरक गीतों और गाथाओं में लोकमंगल की भावना रही है। वस्तुतः लोकसाहित्य में लोकानुभूति की लोकाभिव्यक्ति होती है, अतएव उसमें लोकमंगल की ही अनुभूति काम करेगी, व्यक्तिगत मंगल की नहीं। यही कारण है कि लोक की सारी पीड़ाएँ लोकमंगल में पर्यवसित हो जाती हैं। लेकिन सहृदय या श्रोता पूरी तन्मयता से लोककाव्य या लोकसाहित्य का आस्वादन करे।

लोकसाहित्य मे मूल और प्रकृत का प्रयोग
लोकसाहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि उसमें  हीत विषय, घटनाएँ, पात्रा, वातावरण , रंग, शैलियाँ, लय आदि मूल होते हैं, क्योंकि कल्पित के लिए कोई स्थान नहीं होता। वस्तुतः लोकसाहित्य प्रकृत साहित्य है, बनावटी का उपभोगी नहीं। लोकजीवन में जो कुछ प्रत्यक्ष है, वही लोकसाहित्य की वस्तु बनता है।

परिष्कृत Refined साहित्य विशिष्ट का चयन करता है, पर लोकसाहित्य हर क्षेत्र को लेता है। भले-बूरे, सीधे-टेढ़े और सभी उसे स्वीकार्य हैं, लेकिन देश-काल का ध्यान उसकी प्राथमिक विशेषता है। मनुष्य को सर्वाधिक महत्त्व देने और मूल्यों को प्रतिपादित करने में लोकसाहित्य अग्रणी रहा है, क्योंकि उसने मनुष्य से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों को वाणी दी है।

लोकसहज शिल्प
लोकाभिव्यक्ति किसी शिल्प-कौशल की वांछा नहीं रखती, यह बात अलग है कि समीक्षकों ने उसमें शिल्प परखने का प्रयास किया है और लोकछन्दों, उपमानों, प्रतीकों, मिथकों आदि की खोज कर ली है। लोकसाहित्य का शिल्प अनगढ़ होता है, उसमें किसी कृत्रिम बुनावट की गुंजाइश नहीं होती। अभिव्यक्ति का लोकसहज रूप ही उसका लक्ष्य होता है।

लोकसहजता से तात्पर्य है प्रकृत या स्वाभाविक। उदाहरणार्थ  गोचारण करनेवाले गायक हिंसक जानवर के कारण तारसप्तक स्वरों में दिवारी गीत गाकर अपनी उपस्थिति का पता देते हैं। लोकगीतों की लयों की  उतपत्ति या तो श्रम की गति के अनुरूप हुआ है या मानवीय भावों और प्रकृति के अनुकूलित अभिव्यक्ति देने के लिए।

शिल्प के उपकरण  और अलंकरण  द्वारा लोकसाहित्य को सजान-सँवारने में रत्तीभर आग्रह दृष्टिगत नहीं होता। जो कुछ सहजतः एवं स्वतः गीतों या कथाओं में आ गया है, वही उनकी धरोहर बन गया है। वह भी लोकभावों और लोकसंवेदना को व्यक्त करने के उद्देश्य से ग्रहण किया गया है।

वैसे तो लोकभाषा के शब्दों, उपमानों, मिथकों, प्रतीकों आदि ने परिनिष्ठित साहित्य के शिल्प को हर युग में नई ताजगी दी है। संक्षेप में, लोकसाहित्य का अनायासित, किन्तु लोकसहज शिल्प ही कविता का आदर्श शिल्प है।

लोकसाहित्य की संगीतात्मकता
लोकसंगीत के अनुशीलन से स्पष्ट है कि संसार का आदिम संगीत लोकसाहित्य में ही बचा है। आदिम संगीत से लेकर आज तक का संगीत लोकसंगीत का ऋणी है। लोकसाहित्य का लोकसंगीत प्रकृति से फूटकर अपने प्रकृत रूप में तरंगायित रहा है। बुन्देलखंड की गहनई और कारसदेव की लोकगाथाएँ कथनशैली अपनाकर भी सांगीतिक लय को स्पर्श करती हैं।

वैसे समूचा लोककाव्य लयात्मक माधुर्य से बँधा है। विषयानुरूप ओज और करूण भी है। राग-रागनियों से मुक्त लोकसंगीत लोकभाव के प्रवाह का संगीत है, जिससे लोकगीतों की भावुकता गतिशील और मधुर बनी रहती है। भाव और कल्पना की स्वच्छन्दता के अनुरूप लोकधुनें भी मुक्त होकर विचरित है। लोकसंगीत की मुक्तता, सहजता और सरलता ने लोकसाहित्य से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, इसलिए संगीतात्मकता उसका अनिवार्य तत्त्व बन गई है।

लोकसाहित्य मे वैचारिक निरपेक्षता
लोकसाहित्य की लोकसंवेदना में विचार-तत्त्व लोकविवेक के रूप में होता है, लेकिन वह किसी विशिष्ट दर्शन, धर्म और मतवाद से प्रभावित नहीं होता। लोकविवेक ऐसा आश्चर्यजनक संघटन है, जिसमें सभी प्रकार के दर्शन, धर्म और वैचारिक मतवाद अपनाविशेषता और कट्टर  दृष्टिकोण त्यागकर सामान्य रूप में घुलमिल गए हैं।

यदि समीक्षक लोकगीतों या गाथाओं के टुकड़ों अथवा लोककथाओं के उद्देश्य के आधार पर लोकसाहित्य को किसी विशिष्ट दर्शन, धर्म और वैचारिक मतवाद के खेमे में रखता है, तो यह प्रक्रिया वैज्ञानिक नहीं है। इतना अवश्य है कि ऐसे उदाहरण  यह सिद्ध करते हैं कि तत्कालीन लोक ने उनको लोकोपयोगी मानकर आत्मसात कर लिया है।

लोकसाहित्य मे लोकरस
लोकसाहित्य के लोकरस का आनन्द लोकानन्द है, जिसे एक व्यक्ति नहीं, वरन् लोक सामूहिक रूप में एक समान अनुभूत करता है। परिष्कृत साहित्य की रचना में अर्थ-बोध एवं सहृदय के स्तर की समस्या रहती है, अतएव उसकी रसानुभूति में बाधक तत्त्व भी रहते हैं। लोककृति में लोकभाव और लोकविवेक तथा उनकी संयोजक लोककल्पना, सभी पहले से ही लोकीकृत रहते हैं। लोकसाहित्य में लोकभाव की भावुकता लोकविवेक की वैचारिकता से अधिक प्रभावी होती है। यहाँ तक कि कुछ रचनाओं में लोकोविवेक न्यून रहता है केवल लोकभाव ही अपने प्रवाह से लोक वृति को बाँधे रखता है।

किसी भी  लोक  संस्कृति को जन मानस मे जीवित रखने मे  लोक साहित्य का योग्यदान अति आवश्यक ही नही  अतुलनीय है। लोकसाहित्य ही लोकसंस्कृति का चित्रण करता है। उसके लोकगीतों, लोकगाथाओं, लोककथाओं, लोकनाट्यों, लोकोक्तियों आदि में हर जनपद के भोजन पेय और वस्त्राभरण से लेकर लोकदर्शन या लोकचिन्तन तक के क्रिया-कलापों और विचारों का अंकन हुआ है। इस तरह राष्ट्र से सभी जनपदों की विविध लोकसंस्कृतियों को सुरक्षित रखने का महत् कार्य लोकसाहित्य ने किया है।

बुन्देलखंड की संस्कृति मे लोकसाहित्य का योगदान
व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार, परिवार के सम्बन्ध और रिश्ते, समाज के जोड़ने वाले लोकोत्सवों से लेकर सामाजिक समस्याओं तक के सुख-दुख, धरती की प्रशंसा से लेकर राष्ट्रीय स्वतन्त्राता-संग्राम तक की राष्ट्रीय चेतना तथा सांस्कृतिक एकता से लेकर विश्वबन्धुत्व तक की व्यापक वैचारिकता का इतना विशाल फलक लोकसाहित्य में वर्णित विषय-वस्तु का है, जिसे रेखाँकित करने के लिए लोकसाहित्य की कलम हर युग में सक्रिय रही है।

लोकसाहित्य में संस्कृति का इतिहास मिलता है। बुन्देलखंड का उदाहरण लें। कारसदेव, धर्मा साँवरी और गहनई लोकगाथाओं में चरागाही संस्कृति का चित्रण है और दिनरी, बिलवारी, पसर, वर्षा, अकाल (सूखा) आदि कृषिपरक गीतों में किसानी संस्कृति का। श्रमपरक लोकगीत और लोककथाएँ चक्की या जँतसार के श्रम से लेकर भिखारियों के संगीतात्मक श्रम तक श्रमिक संस्कृति को उजागर करते हैं। उनमें एक तरफ कर्मठता और नैतिकता है, तो दूसरी तरफ निर्धनता की व्यथा और सामन्ती शोषण से उपजी विवश निराशा है ।

संस्कारगीतों में पुराने रीति-रिवाज, संस्कार, कार्यकलाप, पारस्परिक सम्बन्ध, रूढ़ियों, लोकविश्वास और करुणामयी भावुकता एवं उल्लासमयी आस्था के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन, विघटन और नये मूल्यों के संकेतों की विकास-रेखा स्पष्ट दिखाई देती है। जातिगत गीतों या जातिपरक लोकसाहित्य में भी पुरानेपन के साथ नये परिवर्तनों की रेखाएँ उभरी हैं। भक्तिपरक गीतों में लोकचेतना का ऐसा ज्वार उमड़ा है कि उसने सम्प्रदायों के तंग घेरों को तोड़कर समता का समुद्र तरंगायित कर दिया है। चाहे चर्म कारीगर का घर हो, चाहे ब्राह्मण का, बच्चे के जन्मते ही बसोरन गा उठती है….
‘‘घर आनन्द भए, रानी के रमैया भये।’’

उसके लिए हर माता कौशिल्या है और हर पुत्र राम। राम या कृष्ण लोक के प्रकृत मानव बन गए हैं, जबकि सीता या राधा सहज निश्छल नारी। मानवत्व का इतना सम्मान लोकसाहित्य में ही मिलता है, अन्यत्र नहीं। यहाँ मैं कुछ विशिष्ट उदाहरण देकर संस्कृति के प्रतिबिम्बन और विकास का आभास-चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। बुन्देली लोकसाहित्य के लोकगीतों या लोकगाथाओं की कुछ पंक्तियाँ उस चित्र की रेखाएँ हैं ।

पहला उदाहरण कारसदेव की गाथा का है। जिसमें चारागाही संस्कृति का महाकाव्य लिखा गया है। यहाँ उसकी एक झलक पर्याप्त है। राजू दाऊ के परिवार में उसकी पत्नी और बेटी है, जो प्रातः उठकर पशुओं की सेवा में मग्न रहते हैं। बेटी ऐलादी का प्रातः जागना और लोई एवं दोहनी लेकर जंगल में बने खोड़ में जाना, पिता को सुखकर नींद से जगाकर धौरी की खबर न लेने से दोष का संकेत करना और खोड़ी में डंगुरी (भागने वाली गाय जिसकी गर्दन में गतिरोध के लिए लकड़ी बाँध देते हैं), धौरी (धवल) और लबाई (हाल की ब्यानी गाय) गायों का पुकारना चारागाही संस्कृति का बोलता चित्र प्रस्तुत करता है… ।
राजू की बेटी सोउत में जागी, भई तय्यार, हो ओ ओ…।
लोई दौनिया हाँतन लै लई, माँझे हार में, हो ओ ओ…।
इक बन चाली दोबन चाली, तीजे खोरन द्वार, हो ओ ओ…।
दाउ सोय रये सुखनिंदिया, खोरन धौरी गाय हो ओ…।
बोली बेटी दाउ का सोबै सुखनिंदिया, धौरी के चढें अपराध, हो ओ…।
खोरन सें रमाबै लबाई डेंगुरी धौरी गाय, हो ओ ओ…।

इसी से मिलता-जुलता दूसरा उदाहरण एक कृषिपरक गीत का है, जो मध्ययुग में रचा गया था। इसमें ननद-भौजी का संवाद नाटकीय मोड़ लेता है। पंक्तियाँ देखें… ।
अनबोलें रहो न जाय, ननदबाई, बीरन हू भाबै अनबोला।
गइया दुहाउन तुम जइयो, उतै बछड़ा खों दइयो छोर,
भौजी मोरी बीरन हमारे तब बोलें।

यहाँ पशुपालन संयोग का माध्यम है। भक्तिपरक गीतों में गाय दुहने में ही राधा-कृष्ण का मिलन, प्रेम और लीलाएँ होती हैं। लेकिन उत्तर मध्ययुग में जब हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में काव्यत्व की प्रतिष्ठा होती है, तब गाँव की गोरी भावुकता में डूबकर गा उठती है…. ।
चन्दा पै खेती करों, सूरज पै करों खरयान।
जोबन के बरदा करों, मोरो पिया पसर खों जायँ।।

इन पंक्तियों में यौवन को बैलों का प्रतीक बनाकर ‘पसर’ की सार्थकता सिद्ध की गई है, लेकिन विद्वान इसे समझ नहीं पाए और ‘‘बरदा’’ की जगह ‘‘बदरा’’ कर गए। बादल और पसर का कोई जोड़ नहीं। ‘पसर’ चरने बैल ही जाते हैं। प्रियतम रूपी कृषक यौवन-रूपी बैलों को लेकर पसर चराने जाए, तो उसकी प्रियतमा नायिका को बहुत खुशी होगी। वही गाँव की नायिका अकाल के बाद अपनी व्यथा कहती है… ।

जुन्डी हो गयी मन भर की।
मुंसी आये पटवारी आये होन लगी कुरकी।
लाँगा बिक गओ नुगरो बिक गओ,
बिक गयी अंगिया जेई तन की।
राजा के बाँधत कौ सेला बिक गओ,
फजीयत हो गई घर भर की।।
इन पंक्तियों में जमींदार द्वारा कुर्की में ‘अंगिया’ का बिकना गरीबी का और ‘सेला’ का बिकना प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इस प्रकार इन उदाहरणों से सुख-समृद्धि की संस्कृति के बाद अंग्रेजों के समय की गरीबी कृषकों की संस्कृति सांस्कृतिक पिछड़ाव को व्यक्त करती है। शोषण से लाई गई निर्धनता से समाज की जुझारू शक्ति तक चुक गई थी।

चन्देल-काल में यानी कि नौंवीं शती से बारहवीं शती तक बुन्देलखंड की संस्कृति का निर्माण हुआ है, लेकिन तेरहवीं शती के प्रारम्भ में ही एक बहुत शक्तिशाली विदेशी आक्रमण के कारण उसे एक झटका लगा। उसके पूर्व ग्यारहवीं शती से विदेशी आक्रमणों से पूरा देश आक्रान्त था और 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान के आक्रमणों ने बुन्देलखंड की भूमि पर तुषारपात किया था। लोकमहाकाव्य आल्हा के रचयिता जगनिक ने लिखा था…. ।

खटिया परकें जे मर जैहें, नॉउ डुब पुरखन कौ जाय।
जे मर जैहें रनखेतन मा, साखौ चलो अँगारूँ जाय।।
रण में जूझकर मरने से यश फैलाने का लोकमूल्य 12वीं शती की सांस्कृतिक चेतना का प्रमुख आधार था। असल में, मध्ययुग की लड़ाई का अधिकतर सांस्कृतिक थी। मध्ययुग की लोकसंस्कृति ने ही विदेशी संस्कृतियों के हमलों से सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा की थी और उस अहिंसक संघर्ष का मोर्चा सँभाला था लोकगीतों ने।

वे लोकगीत, जो हर आदमी को राम-कृष्ण बनाते रहे, जो हर नारी को कौशिल्या-यशोदा और सीता-राधा बनाकर परिवार और समाज का संगठन करते रहे तथा जो हथियारों से घिरे हुए बिना भी किसी मतवाद और आग्रह के ममता और प्रेम के स्तूप खड़े करते रहे। कोई उन्हें भले ही पुरातत्त्व की काँटेदार बाड़ से सुरक्षित बना दे अथवा सामन्ती नाम देकर खँडहर कर डाले, लेकिन इतना तो इतिहास भी मानेगा कि सांस्कृतिक संघर्ष का एक कठिन मोर्चा लोकगीतों ने ही लड़ा है।

‘कजरियन कौ राछरौ’ में ‘हाँत काऊ के परियों नईं लग जैहै कुल में दाग’ और ‘मारत-मारत भुज्जें रै गईं ललकारत रै गई भाँस’ से स्पष्ट रै कि नारी की रक्षा के लिए भाई, पति और पिता को युद्ध करना पड़ता था। मध्ययुग की ‘मानों गूजरी’ और ‘मथुरावली’ की मुगलकालीन गाथाओं में भारतीय नारी के पतिव्रत की चिन्ता केन्द्र में रही है।

पहली में पति ने स्वयं युद्ध कर शत्रा का विनाश किया है, लेकिन दूसरी में मथुरावली भाई की पगड़ी की और पति के फेरों की लाज रखने के लिए खड़ी-खड़ी जल जाती है। ‘बिजौरी की कुँवरि की गाथा’ में बेला अपनी सहेलियों के साथ कुएँ में डूब जाती है। तात्पर्य यह है कि यह संघर्ष हिंसा से अहिंसा की ओर चला है।

बुन्देलखंड के हरबोलों की कहानी उनके द्वारा गाए गए लोकगीतों की कहानी है। 1840 ई में जैतपुर-नरेश पारीछत ने अंग्रेजों से युद्ध किया था, बाद में मधुकरसाहि, जवाहर सिंह, गणेश जू, दौलत सिंह, लक्ष्मण सिंह आदि बागी बनकर अंग्रेजों को परेशान करते रहे। लेकिन सबसे अधिक जुझारू कतार थी लोकगीतों की, जो लगभग दो-तीन दशक आजादी की लड़ाई लड़ते रहे। 1857 ई. के स्वतन्त्राता-संग्राम के पहले हरबोलों के लोकगीतों और लोकगाथाओं ने एक सेना तैयार कर दी थी। लोककवि ने लिखा है…।
काऊ नें सैर भाषे काऊ नें लावनी।
अबके हल्ला में फुँकी जात छावनी।।

‘हल्ला’ का अर्थ है आक्रमण। वास्तव में, यह सैर, लावनी जैसे लोकगीतों का आक्रमण था, जिसने फौज की छावनी को नष्ट कर दिया था। लोकगीतों को जन-जन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी सँभाली हरबोलों ने। हरबोले अर्थात् रचनाधर्मी लोकगायकों की नई फौज, जिसने हर द्वार को जगाने की ठानी थी। धोती या सूतना, कुर्ता या मिरजई और साफा या पगड़ी या मुड़ासा पहने, कन्धे से गुदरी लटकाए और एक हाथ से सारंगी बजाते तथा मंजीरों के सुरीले स्वरों के साथ कोई कथागीत गाते ये योगियों की तरह फेरी देते यायावरी। गले में माला और जोगिया रूप, गीत की पंक्तियों में जुड़ा ‘‘हर गंगा हर गोपाल, हर के बचन सुनौ दो चार’’ से भक्त का बाहरी आभास, लेकिन भीतर से लोकजागरण का संकल्प।

गाँव-नगर में फैले दल के दल घर-घर, द्वार-द्वार लोकधुन में बंधी कोई वीरगाथा सुनाते न कोई दस्तक और न कोई सवाल। बिना माँगे जिसने जो दिया, उसी में सन्तुष्ट। कोई भेदभाव नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, एक अयाचित याचना और क्रान्ति को जगाने का अनुष्ठान। इसी तरह संघर्ष का यह चक्र निरन्तर घूमता रहता है। कभी हथियारों को लेकर जूझने का आह्नान-निमाड़ी लोकगीत की दो पंक्तियों से…।

‘भारतवासी कठिन सूरमा, कठिन जात बलवान गा।’
मरना जीना नाहि डराबे, तेग दिहे परान गा।।’
कभी अंग्रेजों के शोषण को उजागर करते हुए उन पर आरोप का हमला करना छत्तीसगढी़ ददरिया लोकगीत की लोकप्रिय पंक्तियाँ…।
‘‘धूँकी साही अंगरेज भुइयाँ म छाइगे। मोर सोन के चिरैया माटी होइगे।।’

(अँग्रेज महामारी की तरह धरती पर छा गए और हमारी सोने की चिड़िया माटी हो गयी।) कभी गुलामी की विरासित पर व्यंग्य करते हुए बुन्देली लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ ‘बुन्देलखंड की जनता रोबै, भये राजा अत्याचारी।

अँगरेजन के गुलाम राजा, तिनके हम गुलामी भारी।।’ तथा कभी गांधीजी को स्वराज लाने के लिए आतुर होना एक राष्ट्रीय लोकगीत, जो हर जनपद में प्रचलित रहा…।
गाँधीजी महात्मा नेंग में मचले, दायजे में माँगें सुराज।
ठाड़ी गवर्नमेंट बिनती सुनाबै, जीजा, गौने में दैबी सुराज।।’’

अंग्रेज शासन के द्वारा गौने में स्वराज देने में अंग्रेजों की कूटनीति का सफल चित्राण हुआ है। इसी जूझारू भावना से एक तरफ देशप्रेम का अंकुर फूटा है, तो दूसरी तरफ सांस्कृतिक एकता का। देशप्रेम या राष्ट्रीयता केवल हृदय की वस्तु नहीं है, वरन् मस्तिष्क की भी है। इसलिए लोककवि को राष्ट्र के अंग-अंग प्रिय लगते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह पुत्रा को माता और भाई को बहिन। एक लमटेरा गीत देखें…।
नरबदा अरे माता तो लगै रे,
अरे माता लगै रे, तिरबैनी लगै मोरी बैन रे, नरबदा हो…।

लोकगीत सांस्कृतिक एकता के सहज माध्यम हैं। यह सही है कि नर्मदा नदी माता की तरह और त्रिवेणी बहिन की तरह प्रिय लगती हैं। यह वैचारिकता संकीर्ण नहीं है, क्योंकि वह धरती माँ की स्तुति तक विकास करती हैं। हर अंचल के लोकगीतों की अपनी निजता है, इसलिए उनमें विविधता स्वाभाविक है। लेकिन लोकवातावरण और लोकभाषा में लिपटा अन्तरंग एक है। सभी अंचलों के लोकगीतों में संस्कारों की एकरूपता है, एक-से मानवीय रिश्तों की व्यंजना है और लोककल्याण का एक ही लक्ष्य है।

प्रेम-त्याग, वीरता-बलिदान, भाग्य-कर्म, शील-सतीत्व जैसे लोकमूल्य सभी में मिलते हें। सभी में एक-सा लोकधर्म है, जो किसी भी स्तर पर साम्प्रदायिक नहीं है और जिसमें हर देवता सामान्य मानव बनकर अवतरित हुआ है। कुछ लोकगीत, गाथाओं, कथाओं, लोकोक्तियों ने कई अंचलों में भावयात्रा की है। आल्हा, श्रवणकुमार, भरथरी, ढोलामारू, देवगीत, विदागीत आदि पूरे उत्तर भारत में प्रचलित हैं। मध्यप्रदेश में विदा गीत का एक उदाहरण देखें…।

बुन्देली : माई के रोये सें नदिया बहत है, बाबुल के रोये बेलाताल, मोरे लाल।
बीरन के रोये छतिया फटत है, भौजी के जियरा कठोर, मोरे लाल।।
बघेली : बापा के रोये नदिया बहत हैइ, माया के रोये तलबा।
भइया के रोये हिया फटत हइ, भउजी के बइना कठोर।।
छत्तीसगढ़ी : दाई तोला रोवै नोनी हरर हरर ओ, दादा रोबै गंगा बोहाबै।
भइया तोला रोवै नोनी भींजै पिछौरी, भौजी के नैना कठोर है।।
मालवी : मैया की अँखियन से गंगा बहत है, बाबुल की अँखियाँ तलाब।
भैया की अँखियन से नदिया बहत है भाभी को हृदय कठोर।
लोकसाहित्य में मन की उत्फुल्लता, आशा, उत्साह और आस्था के आवेग उतराते रहते हैं जिनसे पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जुड़ाव के रिश्ते बनते हैं। लोकसाहित्य में व्यक्त संस्कार उत्सव, रीति-रिवाज, लोकमूल्य आदि व्यक्ति को व्यक्ति से बाँधते हैं। लोकगीत इस एकत्व का साक्षी है…।

क पेड़ मथुरा जमो, डार गयी जगन्नाथ रे।
फूल जो फूलो द्वारका, फल लागे बद्रीनाथ रे…।।

मथुरा, जगन्नाथ, द्वारका, बद्रीनाथ की एकता को प्रदर्शित करनेवाली उक्ति कितनी सरल सहज है। वृक्ष की जड़ मथुरा में, डाल जगन्नाथ में, फूल द्वारका में और फल बद्रीनाथ में। इस एकता का बिम्बन करने के साथ-साथ लोकसाहित्य सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करता है, जिससे संस्कृति के विकास को परखने का अवसर मिलता है। लोककवि कभी वास्तविकता को प्रकट करने से नहीं चूकता…।

चट्टिन-चट्टिन बनिया लूटै, सोरा नार फिरंगी।
ठाकुर दोरैं पंडा लूटै, जात्रा भये उदासी।।

जगन्नाथ स्वामी जू के पूजा-गीत में इन पंक्तियों की क्या आवश्यकता थी। बहुत गहराई से सोचें कि बनिया और पंडा के लूटने की सत्यता तो उजागर है, पर उनके बीच फिरंगी कहाँ से आ टपके। सोरा नार का अर्थ है सोलह शृंगार किए हुए नारी। स्पष्ट है कि फिरंगी सुन्दर नारी को लूटता था। इसीलिए लोककवि ने इस तथ्य को जन-जन तक और विशेष रूप में नारियों तक पहुँचाने के लिए एक पूजागीत चुना था। लोकसाहित्य इसी तरह जागरण का कार्य करता रहा है।

कला के क्षेत्र में भी लोकसाहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। लोकगीतों और गाथाओं ने लोकसंगीत की रचना की है और लोकसंगीत शास्त्राय संगीत का उत्स रहा है। इसी तरह लोकगीत और लोकनृत्य का भी जोड़ रहा है। सत्य यह है कि लोकसाहित्य में लोकगीत और लोकनाट्य दोनों लोक कलाओं से घनिष्ट रूप में जुड़े रहे। मैं बुन्देलखंड के एक लोकोत्सव या लोकखेल का उदाहरण देना प्रामाणिक समझता हूँ। नौरता या सुअटा लोककलाओं का गुरुकुल है, जिसमें लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकचित्रा और लोकमूर्ति कलाओं की शिक्षा खेल-खेल में मिल जाती है।

नौरता के सभी सामूहिक गीत हैं और घर के चबूतरे या अस्थाई पर अथवा गली में गाए जाते हैं। सभी कहरवा और दादरा दोनों तालों में गाए जाते हैं, पर कुछ मध्य लय में और कुछ द्रुत में। गीतों के गायन में अनुभवी गायिकाएँ नई कुमारियों को सीख देती हैं। ढिरिया गीत के साथ ढिरिया नृत्य भी चलता है और उसमें ढिरिया सिर पर लिए कन्या के साथ-साथ अन्य सभी कन्याएँ भी नृत्य करती हैं, जिससे नृत्य का आभ्यास हो जाता है। सुअटा की तैयारी वस्तुतः लोककला की तैयारी है।

कन्याएँ सबसे पहले रंग तैयार करना सीखती हैं। पहले खसकीला, दुद्दी, चीलबटा जैसे पत्थरों को बाँटकर और कपड़े से छानकर रंग के लिए प्रयुक्त किया जाता था, पर अब पिसे चावल और महीन बुरादे से रंग बनाए जाते हैं। रंगों को डिब्बों में भरकर रख लिया जाता है और उनसे प्रतिदिन रंगों की छीप भर ली जाती है। इन रंगों का प्रयोग चबूतरे की भूमि पर बनाए जानेवाले धूलिचित्रों के लिए होता है।

इन चित्रों को बुन्देलखंड में ‘चौक पूरना’ कहते हैं, क्योंकि अधिकतर तरह-तरह के चौक ही बनाए जाते हैं। चबूतरे को ढिक देकर गोबर से लीप दिया जाता है। सूखने पर चारों किनारों में कंगूरे अंकित किए जाते हैं। फिर बीच में चौक और अन्य आकृतियाँ बनती हैं। कहीं-कहीं प्रथम दिन एक ही चौक बनता है, तो कहीं-कहीं नवें दिन। बिजावर की कु. कल्पना ने बताया कि उनके यहाँ गौरा के नाम का एक चौक और फिर चन्दा-सूरज के लिए एक बनता है।

दोनों रूपों में बड़े चौक सामूहिक आलेखन से बनते हैं और सह-आलेखन की बानगी प्रस्तुत करते हैं। शेष दिनों हर कन्या अपने-अपने चौक बनाकर एक दूसरे को चुनौती देते हुए रूपांकों (डिजाइन्स) की अनोखी झाँकी लगा देती हैं। पहले सफेद रंग द्वारा रेखांकन किया जाता है, बाद में सूखे रंगों की जमावट होती है। चौकों की ज्यामितिक आकृतियों के प्रतीकात्मक अर्थ होते हैं और विभिन्न रंगों के संकेतात्मक अभिप्राय। कुछ विद्वान इन प्रतीकों के अंकन में तन्त्राविद्या की प्रेरणा मानते हैं, लेकिन मेरा अपना मत यह है कि लोकचित्रों की ज्यामितिक आकृतियों को समझने में लोकप्रतीकों की अर्थवत्ता ही लेना उचित है।

आजकल बेलिया और फूल चौक अधिक बनने लगे हैं और अलंकरण के लिए फूल-पत्ती के रूपांक प्रयुक्त हो रहे हैं। साँतिए (स्वास्तिक) भी लिखे जाते हैं। यह चित्रांकन लोकगीतों की लयानुगति के साथ होता है। दीवाल पर पहले सूर्य-चन्द्र और सुअटा की मूर्तियाँ बनती थीं, लेकिन अब उनकी जगह पर उनके चित्रा लिखे जानें लगे हैं। इन भित्तिचित्रों के लिए गीले रंगों का प्रयोग होता है, जो खड़िया, गेरू, नील, रज आदि से तैयार किए जाते हैं। पट चित्रों का चित्राण भी होता है, जिसका साक्षी है एक लोकगीत। कुछ पंक्तियाँ देखें…।


ऊँची कगर की पीयरी, नारे सुअटा, महोबे लगे हैं बजार।
बिरजी हैं गौरा, बेटी, नारे सुअटा, बाबुल मोरी चुनरी रँगाव।

ढिग-ढिग लिखियो मोरो मायको, अँचरन माई के बोल।
मझधरा लिखियो मोरे बीरन, नारे सुअटा, बाबुल पौंर दुआर।।

ढिरिया (घट) में या तो कोई ज्यामितिक रुपांक या बेलबूटेदार चित्रांकन किया जाता है, जिसे हम कलशचित्रा कह सकते हैं। ये चित्रा रेखांकन ही होते हैं। भित्तिचित्रा और कलशचित्रा दोनों में रेखाओं और उनसे ही बनती विभिन्न आकृतियों में सार्थक अर्थों की ‘व्यंजना’ होती रहती है। पट चित्रों में रेखाएँ उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती, जिनती रेखाओं से बनी आकृतियाँ। सभी तरह का चित्रांकन गीतों की तालानुगति से हुआ है।

दीवालों पर सूर्य, चन्द्र और सुअटा की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। काली मिट्टी में कागज और गोबर चूर्ण मिलाकर मिट्टी तैयार की जाती है। मूर्तियाँ सभी कन्याओं के लिए होती हैं, अतएव सभी उनकी रचना में रुचि लेती हैं। इन लोकमूर्तियों में कला की बारीकी पर ध्यान नहीं दिया जाता, वरन् उनकी अर्थमय प्रतीकात्मकता की चिन्ता की जाती है। वे स्थूल और भदेस भली हों, पर कथा के अभिप्रायों के अनुरूप होती हैं। गौरा और महादेव कहीं रोज बनते हैं, कहीं पंचमी से। अष्टमी को महागौर की प्रतिष्ठा होती है, जो दानव का वध करती है।

मूर्तिकला की सीख के लिए ‘सुअटा’ एकमात्रा मनोरंजक माध्यम है। इस मनोविज्ञान को पहचानकर ही कहीं-कहीं कन्याओं द्वारा मूर्तियाँ बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। खेल-खेल में लोकगीत गाते हुए लोककलाओं का प्रशिक्षण पा लेना एक उपलब्धि है। वह भी बिना किसी गुरू या प्रशिक्षक के। लोककला में रुचि जाग्रत होने से और उसमें तनिक-सा कौशल अर्जित कर लेने से शास्त्राय कला का द्वार भी खुल जाता है।

इन साक्ष्यों से स्वतः सिद्ध है कि लोकसाहित्य ने लोकसंस्कृति के विकास और प्रसार में जितना योग दिया है, उतना ही लोककलाओं के पनपने और फैलने में। यहाँ यह कहना भी उचित है कि लोकसंस्कृति भारतीय संस्कृति की जड़ है। जिस तरह जड़ पूरे वृक्ष और उसके हर अंग को अपने रस से पुष्ट करती है, उसी तरह लोकसंस्कृति से ही भारतीय संस्कृतिक पल्लवित, पुष्पित और फलित होती है। वस्तुतः लोकसंस्कृति राष्ट्र की अन्दरूनी शक्ति है, जो अन्दर-ही-अन्दर राष्ट्र को मजबूत करती है और अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व उसके लौह कवच को भेद नहीं पाते।

इसी तरह लोककला शास्त्राय कला की प्रेरणा शक्ति है। संगीतज्ञ लोकसंगीत को शास्त्राय संगीत का जनक मानते हैं। लोकचित्रों ने चित्राकला को हर बार नयापन, ताजगी और नई प्राणवत्ता दी है। लोकमूर्तियों से मूर्तिकला को प्रेरणा और नवीनता मिली है। इस रूप में, लोकसाहित्य, लोकसंस्कृति और लोककला को ही नहीं, वरन् संस्कृति और कला को भी पालता-पोसता और विकसित करता है। अन्त में, एक महत्वपूर्ण बात आज के प्रजातन्त्रा में ग्राम और नगर के सम्बन्धों की स्थिति के विषय में है। ग्राम और जनपद भारतीय संस्कृति और कला की परम्पराओं को सहेजकर रखते रहे हैं, जबकि नगर और महानगर बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव से संस्कृति और कला के मूल्यों को बदलते रहे हैं।

लोकतन्त्राय व्यवस्था में दोनों बराबरी के भागीदार हैं। वैसे बहुसंख्यक गाँवों की महत्ता अधिक होनी चाहिए, लेकिन चतुर अल्पसंख्यक नगर ही बाजी मार ले जाते हैं। आजादी मिलने के बाद उसका अधिकतर लाभ नगरों के खाते में जमा हुआ है। नगरों में साहित्य की संस्थाएँ हैं, केन्द्र हैं, साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, और कई रूपों में सम्मानित करनेवाले अभिजन हैं, इसलिए नगर का साहित्यकार अनेक सुअवसर पा जाता है और गाँव का उपेक्षित रहता है, इसी मानसिकता से प्रेरित गाँव का कालिदास नगर की ओर दौड़ता है, अथवा गाँव की चौपाल में ‘ईसुरी’ की तरह अपनी रचना गुनगुनाता हुआ कहता जाता है…।

‘गंगा जू लौं मरैं ईसुरी दाग बगौरा दइयौ।’ आखिर क्यों ? ईसुरी जैसे लोककवि को बगौरा गाँव गंगा जी से अधिक प्यारा क्यों था ? क्या वह या उसकी लोककविता राष्ट्रीय नहीं है ? क्या वह गाँव का कालिदास नहीं है? वह क्यों नगर की ओर दौड़े ? वह क्यों राजाश्रय के लोभ में गाँव को छोड़ दे ?

जब हमारे देश में पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत गाँव हैं, तब गाँवों के लिए साहित्य की रचना होना अति आवश्यक है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। यदि एक अंचल के लोकसाहित्य में जनपद व्यक्त होता है, तो सभी जनपदों के लोकसाहित्य में पूरा राष्ट्र। लोकसाहित्य राष्ट्रीय साहित्य है, राष्ट्र के साहित्य का अनिवार्य अंग। सच्चा राष्ट्रीय साहित्य वहीं है, जो लोक का हो, लोक को व्यक्त करता हो और लोक के लिए हो। फिर ऐसे राष्ट्रीय साहित्य की उपेक्षा क्यों ? लोककवि ईसुरी बगौरा में प्राण होम दे, और नगरों के कान में जूँ तक न रेंगे। क्या यही साहित्य का लोकतंत्र है?

साहित्य के लोकतंत्र में गाँव और नगर का कोई झगड़ा नहीं और न कभी ऐसा विचार किया गया है कि गाँव का साहित्य या साहित्यकार है अथवा नगर का। फिर भी वर्गीकरण को स्थूल रूप में रखकर देखें, तो गाँव का लोक जिस तरह उपेक्षित रहा है, उसी तरह गाँव का साहित्य और साहित्यकार विदेशी विद्वान जब लोकसाहित्य, लोकसंस्कृति और लोककलाओं की खोज में आने लगे, तब हमने भी उनकी देखा-देखी उनका अनुकरण किया और यहाँ तक कि उनके निष्कर्षों को अपने लोकसाहित्य के अध्ययन के लिए आदर्श मानने लगे। तात्पर्य यह है कि लोकसाहित्य ने संस्कृति और कला के विकास के लिए जो योग दिया है और भविष्य में जो योग देगा, उस सभी का सम्मानपूर्वक स्मरण रखना हमारा दायित्व है।

राय प्रवीण को साको 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

 

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