Alha Rachaita Mahakavi Jagnik आल्हा रचयिता महाकवि जगनिक

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आल्हाखंड लोकप्रबन्ध या साहित्यिक प्रबन्ध है या गाथा, यह विवाद बहुत पहले से चलता रहा है और उसी के साथ Alha Rachaita Mahakavi Jagnik के अस्तित्व का प्रश्न भी उठता रहा है। मूल कृति न मिलने के कारण विवाद और प्रश्न स्वाभाविक हैं, पर आल्हा खंड किसी भी काव्यरूप में हो, उसके रचयिता के कर्तव्य को नकारा नहीं जा सकता।

बुंदेलखंड की लोकगाथा आल्हा के रचयिता महाकवि जगनिक

बुन्देलखंड में बहुत प्राचीन काल से यह लोक मान्यता रही है कि आल्हा

के  रचयिता जगनिक कवि ही है। इतना ही नहीं, महोबा रासो (1526 ई. के लगभग), आल्हा राइछौ (17वीं शती), दलपति रायसौ (1707 ई.) जगतराज-दिग्विजय (1722-23 ई.), वीर-विलास (1741 ई.), आल्हा (19वीं शती का उत्तरार्द्ध), पृथ्वीराज रायसौ तिलक (1919 ई.) आदि सभी उपलब्ध ग्रन्थ साक्षी हैं। इतना जरूर है कि जगनिक के जीवन-वृतांत, निवास और व्यक्तित्व की पहचान उपलब्ध सामग्री के आधार पर ही की जा सकती है, उपर्युक्त ग्रन्थों के अलावा अन्य स्रोत अभी तक नहीं मिल सके हैं।

जगनिक का जीवन वृतांत
आल्हखंड जैसे लोकप्रसिद्ध काव्य के रचयिता महाकवि जगनिक का जीवनवृतांत अब तक अपेक्षित रहा है। साहित्य के इतिहासकारों ने कवि के जीवन-वृतांत की खोज की कोई चिन्ता नहीं की। कुछ विद्वान तो यह शंका करते हैं कि जगनिक नाम का कोई कवि था, क्योंकि वे आल्हाखंड का रचयिता कोई विशेष कवि नहीं मानते। दूसरे विद्वान जो जगनिक के अस्तित्व को स्वीकारते हैं, जगनिक जगनायक, जयानक, जगनसिंह, जगमणि, आदि में भेद नहीं कर पाते। वस्तुतः प्रामाणिक सामग्री के अभाव में जगनिक के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई हैं ।

जगनिक के जीवन के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, डा.हजारीप्रसाद द्विवेदी, डा. रामकुमार वर्मा, डा. टीकमसिंह तोमर आदि साहित्य के इतिहासकारों ने केवल इतना ही उल्लेख किया है कि जगनिक कालिंजर-नरेश परमाल के दरबार में एक भाट थे, जिन्होंने प्रसिद्ध वीर आल्हा-ऊदल के चरित्र का विस्तृत वर्णन किया था। उन्होंने जनश्रुति के आधार पर ही यह चर्चा की थी, किन्तु उसके सम्बन्ध में अधिक खोज करने का प्रयत्न नहीं किया।

इतना अवश्य है कि जगनिक आल्हाखंड के घटनाचक्र का प्रत्यक्षदर्शी पात्र थे और आल्हाखंड में उनका महत् व्यक्तित्व उभरना कोई असम्भव बात नहीं है, क्योंकि पृथ्वीराज रासौ में भी चन्दबरदाई एक महत्त्चपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है, वास्तव में, आल्हा-मनौआ का जगनिक ही महाकवि जगनिक है। वह महाराज परमर्दिदेव की पटरानी का सन्देशवाहक है, युद्धक्षेत्र में अपने शौर्य का प्रदर्शन भी करता है और राज्य की गम्भीर समस्या में परामर्श भी देता है।

कवि जगनिक आल्हाखंड के शौर्य से इतना प्रभावित था कि चन्देलनरेश परमर्दिदेव के दरबार में रहते हुए भी उसने परमर्दिदेव की प्रशस्ति में ग्रन्थ की रचना नहीं की, वरन् बनाफर वीर आल्हा को महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का नायकत्व प्रदान किया। इससे यह अनुमान लगाना उचित है कि आल्हा भी जगनिक का सम्मान करते थे। इसीलिए बनाफर बन्धुओं को महोबा आकर पृथ्वीराज चैहान से युद्ध करने के लिए प्रेरित करने का दायित्व जगनिक को सौंपा गया था। कवि ने उनके हृदय को ऐसा छुआ कि वे अपने अपमान को भूलकर मातृभूमि पर बलिदान होने के लिए तैयार हो गए।

जगनिक का आल्हा को प्रेरित कर महोबा लाने तथा कन्नौज नरेश जयचन्द से सन्धि करने के कार्य-व्यापार समानता रखते हैं और इससे कवि जगनिक का व्यक्तित्व चरम उत्कर्ष तक पहुँच जाता है। यह गरिमा कवि जगनिक की है, और किसी की नहीं। किन्तु तीन ग्रन्थों में जगनिक की मृत्यु चन्देल और चैहानों के युद्ध में होती है और यहाँ यह समस्या खड़ी हो जाती है कि कवि की मृत्यु के उपरान्त ग्रन्थ की रचना किसने की। वस्तुतः इस युद्ध में सेनानायक और जगनेरी के सामन्त जगनायक की मृत्यु का वर्णन किया गया है, कवि जगनिक ने तो इसी युद्ध के उपरान्त अपने काव्य की रचना की। अतएव जगनिक कवि की मृत्यु उसके बाद हुई होगी।

कवि जगनिक का जन्म और निवास
कवि जगनिक के निवास-स्थान और जन्म के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वान उनकी भाट जाति के आधार पर उन्हें राजस्थान का निवासी सिद्ध करते हैं। उनका मत यह है कि वे जीविकोपार्जन के लिए बुन्देलखंड आए और चन्देल-नरेश ने उनकी प्रतिभा और गुणों से प्रसन्न होकर उन्हें दरबार में रख लिया, लेकिन इससे वे राजस्थान के निवासी सिद्ध नहीं होते।

दूसरी विशेष बात यह है कि जगनिक के काव्य की भाषा और शैली बुन्देली है, राजस्थानी नहीं। उस समय राजस्थान में अपभ्रंश का जितना प्रभाव था, उतना मध्यदेशीय भाषा का नहीं। अतएव यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है। कुछ लोग उन्हें चन्देरी का निवासी कहते हैं, पर उसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

जब तक उनके जन्मस्थान की सही खोज नहीं होती, विविध अटकलों को प्रश्रय देना व्यर्थ है। इतना निश्चित है कि वे महोबा या महोबा के आसपास की बनाफरी बुन्देली भाषी स्थान के निवासी थे। महोबा में एक बह्मभट्ट परिवार श्री बिहारीलाल भट्ट का है और वे अपने को जगनिक का वंशज कहते हैं, पर उनके पास कोई प्रामाणिक साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सका।

काव्य-काल
जगनिक के काव्य-काल का निर्धारण भी सरल नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सं. 1230 (सन् 1173 ई.) निर्धारित किया है,14 किन्तु यह उचित नहीं है। चन्देल-नरेश परमर्दिदेव का शासनकाल 1165 ई. से 1202-3 ई. तक माना गया है। अतएव जगनिक भी इसी अवधि में राजकवि के पद को सुशोभित करता रहा।

चन्देलों और चैहानों का युद्ध मदनपुर अभिलेख के अनुसार 1182-83 ई. में हुआ और उसी के उपरान्त आल्हाखंड की रचना हुई होगी, क्योंकि आल्हखंड की मुख्य घटना यही है, जिसे केन्द्र में रखकर कवि ने अपने काव्य के कथाचक्र को निर्मित किया है।


दूसरी बात यह भी है कि जगनिक का चन्देलों के दरबार में स्थान प्राप्त करने का कारण उसकी काव्य-चमत्कृति या प्रशस्तिमूलक काव्य-रचना ही रहा होगा। इससे स्पष्ट है कि जगनिक का काव्यकाल 1165 ई. या उससे पहले से आरंभ होना निश्चित है 1202 ई. या 1203 ई. में कालिंजर पर कुतुबुद्दीन का आक्रमण हुआ, लेकिन आल्हाखंड में इस ऐतिहासिक घटना का कोई वर्णन नहीं है।

इससे लगता है कि जगनिक या तो 1203 ई. के पूर्व कहीं चले  गये  या 1203 ई. के युद्ध में मारे गये । इस आधार पर आल्हाखंड का रचना काल 1182 ई. से लेकर 1202 ई. के बीच का ठहरता है और जगनिक का काव्य-काल 1160 से लेकर 1202 ई. के मध्य निर्धारित किया जा सकता है।

लेकिन यदि महोबा समय को पृथ्वीराज रासो का एक खंड माना जाए, तो उसके रचनाकाल को इस सन्दर्भ में देखना पड़ेगा। 1193 ई. के युद्ध में पृथ्वीराज और उसके राजकवि चन्द की मृत्यु हो जाती है। इसीलिये निश्चित है कि पृथ्वीराज रासो के महोबासमय की रचना 1182 ई. से 1193 ई. के बीच हुई होगी और लगभग उसी समय आल्हाखंड रचा गया होगा। 1193 ई. का युद्ध भारतीय इतिहास की


प्रमुख घटना थी और ऐसा असम्भव लगता है कि जगनिक उससे परिचित न रहा हो तथा वीर कवि जगनिक इस घटना से सचेत होकर आल्हखंड में कोई संकेत तक न दे। इस दृष्टि में आल्हखंड की रचना 1182 ई. और 1193 ई. के बीच की सिद्ध होती है।

हिन्दी का प्रथम कवि
हिन्दी के प्रथम कवि के सम्बन्ध में साहित्य के इतिहासकारों में मतभेद है। अभी तक अधिकांश विद्वानों ने जिन रचनाओं की प्राथमिकता को महत्व दिया है, वे या तो अपभ्रंश की हैं या उनकी भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्णय नहीं लिया जा सका है। लेकिन आल्हखंड की भाषा के विषय में लगभग सभी इतिहासकार एवं भाषाविद् एकमत हैं कि वह लोकभाषा में रचित एक प्रबन्ध काव्य है। इसीलिए जगनिक को हिन्दी का प्रथम कवि मानने में कोई बाधा नहीं है।

आल्हा की ऐतिहासिकता
बहुधा आल्हा खंड की ऐतिहासिकता पर संदिग्धता का आरोप तो लगाया जाता है पर यह विस्मृत कर दिया जाता है कि वह इतिहास न होकर ऐतिहासिक काव्य है और उसकी मुख्य प्रवृत्ति लोकोन्मुखी है। डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक काव्यों में इतिहास और कल्पना के मिश्रण को महत्त्वपूर्ण बताया है लेकिन उसके साथ यह भी स्वीकार किया है कि भारतीय प्रवृत्ति कल्पनाविलास की ओर उन्मुख थी और इतिहास कल्पना को उकसा देनेवाला उपकरण-मात्रा था।

आल्हा खंड में भी उसी परम्परा का अनुसरण किया गया है और घटनाओं के वर्णन तथा पात्रों के चित्रण में कल्पना का रंजन ही अधिक है, फिर भी उसका ऐतिहासिक आधार ठोस एवं पुष्ट है।
आल्हाखंड के पात्रों में परमाल (परमर्दिदेव) और उनसे सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण घटना चैहानों और चन्देलों का युद्ध ऐतिहासिक है यद्यपि दोनों के सम्बन्ध में कल्पनापरक अंश भी कम नहीं है। आल्हा और ऊदल, ऐसे वीर नायकों के सम्बन्ध में इतिहास मौन है। केवल किंवदन्तियों और जनश्रुतियों में वे ऐतिहासिक नायकों के रूप में बहुत वर्षों से प्रतिष्ठित हैं।

मैहर की शारदा देवी का मन्दिर आल्हा द्वारा निर्मित बताया जाता है। चिल्लाग्राम (जिला बाँदा) के खंडहरों को आल्हा-ऊदल का राजमहल कहा गया है और तमसा नदी के किनारे का एक घाट आल्हा घाट तथा विंध्यश्रेणी के एक पर्वत में निर्मित कन्दरा आल्हा-कन्दरा नाम से प्रसिद्ध है।

बछलन सरेही (बछलन गाँव राजापुर से 5-6 मील दूर एवं सुरकिहा वीरान है) को चन्देलों का आल्हा-ऊदल का बसाया हुआ कहा गया है और उसी स्थल में महाराज छत्रासाल को 73 लाख का धन मिला था जिसमें ऊदर (ऊदल) के घोड़े की करवारी सोने की थी। यह पत्र सं. 1786 (सन् 1729 ई.) का है। इससे भी स्पष्ट है कि महाराज छत्रासाल के समय में आल्हा-ऊदल ऐतिहासिक नायक माने जाते थे।

आल्हाखंड की मुख्य घटना चन्देलों और चैहानों का युद्ध इतिहास की राष्ट्रीय महत्त्व की घटना है, किन्तु अन्य घटनाओं का स्वरूप कल्पित है। इन कल्पित पात्रों एवं घटनाओं में कुछ तो इतिहासविरुद्ध हैं जैसे पृथ्वीराज की पुत्री बेला से सम्बन्धित सम्पूर्ण कथा जो कि प्रक्षिप्त है और सम्भवतः उसकी पृथ्वीराज चैहान द्वारा परमाल की पुत्री चन्द्रावलि का डोला माँगने के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में की गई है। इसी प्रकार कुछ पात्र एवं उनके व्यक्तित्व भी अनैतिहासिक हैं। फिर भी अधिकांश कल्पित पात्र एवं घटनाएँ ऐतिहासिक सम्भावना से पुष्ट हैं और यही विशेषता आल्हखंड को ऐतिहासिक काव्य सिद्ध करने में समर्थ है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ

बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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