Homeभारतीय संस्कृतिPallav Kalin Sanskriti-Dharmik Dasha पल्लव कालीन संस्कृति-धार्मिक दशा

Pallav Kalin Sanskriti-Dharmik Dasha पल्लव कालीन संस्कृति-धार्मिक दशा

हिन्दू धर्म में मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं-कर्म, ज्ञान तथा भक्ति। वेद कर्मकाण्डी हैं। उपनिषदों में ज्ञान की प्रतिपादन है तथा गीता में इन तीनों के समन्वय की चर्चा है। कालान्तर में इन तीनों साधनों के आधार पर विभिन्न सम्प्रदायों का अविर्भाव हुआ। Pallav Kalin Sanskriti-Dharmik Dasha में अनेक विचारकों तथा सुधारकों ने भक्ति को साधन बनाकर सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन का सूत्रपात किया।

भारतीय जन-जीवन में इस आन्दोलन ने एक नवीन शक्ति तथा गतिशीलता का संचार किया। सर्वप्रथम भक्ति आन्दोलनों का अविर्भाव द्रविड़ देश में हुआ। भागवत पुराण में स्पष्टतः कहा गया है कि भक्ति द्रविड़ देश में जन्मी कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में पहुँचकर जीर्ण हो गयी। द्रविड़ देश में भक्ति आन्दोलन पल्लव तथा चोल राजाओं के संरक्षण में चलाया गया। इसके सूत्रधार नायनार, आलवार एवं आचार्य थे। शिव तथा विष्णु इस आन्दोलन के आराध्य देव थे।

पल्लव राजाओं का शासन काल दक्षिण भारत के इतिहास में ब्राह्मण धर्म की उन्नति का काल रहा। इस काल के प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की तमिल प्रदेश में लोकप्रिय थे। स्वयं ब्राह्मण धर्मावलम्बी होते हुए भी पल्लव शासकों में सहिष्णुता दिखाई है। उन्होंने अपने राज्य में जैनियों अथवा बौद्धों के ऊपर किसी भी प्रकार के अत्याचार नहीं किये।

पल्लव नरेश नरसिंह वर्मा प्रथम के समय में चीन यात्री ह्वेनसांग कांच्ची में कुछ समय ठहरा था। उसके अनुसार यहां सौ से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। उन्हें राज्य की ओर से सारी सुविधाएं प्रदान की गयी थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे तमिल समाज में शैव तथा वैष्णव धर्मों का प्रचलन हो गया और दोनों धर्मों के आचार्यों-शैवनायर तथा वैष्णव आलवर ने जैन एवं बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इन धर्मों की जड़ों का तमिल देश से उखाड़ फेंका।

नायनारों तथा आलवरों ने दक्षिण में भक्ति आन्दोलनों को सूत्रपात किया। उनके प्रयासों का फल अच्छा निकला तथा दक्षिण के शासकों तथा सामान्य जनता ने धीरे-धीरे जैन एवं बौद्ध धर्मों का परित्याग कर भक्तिपरक शैव एवं वैष्णव धर्मों को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार तमिल देश से जैन एवं बौद्ध धर्मों का विलोप हो गया।

पल्लव राजाओं का शासन काल नायनारों तथा आलवरों के भक्ति आन्दोलनों के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह आन्दोलन ईसा की छठीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर नवीं शताब्दी तक चलता रहा। इस काल में दोनों सम्प्रदायों के अनेक संतों का अविर्भाव हुआ जिन्होंने अपने-अपने प्रवचनों द्वारा जनता के दिलों में भक्ति की लहर दौड़ा दी। इनके प्रभाव में आकार पल्लव शासकों ने शैव तथा वैष्णव धर्मों को ग्रहण किया तथा शिव और विष्णु के सम्मान में मंदिर एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया।

भक्ति आन्दोलनों के फलस्वरूप सुदूर दक्षिण में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, यज्ञ कर्मकाण्ड आदि का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ। पल्लव काल में शैव धर्म का प्रचार नायनारों द्वारा ही किया गया। नायनार सन्तों की संख्या 63 बतायी गयी है। जिनके अप्पार, तिरूज्ञान, सम्बन्दर, सुन्दरमूर्ति मणिककवाचगर आदि के नाम उल्लेखनीय है। इनके भक्तिगीतों को एक साथ ’देवरम’ में संकलित किया गया है।

इनमें अप्पार जिसका दूसरा नाम तिरूनाबुक्करशु भी मिलता है, पल्लप नरेश महेन्द्र वर्मन का समकालीन था। उसका जन्म तिरूगमूर के बेल्लाल परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि पहले वह एक जैन मठ में रहते हुए भिक्षु जीवन व्यतीत करता था।

बाद में शिव की कृपा से उसका एक असाध्य रोग ठीक हो गया जिसके फलस्वरूप जैन मत का परित्याग कर वह निष्ठावान शैव बन गया। अप्पार ने दास भाव, शिव की भक्ति की तथा उसका प्रचार जनसाधारण में किया।

निरूज्ञान सम्वन्दर शियाली (तन्जोर जिला) के एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। उसके विषय में एक कथा में बताया गया है कि तीन वर्ष की आयु में ही पार्वती की कृपा से उसे दैवीज्ञान प्राप्त हो गया था। उसके पिता ने उसे सभी तीर्थों का भ्रमण कराया। कहा जाता है कि पाण्ड्य देश की यात्राकर उसने वहीं के राज तथा प्रजा को जैन धर्म से शैव धर्म में दीक्षित किया था।

सम्बन्दर का बौद्ध आचार्यों के साथ भी वाद-विवाद हुआ तथा उसने शास्त्रार्थ में पराजित किया। उसने कई भक्ति गीत गाये तथा इस प्रकार उसकी मान्यता सबसे पवित्र सन्त के रूप में हो गयी। आज भी तमिल देश के अधिकांश शैव मंदिरों में उसकी पूजा की जाती है। सुन्दरमूर्ति का जन्म नावलूर के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार मे हुआ था। उसका पालन-पोषण नर सिंह मुवैयदरेयन नामक सेनापति ने किया।

इसी प्रकार मणिककवाचगर मदुरा के समीप एक गांव के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। चिदम्बरम् में उसने लंक के बौद्धों को वाद-विवाद में परास्त कर ख्याति प्राप्त किया। उसने भी अनेक भक्तिगीत लिखे जिन्हें ’तिरूवाशगम्’ में संग्रहित किया गया है। उसके गीतों में प्रेम तत्व की प्रधानता है। उसके द्वारा विचरित एक भक्तिगीत बहुत प्रसिद्ध हुआ।

इन सभी शैव सन्तों ने भजन् कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेशों आदि के माध्यम से तमिल समाज में शैवभक्ति का जोरदार प्रचार किया तथा भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया। ये जाति-पाति के विरोधी थे तथा उन्होंने समाज के सभी वर्गों के बीच जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया।

नायनार सन्तों ने पल्लव शासकों तथा अन्य राजकुल के सदस्यों को भी प्रभावित किया। परिणामस्वरूप न केवल शैव बने अपितु इस धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया। महेन्द्र वर्मन प्रथम ने जैन धर्म का परित्याग कर सन्त अप्पार के प्रभाव से शैव धर्म ग्रहण किया। उसके उत्तराधिकारी नरसिंह वर्मन प्रथम ने शिव की उपासना में कई मंदिर बनवाये थे।

परमेश्वर वर्मन प्रथम शिव का अनन्य उपासक था जिसकी उपाधि ’माहेश्वर’ की थी। नरसिंह वर्मन द्वितीय ने भी शैव धर्म ग्रहण किया तथा उसने शिव का विशाल मंदिर बनवाया था। इन शासकों के अनुकरण पर सामान्य जनता भी शैव धर्म की ओर आकर्षित हो गयी। इस धर्म के सामान्य सिद्धान्तों के साथ-साथ कालान्तर में शैव दर्शन का भी तमिल समाज में प्रचार हो गया।

शैव धर्म के साथ-साथ पल्लव कालीन समाज में वैष्णव धर्म का भी प्रचार हुआ। तमिल देश में इस धर्म का प्रचार मुख्यतया ’आलवर’ सन्तों द्वारा किया गया। आलबर शब्द का अर्थ अर्न्तज्ञान रखने वाला वह व्यक्ति जो चिन्तन में पूर्णतया विलीन हो गया हो, इनकी संख्या 12 बतायी गयी है।

1 – भूतयोगी, 2 – सरोयोगी, 3 – महायोगी, 4 – भक्तिसार, 5 – परांकुश मुनि या शठकोप, 6 – मधुरकवि, 7 – कुलशेखर, 8 – विष्णुचित, 9 – गोदा, 10 – भक्तिध्रिरेण, 11 – योगिवाह तथा 12 – परकाल। इनका आविर्भाव सातवीं से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ।

 प्रारम्भिक आलवर सन्तों में पोयगई पोडिय तथा पेय के नाम मिलते है जो क्रमशः कोपी, मल्लई तथा मयलापुरम के निवासी थे। इन्होंने सीधे तथा सरल ढ़ग से भक्ति का उपदेश दिया। इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिक तनाव से रहित थे। इनके बाद तिरूमलिशई का नाम मिलता है जो सम्भवतः पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन प्रथम के समय में हुआ। तिरूमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवर सन्त हुआ।

अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुए उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया। कहा जाता है कि श्रीरंगम् के मठ की मरम्मत के लिए उसने नेगपट्टम के बौद्ध विहार से एक स्वर्ण मूर्ति चुरायी थी। शैवों के प्रति उसका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार था। आलवरों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल का नाम मिलता है जिसके भक्तिगीतों में कृष्ण-कथायें अधिक मिलती हैं।

मध्ययुगीन कवियित्री मीराबाई की कृष्ण भक्ति के समान आण्डाल भी कृष्ण की प्रेम दीवानी थी। आलवर सन्तों की अंतिम कड़ी के रूप में नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम उल्लेखनीय है। नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक बेल्लाल कुल में हुआ था। उसने बड़ी संख्या में भक्तिगीत लिखे विष्णु को अनन्त एवं सर्वव्यापी मानते हुए उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है।

नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरू महिमा का बखान किया। आलवर सन्तों ने ईश्वर के प्रति अपनी उत्कट भक्ति भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया। उनकी मान्यता थी कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है तथा वास्तविक आनन्द उसकी सेवा करने में ही है। आलवर की तुलना उस बिरहणी युवती के साथ की गयी है जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है।

आलवरों ने भजन, कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्तिदर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया। वे गोपीभाव को सर्वोच्च मानते हैं तथा भगवान के प्रति विरह में तन्मय हो जाते हैं। भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। 

अज्ञानी व्यक्तियों की जिस प्रकार विषयभोगों में उत्कट प्रीति होती है उसी प्रकार उत्कट प्रीति जब नित्य भगवान में होती है, तब भक्ति का उदय होता है। जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रियतम के विरह में निरन्तर उसका चिन्तन किया करती है या उत्कट प्रेम में लीन होकर प्रियतम से मिलने को आतुर रहती हैं वैसे ही भक्त की मनोदशा अपने प्रियतम परमात्मा के मिलन के लिए होती है।

आलवर सन्त भक्ति को ’काम’ कहते हैं किन्तु यह लौकिक काम से भिन्न सच्चिदानन्द भगवान के प्रति दिव्य प्रेम है। जिस प्रकार कालिदास के यज्ञ ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रियतमा के पास भेजा था, उसी प्रकार आलवर सन्त भी उड़ते हुए हंसों तथा पक्षियों को दूत बनाकर उनसे निवेदन करते हैं कि यदि उन्हें कहीं उनके प्रियतम कृष्ण दिखाई पड़े तो उनसे कहें कि वे क्यों उन्हें भूल गये और उनके पास नहीं आते।

आलवर सन्त नश्वर संसार के विषयों से उसी प्रकार संपृक्त नहीं होते जैसे कीचड़ में से कमल। इस प्रकार आलवर सच्चे विष्णु भक्त थे। श्रीमदभागवत में आत्मनिवेदन अर्थात ईश्वर में पूर्ण समर्पण की सर्वोच्च भक्ति माना गया है। आलवर सन्तों ने प्रेमभक्ति द्वारा आत्म सर्म्पण को ही सर्वाधिक महत्व प्रदान किया। लगता है कि वैष्णव आन्दोलन का प्रारम्भ सर्वप्रथम पल्लवों के राज्य से ही हुआ तथा उसके बाद यह दक्षिण के अन्य भागों में पहुँचा।

आलवर सन्तों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मंदिरों में आदिबाराह मंदिर का निर्माण कराया था। नरसिंह वर्मन द्वितीय के समय में काच्ची में वैकुण्ठपेरूमल मंदिर का निर्माण करवाया गया। दन्तिवर्मा भी विष्णु का महान उपासक था।

लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है। इस प्रकार पल्लवकालीन समाज में नायनार तथा आलवर सन्तों द्वारा प्रवर्तित भक्ति आन्दोलन बड़े वेग से प्रचलित हुआ। सन्तों ने अनेक भक्तिगीत लिखे जिन्हें मंदिरों में गाया जाता था। वस्तुतः मंदिर इस काल की धार्मिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

बुन्देलखण्ड की महिमा 

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