Dhumavati Devi माँ धूमावती देवी 

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माँ धूमावती देवी के दश महाविद्या स्वरूपो में से एक है । धूम्र का अर्थ होता है धुँआ, धूमावती का अर्थ है जो सब कुछ धूम्र में परिवर्तित कर देने वाली । Dhumavati Devi का वो स्वरूप है जो प्रलयकाल में सम्पूर्ण सृष्टि को खुद में समाहित कर लेती है , और सृष्टि की अनुपस्थिति में शेष सिर्फ धुँआ ही बच जाता है ।

निर्भेद संसार को अभेद कर देने वाला भगवती का यह स्वरूप स्वयं शिव को भी खुद में विलीन कर देता है । देवी धूमावती का स्वरूप एक वृद्ध विधवा के जैसा है , क्योंकि वह एक लंबी अवधि से चली आ रही वृद्ध सृष्टि का अंत कर रही है इसलिये वह वृद्ध है , और सृष्टि के साथ संपूर्ण चेतना का भी जो स्वयं में विलय कर ले और जब चेतना ही नही तो शिव भी भगवती के निष्क्रिय रूप में समाहित हो गए इसलिय शिव की भेद रूपी अनुपस्थिति में वह विधवा कहलाई ।

माँ धूमावती देवी का वाहन कौआ है , जो भी मृत्यु और क्षय का प्रतीक है । देवी धूमावती की उपासना करने वाले को अष्ट दरिद्रो से रक्षा प्राप्त होती है , देवी का यह रूप उग्र है पर सदैव शुभ आशीर्वाद देने वाला है । देवी अपने साधकों को परम ज्ञान और जन्म मृत्यु के कालचक्र से मुक्ति देने वाली है ।

धूमावती गूढ़ रहस्यम !
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध
माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या हैं। बगलामुखी की अंगविद्या हैं इसीलिए माँ बगलामुखी से साधना की आज्ञा लेनी चाहिए और प्रार्थना करना चाहिए की माँ साधना पूरी कराये ।  ज्ञान के आभाव में या कौतुहल से किताब , इन्टरनेट से पढ़कर प्रयोग करने से विपत्ति में भी फसते देखे गये हैं . बगलामुखी साधना करने के पश्चात ही धूमावती साधना विशेष करने की योग्यता मिलती है ।

इसीलिए विशेष परिस्थिति में गुरु से प्रक्रिया जानकार ही शुरू करना चाहिए ।  गुरु जानते हैं की शिष्य की योग्यता क्या है ।  धूमावती साधना सबके बस की नहीं  इनके काम करने का ढंग बिलकुल अलग है ।  बाकी महाविद्या श्री देती हैं और धूमावती श्री विहीनता अपने सूप में लेकर चली जाती है ।  जीवन से दुर्भाग्य , अज्ञान , दुःख , रोग , कलह , शत्रु विदा होते ही साधक ज्ञान, श्री और रहस्यदर्शी हो जाता है और साधना में उच्चतम शिखर पे पहुच जाता है।

इन्हे अलक्ष्मी या ज्येष्ठालक्ष्मी यानि लक्ष्मी की बड़ी बहन भी कहा जाता है।ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को माँ धूमावती जयंती के रूप में मनाया जाता है। मां धूमावती विधवा स्वरूप में पूजी जाती हैं तथा इनका वाहन कौवा है, ये श्वेत वस्त्र धारण कि हुए, खुले केश रुप में होती हैं। धूमावती महाविद्या ही ऐसी शक्ति हैं जो व्यक्ति की दीनहीन अवस्था का कारण हैं। विधवा के आचरण वाली यह महाशक्ति दुःख दारिद्र की स्वामिनी होते हुए भी अपने भक्तों पर कृपा करती हैं।

धूमावती देवी का ध्यान इस प्रकार बताया है 
अत्यन्त लम्बी, मलिनवस्त्रा, रूक्षवर्णा, कान्तिहीन, चंचला, दुष्टा, बिखरे बालों वाली, विधवा, रूखी आखों वाली, शत्रु के लिये उद्वेग कारिणी, लम्बे विरल दांतों वाली, बुभुक्षिता, पसीने से आर्द्र स्तन नीचे लटके हो, सूप युक्ता, हाथ फटकारती हुई, बडी नासिका, कुटिला , भयप्रदा, कृष्णवर्णा, कलहप्रिया, तथा बिना पहिये वाले जिसके रथ पर कौआ बैठा हो ऐसी देवी का मैं ध्यान करता हूँ ।

देवी का मुख्य अस्त्र है सूप जिसमे ये समस्त विश्व को समेट कर महाप्रलय कर देती हैं। दस महाविद्यायों में दारुण विद्या कह कर देवी को पूजा जाता है। शाप देने नष्ट करने व संहार करने की जितनी भी क्षमताएं है वो देवी के कारण ही है। क्रोधमय ऋषियों की मूल शक्ति धूमावती हैं जैसे दुर्वासा, अंगीरा, भृगु, परशुराम आदि।

सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है , चातुर्मास ही देवी का प्रमुख समय होता है जब इनको प्रसन्न किया जाता है। देश के कई भागों में नर्क चतुर्दशी पर घर से कूड़ा करकट साफ कर उसे घर से बाहर कर अलक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है की आप हमारे सारे दारिद्र्य लेकर विदा होइए। ज्योतिष शास्त्रानुसार मां धूमावती का संबंध केतु ग्रह तथा इनका नक्षत्र ज्येष्ठा है। इस कारण इन्हें ज्येष्ठा भी कहा जाता है।

ज्योतिष शस्त्र अनुसार अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु ग्रह श्रेष्ठ जगह पर कार्यरत हो अथवा केतु ग्रह से सहयता मिल रही ही तो व्यक्ति के जीवन में दुख दारिद्रय और दुर्भाग्य से छुटकारा मिलता है। केतु ग्रह की प्रबलता से व्यक्ति सभी प्रकार के कर्जों से मुक्ति पाता है और उसके जीवन में धन, सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

देवी का प्राकट्य
पहली कहानी तो यह है कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं. यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है. सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ।

दूसरी कहानी यह है कि एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थी. तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी. उन्होने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है. मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें.” शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता.” तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ। ” और वे शिव को ही निगल गयीं। शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं, परिपालक हैं।

फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि मुझे बाहर निकालो, तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया।  निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी।

तभी से वे विधवा हैं-अभिशप्त और परित्यक्त, भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है।  यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है जो कभी ख़त्म नही होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है।  माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं।

किंवदंती
कुछ लोगों का मानना है की गृहस्थ लोगों को देवी की साधना नही करनी चाहिए। वहीँ कुछ का ऐसा मानना है की यदि इनकी साधना करनी भी हो घर से दूर एकांत स्थान में अथवा एकाँकी रूप से करनी चाहिए। पर ऐसी कोई बात नहीं घर पे भी अनुष्ठान कर सकते हैं । हमारे संपर्क में ऐसे साधक हैं जो घर पे साधना रत हैं और सब अच्छा है ।

विशेष ध्यान देने की बात ये है की इन महाविद्या का स्थायी आह्वाहन नहीं होता अर्थात इन्हे लम्बे समय तक घर में स्थापित या विराजमान होने की कामना नहीं करनी चाहिए क्यूंकि ये दुःख क्लेश और दरिद्रता की देवी हैं । जप शुरू करने से पहले आवाहन करें और ख़त्म होने पे विसर्जन कर दें ।
पर ऐसे भी साधक हैं जिन्होंने इनको घर में स्थापित किया हुआ है और रोग, शोक, विघ्न, बाधा कोसों दूर हैं  फिर क्या कहा जाए – लोगों ने व्यर्थ ही भ्रम फैलाया हुआ है इनके बारे में ताकि पंडित पुरोहितों की जी हुजूरी करते रहें ।  इसीलिए शक्ति की साधना में कहा जाए तो जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत तिन देखि तैसी।

इनकी पूजा के समय ऐसी भावना करनी चाहिए की देवी प्रसन्न होकर मेरे समस्त दुःख, रोग , दरिद्रता ,कष्ट ,विघ्न ,बढ़ाये, क्लेशादी को अपने सूप में समेत कर मेरे घर से विदा हो रही हैं और हमें धन , लक्ष्मी , सुख एवं शांति का आशीर्वाद दे रही हैं ।

कौवे के पंखो का इनकी साधना में प्रयोग होता है ।  इनका यंत्र का निर्माण पान के पत्ते या  कौवे के पंख पे हनुमान जी को चढ़ने वाले सिन्दूर से त्रिशूल बनाकर किया जाता है . एक डब्बे में कौवे के पंख को स्थापित करें ।  आवाहन करके पंचोपचार पूजन करें फिर पूजा समाप्त होने पर  माँ का विसर्जन करके आगे के साधना प्रयोग के लिए डब्बे को सुरक्षित रख दें।

हवन में भी कौवे का पंख प्रयोग होता है, ध्यान रखे इसके लिए कौवे को मारे नहीं बल्कि निचे गिरा हुआ पंख का ही प्रयोग करें ।  पंचमकार से भी इनकी साधना होती है पर जो सामान्य साधकों के लिए नहीं है वो यहाँ नहीं बताया जायेगा।  

निरंतर इनकी स्तुति करने वाला कभी धन विहीन नहीं होता व उसे दुःख छूते भी नहीं , बड़ी से बड़ी शक्ति भी इनके सामने नहीं टिक पाती इनका तेज सर्वोच्च कहा जाता है। श्वेतरूप व धूम्र अर्थात धुंआ इनको प्रिय है पृथ्वी के आकाश में स्थित बादलों में इनका निवास होता है। देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है

स्तुति
विवर्णा चंचला कृष्णा दीर्घा च मलिनाम्बरा,
विमुक्त कुंतला रूक्षा विधवा विरलद्विजा,
काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा,
सूर्पहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता,
प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा,
क्षुत्पिपासार्दिता नित्यं भयदा काल्हास्पदा । 
॥ सौभाग्यदात्री धूमावती कवचम् ॥

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी ।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ॥१॥

कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके ।
सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ॥२॥

सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः ।
सौभाग्यमतुलं प्राप्य जाते देविपुरं ययौ ॥३॥

॥ श्री सौभाग्यधूमावतीकल्पोक्त धूमावतीकवचम् ॥
॥ धूमावती कवचम् ॥

श्रीपार्वत्युवाच
धूमावत्यर्चनं शम्भो श्रुतम् विस्तरतो मया ।
कवचं श्रोतुमिच्छामि तस्या देव वदस्व मे ॥१॥

श्रीभैरव उवाच
शृणु देवि परङ्गुह्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।
कवचं श्रीधूमावत्या: शत्रुनिग्रहकारकम् ॥२॥

ब्रह्माद्या देवि सततम् यद्वशादरिघातिनः ।
योगिनोऽभवञ्छत्रुघ्ना यस्या ध्यानप्रभावतः ॥३॥

ॐ अस्य श्री धूमावती कवचस्य पिप्पलाद ऋषिः निवृत छन्दः ,श्री धूमावती देवता, धूं बीजं ,स्वाहा शक्तिः ,धूमावती कीलकं , शत्रुहनने पाठे विनियोगः ॥

ॐ धूं बीजं मे शिरः पातु धूं ललाटं सदाऽवतु ।
धूमा नेत्रयुग्मं पातु वती कर्णौ सदाऽवतु ॥१॥

दीर्ग्घा तुउदरमध्ये तु नाभिं में मलिनाम्बरा ।
शूर्पहस्ता पातु गुह्यं रूक्षा रक्षतु जानुनी ॥२॥

मुखं में पातु भीमाख्या स्वाहा रक्षतु नासिकाम् ।
सर्वा विद्याऽवतु कण्ठम् विवर्णा बाहुयुग्मकम् ॥३॥

चञ्चला हृदयम्पातु दुष्टा पार्श्वं सदाऽवतु ।
धूमहस्ता सदा पातु पादौ पातु भयावहा ॥४॥

प्रवृद्धरोमा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा ।
क्षुत्पिपासार्द्दिता देवी भयदा कलहप्रिया ॥५॥

सर्वाङ्गम्पातु मे देवी सर्वशत्रुविनाशिनी ।
इति ते कवचम्पुण्यङ्कथितम्भुवि दुर्लभम् ॥६॥

न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।
पठनीयम्महादेवि त्रिसन्ध्यन्ध्यानतत्परैः ।।७॥

दुष्टाभिचारो देवेशि तद्गात्रन्नैव संस्पृशेत् । ७.१।

॥ इति भैरवीभैरवसम्वादे धूमावतीतन्त्रे धूमावतीकवचं सम्पूर्णम् ॥

धूमावती अष्टक स्तोत्रं
॥ अथ स्तोत्रं ॥
प्रातर्या स्यात्कुमारी कुसुमकलिकया जापमाला जपन्ती
मध्याह्ने प्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम् । 

सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां
वहन्ती सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालिका पातु युष्मान् || १ ||

बद्ध्वा खट्वाङ्गकोटौ कपिलवरजटामण्डलम्पद्मयोनेः
कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गैस्स्रजमुरसि शिर शेखरन्तार्क्ष्यपक्षैः । 

पूर्णं रक्तै्सुराणां यममहिषमहाशृङ्गमादाय पाणौ
पायाद्वो वन्द्यमानप्रलयमुदितया भैरवः कालरात्र्याम् || २ ||

चर्वन्तीमस्थिखण्डम्प्रकटकटकटाशब्दशङ्घातम्-
उग्रङ्कुर्वाणा प्रेतमध्ये कहहकहकहाहास्यमुग्रङ्कृशाङ्गी । 

नित्यन्नित्यप्रसक्ता डमरुडिमडिमां स्फारयन्ती मुखाब्जम्-
पायान्नश्चण्डिकेयं झझमझमझमा जल्पमाना भ्रमन्ती || ३ ||

टण्टण्टण्टण्टटण्टाप्रकरटमटमानाटघण्टां वहन्ती
स्फेंस्फेंस्फेंस्कारकाराटकटकितहसा नादसङ्घट्टभीमा |

लोलम्मुण्डाग्रमाला ललहलहलहालोललोलाग्रवाचञ्चर्वन्ती
चण्डमुण्डं मटमटमटिते चर्वयन्ती पुनातु || ४ ||

वामे कर्णे मृगाङ्कप्रलयपरिगतन्दक्षिणे सूर्यबिम्बङ्कण्ठे
नक्षत्रहारंव्वरविकटजटाजूटके मुण्डमालाम् |

स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्रध्वजनिकरयुतम्ब्रह्मकङ्कालभारं
संहारे धारयन्ती मम हरतु भयम्भद्रदा भद्रकाली || ५ ||

तैलाभ्यक्तैकवेणी त्रपुमयविलसत्कर्णिकाक्रान्तकर्णा
लौहेनैकेन कृत्वा चरणनलिनकामात्मनः पादशोभाम् |

दिग्वासा रासभेन ग्रसति जगदिदंय्या यवाकर्णपूरा
वर्षिण्यातिप्रबद्धा ध्वजविततभुजा सासि देवि त्वमेव || ६ ||

सङ्ग्रामे हेतिकृत्वैस्सरुधिरदशनैर्यद्भटानां
शिरोभिर्मालामावद्ध्य मूर्ध्नि ध्वजविततभुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा |

दृष्टा भूतप्रभूतैः पृथुतरजघना वद्धनागेन्द्रकाञ्ची
शूलग्रव्यग्रहस्ता मधुरुधिरसदा ताम्रनेत्रा निशायाम् || ७ ||

दंष्ट्रा रौद्रे मुखेऽस्मिंस्तव विशति जगद्देवि सर्वं क्षणार्द्धात्
संसारस्यान्तकाले नररुधिरवशा सम्प्लवे भूमधूम्रे |

काली कापालिकी साशवशयनतरा योगिनी योगमुद्रा रक्तारुद्धिः
सभास्था भरणभयहरा त्वं शिवा चण्डघण्टा || ८ ||

धूमावत्यष्टकम्पुण्यं सर्वापद्विनिवारकम् |
यः पठेत्साधको भक्त्या सिद्धिं व्विन्दन्ति वाञ्छिताम् || ९ ||

महापदि महाघोरे महारोगे महारणे |
शत्रूच्चाटे मारणादौ जन्तूनाम्मोहने तथा || १० ||

पठेत्स्तोत्रमिदन्देवि सर्वत्र सिद्धिभाग्भवेत् |
देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः || ११ ||

सिंहव्याघ्रादिकास्सर्वे स्तोत्रस्मरणमात्रतः |
दूराद्दूरतरं य्यान्ति किम्पुनर्मानुषादयः || १२ ||

स्तोत्रेणानेन देवेशि किन्न सिद्ध्यति भूतले |
सर्वशान्तिर्ब्भवेद्देवि ह्यन्ते निर्वाणतां व्व्रजेत् || १३ ||

।। इत्यूर्द्ध्वाम्नाये धूमावतीअष्टक स्तोत्रं समाप्तम् ।।

देवी की कृपा से साधक धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ऐसा मानना है की कुण्डलिनी चक्र के मूल में स्थित कूर्म में इनकी शक्ति विद्यमान होती है। देवी साधक के पास बड़े से बड़ी बाधाओं से लड़ने और उनको जीत लेने की क्षमता आ जाती है। महाविद्या धूमावती के मन्त्रों से बड़े से बड़े दुखों का नाश होता है।

देवी माँ का महामंत्र है-
धूं धूं धूमावती ठ: ठ:

इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-

1- राई में सेंधा नमक मिला कर होम करने से बड़े से बड़ा शत्रु भी समूल रूप से नष्ट हो जाता है

2- नीम की पत्तियों सहित घी का होम करने से लम्बे समस से चला आ रहा ऋण नष्ट होता है

3- जटामांसी और कालीमिर्च से होम करने पर काल्सर्पादी दोष नष्ट होते हैं व क्रूर ग्रह भी नष्ट होते हैं

4- रक्तचंदन घिस कर शहद में मिला लेँ व जौ से मिश्रित कर होम करें तो दुर्भाग्यशाली मनुष्य का भाग्य भी चमक उठता है

5- गुड व गाने से होम करने पर गरीबी सदा के लिए दूर होती है

6 – केवल काली मिर्च से होम करने पर कारागार में फसा व्यक्ति मुक्त हो जाता है

7 – मीठी रोटी व घी से होम करने पर बड़े से बड़ा संकट व बड़े से बड़ा रोग अति शीग्र नष्ट होता है।

धूमावती गायत्री मंत्र
“ओम धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात।”

वाराही विद्या में इन्हे धूम्रवाराही कहा गया है जो शत्रुओं के मारन और उच्चाटन में प्रयोग की जाती है।

धूमावती के साबर मन्त्र
ॐ पाताल निरंजन निराकार,
आकाश मण्डल धुन्धुकार,
आकाश दिशा से कौन आई,
कौन रथ कौन असवार,
आकाश दिशा से धूमावन्ती आई ,
काक ध्वजा का रथ असवार ,
थरै धरत्री थरै आकाश,
विधवा रुप लम्बे हाथ,
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव,
डमरु बाजे भद्रकाली,
क्लेश कलह कालरात्रि ,
डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी ,
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते
जाया जीया आकाश तेरा होये ,
धूमावन्तीपुरी में वास,
न होती देवी न देव ,
तहा न होती पूजा न पाती
तहा न होती जात न जाती ,
तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ ,
आप भयी अतीत
ॐ धूं धूं धूमावती फट स्वाहा ।

विशेष पूजा सामग्रियां
पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं , केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल , मेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें। सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें, दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें।

देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध
बिना गुरु दीक्षा के इनकी साधना कदापि न करें। थोड़ी सी भी चूक होने पर विपरीत फल प्राप्त होगा और पारिवारिक कलह दरिद्र का शिकार होंगे।

धर्म और संस्कृति 

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