Yogeshwari Prasad ‘Ali’ योगेश्वरी प्रसाद ‘अलि’  

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Yogeshwari Prasad ‘Ali’  बन्देलखण्ड के  प्रसिद्ध नगर महोबा के श्री अमर जू देव का नाम गौरव पूर्ण स्थान रखता है । कालान्तर में इसी कायस्थ परिवार के वंशज बाबू रामप्रसाद जी श्रीवास्तव, आज से लगभग 125 वर्ष पूर्व उद्दालक ऋषि की तपोभूमि उरई में, असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर आये और यहीं बस गये।

बाबू रामप्रसाद जी श्रीवास्तव के पुत्र शंभू दयाल जी श्रीवास्तव पुलिस विभाग में थानेदार थे, जिनका विवाह उराई  निवासी बाबू दुर्गा प्रसाद जी ठेकेदार की पुत्री  श्री माती लक्ष्मी देवी से हुआ था। मुंशी जी के घर में नौ पुत्र और पाँच पुत्रियों ने जन्म लिया लेकिन ईश्वर की इच्छानुसार  केवल चार पुत्र ही जीवित रहे। सभी पुत्रियों का निधन हो गया। मुंशी जी अपनी दोनों छोटी बहिनों (सुशीला एवं गिरजा) को ही  पुत्री मानते थे।  

सन 1919 के स्वतन्त्रता आन्दोलन में मुंशी जी सरकारी सेवा को ठुकराकर, झाँसी से उरई आए और आर्य समाज की स्थापना करके प्रधान बने । वैदिक शिक्षण संस्थाओं के संस्थापकों में भी आपकी भूमिका प्रमुख थी। विधि की विडम्बना ऐसी हुई कि असमय में ही मुंशी जी के ज्येष्ठतम पुत्र श्री विश्वनाथ प्रसाद जी ‘अविकल’ का देहावसान हो गया। मुंशी जी इस आघात को सहन नहीं कर पाए और वे पक्षाघात के शिकार हो गए ।

सन 1958 में उनका भी स्वर्गवास हो गया। इसके कुछ  वर्ष बाद  मुंशी जी के द्वितीय पुत्र श्री ओंकार प्रसाद श्रीवास्तव भी अपना भरा पूरा परिवार छोड़ चल बसे।

कविवर ‘अलि’ का जन्म संवत् 1999 की वसन्त पंचमी तदनुसार 13 फरवरी सन् 1943 को उरई नगर स्थित पैतृक-भवन में हुआ। प्राथमिक शिक्षा स्थानीय बेसिक प्राइमरी स्कूल में, हाईस्कूल शिक्षा डी.ए.वी. कालेज में, इण्टर की शिक्षा श्री गाँधी कालेज में, बी.ए., बी.एड. तथा एम.ए. (हिन्दी) की शिक्षा दयानन्द वैदिक महाविद्यालय, उरई में, दोनों बड़े भाइयों की देख-रेख में सम्पन्न हुई।

19 जून 1976 को इस कवि प्रतिभा ने जगम्नपुर निवासी श्री उमाचरण श्रीवास्तव की पुत्री शशिप्रभा का पाणिग्रहण किया। यह संयोग ही कहा जायेगा कि कवि की धर्म पत्नी के भाई विमलेश श्रीवास्तव कवि हैं तथा उनके बाबा स्व. श्री जगदम्बा सहाय जी अपने समय के एक अच्छे कवि थे। ‘कंजौसामहात्म्य तथा ‘हरिश्चन्द्र-ख्याल’ उनकी प्रशंसनीय काव्य-कृतियाँ थीं।

कवि के दाम्पत्य जीवन के आँगन में ‘ऋचा’ और ‘गरिमा’ ने  जहाँ किलकारियां भरी वहीं ‘गौरव’ एवं ‘सौरभ को पाकर कवि कृतकृत्य हो उठा।

जलाई 1960 में महाकवि पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला” नें कवि की रचनायें सुनने के पश्चात उन्हे  ‘अलि’ उपनाम दिया । योगेश्वरी प्रसाद ‘अलि’ स्थानीय डी.ए.वी. डा में हिन्दी के प्रवक्ता रहे हैं।

योगेश्वरी प्रसाद ‘अलि’  की कृतियों मे  (बात कर गये नयन) उत्तर मेरा जीन 43 गीत, 7 घनाक्षरी, 10 अतुकान्त कवितायें तथा 15 गजलें हैं ।  इनमें कहीं यौवन का अल्हड़ उन्माद है तो कहीं शारदीय सरिता  के सदृश्य  गहन-गम्भीरता, भावप्रेरित सरस अनुभूति है तो उसके साथ ही साथ भाषा का वैशिष्ट्य भी विद्यमान है। जीवन विसंगतियों का विषपान कवि को करना ही पड़ता है यह एक ध्रुव सत्य है। ऐसे ही कवि अपने काव्य को अमरता प्रदान कर पाते हैं। हिन्दी काव्य-वाटिका में :अलि’ का मधुर मधुर अनुगंजन होता रहे, यही कामना है।

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