Ram Prasaad Saxena Ki Rachanayen राम प्रसाद सक्सेना की रचनाएं

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कवि राम प्रसाद सक्सेना के जन्म समय के बारे में कुछ पता नहीं चला किन्तु इनका जन्म स्थान ग्राम अकोना (राठ) जिला हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) है। इनकी मृत्यु के बारे में प्रपौत्र कु. अशोक कुमार सक्सेना बताते हैं कि मृत्यु सन् 1909 में हुई थी। Ram Prasaad Saxena Ki Rachanayen छंदों पर आधारित हैं । कवि श्री रामप्रसाद सक्सेना के बारे में एक किवदन्ती है कि चरखारी राज्य के ग्राम भरखरी के जमींदार के यहाँ किसी परिजन की तबियत खराब थी तो रामप्रसाद सक्सेना उन्हें भक्ति काव्य सुनाने गए थे।

कवित्त
भारी है बोझ अघ औगुन कौ मेरे शीश पाप
और त्रितापन की जरत हौ जरन में।

तुम सम कृपाल और दूसरो न देखों
कहूं ऋषिन में न मुनन में न नरन में न सुरन में।

‘रामप्रसाद’ के न अवगुण चित देव प्रभू,
करुणानिधान ढुरौ आपनी ढुरन में।।

राख हौ न मोकौ तौ जिहाज बूड़ जै है,
तासों दीन प्रतिपाल नाथ राखिये शरण में।।

मेरे सिर पर अवगुणों व अज्ञान का भारी बोझ है। मैं पापों और तीनों तापों की जलन में जलता हूँ। मैंने ऋषियों, मुनियों, देवताओं और मनुष्यों में तुम्हारे समान कृपालु किसी दूसरे को नहीं देखा है। कवि रामप्रसाद कहते हैं कि हे करुणा के आगार ! आप अपनी गति से चलिए, मेरे अवगुणों को चित्त में मत लाइये। यदि मुझे आप नहीं रखेंगे तो मेरा जीवन रूपी जहाज डूब जाएगा। आप दीनों की रक्षा करने वाले स्वामी हैं, मुझे अपनी शरण में ले लीजिये।

आरत अनाथ हौं असाध रोग पीड़ित हों
भीड़त हौ देख निज मन के छर छन्द में।

कबहूं बिरागी महात्यागी अनुरागी होत
कबहूं निरबन्द होत कबहूं अति बंध में।।

‘राम प्रसाद’ कछू मेरो न उपाय जो
कृपालु को सुहाय तौ लिख देव सन्द में।

विरद की जहाज भरी लाज की सो बूड़त हैं
प्रणन निवाज महापामर मत कन्द में।।

 मैं पापी, अनाथ, असाध्य रोगों से ग्रस्त, अपने खुद के छल छंदों से परेशान हूँ। कभी मेरा मन वैराग्य धारण करके महात्याग करने हेतु प्रवृत्त होता है तो कभी स्वछंद हो जाता है और कभी अत्यधिक बंधनों में बँध जाता है। कवि राम प्रसाद कहते हैं कि मेरा स्वयं पर कोई उपाय नहीं चलता है। आप कृपालु को जो अच्छा लगे उसे सनद में लिख दीजिए। आपके यश से लदा हुआ जहाज आज डूबता दिख रहा है अतः इसको बचाने हेतु स्वामी इस महापापी, बुद्धि हीन पर कृपा कीजिए।

गणका सै अगणका हों पापन को पुंज भरो,
बधिक सा अधिक निषाद से अगाध हों।

ऐसे बद कर्म करत लागत ना शर्म नेक,
परो रहौत भर्म मांझ बनो चहौत साधु हों।।

तुम ही हौ वैद देव भेषज निज भक्त मोह,
भारी भवसागर के रोग में असाध हों।

‘रामप्रसाद’ को जो तारहौ ना दीना नाथ,
विरदावली की धान पेल हाड़ी में रांध हों।।

मैं गणिका से भी अधिक अगणित पापों के समूह से भरा हुआ हूँ। वधिक से भी अत्यधिक, निषाद से भी निकृष्ट हूँ। मुझे बुरे कर्म करते हुए थोड़ी भी लज्जा नहीं आती। भ्रांतियों में पड़ा रहता हूँ और साधु बनने की चाह रखता हूँ। आप ही चिकित्सक हैं इसलिए इस भक्त के मोह को खत्म करने हेतु औषधि दीजिए। मैं इस भवसागर में असाध्य रोगों से पीड़ित बड़ा हुआ हूँ। कवि रामप्रसाद कहते हैं कि हे दीनों के स्वामी! यदि मुझे आप नहीं तारेंगे तो मैं आपकी विरुदावली को धान की हँड़िया रखकर पकाऊँगा अर्थात् आपको आपकी विरुदावली याद दिलाता रहूँगा।

मानौ जू मेरी या विन्ती बजरंग वीर
तुम्हरे भरपूर भरो कृपा को खजानौ जू।

जानौं जू मोह सदा कपटी कलंक कूर बंक
ओ निसंक हो के दैत उरानौं जू।।

रानौं जू ‘रामप्रसाद’ को पनाह लैबो
नांतर मैं कबहूं ना बैठ हों निवानौ जू।

बानौं जू भक्त कौ सो रक्षा कर राख लेव,
लेव ना परीक्षा कलिकाल कौ जमानौं जू।।

हे बजरंग वीर ! आप मेरी विनय मान लीजिए आपके पास कृपा का समृद्ध कोष है। मुझे सदैव कपटी, कलंकी, क्रूर और तिरछा समझिये मैं बिना शंका के इसलिए उलाहना देता हूँ। कवि राम प्रसाद कहते हैं कि आप मुझे अपनी शरण में स्वीकार कीजिए अन्यथा में कभी शांति से नहीं बैठूँगा। इस भक्त की रक्षा कर लीजिए। यह कलियुग है इसलिए परीक्षा मत लीजिए।

तृष्णा की लूंकै उठै ईर्षना भभूकैं महा,
ज्ञान प्राण सूकै तप्त वासना वयारी में।

अहं उष्णताई अनिश्चय की अकबाई झार
मत्सर झहराई तीव्र दुविधा की दुफारी में।।

‘रामप्रसाद’ सुमत तरुणी न ऐन होत
कैंसऊँ ना चैन परे तिरगुन तिदुवारी में।

ग्रीष्म को काल मोह करत है विहाल,
अब सींचिये कृपाल कृपा पावस के बारी में।।

तृष्णा की लपटें उठती हैं जिसमें ईर्ष्या भभूका देकर जल रही है। इससे ज्ञान रूपी प्राण सूख रहे हैं। वासनाओं की गर्म हवा प्रवाहित हो रही है। अहंकार की उष्णता, अनिश्चय की उकताहट, मत्सर की तेजता इस दुविधा रूपी दुपहरी में फैल रही है। कवि रामप्रसाद कहते हैं कि सुमति रूपी तरुणी नहीं है जिससे किसी भी प्रकार तीन गुणों की तिफंग में फँसने से शांति नहीं मिलती है। यह गर्मी ऋतु मुझे व्याकुल कर रही है अतः हे कृपालु ! आप कृपा रूपी जल की वर्षा करके इसे सिंचित कीजिए।

प्रेम के फुहारे अनुराग पिचकारे हौंज
आनंद सम्हारे शील चन्दन की क्यारी में।

अतर विवेक भरे कुण्ड सो अनेक झोंक,
आवत विशेष ध्यान प्राण की बहारी में।।

‘रामप्रसाद’ सुमति वाला के संग लिपट
समता परयंक पौढ़ सो ओ चित्र सारी में।

नाम की उसीर लगी टही सुख समीर करै
ऐसी तदवीर रहैं मोज मजेदारी में।।

प्रेम के फब्बारे लगाकर, अनुराग की पिचकारी भरकर, आनंद का सहारा लेकर शील रूपी चन्दन की क्यारी को सींचिये। विवेक रूपी इत्र को कुंड में भरकर प्राणों में प्रसन्नता लाइये। कवि रामप्रसाद कहते हैं कि सुमति रूपी नायिका के संग लिपट कर समता रूपी पलंग पर शयन करिये। ईश्वर नाम का परदा लगा, सुख रूपी हवा को ग्रहण करने की युक्ति से जीवन मौज मस्ती में व्यतीत कीजिए।

लूकै झहराती अधिकाती हैं रोज रोज,
खोज खोज हारी सखी आये वे सधाती ना।

लपटैं घघाती सो समाती मो करेजे बीच,
सीतल जमाती मोह एक हू सुहाती ना।।

‘रामप्रसाद’ ना पठाई, श्यान पाती भई
प्राणन की घाती मैं लगाये पीठ छाती ना।

दिन प्रति मुरझाती अकुलाती कर हाय हाय,
ग्रीषम अवाती मोह एकइ सुहाती ना।।

लपटों की आग प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, इन्हें रोकने की विधि ढूँढ़कर थक चुकी हूँ किन्तु वे सही नहीं जाती। ये लपटें जब प्रभाव छोड़ती हैं तो हृदय के भीतर जाकर समा आती है। जिससे मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। कवि राम प्रसाद कहते हैं कि कृष्ण ने चिट्ठी भी नहीं पहुँचाई है जिसे वे (गोपियाँ) छाती व पीठ से लगाकर शीतलता पा सकतीं। वे दिन प्रतिदिन व्याकुल होकर मुरझाते हुए हाय-हाय कर रही हैं, उन्हें ग्रीष्म ऋ़तु का आगमन बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है।

हौज भरवाये सुभग चन्दन पुताये अतर अरगजा
सिचाये औ बिछाये फूल वारी के।

पंकज उसीरन के परदा लगाये सब भांत के
सुहाये कंछाये नीर झारी के।।

ताहू पर प्राण वीर जान हैं विदेशे हैं अंदेशे न संदेशे
कछू पाये गिरधारी के।

‘रामप्रसाद’ रये सौतिन की ओर हमें जोर सहे
जात नहीं ग्रीष्म दुपारी के।।

हौजों में पानी भरवाया, अच्छे चन्दन से पुतवाया, अरगजा (शीतल लेप) से सिंचवाया और पुष्प बिछाये। कमलों के परदा लगाकर सभी प्रकार से सफाई कर पानी को छिड़का लेकिन मेरे तन की गर्मी नहीं जाती है। इसका कारण यह है कि मेरे प्राणों के प्रिय गिरधारी कृष्ण मुझ से दूर हैं और उन्होंने कोई सन्देश नहीं भिजवाया है। कवि रामप्रसाद कहते हैं कि गोपिकायें बताती हैं कि मुझे सौतिन के कारण ये ग्रीष्म की दोपहर सहन नहीं हो पा रही है।

सवैया
जांव कहां तज के चरणाम्बुज मोह कहूँ प्रभू ठौर न दीसें।
जासों कहों दुख रोय भली विध मोह भली विधि दांत सो पीसें।।

‘रामप्रसाद’ हिये अपने अनुमान के गांठ दई किस वीसें।।
मारें चहें अरु पालें चहें सब भांत को है छर भार कपीसें।।
(उपर्युक्त सभी छंद सौजन्य से डॉ. अशोक सक्सेना)

मैं आपके चरण कमलों को त्यागकर और कहाँ जाऊँ ? मुझे कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। मैं अपने दुखों का रोना किसके पास जाकर सुनाऊँ? कवि रामप्रसाद कहते हैं कि मैंने अनुमान की गांठ बाँधकर प्रतिज्ञा कर ली है कि आपसे ही दुख सुनाऊँगा। आप हे कपीश ! आप समस्त कष्टों को नष्ट करने वाले हो इसलिए अब आप चाहे मुझे मारो या पालो।

श्री राम प्रसाद सक्सेना जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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