Rajput Kalin Sanskriti राजपूत कालीन संस्कृति

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By admin

Rajput Kalin Sanskriti भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसने भारतीय धर्म एवं संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की है। इसने प्राचीनकाल से चली आ रही संस्कृति की गति को आगे बढ़ाने में अपूर्व योगदान दिया। राजपूतों ने दीर्घकाल तक हिन्दू धर्म और उसके विभिन्न मतों के संरक्षण में तथा साहित्य और ललित कला के प्रसार में काफी उल्लेखनीय योगदान दिया।

राजपूत कालीन संस्कृति में दुर्ग, भवन और मंदिर निर्माण की कलाओं ने राजपूतों के राज्याश्रय में विशिष्ट प्रगति की। वास्तव में राजपूत भारतीय धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं कला के द्योतक रहे। सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक राजपूत उत्तरी भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर छाये रहे, इसी कारण इस काल को राजपूत युग के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

 राजपूत कालीन भारत में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक परिवर्तन दिखाई देते हैं। शासन के क्षेत्र में सामन्तवाद का पूर्ण विकास इसी युग में दिखाई देता है। राजपूतों का सम्पूर्ण राज्य अनेक छोटी-छोटी जागिरों में विभक्त था। प्रत्येक जागीर का प्रशासन एक सामन्त के हाथ में होता था जो प्रायः राजा के कुल से ही सम्बन्धित होता था। सामन्त महाराज, महासामन्त, महासामन्त पति, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर आदि उपाधि धारण करते थे।

12 वीं शताब्दी की रचना अपराजितपृच्छा में महामण्डलेश्वर, माण्डलिक महासामन्त, लघु सामन्त चतुरंशिक आदि जैसे विविध सामन्तों का उल्लेख मिलता है जो क्रमशः एक लाख, पचास हजार, बीस हजार, दस हजार, तथा एक हजार गाँवों के स्वामी थे। चाहमान शासक पृथ्वीराज, कलचुरी शासक कर्ण तथा चालुक्य शासक कुमारपाल के शासन में क्रमशः 150, 136 तथा 72 सामन्तों के अस्तित्व का पता लगता है।

इस प्रकार राजपूत शासक अपना प्रजा पर प्रत्यक्ष शासन न करके सामन्तों पर ही शासन करते थे। सामन्तों के पास अपने न्यायालय तथा अपनी मंत्रीपरिषद होती थी। अपने लेखों में वे सम्राट का उल्लेख करते थे तथा समय-समय पर राजदरबार में उपस्थित होकर भेंट-उपहार आदि दिया करते थे। राज्याभिषेक के अवसर पर उनकी उपस्थिति विशेष रूप से आवश्यक पायी जाती थी।

सामन्तों का वर्चस्व
प्रान्तीय शासन पर सामन्तों का अधिकार था जो प्रायः स्वतंत्रता से शासन करते थे। सामन्तों के पास अपनी सेना होती थी जो आवश्यकता पड़ने पर उनके नेतृत्व में राज्य की सेना सम्मिलित होती थी। कुछ शक्तिशाली सामन्त अपने अधीन कई उपसामन्त भी रखते थे। छोटे-छोटे सामन्त राजा, ठाकुर, भोक्ता आदि उपाधि ग्रहण करते थे।

इस प्रकार राज्य की वास्तविक शक्ति और सुरक्षा की जिम्मेदारी सामन्तों पर ही होती थी। सामन्तों में राजभक्ति की भावना बड़ी प्रबल होती थी। वे अपने स्वामी के लिए सर्वस्व बलिदान करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। सामन्तों की संख्या में वृद्धि से सामान्य जनता का जीवन कष्टमय हो गया था। वे जनता को मनमाने ढंग से शोषण करते थे और उनपर किसी प्रकार का अंकुश नहीं था।

निरंकुश राजतंत्र
प्राचीन इतिहास के अन्य युगों की भांति राजपूत युग में भी वंशानुगत राजतंत्र शासन पद्धति थी। इस युग के राजा निरंकुश ही नहीं स्वेच्छावादी भी होते थे। प्राचीनकाल जैसी कोई सभा, समिति या कोई अन्य जन प्रतिनिधि सभा नहीं थी। ग्राम पंचायतों का महत्व भी कम हो गया था, क्योंकि उनपर अब सामन्तों का एकाधिकार था राजा की स्थिति सर्वोपरि होती थी।

न्याय तथा सेना का भी वह सर्वोच्च अधिकारी था। महाराजाधिराज, परमभटारक, परमेश्वर जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधि धारण कर अपनी महत्ता को ज्ञापित करता था। राजा देवता का प्रतीक समझा जाता था। मनु का अनुकरण करते हुए लक्ष्मीधर ने अपने ग्रन्थ कृत्यकल्पतरू में राजा को लोकपालों-इन्द्र, वरूण, अग्नि, मित्र, वायु, सूर्य आदि के अंश से निर्मित बताया है। इस प्रकार सिद्धान्ततः शासक की स्थिति निरंकुश थी, किन्तु व्यवहार में धर्म तथा लोक-परम्पराओं द्धारा निर्धारित नियमों का पालन करता था। सैनिक-बल तथा शासक के निजी साहस, शूरतत्व और प्रतिष्ठा पर टिका रहता था।

 ग्राम-शासन
ग्राम, शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी। ग्रामसभा जनता की समस्याओं को सुलझायी तथा ग्राम का शासन सुचारू रूप से चलाती थी। ग्रामसभा छोटी-मोटी समितियों में विभक्त रहती थी ये समितियाँ अलग-अलग निश्चित कार्य को सम्पन्न करती थी। बाजार का प्रबन्ध, कर वसूलना, जलाशयों, उद्यानों तथा चरागाहों की देखभाल करना, व्यक्तियों के पारस्परिक झगड़ों को सुलझाना आदि कार्य समितियाँ ही सम्पन्न करती थी।

हर एक समिति अपने कार्य का लेखा-जोखा ग्रामसभा के समक्ष पेश करती थी। ग्राम पंचायतें केन्द्रीय शासन से प्रायः स्वतंत्र होकर अपना कार्य करती थी। दीवानी तथा फौजदारी के मुकदमों के फैसले भी ग्राम पंचायत द्वारा ही किये जाते थे।

 सैन्य संगठन
राजपूतों का सैन्य संगठन काफी दोषपूर्ण था इनमें पैदल सैनिकों की संख्या अधिक रहती थी और अच्छी नस्ल के घोड़ों का उसमें सर्वथा अभाव था। राजपूत प्रायः भाले, बल्लम, तलवार आदि से युद्ध करते थे। वे कुशल तीरन्दाज भी नहीं होते थे। राजपूत लोग प्रायः अपनी हस्ति सेना को सबसे आगे रखते थे जो बिगड़ जाने पर कभी-कभी अपनी ही सेना को रौंद देती थी।

राजपूतों की सैन्य संगठन पुरानी थी तथा प्राचीन रण पद्धति का ही प्रयोग किया जाता था। लेकिन राजपूतों के रण-सम्बन्धि आदर्श बड़े ही ऊँचे थे। वे कूटनीति तथा धोखेबाजी में कतई विश्वास नहीं करते थे। वे निशस्त्र तथा भागते हुए शत्रु पर कभी प्रहार नहीं करते थे। स्त्रियों एवं बच्चों पर भी वे हथियार नहीं उठाते थे।

राजस्व व्यवस्था
राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत भूमिकर था। यह भूमि की स्थिति के अनुसार तीसरे से लेकर बारहवें भाग तक लिया जाता था। उद्योग एवं वाणिज्य व्यापार से भी राजस्व की प्राप्ति होती थी। अपातकाल में राजा, प्रजा से अतिरिक्त कर वसूलता था। कुलीनों तथा सामन्तों द्वारा प्रदत्त उपहार तथा युद्ध में लूट के धन से भी राजकोष में पर्याप्त वृद्धि होती थी। पड़ोसी राज्यों को लूटकर धन प्राप्त करना भी राजा लोग अपना कर्त्तव्य समझते थे। भूमिकर ग्राम पंचायतों द्वारा एकत्रित किया जाता था।

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