Pandit Ramkripalu Mishra Ki Rachnayen पंडित रामकृपालु मिश्र की रचनाएं

Photo of author

By admin

पं. श्री रामकृपालु मिश्र का जन्म मार्गशीष कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1982 (तदानुसार सन् 1925) को प्रातः ग्यारह बजे छतरपुर (म.प्र.) के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। Pandit Ramkripalu Mishra के पिता पं. हरिश्चन्द्र मिश्र कर्मकाण्ड विशेषज्ञ के रूप जाने जाते थे। पांडित्य वृत्ति ही उनके जीवन यापन का साधन था। आपकी माता जी श्रीमती बेटी बाई कुशल गृहिणी और धार्मिक आचार-विचार की थी।

सैर (कीरदूत – नायिका विरहनी)

दोहा – कील खोलकर कीर को, बाहर लिया निकार।

/> केवल आशा तव मुझे, कहूँ आत्म उद्गार।।

सोरठा – कहूँ आत्म उदगार, मम इच्छा पूरी करो।
पड़ी नाव मझदार, प्रिय नाविक साहिव बिना।।

सैर – कर पैज यही सांची साजन कौ पठैहौं।
कल लहौं नहीं पल भर ना विलम लगैहों।

 

स्वीकार पत्र बिन ना आ आस्य दिखैहों।
उड़ जाओ कीर हरो पीर खीर खवैहों।।टेक।।

सैर – कर परस वदन मलमल कर तोय अन्हैहों।
तव सुभग गात चन्दन चर्चित हू करैहों।

आभरण वस्त्र मँगा मँगा तोय सजैहौं।।
उड़ जाओ कीर ………।।

सैर – बुलवा सुनार चंचू सुठि स्वर्ण मढ़ैहों।
रुच रजत पात्र पिंजरा तामें सौं रचैहों।

मखमल के बिछा बिस्तर मशनंद डरैहों।।
उड़ जाओ कीर …………।।

मन भाय जोई तोकूं मैं सोई चुगैहो।।
पाती के सहित लैकैं छाती से लगै हों।।

विरहाग्नि व्यथित हृदय मिश्र धीर धरैहों।
उड़ जाओ कीर………….।।
(लेखक की पाण्डुलिपि से)

नायिका ने पिंजड़े की कील खोली और तोते को बाहर निकाल लिया, फिर बोली – मैं अपने हृदय का भाव व्यक्त कर रही हूँ कि मुझे अब केवल तुम्हारी आशा है। मैं अपने हृदय की बात कहती हूँ, तुम मेरी इच्छा पूरी करो। बिना पिया रूपी खिवैया (नाव चलाने वाले के) के मेरी नाव बीच धारा में पड़ी है।

आज यही सत्य प्रण करके मैं आपके प्रियतम को संदेश भेजूँगा, मुझे क्षणभर भी चैन नहीं है। मैं तनिक भी देर नहीं लगाऊँगा। पत्र स्वीकार कराये बिना मैं लौट कर मुँह नहीं दिखाऊँगा। (यह सुनकर नायिका कहती है) हे कीर! तुम उड़कर जाओ, मेरी पीड़ा का शमन करो, मैं तुम्हें खीर खिलाउँगी।

जब तुम संदेश लेकर लौटोगे तो  मैं अपने हाथों से मलकर स्नान कराउँगी। तुम्हारी सुन्दर देह पर चंदन का लेपन करूँगी। आभूषण और वस्त्र मँगाकर मैं तुम्हें सजाउँगी। चांदी के पिंजरे में चांदी पात्रों को सुन्दर ढंग से रखूँगी। मखमल बिछौना डालकर सुन्दर तकिया रखूँगी। तुम्हें जो कुछ अच्छा लगेगा मैं वही तुझे चुनने (भोजन) के लिये दूँगी। वापिसी पर, पत्र सहित तुझे अपनी छाती (हृदय) से लगाउँगी। मिश्र जी कहते हैं कि विरह की अग्नि से पीड़ित हृदय को कुछ धैर्य रखा पाउँगी।

सैर (कीरदूत – कीर का उत्तर)

देहा – पीर भरी जब ही सुनी राधा गिरा गंभीर।
सोवत जागा वीर रस मानो कीर शरीर।।

सोरठा – मानो कीर शरीर फरफराय पंखा तुरत।
होकर निपट अधीर जाने की जल्दी करत।।

सैर – गणपति गिरीश गिरजा गुरु चरण मानाऊँ।
निर्विघ्न कार्य सिद्धि अर्थ सबको ध्याऊं।

आशीष उचार आज्ञा दे शीश नवाऊँ।
धर दूत वेश पिया देश जल्दी जाऊँ।।टेक।।

मैं जाऊँ वेग मग में न वेर लगाऊँ।
पायन पलोट विरह व्यथा कथा सुनाऊँ।

आहें जरूर आहें सुन तोय बताऊँ।।
घर दूत वेश पिया वेश………..।।

कर काज नोन पानी की आज भँजाऊँ।
सुक नाम नहीं सजनी सुख जो न दिवाऊँ।

मैं कीर नहीं जोपै ना पीर घटाऊं।।
धर दूत वेश पिया वेश………..।।

पत आये पत रैहै नहीं प्राण गमाऊँ।
तब काज सौंप जीवन जग सुयश कमाऊँ।

दोउ हाथ मिश्र मोदक मुद लेकर खाऊँ।।
धर दूत वेश पिया वेश………..।।
(मूल पाण्डुलिपि से)

तोते ने जब राधिका जी की पीड़ा से भरी बात को सुना तो उसके शरीर में मानो सोया हुआ वीर रस जाग उठा अर्थात् वीरता का भाव जागृत हो गया। तोते ने तुरंत अपने पंख फड़फड़ाये (मानो वीर रस जाग गया) और बिना धैर्य धारण किये तुरन्त जाने की जल्दी करने लगा।

तोता बोला- मैं गणेश जी शंकर जी और अपने गुरुजी के चरणों की वंदना करता हूँ और निर्विघ्न कार्य संपादन हेतु सबका स्मरण करता हूँ। मैं आपको भी सिर नवाता हूँ मुझे आशीर्वाद और जाने की आज्ञा दीजिये। ताकि संदेश वाहक का रूप रखकर आपके प्रियतम के देश को तुरन्त प्रस्थान करूँ।

मैं तीव्रता से जाउँगा और मार्ग में बिलकुल भी विलम्ब नहीं करूँगा। मैं वहाँ पहुँचकर उनके चरणों को पकड़कर आपकी विरह वेदना की गाथा उन्हें सुनाउँगा। मैं तुमसे निश्चित रूप से कहता हूँ कि वे तुम्हारी आहों की बात सुनकर अवश्य आयेंगे।मैं आपका यह कार्य सम्पन्न करके आपके नमक से उऋण (ऋण मुक्त) हो जाउँगा। हे सजनी। मेरा नाम सुक नहीं यदि मैं तुम्हें मिलन का सुख न दिला सका।

पुनः कहता है मेरा नाम कीर नहीं जो आपकी पीड़ा को कम न कर सकूँ।पत्र आवेगा और प्रण पूरा होगा अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूँगा। आपके काम के लिये जीवन अर्पित करके मैं यश प्राप्त करूँगा। मेरे दोनों हाथों में लड्डू है, प्रसन्नता से इनका पान करूँगा। (अर्थात् कार्य कर दूँगा तो  यश मिलगा, नही कर सका तो प्राण देकर यश प्राप्त कर लूंगा,दोनो हाथों में लड्डू है।)

सैर (प्रभाती नायिका)

दोहा – गुरु गिरीश गिरिजा सुवन, पाद पदम् सिर नाय।
सुगम प्रभाती नायका, वर्णन करूं बनाय।।

सैर – हो रहा व्योम शुभ्र पईं पीरीं फारत।
लख प्रातकाल अरुण चूड़ शब्द पुकारत।
 

नायका और नायक दोउ फाटक टारत।
झारत दुवार मानों हँस जादू डारत।।टेक।।

डारत हू कड़ी घूँघट पट सुघर सुधारत।
धारत है हाथ कटि पै कटि-बसन समारत।

मारत है मंत्र गुन गुन ज्यों मस्ती झारत।।
झारत दुवार…………….।।

दारत दरार चित्त चित्त होश विसारत।
सारत न कछू साफ और मन उलझारत।।

झारत दुवार……..।।
डारत उठाय भूमि पटक बारा मारत।

मारत है फेर खिड़की की ओर निहारत।
हारत न ‘मिश्र’ नायक कौ मन सुलझारत।

झारत दुवार मनों……….।।
(मूल पाण्डुलिपि में)

गुरु भगवान शंकर और गिरिजा नंदन गणेश जी के चरण कमलों को सिर नवाकर प्रभाती नायिका का वर्णन कर रहा हूँ। होने पर मुर्गा की बांग सुनाई देने लगे, तभी नायक और नायिका अपने-अपने किवाड़ खोलते हैं। नायिका द्वार झारते हुए मुस्कराती हुई मानो जादू कर रही है। सुन्दरी अपना घूँघट-पट सम्हालते और घूँघट डालते हुए बाहर निकलती है। कमर पर हाथ रखकर अपनी कमर का वस्त्र सम्हालती है। वह कुछ गुनगुना रही है मानों नायक को मंत्र मारकर उसकी मस्ती को झार रही हो।

जब वह तिरछी नजर से देखती है तो नायक को बरछी सी लगती है। हाव-भाव में ही चित्त को ऐसा चीर देती है कि नायक का चित्त विचलित हो जाता है। वह मुँह से स्पष्ट कुछ नहीं बोलती बल्कि मन में उलझन पैदा कर देती है। भूमि पर बारा (झाड़ू) गिरा कर उठाती है और उसे पुनः भूमि पर मारती है फिर खिड़की की ओर देखती है (संकेत है कि रात्रि के जब बारह बज जायं तभी आना मैं यह खिड़की खोल दूँगी)। इस तरह वह हारती नहीं बल्कि नायक के मन को सुलझा देती है।

सैर
दोहा – आतप भयो अवाई पै, भो बसंत कौ गौन।
विरह भवूकन सौं जरत, नई नार इक भौन।।

सोरठा – नई नार इक भोन, सांझ होत पति आपरे।
लगीं वतकहीं हौन, हियैं प्रीति मुख वैन कटु।।

सैर – भावरें पार ल्याये करे ऊसई साके।
होती के सुक्ख जाने ना चार दिना के।

परदेश कर कमाई काय धर दवो ल्याके।
विरथां बसंत कंत अंत दवो विताके।।टेक।।

इतके न रये उतके ना काऊ जंगाके।
मुकते कलेश सैं के रये गम्मैं खाकें।

पाखान हियो पाती ना दई पठाकें।।
विरथा बसंत………….।।

बैरी बसंत बगरो बगमेल मचाके।
कोइलिया कान फोरे दै कूकू ठाके।

सर करो मार मार मार सरसौं आके।।
विरथा बसंत………….।।

दिन दौरे द्वार रात रात झांके झांके।
दई नें हू दई विछुरन दई दवो मिलाके।

कर छमा ‘मिश्र’ रहो प्रेम प्यालौ प्याके।
विरथां बसंत कंत अंत दवो विताके।।
(मूल पाण्डुलिपि से)

ग्रीष्म ऋतु आने को हुई और बसंत प्रस्थान हो गया, विरह की ज्वाला में एक युवती घर में जल रही है। एक नव यौवना विरहावस्था में घर में है तभी सायंकाल होने पर प्रियतम आ गये। तब बातें होने लगीं, हृदय में प्रेम है किन्तु मुख से कटु वचन निकल रहे हैं।

तुम सात भांवरे पार के (विधिवत् विवाह करके) व्यर्थ में साके किये (साके का अर्थ बुन्देली में ऐसे काम से लेते हैं जहाँ कर्ता वह काम अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिए करता है।) तुम्हारे साथ विवाह होने का सुख मुझे चार दिन भी (कुछ ही दिन) नहीं मिल सका।

विदेश से धनार्जन करके लाने की क्या आवश्यकता थी (अर्थात् क्या उपयोगिता थी)? हे प्रियतम! आखिर तुमने व्यर्थ में बसंत वहीं व्यतीत कर दिया। तुम्हारी प्रतीक्षा में न तो यहां सुख मिला न अन्य किसी जगह रह सके। बहुत से कष्टों को सहकर धीरज रखे रहे। तुम्हारा हृदय पत्थर का है, तुमने एक पत्र भी नहीं भेजा।

बसंत शत्रुता के भाव से अपने साथियों सहित यहाँ आकर फैल गया। कोयल कू-कू की कठोर ध्वनि से कान फोड़े दे रही थी। कामदेव ने सरसों मार-मार कर विजय प्राप्त कर ली। दिन में बार-बार द्वार पर जाकर और रात में झाँक-झाँक कर मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की। नायक कहता है कि विधाता ने ही हम दोनों को अलग कर दिया था आज उसी विधाता ने हम लोगों का मिलन करा दिया। इसलिये भूल को क्षमा करके प्रेम का प्याला पिलाओ।

सैर
दोहा – कहत कामिनी पथिक सौ कहौ जात केहि देश।
कई भांत कर कर विनय कहौ पियै संदेश।।

सैर – कई वरस दरश बिना गये कान्ह कुँवर की।
कीनी कुचाल लाल जाल फसे कुवर की।

कर मन्त्र-जाप उलटा कुलटा ने कुतर की।
कैसें कटै कुजात रात कुसुमाकर की।।टेक।।

कुंजन दुकूल कालीदह जमुन कगर की।
कर करकैं खवर कई बार रोक डगर की।

कर पकर करत रास हास काम विसर की।।
कैसें कटै………….।।

कैयक सँदेश कहकैं कई हालत घर की।
कर लई कड़ी छाती ना तनक कसर की।

ना काम करैं कैसे हो गुजर वसर की।।
कैसें कटै………….।।

कह चरन कमल पड़कैं विनय संपुट कर की।
कई भूल करौ माफ करो नेह नजर की।

काके चोअंग कहे ‘मिश्र’ कविता कर की।।
कैसें कटै………….।।
(मूल पाण्डुलिपि से)

एक सुन्दर युवती यात्री से कहती है कि तुम किस देश को जा रहे हो? फिर अनेक तरह से विनती करते हुए कहती है कि मेरे प्रियतम को यह संदेश दे देना। कन्हैया के दर्शन बिना कई वर्ष बीत गये हैं। कुबरी ने कुत्सित आचरण करके श्रीकृष्ण को अपने जाल में फंसा लिया है।

अब बसंत की यह अधम रात्रि कैसे बीतेगी ? वह बार-बार स्मरण करती है कि कुंजन में फैली मखमली सुरम्य स्थान की, काली दह की लीला की, यमुना के किनारों की जहाँ हाथ पकड़ के कन्हैया रास रचाते थे और इस हास-विलास में कामुक-भावों के नष्ट होने की।

वह कहती है कि मैंने अनेक संदेश भेजकर इस घर के समाचार कहे हैं लेकिन उन्होंने हृदय कठोर कर लिया है, थोड़ी भी गुंजाइश नहीं छोड़ी। कुछ भी कार्य नहीं कर पा रहे कि भला कैसे दिन कटेंगे? दोनों हाथ जोड़कर और चरन कमलों में माथा रख के कहते हैं कि उनसे कहना कि मेरी भूल को क्षमा करके मेरी ओर प्रेम की नजर करो। कवि मिश्र कहते हैं कि मैंने यह ‘क’ के चौअंग की यह कविता कही है।

सैर
दोहा – कर झारी कांधे वसन, कर नीवी उकसाय।
सपर सरोवर शशिमुखी सकुच निकस घर जाय।।

सैर : सुचि गौर अंग श्याम रंग सारी विकसी।
श्रीफल उरोज आभा आभा ते अधिक सी।

झूमत मलिंद वृंद देख जावै जक सी।
शशिमुखि सपर सकुच सरोवर सें निकसी।।टेक।।

अलकन पै बिन्दु झलकन बिन बुन्द दमक सी।
नीबी उठाय चलत चाल करि सावक सी।।

नैनन हंसाय कछु लजाय जाय उझक सी।
शशिमुखी सपर ………………..।।

मुसकाय नेक बाल बचन बोलै पिक सी।
मुख मोर जहाँ हेरत तहं होत चमक सी।।

देखत अनूप रूप नरन मनहिं कसक सी।
शशिमुखी सपर ………………..।।

झारी की लेन ऐन देन मार मसक सी।
घुंघरूँ पायजेबन की झनक भनक-सी।।

सुन ‘‘मिश्र’’ शब्द मेधा जनु जाय विलग सी।
शशिमुखी सपर ………………..।।
(मूल पाण्डुलिपि से)

चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाली नायिका सरोवर (जलाशय) में स्नान करके निकली और एक हाथ में लोटा लिये, कंधे पर वस्त्र रखे तथा एक हाथ से सारी की तिन्नी पकड़कर उठाये हुए संकोच में सिमटी-सी घर जा रही है। वह सुन्दर पावन गोरे शरीर पर काले रंग की सारी पहने हुए है।

श्रीफल के समान सुन्दर उभरे उरोजों का सौन्दर्य सुन्दरता से भी अधिक सुन्दर है। उसके बदन से निकलती सुगंध से आकर्षित हो भौरों के झुंड उसके चारों ओर चक्कर काटने लगते हैं जिससे वह डर सी जाती है। चन्द्रमुखी सरोवर से स्नान करके संकोच सहित बाहर निकलती है।

बालों की लटों पर पानी की बूंदों की झिलमिलाहट है और बिना बूंदों वाली लटें अलग चमक रही हैं। धोती की तिन्नी हाथ से पकड़कर उठाये हुए हाथी के बच्चे के समान चल रही है। आँखों से कभी हँस लेती है, कभी उसे लज्जा आ जाती है, कभी चौंक जाती है। वह बाला थोड़ा हँसकर कोयल से मीठे वचन बोलती है।

मुँह घुमाकर जिस तरफ देखती है तो उधर एक प्रकाश सा फैल जाता है। उसका अनुपम सौंदर्य देखकर मनुष्यों के मन में एक चुभन सी होती है। जलपात्र लेकर चलते समय के कलात्मक सौंदर्य को देखकर और पैरों के अलंकरण की घुँघरुओं की झनझनाती मधुर ध्वनि से लोगों के मन को बाहर व्यक्त न कर सकने वाली कामुक चोट लगती है। कवि मिश्र जी कहते हैं कि ऐसे में धैर्य व्यक्ति से दूर चला जाता है।

पंडित रामकृपालु मिश्र का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

Leave a Comment

error: Content is protected !!