Narvargadh Ki Ladai- Kathanak नरवरगढ़ की लड़ाई -कथानक

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 नरवरगढ़ के राजा नरपति सिंह की पुत्री राजकुमारी फुलवा के विवाह को लेकर Narvargadh Ki Ladai हुई।  हिरिया मालिन के साथ ऊदल नारी वेश बनाकर फुलवा के महल में जा पहुंचा बहुत रोचक है । राजा परिमाल महोबे में राज कर रहे थे। उन्होंने राजाओं को जीतने के पश्चात् अपने शस्त्रों का त्याग कर दिया था, परंतु उन्हीं के द्वारा पालित आल्हा, ऊदल और मलखान अपने भुजबल से उनके यश की पताका को निरंतर फहरा रहे थे। यद्यपि कुछ क्षत्रिय बनाफर गोत्रीय इन वीरों को अपने से नीचा मानते थे, परंतु युद्ध में इनके सामने उनकी अकड़ मिट जाती थी।

माहिल परिमाल की पत्नी मल्हना का सगा भाई था, परंतु वह सदा उनको हानि पहुँचाने के उपाय सोचता रहता था। पहले तो युद्ध करवाने के लिए प्रेरित करता, फिर शत्रु को उनके विरुद्ध भड़काता। एक बार माहिल ने राजा परिमाल के दरबार में काबुल के घोड़ों की जमकर तारीफ की।

राजा ने अपने दरबार के वीरों के सामने पान का बीड़ा रखकर चुनौती स्वीकार करने को कहा। चुनौती स्वीकार करने के लिए कोई क्षत्रिय नहीं उठा तो राजा उदास हुआ। उसी समय दरबार में ऊदल आ गया। माहिल ने ऊदल को उकसाया और ऊदल ने बीड़ा उठा लिया।

राजा अपने प्यारे पालित पुत्र को काबुल की लंबी यात्रा पर भेजने को तैयार नहीं थे। ऊदल ने अधिक हठ किया तो राजा ने देवपाल (ढेवा) को ऊदल के साथ जाने को कहा। राजा ने दोनों को चौदह खच्चर मँगवाकर दिए और सोने की मुहरें भी खर्च के लिए दीं। इसके पश्चात् दोनों रानी मल्हना, माता दिवला और माता तिलका से आशीर्वाद लेने गए।

सब जानती थीं कि ऊदल ने प्रण कर लिया तो अब इसे रोका नहीं जा सकता। अतः सबने आशीर्वाद देकर विदा कर दिया। आल्हा ने भी समझाया, पर ऊदल तो जाने की ठान चुका था। फिर ढेवा अपने मनुरथा घोड़े पर और ऊदल अपने वैदुल घोड़े पर सवार होकर चल पड़े।

कई दिन चलने के बाद वे एक नगर के पास पहुंचे। उन्होंने खेतों में गाय चराते लोगों से नगर का नाम पूछा। उत्तर मिला कि आगे जो दिखाई दे रहा है, वह नगर नरवरगढ़ है। इस शहर का दूसरा नाम मौरंगगढ़ भी है। यहाँ राजा नरपति सिंह राज करते हैं। तब तक वे नरवरगढ़ में पहुँच ही गए। ऊदल ने पानी भरनेवाली पनिहारिन से कहा, “मेरे घोड़े को पानी पिला दो।

पनिहारिन बोली, “मैं राजकुमारी फुलवा की दासी हूँ। पानी तो क्या पिलाऊँगी। यदि राजा को पता चल गया तो हे राहगीर, तुम्हारा घोड़ा भी छिन जाएगा और जेल की हवा खाओगे।” ऊदल ने कहा, “यह फुलवा कौन है, जिसकी इतनी अकड़ है?” दासी बोली, “फुलवा राजा नरपति की राजकुमारी है। अति सुंदर है। रोज सवेरे ताजे फूलों से तौली जाती है।”

ऊदल ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया और फुलवा के बगीचे में जा पहुँचा। दोनों ने अपने घोड़े बाँधे। ढेवा वहाँ रुकने का खतरा मोल नहीं लेना चाहता था, पर ऊदल ने कहा, “तुम जाकर घोड़ों के लिए रातब (चारा) ले आओ। रात को रुकेंगे और सवेरे ही चलेंगे।” । ढेवा के जाते ही माली आ गया। उसने बाग में गर्द उड़ाने का विरोध किया और वहाँ से चले जाने को कहा।

राजा का भय दिखाया। ऊदल ने कहा कि एक रात की छूट दे दो। सुबह हम अपनी राह चले जाएँगे। यह कहते हुए एक सोने का हार उस माली को दे दिया। माली तो फूला न समाया। घर जाते ही मालिन ने खुशी का कारण पूछा। माली ने हार दिखाया और कहा, “तुम भी चली जाओ। तुम्हें भी कुछ अवश्य मिल जाएगा।”“

हिरिया नाम की वह मालिन तुरंत बगिया में जा पहुँची। ऊदल ने मालिन को भी मोहरों का बना एक हार (कुठला) दे दिया। मालिन ने ऊदल से परिचय पूछा तो ऊदल ने उसे असली परिचय दे दिया कि वे महोबे के राजकुमार हैं। मालिन को यह भी बताया कि बड़े भाई आल्हा नैनागढ़ में ब्याहे हैं। रानी सुनवां मेरी भाभी लगती हैं। मालिन ने भी रिश्ता गाँठ लिया। उसने कहा, “सुनवां मेरी बहन ही लगती है।

मैं भी नैनागढ़ की ही हूँ। आप मेरे भी देवर हो। मैं आपकी सहायता करूँगी।” तभी ढेवा रातब लेकर आ गया। घोड़ों को रातब डाल दिया। ढेवा बोला, “अब जल्दी ही अपनी मंजिल की ओर चलो। हमें घोड़े खरीदने काबुल जाना है।” ऊदल बोला, “जाएँगे, अवश्य जाएँगे, पर फुलवा को देखे बिना मैं कहीं नहीं जाऊँगा।” इतना कहकर ऊदल मालिन के घर चले गए। रिश्ता तो बना ही लिया था, वहीं रहने लगे।

महीनों तक फुलवा से मिलने का मार्ग नहीं मिला। ढेवा से सलाह की। उसने बताया कि चार लड़ीवाला हार बनाकर नारी वेश बनाकर हिरिया के साथ फुलवा के महल में चले जाओ। उपाय ऊदल को अच्छा लगा। वह हिरिया मालिन के साथ नारी वेश बनाकर तथा चार लड़ी का हार बनाकर, उसमें मोती भी पिरोए, साथ लेकर फुलवा के महल में जा पहुंचा।

हिरिया मालिन ऊदल (नारी वेशधारी) को लेकर सतखंडा पर जा पहुँची। फुलवा ने पूछा, “यह चार लड़ी का हार किसने गूंथा है? गाँठें भी इतनी सख्त लगाई हैं। यह मर्दाने हाथ की गाँठे हैं।” तब हिरिया ने बताया, “महोबे से हमारी बहनौतिन (भानजी) आई है, उसी ने यह हार बनाया है।” फुलवा ने उसे बुलवाने का आदेश दिया।

ऊदल को तो वह नीचे छोड़ गई थी। उसे लिवाकर सतखंडा पर ले गई। साज-शृंगार करके चूंघट करके ऊदल फुलवा के महल में पहुँच गए। फुलवा ने पूछा, “जनाने महल में यह हाथ भर का घूघट क्यों निकाल रखा है?” हिरिया ने कहा, “यह बड़ी शर्मीली है।” फुलवा ने पीढ़ा बिछवा दिया, पर ऊदल उस पर नहीं बैठे।

हिरिया ने बात सँभाली, “यह मेरी भानजी महोबे के राजा परिमाल की पुत्री चंद्रावलि की मालिन है। वहाँ उसके साथ पलंग पर बैठकर ही चौसर खेलती है। नीचे पटरे या पीढ़े पर नहीं बैठती।” फुलवा ने पलंग पर ही पाँयतन की जगह छोड़ दी, परंतु ऊदल सिरहाने जा बैठे।

फुलवा के मन में संदेह हो गया। तब फुलवा ने महोबे के महलों का हाल पूछा। ऊदल ने सब जवाब स्त्री जैसे स्वर में बताया। फुलवा ने पूछा, “आल्हा और ऊदल का विवाह कहाँ से हुआ है?” तो ऊदल ने बतलाया, “आल्हा का ब्याह नैनागढ़ की राजकुमारी सुनवां के साथ हुआ है। अभी ऊदल कुँवारे हैं, उनका विवाह होना बाकी है।” फिर फुलवा ने पूछा, “कि तुम्हारे पाँव मर्दो जैसे मोटे और सख्त दिखाई पड़ रहे हैं?” फिर फुलवा ने हिरिया मालिन से कहा, “आज इसे यहीं छोड़ दे। सुबह वापस ले जाना। मैं इसके साथ चौसर खेलूंगी।”

हिरिया मालिन घर चली गई। फुलवा और ऊदल चौसर खेलने लगे। तभी हवा से ओढ़ना हट गया तो ऊदल की कमर में कटार दिखाई पड़ गई। फिर तो फुलवा ने कहा, “मैंने तुम्हें पहचान लिया। तुम महोबे के ऊदल हो। जब तुम मांडीगढ़ में जोगी रूप बनाकर गए थे, तब मैं वहीं थी।” अब तो ऊदल को स्वीकार करना पड़ा। फुलवा ने कहा कि हम अभी आपस में ब्याह रचा लेते हैं। ऊदल ने कहा, “इस प्रकार चोरी से विवाह करने से हमारी राजपूती शान में बट्टा लग जाएगा। हम महोबे से बरात लेकर आएँगे और विधिपूर्वक तुम्हें विदा करवाकर ले जाएँगे।”

ऊदल ने ब्याह का आश्वासन गंगाजली उठाकर दिया। फिर फुलवा ने खाना खाने के लिए आग्रह किया, परंतु ऊदल ने कहा, “बिना ब्याहे न तो मैं तुम्हारे हाथ का खाना खाऊँगा और न तुम्हारी सेज पर पाँव रखूगा। इससे मेरी राजपूती आन टूटती है।” ऊदल की बात फुलवा ने मान ली। सुबह को जल्दी ही पालकी में बिठाकर हिरिया मालिन उसे लिवा ले गई। मकरंद ठाकुर ने हिरिया से पूछा तो उसने अपनी बहनौतिन बताकर पीछा छुड़वाया।

मालिन के घर पहुँचकर ऊदल ने कपड़े बदले। ढेवा ने कहा कि फुलवा को मैं भी देखना चाहता हूँ। तब दोनों ने अपनी जोगीवाली गूदड़ी निकाली और जोगी बनकर गाते-बजाते महल के सामने जा पहुँचे। पनिहारिन दोनों जवान जोगियों को देखने लगीं। बाँदी ने जाकर रानी को जोगियों की बात सुनाई। रानी ने कहा, “उन जोगियों को महलों में बुलवाओ, हम भी देखें।

दासी ने देर नहीं लगाई। दौड़ी-दौड़ी जोगियों के पास आई और बुलाकर ले गई। राजा ने उन्हें अपने पास बुला लिया। ऊदल ने बाएँ हाथ से राजा को प्रणाम किया तो राजा नाराज हो गया। तब जोगी ने कहा, “जिस हाथ से सुमरनी (माला) जपते हैं, राम नाम लेते हैं, उसी हाथ से आपकी बंदगी करने से हमारा योगभंग हो जाता। इसलिए बाएँ हाथ का उपयोग करते हैं।”

फिर तो राजा की आज्ञा से जोगी गाने-बजाने लगे। ऊदल की तान और ढेवा की खंजरी की आवाज ने सबके मन मोह लिये। वाह-वाह होने लगी। राजा नरपति सिंह बहुत प्रसन्न हुए। उदय सिंह राय ने नृत्य करना शुरू कर दिया। महलों की दीवारें तक मोहित हो गई। राजा ने आग्रह किया, “जोगी आज यहीं विश्राम करें तथा हमारा आतिथ्य स्वीकार करें।”

ऊदल ने कहा, “महाराज! ब्राह्मण का बना भोजन करके हमारा योग भंग हो जाएगा। हम केवल कुँवारी कन्या या बाल ब्रह्मचारी के हाथ से बना भोजन ही करते हैं।” राजा ने आग्रह किया, “अपनी कन्या फुलवा के हाथ से भोजन बनवाता हूँ, आप स्वीकार कीजिए।”

पुत्र मकरंद से राजा ने कहा, “दोनों जोगियों को महलों में ले जाओ। फुलवा के द्वारा भोजन तैयार करवाकर इन्हें भोजन करवाओ।” मकरंद ने राजा की आज्ञा का पालन किया। दोनों भोजन करने बैठ गए। फुलवा ने स्वयं भोजन परोसा। ऊदल ने ढेवा से कहा कि फुलवा को भली प्रकार निहार लो।

भोजन करने को कहा गया तो ऊदल ने सोचा, मैं ब्याह से पहले फुलवा के हाथ का भोजन करूँगा तो मेरी राजपूती शान-बान घट जाएगी। तभी ऊदल ने बेहोश होने का नाटक किया। चंपारानी को शक हुआ कि छोटा जोगी मेरी बेटी का रूप देखकर होश खो बैठा है। तब ढेवा ने कहा कि जोगी को चुडैलों ने पकड़ लिया है। इस महल में चुडैलों का साया घूम रहा है। वैद्यों ने भी उपचार किया, पर व्यर्थ गया।

तब स्वयं फुलवा आई और धीरे-धीरे ऊदल से बोली, “क्यों बहाने बना रहे हो? तुम्हारा काम हो गया। अब जल्दी महोबा लौट जाओ और पूरी तैयारी के साथ आकर मेरे साथ भाँवर डलवाकर मुझे ब्याह ले जाओ। ऊदल उठ गए और चलने की तैयारी करने लगे। मालिन के घर पहुँचकर वस्त्र बदले और महोबा को वापस चलने के लिए विचार आते ही सोचा, काबुल गए, न घोड़े खरीदे। जो धन लेकर चले थे, वह सब खर्च हो गया। राजा परिमाल को तथा अग्रज आल्हा को क्या जवाब देंगे। तब ढेवा ने ऊदल से कहा, “तुम पागल का नाटक करके चलो, बाकी मैं सँभाल लूँगा। जो कहना होगा, मैं कह लूँगा।”

दोनों (ऊदल और ढेवा) लौटकर महोबा पहुँचे। तंबू कीर्ति सागर के पास लगा दिया। एक पलंग पर ऊदल को लिटा दिया। राजा परिमाल के दरबार में जाकर प्रणाम किया। काबुल के घोड़े कहाँ हैं? पूछने पर देवा ने कहा, “सागर के पास जाकर देख लो।” राजा तुरंत सागर के पास पहँचे।

तंबू में पलंग पर ऊदल को देखकर पूछा, “ऊदल! बेटे की सूरत मलिन क्यों हो गई, शरीर पीला क्यों पड़ गया?” तब ढेवा ने बताया कि नरवरगढ़ की चुडैलों ने ऊदल को पकड़ लिया है। वहीं इलाज करवाते हुए हमने सारा धन खर्च कर दिया। जब बिल्कुल खाली हो गए, तब मजबूरी में महोबा लेकर आया हूँ।”

राजा भी घबरा गया और आल्हा को भी भारी चिंता हुई। माता देवै और रानी मल्हना भी यह समाचार सुनकर रोने लगीं। तब रानी सुनवां (मछला) ने ढेवा से कारण पूछा। चुडैलोंवाली बात सुनकर मछला बोली, “ऊदल को मेरे पास बुलवाओ।” ऊदल को पालकी में सुनवां के महल में पहुँचाया गया।

खग जाने खग की भाषा। रानी मल्हना ने पूछा, “क्या तुमने कुमारी फुलवा को देखा है? उसी को पाने के लिए यह सब बहाने बना रहे हो?” ऊदल मुसकराने लगा। बोला, “भौजी! आपको यह सब कैसे पता चल गया?” ऊदल ने फिर तो सारी बात विस्तार से सुना दी कि फुलवा से गंगाजली उठाकर वादा करा लिया है कि विवाह उसी से होगा।

सुनवां ने बताया कि नरपति सिंह से युद्ध करना सरल नहीं है। उनके पास काठ का घोड़ा है, जो उड़ सकता है। एक बाण है, जो अजेय है, उसका वार खाली नहीं जाता। शनिश्चर की शिला है, जो सब पर भारी पड़ती है। इस पर ऊदल बोला कि कुछ भी हो, ब्याह तो फुलवा से ही करना है। कैसे होगा, यह आप जानें। सुनवां ने आल्हा से जाकर कहा कि नरवरगढ़ से युद्ध करके ऊदल का ब्याह फुलवा से करवाना ही पड़ेगा।

आल्हा ने विवशता प्रकट की तो सुनवां ने कहा, “आप घर में चूड़ी पहनकर बैठो। मैं ऊदल का ब्याह करवाकर लाऊँगी।” वीर भला ऐसे ताने सुन सकते हैं? आल्हा ने राजा परिमाल से कहा। राजा ने भी ऊदल को समझाने का प्रयास किया, परंतु ऊदल को तो फुलवा की रट लगी थी। आखिर शुभ घड़ी देखकर ऊदल को दूल्हा बनाकर मढ़ा पूजा, हल्दी लेपन आदि सब क्रियाएँ करवा दी गई और अलग-अलग राज्यों के राजाओं को बरात के लिए आमंत्रित कर दिया।

आल्हा, ऊदल, मलखान, ढेवा, ब्रह्मा तो चले ही, शेष सभी राजा भी अपने शस्त्रों से सुसज्जित होकर बरात में सम्मिलित हुए। झुन्नागढ़, बौटीगढ़, नैनागढ़, दिल्ली आदि सभी राजाओं को बरात में बुला लिया गया। सभी तैयारियां पूरी करके ऊदल को मुकुट पहनाकर पालकी में बिठा दिया गया।

चंद्रावलि बहन के पति इंद्रसेनजी ने ऊदल को गोद में उठाया और कुएँ पर जाकर रख दिया। रानी मल्हना ने कुएँ में पाँव लटका दिए। ऊदल ने माता मल्हना को कुएँ से उठा लिया। फिर माता ने आशीर्वाद दिया। फिर ऊदल पालकी में सवार हए और बरात रवाना हुई।

हाथी सवार हाथियों पर चढ़ गए और घुड़सवार घोड़ों पर चढ़ गए। तोपची भी तोपों के साथ आगे बढ़ने लगे। पंचशावद हाथी पर आल्हा सवार हो गए। कबूतरी घोड़ी पर मलखान चढ़े। घोड़ी हिरोजिन पर सुलिखे सवार हुए। ढेवा मनुरथा घोड़े पर चढ़े और मन्ना गूजर ने अपना सब्जा घोड़ा आगे बढ़ाया। बनारसवाले ताल्हन सैयद की घोड़ी का ही नाम सिंहनी था।

बरात नरवरगढ़ के लिए चल पड़ी। जब नरवरगढ़ आठ कोस रह गया तो बरात ने डेरा डाल दिया। सब लोग हाथी, घोड़ों से उतर गए तथा अपनेअपने तंबू तान दिए। दूर-दूर तक महोबे का लश्कर ही दिखाई पड़ता था। रात को खाना बनाया, खाया और सो गए।

प्रातःकाल वीर मलखान ने रूपन वारी को बुलवाया और ऐपनवारी (सूचना की चिट्ठी) ले जाने को कहा। पहले तो मना किया, पर फिर रूपन तैयार हो गया। उसने ऊदल का ही घोड़ा वैदुल साथ लिया। ऊदलवाली बैंगनी रंग की पगड़ी पहनी, नागदौन का भाला लिया और ढाल, तलवार दीवाली लेकर ऐपनवारी देने चला। दरबार पर दरबान ने रोककर पूछा कि कौन हो, कहाँ से आए हो?

तब रूपन ने कहा, “महोबे के राजा परिमाल का सेवक हूँ, ऊदल के ब्याह के लिए बरात लेकर आए हैं। मेरा नाम रूपन है और मैं ऐपनवारी लेकर आया हूँ। हमारा नेग जो बनता है, हमें दे दें। मेरा नेग है द्वार पर चार घंटे तक तलवार चलेगी।” राजा नरपति सिंह ने वारी को दरबार में हाजिर करने को कहा, परंतु तब तक रूपन वारी दरबार में पहुँच ही गया।

रूपन ने ऐपन वारी (शगुन की चिट्ठी) राजा के पास रख दी। तब नरपति राव ने सिलहट के राजा विजय सिंह को रूपन पर वार करने का आदेश दिया। विजय सिंह की सांग का वार रूपन बचा गया, पर जब रूपन ने भाला चलाया तो वह घायल होकर गिर पड़ा। उपस्थित क्षत्रियों ने एक साथ हल्ला बोल दिया। रूपन ने भी तलवार खींच ली और अनेक क्षत्रियों को दरबार में गिरा दिया। फिर रूपन तलवार चलाते हए घोड़े को भगाता हआ फाटक के पार निकल गया।

रक्त-रंजित रूपन को लश्कर में आते हुए देखकर वीर मलखान ने नरवरगढ़ का हाल पूछा। रूपन ने बताया कि द्वार पर भारी युद्ध हुआ, किंतु मैं अपना काम पूरा कर आया। नरवरगढ़ में फौज तैयार हो गई। मकरंदी के नेतृत्व में मारू बाजे बजने लगे। उधर मलखान के नेतृत्व में महोबा की बरात भी युद्ध के लिए तैयार ही थी। दोनों ओर से सेना आगे बढ़ी। मकरंदी ने वीर मलखान से परिचय पूछा तो वह बोला, “आल्हा का भाई हूँ। महोबे से ऊदल को ब्याहने के लिए नरवरगढ़ आए हैं। चुपचाप फुलवा का विवाह ऊदल से करवा दो तो युद्ध में होनेवाले विनाश से बच जाओगे।”

इतना सुनकर मकरंदी ने तोपचियों को तोपें चलाने का हुक्म दिया। तोपें दोनों तरफ से चलीं। धुआँधार मारामारी मच गई। हाथियों के गोला लगता तो हाथी गिरते हुए अपने नीचे और कइयों को दबा लेता। घोड़े के गोला लगता तो भागता हुआ कई सैनिकों पर चढ़ जाता।

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