Lalji Sahaay verma ‘Vishad’ Ki Rachanayen लालजी सहाय वर्मा ‘विशद’ की रचनाएं

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श्री लालजी सहाय वर्माविशद’ का जन्म यमुना नदी के किनारे बाँदा जिले में स्थित महावरा गाँव में श्रावण मास विक्रम संवत् 1957 (सन् 1899) को हुआ था। Lalji Sahay Verma ‘Vishad’ के पिता का नाम श्री राजबहादुर वर्मा था। इनके मझले चाचा का नाम जंग बहादुर वर्मा था। इनको मंझले चाचा ने ही पढ़ाया-लिखाया था। इनके मन में राम चरित मानस के प्रति विशेष अनुराग था।

ब्रजवन गगन घन गंभीर।

कदम्ब डारिन करत कलरव केकि चातक कीर।

/> नवल श्याम समीप श्यामा लसत कुंज कुटीर।।

मनहुं विद्युत तजि चपलता-थिर भई घन तीर।
नव लता पल्लवन छेड़त बहत मन्द समीर।

इत उड़त पट पीत हरि को उत प्रिया को चीर।
दमक ज्यों ज्यों दामिनी त्यों कंपत तीय शरीर।

निरखि छबि हरि हृदय लावत होय प्रेम अधीर।
मंजु श्यामल गौर तनु पै लसत बिन्दु सुनीर।

घन तड़ित पै मनहु राजत बिशद उड़गण भीर।।

कवि ने ब्रज में कृष्ण व राधा का सुल्लेख किया है। यह ब्रज रूपी वन आकाश की तरह घनघोर गंभीर जैसे लगता है। कदम्ब की डालियों में चातक, मोर कलरव कर रहे है। श्याम यानि कृष्ण व श्यामा यानि राधा नूतन वस्त्रों के साथ वन रूपी कुटीर में विराजमान है। मानो बिजली की तेज चमक यानि चाँदनी रूपी घन यहाँ ऐसा लगता है कि स्थिर हो गई है। लतायें नई-नई शाखाओं से पुष्पित पल्लवित हो रही हैं। वहीं धीरे-धीरे हवा प्रवाहमान है।

इधर कृष्ण का पीला वस्त्र उधर प्रिया का वस्त्र हवा में उड़कर एक दूसरे से प्रेम मान रहे हैं। जैसे उनका शरीर दमक रहा है वैसे ही उनका शरीर भी कंपन कर रहा है। हरि का शरीर निरखने पर उनकी छवि प्रेम रूपी संसार में मग्न है। राधा व कृष्ण के शरीर में स्वच्छ पानी की बूँदें (पसीना) विराजमान है। बादल में बिजली के तड़कने से उसकी रोशनी ऐसी लग रही है मानो जुगनू अपना प्रकाश दिखाता उड़ गया हो।

नाथ मम चूक क्षमा कर दीजै।
स्वारथ लागि अमित अघकीन्हे, कहँ लौं बैठि गनीजै।।

रसना सों तुम्हरो गुण तजिकै परनिन्दा नित कीजै।
विषयन को सर्वस्व जानिकै उनहीँ में मन दीजै।।

प्रभु तुमसों हौं कीन्ह ढिठाई सो नहिँ चित्त धरीजै।
रघुकुल तिलक सियापत राघव अब तौ कृपा करीजै।।

हा हा करत जोरि कर दोऊ विशद पुकार सुनीजै।
सब अपराध बिसारि दयानिधि चरण शरण मँह लीजै।।

हे नाथ! मेरी भूल को क्षमा कर दीजिए। अभी तक मैं अपने स्वार्थ में लगा था, कहीं बैठकर भी आपका नाम नहीं लिया। अभी तक तुम्हारे (हरि) गुणों को छोड़कर परनिन्दा रोज करता रहा। सभी कुछ जानकर उन्हीं में अपने को बैठाये रहा। हे प्रभु! तुमसे मैं अभी तक ढीठता कर, दूर भागता रहा, इसलिए शरीर में शांति नहीं मिली।

हे रघुकुल के तिलक राघव राजाराम! अब तो कृपा करिये। कवि विशद कहते हैं कि मैं हाथ जोड़कर पुकार कर रहा हूँ कि हे दयानिधि, दयावान! सभी अपराधों को भुलाकर मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।

मन तू प्रीति रीति नहिं जानी।।

अलि सरोज मृग नाद मीन जल शलभ दीप रति मानी।
पावन प्रीति रीति इनसों सिख ये वाके गुरु ज्ञानी।।

मधुकर कमल संग कीन्ही शुचि प्रीति बिना छल सानी।
संपुट गहत निछावरि कीन्हे प्राण परम सुख जानी।।

साँची प्रीति कुरंग नाद की कबिजन बहुत बखानी।
मन चीते ढिँग शर सहि छोड़त तनु बिनु खेद गलानी।।

प्रीति पुनीत मीन की कहियुत जल ही हाथ बिकानी।
त्यागत प्राण निमेष न लागत बिछुरत प्रियतम पानी।।

दीप प्रेम पतंग लुभान्यो अनुपम रति उर आनी।
ह्वै बलिहार प्राण प्यारे परि दहत प्राण प्रण ठानी।।

झूँठो नेह कियो मोहन सों क्यों उन बिन सुख मानी।
साँचीविशद’ प्रीति करु इन सम तजि छल कपट सयानी।।

मन तूने प्रेम की परंपरा नहीं जान पाई। कवि ने भौंरा व कमल के संबंधों को हिरन व कस्तूरी, मीन व जल, पतंगा व दीप का, इन सभी ने रीति को माना है। पवित्र प्रेम इनसे सीखकर ही ये वास्तविक गुरु के समान है। भौंरा व कमल ने अपने प्रेम को बिना किसी छल के साथ स्वीकार किया है। कमल के अन्दर प्रवेश होकर अपने प्राण को त्याग देता है जिससे उसे परम सुख प्राप्त होता है। मृग व नाद की कहानी को बहुत से लोगों ने, कवियों ने बखान किया है।

कस्तूरी जो स्वयं उसके पास है, उसे प्राप्त करने के लिए वह तनिक भी संकोच नहीं करता। प्रेम के इस पवित्र धर्म को मछली ने भी निभाया है, वह जल के हाथ ही बिकी है। यदि उसे पानी से अलग कर दिया जाय, तो प्राण त्यागने में तनिक देर नहीं लगती।

इसी तरह दीपक व पतंगा में पतंगा ने अपने प्रेम भावना का स्वच्छ परिचय दिया है। जलते दीपक में पतंगा अपने प्राणों को न्यौछावर कर देता है। अभी तक मैंने केवल झूठी व दिखावे की भक्ति की है, अब मोहन के बिना सुख कहाँ मिलने वाला है ? कवि विशद कहते हैं कि मैंने अभी तक जो प्रेम किया है वह प्रेम छल, बल, कपट, बदमाशी से ओत-प्रोत था।

गोधन संग लिये हरि आवत।।
प्रमुदित सखा संग लीन्हे अरु खेलत हँसत हँसावत।
सुनरी सखी ललित स्वर जे हरि मुरली माहिँ बजावत।।

गुंजमाल उर लकुटि कमल कर गोरज कच लपटावत।
मोर पंख को मुकुट चारु शिर कुंडल श्रवन सुहावत।।

अमल कमल दल नयन मनोहर तिलक भाल छबि छावत।।
शुभ रँग वारी पीत पिछौरी न्यारी छवि दरसावत।।

वद कै होड़ सखन सों पुनि पुनि हेरी टेर उठावत।।
पूरी टेर न आवत तुमसों कहि कहि सखा खिझावत।।

जिहि सुख हेतु विरंच शंभु मुनि निशवासर ललचावत।।
विशद’ धन्य सो सुख ब्रजवासी बिन तप तीरथ पावत।।

कवि कहते हैं कि हरि गाय रूपी धन (गायों) को लेकर आ रहे हैं। उनके साथ उनके सखा प्रफुल्लित, हँसते हुए, खेलते हुए नजर आ रहे हैं। एक सखी दूसरे से कहती है कि हे सखी! ये हरि मधुर स्वर से मुरली मेरे लिए बजा रहे हैं। गुंज की माला हृदय में लपेटे हुए हरि नजर आ रहे हैं। मोर के पंखों को मुकुट में धारण कर अच्छे लग रहे हैं।

कमल के समान नयन, भाल में लगा मनोहर तिलक छवि को और अधिक सुशोभित कर रहा है। पीले रंग की कछौटी की सुन्दरता देखते ही बनती है। मित्रों के साथ चिल्लाने की होड़ भी देखते ही बन रही है, कुछ मित्र कृष्ण को चिढ़ा रहे हैं कि तुम्हारी आवाज पूरी उच्चरित नहीं होती। कवि विशद कहते हैं कि जिस सुख हेतु ब्रह्मा व शिव सहित अनेक ऋषि, मुनि दिनरात तरसते रहते हैं, वह सुख इन ब्रज के निवासियों को बिना तपस्या व तीर्थ किये हुए प्राप्त हो रहा है।

पावस विरह लग्यो एसहुँ ब्रज वनिता स्याम बिसारि दईं।
बिन ब्रजराज दरश ये अखियाँ सावन भादौं मास भईं।।

मेचक जलद पूतरी बिन रव अँसुवन की झरि लागि रहै।
थर थरात तन अरी सखी नित स्वांस समीर प्रचंड बहै।।

अरुणाई धनु इन्द्र धवलता बक अवली बहु छाय रही।
चारु चपलता छिन पै छिन सोइ दामिनि जनु छहराय रही।।

उलहनि सुरति अमर बेलि नव उर निकुंज उलझवति री।
पिय गुन सुमिरन बेदल विकसत दुख उपवन हरियावत री।।

विशद’ मधुपुरी जाय कहो इत पावस चाह न एक घरी।
ब्रजनागरि कुमुदिन जोवति पिय आगम-सरद स्नेह भरी।

वर्षा ऋतु में ब्रज की ग्वालिनों को श्याम का विरह व्यथित कर रहा है। कवि कहते हैं कि बिना ब्रजराज कृष्ण के दर्शन किये गोपिकाओं के चक्षुओं से श्रावण व भाद्र पद में होने वाली वर्षा जैसी अश्रुधार प्रवाहित हो रही है। काले रंग के बादल जिस प्रकार बिना गर्जना किए बरसते हैं वैसे ही गोपिकाओं की आँखों की काली पुतरी से निरन्तर आँसू बह रहे हैं। विरह में पूरा शरीर थर-थर काँप रहा है व श्वांस रूपी तेज हवा प्रवाहित हो रही है।

लालिमा युक्त इन्द्र धनुष सफेद बगुलों की कतार जैसा ही रंग खोकर सफेद हो गया हैं। क्षण-प्रतिक्षण चमकने वाली बिजली की चपलता से गोपिकाओं के हृदय में तमाम स्मृतियाँ बार-बार कौंधती हैं, जो कृष्ण से जुड़ी हैं। कवि विशद कहते हैं कि कोई जाकर इन्द्र से कहे कि ब्रज में इस पावस ऋतु की चाहत एक घड़ी की भी नहीं है। और ब्रज वनिताएँ कुमुदिनी के समान शरद ऋतु के आगमन की प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब प्रिय का आगमन होगा?

मधुप-मन जीवन-मधु सरसात।।

वय-तरु रजनि-दिवस-किशलय युत उपवन-जगत दिखात।
लंब निमेष परमाणु विपल पल नव अंकुर बहु भाँत।।

विविध बहु लता कुंज वन भाव-कुसुम दरसात।
सुभग मनोरथ पुंज उड़त हिय नभ कल नभग जमात।।

अन्तःकर्ण विमल सर विकसित नव-रस उत्पल पाँत।
त्रय गुण जलचर बुधि मरालि वर प्रमुदित तहँ विलसात।।

हुलसत हृदय सुमति सोई डोलत सीतल सुरभित वात।।
अद्भुत या ऋतुराज माधुरी अनुपमविशद’ लखात।।

हरहै या सोभा सुख छिन महँ गीषम काल हठात।
सावधान चित चंचरीक गह माधव पद जलजात।।

मन रूपी भौंरा जीवन रूपी अमृत पीने के लिए आतुर है। दिनरात पेड़-पौधे नवीन किसलयों से युक्त उपवनों (उद्यानों) में दिखलाई देते हैं। विभिन्न प्रकार के नव अंकुर अंकुरित हो, नवजीवन को धारते हैं। विभिन्न लतायें उद्यानों में भावरूपी प्रसूनों से लद जाती हैं। सुन्दर मनोरम पक्षियों के झुण्ड आकाश में उड़ते हैं। हृदय के अन्तःकरण रूपी पवित्र तालाब में नवरसों से युक्त पक्तियाँ विकसित होती है।

तीनों गुणों से युक्त जलचर प्रसन्नता से ओतप्रोत हैं। इसी समय हृदय सुमति से ओत-प्रेम हो जाता है। हृदय शीतलता से भी पूर्णतः भर जाता है। विशद कवि कहते हैं कि बसंत जो ऋतुराज है उसकी सुन्दरता अनुपम व अद्वितीय है। ग्रीष्मकाल की ऋतु सुख व शोभा को जैसे हठ से छीन लेती है। कवि सावधान करता है कि हमें मन रूपी भौंरे को कृष्ण के चरणों में ही अनुराग से पूर्ण करना है।

जा दिन तें त्यागो तुम ब्रज कौ निवास कान्ह,
बाढ़यो ब्रज बासिन के विरह प्रपुंज है।

विशद न चाहत अलिन्द अरविन्द रस,
भानु के प्रकास हूँ न फूलत सुकंज है।।

फिरत दुखारी गाय गोप वन बीथिन,
मैं देह गेह भावत न भावतीं निकुंज है।

ललित कलान वारे यशुदा के प्राण प्यारे,
याही रट आठौ याम गोपिन कौ बंज है।।

जिस दिन से हे कृष्ण! तुमने ब्रज का निवास त्याग कर मथुरा में निवास कर लिया, उसी दिन से ब्रजवासियों में विरह की अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई। कवि विशद कहते हैं कि कमल खिलना नहीं चाहते व उनपर भ्रमर मंडराना नहीं चाहते। सारे ब्रज की दुखी गायें व गोप जंगल में मारे-मारे घूमते हैं, उन्हें अपने शरीर व घर की सुध-बुध नहीं है। यशोदा के प्राण प्यारे लाल व ललित कलाओं के कर्ता-धर्ता कृष्ण की रट आठों पहर गोपिकाएँ लगाये रहती हैं।

ऊधो श्याम हमें ठग लीनों।।

हम अहीर जड़ मत बौराने हरि को नेक चीनों।
कोटिन कटु कहि खीझ खिझायौ आदर कबहुँ न कीनो।।

बन बन प्यादे पांव फिरावत छोह में उरमें आयौ।
छछिया भरें छाछ के काजहिं पहर पहर तरसायौ।।

थोरे ही अपराध यशोमति ऊखल बांध्यो जाय।
वाही रिस उपजाय मनहिँ मन हरि ब्रज आवत नांय।।

कहि दीजौ अब बन न पठैहें ना ऊखल सों बाँधिहैं।
विशद’ फेर ब्रज आय रहौ हरि अब आदर तेँ रखिहैं।।

हे उद्धव! कृष्ण ने हमें चालाकी से ठग लिया है। हम मूढ़मति पागल अहीर जाति के ठहरे जिससे हम कृष्ण को थोड़ा सा भी पहचान न सके। हम लोगों ने हजारों बार चिढ़ते व चिढ़ाते हुए कठोर वचनों का प्रयोग उनके साथ कर उनका सम्मान बिलकुल नहीं किया। उनको नौकर बनाकर जंगल जंगल गायें चराने के लिए घुमाया। इतना ही नहीं थोड़े से दूध व दही के खातिर पहर पहर तरसाया।

थोड़े से अपराध की शिकायत यशोदा से कहकर ओखली से बंधवाया, इसी कारण कृष्ण मन ही मन हम लोगों से गुस्सा हो गये हैं, वे मथुरा से ब्रज नहीं आते। हे उद्धव, तुम जाकर कृष्ण से कहना कि अब हम उन्हें न जंगल भेजेंगे, न ओखली से बंधवायेंगे। कवि विशद कहते हैं कि कृष्ण ब्रज पुनः आ जायें तो उन्हें सम्मान सहित रखेंगे।

सजि तन नवल सिंगार राधिका चलिये वंशीबट पै।
सखि दीजै नहिं ध्यान भूलहूँ या बजमारी हटपै।।

हौं लखि भई चकोर चंद मुख मन उरझ्यो हरि लट पै।
कैसो कठिन हियो री तेरौ द्रवत न नागर नट पै।।

विशद’ लता कलिका अनुरागीं हरि मुख मंजु मुकट पै।
वनशी सोति होय सुख लूटत चलु झट यमुना तट पै।।

राधा की सखियाँ राधिका से कहती हैं कि- हे राधिका! श्रृँगार करके यमुना किनारे स्थित कदम्ब के पेड़ पर विराजे कृष्ण के पास पुरानी गल्तियों को भुलाते हुए व हठ को त्यागते हुए चलो। मेरा चकोर रूप मन कृष्ण के चन्द्रमा रूपी मुख को देखने के लिए आतुर हो रहा है। तेरा हृदय कितना निष्ठुर है कि उस नागर नट (कृष्ण) के लिए बिल्कुल नहीं पिघलता। कवि विशद कहते हैं कि कृष्ण के सुन्दर मुख पर जो मोर पंख का मुकुट सुशोभित है, उस सुशोभित श्याम के पास सौतन वंशी (बाँसुरी) सुख लूट रही है इसीलिए झटपट यमुना तट पर चलिये।

नैन तुम हरि सँग क्यों न गए।
कहा काज रहियो फिर इत जब हरि दृग ओट भए।।

बिन ब्रज राज निरखि सूनो ब्रज-उपजत शूल नए।
परिहरि मोहन रूप सुधा निधि ताप वियोग तए।

जिहिँ देखन लगि सृज्यो तुम्हैं बिधि सो तौ दूरि छए।
रहिबो बृथा विशद तुह्मरो बिन दरशन नंद जए।।

विरहित गोपिकायें अपने नेत्रों से कहती हैं कि हे नयन! तुम कृष्ण के साथ ही क्यों न चले गये? तुम्हारा यहाँ क्या काम रहा ? जब कृष्ण ही ओझल हो गये हैं तो तुम किसको देखोगे। बिना कृष्ण को देखे ब्रज में अनेक नई पीड़ाएँ उपजती हैं। श्री कृष्ण के मनमोहन रूपी अमृत निधि को पिए बिना वियोग में तप रहे हैं। जिनको देखने के लिए ब्रह्मा ने तुम्हें सृजित किया, वे ही दूर हो गये हैं, तो तुम्हारा क्या काम है? अर्थात् यहाँ तुम्हारा रहना व्यर्थ है, क्योंकि कृष्ण के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं।

बरसत जलधर कारे।।

सीतल बहत समीर धीर चहुँ उड़ि उड़ि परत फुहारे।
जलकन चुवत दलन तें छिनु छिनु झरत मुकुत जनु प्यारे।।

संगम करत नीर मद माते मिलि सरितन नद नारे।
रसमय करत मेदिनी कौ हिय नेह भरे जलधारे।।

उपवन सुभग छटा दरसावत नव नव तरु हरियारे।
कूजत पिक चातक रस बस ह्नै नाँचत मोर नियारे।।

श्री गुपाल दरसन के काजै तरसत नैन हमारे।
या रितु सह्यो वियोग जात नहि द्रवहुविशद’ बृज वारे।।

पावस ऋतु में काले बादल बरस रहे हैं जिससे चारों दिशाओं में ठंडी-ठंडी हवा बह रही है व पानी के फुहारे उड़ रहे हैं। जल के कण फूलों व पत्तों पर क्षण-क्षण में गिरते व झरते हैं। जिन्हें देखना मन को प्रिय लगता है। नदियों व नालों में पानी अधिक आ जाने से सब एक दूसरे के साथ संगम करते हैं। पूरी धरती को प्रेम रूपी जल से युक्त बादल रसयुक्त कर देते हैं।

वाटिकाओं की छवि मनोहारी हो जाती है, उसमें नये-नये पौधों हरे हो जाते हैं। मोर व चातक रस के सराबोर हो नाचते गाते हैं। कवि विशद कहते हैं कि ब्रज के निवासी कहते हैं कि गोपाल कृष्ण के दर्शनों हेतु हम सबके नेत्र तड़प रहे हैं। इस पावस ऋतु में उनका वियोग हमसे सहन नहीं होता।

नयना रावरे रँग राते।।

खग मृग विटप बेलि अंकुर द्रुम स्याम रंग दरसाते।
पिय गुन श्रवन जोग साधन लगि कानन लौं बढ़ि जाते।।

पियत रहत सुचि मधुर रूप रस तबहुँ न नेक अघाते।।
तनु पानिप सफरी लौं बूढ़े तदपि न सजन सिराते।।

चन्द्रवदन निरखत चकोर सम परसन हित अकुलाते।
मिलन चहत उड़ि खंजरीट सम जुग पल पंख फुलाते।।

छाके रहत सुप्रेम माधुरी जोवत ताहि छकाते।
ये रिझवारविशद’ लोचन दोउ रीझ रीझ ललचाते।।

मेरे नेत्र सदा कृष्ण के रंग में रंगे रहते हैं। पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, अंकुर द्रुमों में हमें केवल कृष्ण के ही दर्शन होते हैं। मेरे प्रिय कृष्ण के गुणों को श्रवण करने के लिए जंगल तक चले जाते हैं। कृष्ण के मधुर पवित्र रूप रस को निरन्तर पीते रहते हैं लेकिन थोड़े भी तृप्त नहीं होते हैं जिस प्रकार पानी के भीतर मछली दिनरात डूब कर तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार मेरे नेत्र हैं।

कृष्ण के चन्द्रमा के समान मुख को मेरी आँखें चकोर बनकर देखने के लिए व्याकुल रहती हैं। वे मिलन की चाहत में पतंगे के समान कुछ क्षण अपने पंखों को फुलाकर उड़ने की कोशिश भी करते हैं। ये कृष्ण के मधुर प्रेम में सराबोर रहने पर भी नहीं छकते हैं। कवि विशद कहते हैं कि दोनों नेत्र रीझ-रीझ कर कृष्ण के दर्शनों हेतु लालायित रहते हैं।

हौं वारी नटवर गुपाल पै।

चितवनि तकनि मधुर मृदु मुरकनि,
विहँसि मिलनि अरु लटकि चाल पै।।

रूप सुधा प्यासी अँखियाँ दोउ,
उरझानी नव अलक जाल पै।

लहि अनुराग बसन्त लुभानी,
मति कोकिल मुरली रसाल पै।।

सुनि वीणा वाणी सारँग मन,
गिरत धनुष भृकुटी बिसाल पै।

पुनि पुनिविशद’ सुभग बृज रज ह्नौ,
उड़ि परिये पग नन्दलाल पै।।

गोपिका अपनी सखि से कह रही है कि मैं नटवर गोपाल पर न्यौछावर हूँ, उनका देखना, मन्द-मन्द मुस्कुराना, हँसकर मिलना व घूमकर चलना मुझे पसन्द है। उनके रूप रूपी अमृत पीने के लिए मेरी दोनों आँखें प्यासी हैं। अनुराग युक्त मधुर रसयुक्त बाँसुरी की तान सुनकर माँ वीणापाणि का मन भी चंचल होता है। अनेक नेत्रों की भृकुटियाँ जो कमान जैसी है उनका सदा सौन्दर्य दर्शनीय है। कवि विशद कहते हैं कि मैं बार-बार ब्रज क्षेत्र की रज (कण) बनने को तैयार हूँ क्योंकि उसपर नंद के लाल अर्थात् कृष्ण के पैर पड़ते रहेंगे।

स्याम बिन योंहीं दिवस विहात।

खान पान अरु सयन भोग सुख सपनिहुँ नाहिँ सुहात।
चित चुभि गई साँवरी मूरति सो न दृगनि दरसात।।

विरह ज्वाल दहकीत उर अन्तर छिन पै छिन अधिकात।
रूप रसिक लालची दीन दृग विलखि विलखि रहिजात।।

मन चलि बस्यौ नन्द नन्दन ढिँग हम छूँछे पछितात।
विशद’ बिना गिरिवर धर प्यारे सोई दिन सोइ रात।।
(उपर्युक्त सभी छंद सौजन्य से : श्री चंद्रभूषण श्रीवास्तव)

कृष्ण के बिना मुझे ये दिन अच्छे नहीं लगते। मुझे खान-पान, सोना आदि समस्त सुख स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। मेरे मन में सांवरे (कृष्ण) की मूर्ति बस गई है जो नेत्रों से नहीं हटती। विरह की ज्वाला हृदय के भीतर लगातार जल रही है, जो क्षण-प्रतिक्षण व्याकुल होकर रह जाते हैं। मेरा मन नंद के नंदन अर्थात् कृष्ण के पास चलकर बस गया है, हम छूंछे (खाली) पछताते हैं। कवि विशद कहते हैं कि मुझे दिन व रात गिरिवर को धारण करने वाले प्रिय कृष्ण ही दिखाई देते हैं।

लालजी सहाय वर्माविशद’ का जीवन  परिचय 

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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