Kalakritiyo Me Prayukt Samagri कलाकृतियों में उपयोग सामग्री

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कला की वस्तु के अध्ययन के लिए अवशेषों प्राप्ति स्थान और तिथिक्रम दोनों से सहायता मिलती है। अलग -अलग प्रदेशों मे Kalakritiyo Me Prayukt Samagri के विवरण मिलते हैं। सिन्धु घाटी में कीरथर पहाड़ी की खदानों का सफेद खड़िया पत्थर (लाइमस्टोन) काम में लाया जाता था। मौर्य कला के लिए चुनार की खदानों का हल्के गुलाबी रंग का ठोस बलुआ पत्थर काम आता था। मथुरा कला में मंजीठी रंग का चित्तीदार बलुआ पत्थर जो सीकरी, बयाना आदि स्थानों में मिलता है, प्रयुक्त किया गया।

Materials

used in Artworks
भारतीय संस्कृति में कलाकृतियों हेतु प्रयुक्त सामग्री तथा उसका प्राप्तिस्थान

गान्धार कला में नीली झलक का सलेटी पत्थर, तथा गुप्त कला में स्थानीय ललछौंह या महावरी पत्थर का प्रयोग होता था। पाल युग में गहरे नीले या काले रंग का पत्थर (ब्लैक बेसाल्ट) , चालुक्य कला में पीले रंग का बलुआ पत्थर, अमराववती एवं नागार्जुनीकोण्डा आदि के स्तूपों में विशेष प्रकार का श्वेत खड़िया पत्थर काम में आता था, जिसे वहां की भाषा में अमृृतशिला कहते हैं और जो हमारे यहां के संगमरमर से मिलता है।

इसी प्रकार उड़ीसा के मन्दिरों में राजारनिया या मुगनी(क्लोराइट) पत्थर, कहहीं कुरथा (ग्रेनाइट) और कहीं ढुसरिया पत्थर (लेटराइट) और कहीं सेलखड़ी या संगजराहत (एसबेस्टस) और कहीं संगमरमर काम में लाया गया। इस प्रकार कला में प्रयुक्त सामग्री को देखकर आपको कलात्मक सामग्री के स्थानीय भेदों का निर्देश मिल जाता है।

चित्रों की सामग्री को देखें तो आदिम चित्रों की सामग्री में धातु , खनिज, रंग, मुख्यतः गेरू, रामरज, हिरौंजी है तथा उत्कीर्णन के स्थान गुहागृृह तथा खुली चट्टानें  हैं। अजंता के चित्रण विधान में दीवार या चित्रण हेतु प्रयुक्त स्थल का पत्थर टपर कर खुरदुरा बना दिया जाता था, जिय पर गोबर, पत्थर के चूर्ण और कभी कभी धान की भूसी मिले हुए गारे का कलेवा चढ़ाया जाता था। यह कलेवा चूने के पतले पलस्तर से ढका जाता था और इस पर जमीन बांधकर लाल रंग की रेखाओं से चित्र टीपे जाते थे, जो रंग लगाकर तैयार किए जाते थे।

प्राचीन भारतीय कला को उसकी विशेषताओं के आधार पर धार्मिक और लौकिक दो भागों में वर्गीकृृत किया जा सकता है। कला में जिन धारणाओं और धार्मिक विश्वासों का निरूपण हुआ है, उनमें बुद्ध और बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाएं, शिवरुद्र व नारायणविष्णु को प्रमुख स्थान दिया गया है, तो दूसरी ओर यक्ष, नाग, नदी, सागर, चन्द्र, सूर्य, नदी, स्कन्द आदि मातृृभूमि से सम्बन्धित देवताओं व उपासना के प्रतीकों का अंकन हुआ है। देवपूजा के वे प्रकार जैसे लोक में थे, वैसे ही कला में भी अपनाए गए। भारतीय कला के वर्ण्य विषयों में भारतीय जीवन और विचारों की विशद व्याख्या मिलती है। इसमें विशिष्ट और

सामान्य जन दोनों का ही अंकन हुआ है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक युगों तक यह कला विभिन्न सभ्यताओं में प्रयुक्त विभिन्न प्रतीकों, अभिप्रायों और विषयों को लेकर चली है। अध्यात्म और सौन्दर्य के सम्मिश्रण ने इसे कलात्मक रूप से और अधिक समृृद्ध बनाया है।

मन्दिर, स्तूप आदि धार्मिक वास्तु के प्रतीक हैं।गुप्त काल के स्तंभों पर आधारित बिना छत वाले प्रारंभिक मन्दिरों का स्थान धीरे. धीरे छत वाले मन्दिरों ने लिया और कालान्तर में मन्दिर वास्तुकला की तीन शैलियों का विकास हुआ- नागर, बेसर तथा द्रविड़। प्रारंभिक काल में गुफा मन्दिरों और चैत्यों का भी निर्माण हुआ। इन सभी में उत्कृृष्ट मूर्तिकला, सुन्दर चित्रकारी एवं अलंकरण हैं। अजंता की चित्रकला विश्वप्रसिद्ध है।

इसी प्रकार प्राचीन भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में बुद्ध के सम्मान में स्तूप निर्माण हुआ। ये दो प्रकार के हैं- स्मारक के रूप में बने स्तूप ईंट और पत्थरों के बने ठोस ढांचे थे, जो बुद्ध या महावीर के जीवन की किसी घटना के किसी स्मारक में खड़े किए गए थे। दूसरे अस्थि संचायक स्तूप खोखले आकार के थे, जहां अवशेष रखे जाते थे। प्राारंभिक स्तूप विशाल गोलार्द्ध गुम्बदों के रूप में थे, जिनमें एक केन्द्रीय कक्ष में बुद्ध के स्मारक चिन्ह प्रायः सुन्दरता से स्फटिक जड़ित एक छोटी मंजूषा में रखे रहते थे। धीरेधीरे स्तूपों के अलंकरण में भी वृृद्धि हुई।

कला के लौकिक पक्ष के अन्तर्गत ग्रामों और पुरों के सन्निवेश, विभिन्न प्रकार के भवन, दुर्ग आदि का निर्माण, पशु पक्षियों (सिंह, हिरन, मोर आदि), पुष्प (जैसे कमल) वृृक्ष(वट, अश्वत्थ आदि), मनुष्यों एवं जनजीवन से सम्बन्धित विभिन्न अंकन हुए हैं और ये अत्यंत सजीव हैं। इस समग्र इकाई के अध्ययन से आप समझ पाए होंगे कि भारतीय कला का स्वरूप जितना स्थानीय था, बाह् प्रभाव से भी वह अछूती नहीं रही।

समय समय पर विभिन्न मानव समूह भारतवर्ष की सीमाएं लांघकर इस भूभाग में प्रविष्ट हुए उनकी कला का प्रभाव भी यहां पड़ा (यद्यपि विद्वानों में इस प्रभाव के बारे में विभिन्न मत हैं)और उनके परस्पर समन्वय से भी भारतीय कला में विविधता का समावेश हुआ।गांधार और मथुरा कला इसका एक प्रमुख उदाहरण हैं।

भारतीय संस्कृति मे वास्तुकला 

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