Kajari कजरी – अतीत के झूलों से वर्तमान के खण्डहरों तक

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By admin

Kajari शब्द का भाव ही ऐसा है बरसात के मौसम का सूरज बादलों के काले – भूरे कपड़े फाड़ते हुए से लाल – लाल गोले – सा लुढकते हुए  विशालकाय बरगद के छितराए सघन पत्तों में आकर कहीं अटक – सा गया है। मगर उसकी पीली – पीली अल्हड़ रश्मियाँ – किरणें पेड़ की हरी – भरी पत्तियों से छन – छन कर आती हुईं धरती के आँगन में सोना बिखेर रही हैं। उसे ऐसे स्वर्णाभ से आलोकित रहीं हैं मानो माटी पर सोने की परत चढ़ा रहीं हों। ऐसा भी लग रहा है जैसे किसी चतुर चितेरे ने हरी घास पर जर्द हल्दी की रंगदार चादर आकर चारों ओर चुपचाप करीने से बिछा दी हो ।

प्रीत की डोर न टोरो सजनवा …
                     दरद हिया में होये हो रामा !

तड़के घुमकर वापस लौटा तो शरीर कुछ थका सा लग रहा था। रास्ते के पार्क में घने वट और पीपल के वृक्षों की छाँव में लगे बड़े – बड़े  झूलों पर झूलने को तो नहीं कुछ सुस्ताने की गरज से बैठ गया। शरीर तो स्थिर रहा किंतु मेरा मन  पेंग बढ़ाकर अपने अतीत की यादों के झूले में झूलने लगा है। 

साठ साल पहले का वो अलमस्त धूरिया गाँव यादों में सूरज की तरह उग आया है। वो धूरा में लिपापुता अपना बचपना याद रहा है और याद रहा है वह सभी कुछ जो अब कभी लौटकर नहीं आएग। मगर यह किसी सुखद स्वरगंधी स्वर्णिम अतीत की कीमती पोटली की तरह दिल के तहखाने में कहीं महमूज है जब कभी गाहेबगाहे तहखाने के द्वार खुलते हैं वह कस्तूरी गंध की तरह महकने लगता है।

अब यादें ही यादें बाकी बचीं हैं
उस बचपने की
उस सुरीलों के गाँव कीं
उस पनघट की

जहाँ तुम घूँघट में भी आँखों से हँसतीं थी उस नदिया की जो चौमासे में नागिन सी बलखाती थी। उस बरगद की जहाँ सावन के झूले झूलते – झूलते मुहब्बतें जवान होतीं थीं।उन Kajri गीतों के सुरीले बोल आज भी लोबान – से महकते रहते हैं मेरी साँसों के आसपास हरदम।

अरे निरमोही! तूने कदर जानी हो रामा!

तब अपने गाँव के टोला में चार – पाँच बड़े – बड़े नीम के पेड़ थे। आदरणीय द्वारका लुहार कक्का ,  छुटँई कुम्हार कक्का , ब्रजकिशोर बब्बा तथा दर्जी बब्बा के चौखट्टे में भी कुछ नीम के पेड़ थे। ये नीम के पेड़ चौंतरों (चबूतरों ) पर खड़े थे। इन्हीं नीम के पेड़ों पर सावन तीज से लेकर महीने भर के लिए स्थायी रूप से कसन ( सन की मोटी रस्सी ) की नारि के झूले पड़े रहते थे। कोई भी आए खूब झूले – झुलाए गाए और जाए। किसी के झूलने पर बंदिश नहीं थी।

उन झूलों पर अम्मा – दद्दा , भय्या – भौजी , जिज्जी – बुआ, कक्का – काकी मौका मिलते ही झूलने लगते और टोलाभर के मौड़ी – मौड़ा तो दिन भर झूलते रहते थे। बिनाथके बिना हारे । मिचकी ले – लेकर भौजाइयाँ अपनी ननदों के साथ झूलतीं थी। फिर झूला से ही अपने महावर रचे ललछौंही गोरे – साँवरे पाँवों की कोर से से बरसात के बादलों को झूने की नाकाम कोशिशें करतीं रहतीं ।

खूब जमकर हँसी – ठिठोली होती , मसखरी होतीं। कजरी व दूसरे लोकगीतों की गवा – गवउअल होती । सभी समवेत स्वरों में गाते। ईंगुर्री वाली काकी की ढोलक तड़तड़ाती तो ओछेपुरा वाली भौजी पाँवों में घुँघरू बाँधकर नाचने लगतीं छननछनन, छतरपुर वाली भूरी भौजाई टेक लेकर गाने लगतीं । 

दरजिया ने अँगिया तंग करदी हो राम
जौवन रस टपके जाय

 फिर कुछ तो अपनी ओसरी की बाट जोहतीं बहुएँ – बिटियाँ झूला के गीत चौंतरा पर बैठे – बैठे गातीं रहतीं। यानि मल्हार राग सज – सँवर का गाँव में आ जाता था । कोई कछौटा मारकर पेंग बड़ाती तो , कोई घूँघट डालकर। किसी की क्या मजाल बड़ी – बूढ़ियों के सामने कोई घूँघट उठाने की हिमाकत कर सके। प्रीत की डोर में बँधा पक्के और सच्चे अनुशासन से सभी बँधे थे। कड़ा चरित्र था – बड़े भोले मन थे दूध से धुले । 

          अरे ! अरे!! मैं कहाँ आपको अतीत के किस्से सुनाने लगा। अब तो आज के वर्तमान को ही जीवंत होकर जीना है , उस में ही बचपन तलाशना है , उसमें ही यौवन और उसमें ही सुख की कजरी और मेघ मल्हार ढूँढ़ने की कोशिशें करनी हैं। इन ऋतुओं के आनंद को जीना है।

कितने भोलेभाले – दुलारे होते हैं हमारे तीज त्योहार निर्दोष बचपन की तरह। कितने खूबसूरत और मासूम होते हैं , कितने निर्मल और कितने पाक – साफ होते हैं , कितने समदर्शी होते हैं।बिल्कुल प्रकृति की तरह हरेभरे होते हैं। गंगाजल की तरह परम पवित्र होते हैं ।

कितना ममत्व भरा होता है अपनी ऋतु संस्कृति मे। कितना अपनत्व भरा होता है अपनी गाँवाचारी परंपराओं में। इस देवत्व भरे भींगते भिगोते सावन की भी अकथ कथा है। 

सच में इसमें एक अनुपम महाकाव्य समाया है
Kajri, चौबोला , बारहमासा तो सुरम्य महागीत हैं
प्रेम के विरह की , मिलन की अल्हड़ महागाथा है

 यूँ  देखने में यह सभी मात्र शब्द हैं , वाक्य हैं , वाक्यांश  हैं लेकिन इन सबके भीतर एक अनवर्णनीय आनंद कहीं बसा हुआ है , एक उमंग की , उत्साह की अविरल नदी बह रही है गुनगुनाती हुई , हँसती – मुसकराती हुई। कभी लगता है मानो एक आह्ललादिक आकाशगंगा जैसे धरती पर उतर रही हो धीरे – धीरे – धीरे – धीरे खुशबूदार हवाओं के संग – संग सन-सन-सन करती हुयी। 

     काश ! हम इस अलौकिक आनंद को पल भर भी जी पाएँ तो शायद कुछ से कुछ हो जाएँ

वृहत्तर हो जाएँ !
बेहतर हो जाएँ !

थोड़ा किताबी ज्ञान
लोकगीतों का प्रकृति के साथ गहरा संबंध है। लोकगीतों का जन्म तब हुआ जब शहरी सभ्यता का विकास नहीं हुआ था और सामान्यतः लोग प्रकृति के प्रांगण में निर्द्वंद्व विचरण करते थे। भारतवर्ष में प्रकृति छह बार अपना रूप परिवर्तित करती है जिससे ऋतु की संज्ञा दी जाती है।

लोकसंगीत की विधा कजली अथवा Kajri विभिन्न प्रांतों में जीवन के विभिन्न प्रसंगों , उत्सवों , त्यौहारों आदि पर गाये जाने वाले गीतादि लोकसंगीत के अंतर्गत आते हैं । यह विभिन्न प्रकार के स्वर , ताल , पद द्वारा गाये जाते हैं । इसी में Kajri नामक एक गीत का प्रकार है जो कि सावन में गायी जाती है यह उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोकप्रिय लोकगीत है । इसे हम ऋतु गीत भी कह सकते हैं वैसे वर्षा ऋतु में कभी भी इस गीत को गाया जा सकता है । कजरी को कजली भी कहा जाता है ।

एक दौर था जब सावन के शुरू होते ही बारिश की फुहारों संग पेड़ों पर झूले व कजरी का मिठास पूरे वातावरण में घुल जाया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। सावन बीतने को है, लेकिन न कहीं झूला और न ही कहीं Kajri के बोल ही सुनाई पड़ रहे हैं। परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं।

मुझे याद है पहले गाँव की लड़कियाँ सावन का इंतजार करती थीं। अपनी सहेलियों के झूले पर पेंग बढ़ाते हुए भावी पति की कल्पनाएँ करते हुए एकदूसरे से चुहलबाजी करतीं थीं। और जो बिहायता हुआ करतीं थीं वे कजरी गीत गाते हुए। 

” पिया मेंहदी मंगा दे बीकानेर से”

जैसे रसपरक गानों पर तितलियों जैसी फुदकतीं फिरतीं थीं  Kajri गीत नई नवेली दुल्हनें अपनीं ननदी व गाँव की लड़कियाँ से कजरी गीत गाकर हास्य परिहास के साथ मनोरंजन किया करती थीं।

बुन्देलखण्ड मे कजरी 

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