Gangoli Alha Gayki गंगोली आल्हा गायकी

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पुछी-करगवाँ और दतिया की Gangoli Alha Gayki अधिकतर व्यक्तिपरक है परम्परित गायकी लीक से हटकर संगीतात्मक अधिक हो गई है। असल में दतिया, ओरछा आदि रियासतों में 19 वीं शती में संगीत का बोलबाला रहा है अतएव लोकधुनों में संगीतात्मकता का प्रवेश बहुत कुछ स्वाभाविक सा है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि उसी समय आल्हा की कथा को लेकर कुछ कवियों ने अपने प्रबंध् भी रचे थे।

आल्हा गायक अन्य गायकों की तरह राजदरबारों में भी गायन करते थे और उनमें प्रतियोगिता की भावना आना सहज थी। इसी वजह से व्यक्तिपरक गायकी का जोड़तोड़ शुरू हुआ। पुछी-करगवाँ

के गायक शिबू दा का आल्हा ही गाते हैं। उनके स्वर में लोच और मधुरता के साथ वे अधिकतर कोमल स्वरों का प्रयोग मध्य लय में करते हैं। तीनों गायक एक साथ गाकर समूह गायकी का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करते थे ।

दतिया की गंगोले गायकी उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि रही है और उसका एक स्कूल या घराना-सा बन गया है, जिसके पक्षकार संगीत की राय है कि आल्हखण्ड को यदि केवल ’’वीर-रस‘‘ की ही शैली में ही गाया जाये, तो उसके अन्य ’’रस‘‘ सहायक  हो जाते हैं तथा उनकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।

आल्हा ऊर्जा का लोक महाकाव्य है और उसका अंगीरस वीर ही है, इसलिए भावानुकूल गायकी भी ओजस्विनी होती है। श्रंगार, वीभत्स, करुण रसादि वीर रस के सहायक हैं।  गंगोले गायकी में साखी, चौपड़ी, तोड़ और लावनी चार अंग होते हैं तथा संगत में मृदंग, करताल, सारंगी और हारमोनियम वाद्य। दादरा की मध्य लय में साखी के तोड़ के बाद चौपड़ी भी दादरा ताल और मध्य लय में गायी जाती है।

युद्धवर्णन परक चौपड़ी तोड़ के बाद कहरवा ताल में बदल जाती है और मध्य लय के बाद द्रुत एवं फिर तोड़ से एक चक्र पूरा होता है। बीच में प्रसंगानुसार लावनी का उपयोग अक्सर होता रहता है। इस तरह इस गायकी में विविधता के साथ संगीतात्मकता भी है। आल्हा गायकी में विविध छंदों और धुनों का प्रयोग स्वाभाविक है तथा उसी से जुड़कर आल्हा गायकी संगीत प्रधान हुई है।

आल्हा लोक महाकाव्य 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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