डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी का जन्म भारत माँ के सपूत स्व० श्री धरणीधर द्विवेदी (स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में सक्रिय) 11 अगस्त, 1930, सागर (म.प्र.) में हुआ था । Dr. Kailash Bihari Dwivedi की माता का नाम स्व० श्रीमती मानकुँवर देवी। आपकी शिक्षा एम.ए. (हिन्दी), एम. ए. (भाषा विज्ञान) पी.एच.डी., बी.एड.।
पुरुस्कार एवं सम्मान
बुन्देली शब्दकोश पर महाकवि केशव पुरस्कार, केशव शोध संस्थान, ओरछा ।
रावबहादुर सिंह बुन्देला पुरस्कार, बुन्देली विकास संस्थान, बसारी, छतरपुर।
(म०प्र०) द्वारा सरत साहित्य- शेषप्रश्न (उपन्यास) पर राष्ट्र स्तरीय प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार:
हिन्दी क्षेत्र की प्रोतसाहक संस्था श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद (ओरछा राज्य)।
टीकमगढ़ (म०प्र०) के हीरक जयन्ती समारोह के अवसर पर संस्था द्वारा ‘मेरा अमृत महोत्सव’ एवं ‘बुन्देली वागीश’ की उपाधि से सम्मानित।
बुन्देलखण्ड शोध संस्थान झाँसी द्वारा सारस्वत सम्मान।
डॉ० भगवान दास गुप्त शोध संस्थान झाँसी द्वारा अमृत सम्मान।
(म०प्र०) श्रमजीवी पत्रकार संघ द्वारा पं० बनारसी चतुर्वेदी अवार्ड २००७।
तथा अन्य अनेकों संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
अति विशिष्ट
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ।
प्रकाशित रचनाएं
बुन्देली एक भाषा। वैज्ञानिक अध्ययन (सह लेखक), हिन्दी व्याकरण एवं काव्यांग, बुन्देली शब्दकोश, बुन्देली लोक साहित्य में कहावतें एवं मुहावरे। पुस्तकों, स्मारिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा आकाशवाणी से प्रसारित विविध विषयों पर निबन्ध लगभग दो सौ । सामायिक विषयों पर अखबारों में लेख ।
सम्पादन
स्मारिकाएँ– विन्ध्या, सरदार सिंह स्मृति स्मारिका ।
पुस्तकें – पं० बनारसी दास चतुर्वेदी : शताब्दी स्मरण, बुन्देलखण्ड की विरासत : ओरछा, बुन्देलखण्ड प्रकृति और पुरूष (प्रे० ना० रूसिया अभिनन्दन ग्रंथ), पं० कृष्ण किशोर द्विवेदी अभिनन्दन ग्रंथ, बुन्देलखण्ड : इतिहास एवं संस्कृति ।
सम्प्रति
व्याख्याता पद से सेवा निवृत्त । लोक साहित्य – संस्कृति तथा लोक जीवन पर प्रमुख रूप केन्द्रित शोध एवं लेखन।
दुष्यंत की कलम से …
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शिक्षाविद,वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर कैलाश बिहारी जी द्विवेदी को कुछ पुष्प सुमन अर्पित…
11 अगस्त 1930 को सागर में जन्में बानपुर ललितपुर उत्तर प्रदेश से एवं कर्मभूमि टीकमगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार, लेखक, भाषाविद, समालोचक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का जीवन हम आप सबने देखा मगर उसके साथ उनके प्रारम्भिक जीवन संघर्ष की यदि चर्चा न की जाए तो ये उनके साथ अन्याय ही होगा।
मैं दुष्यन्त कैलाश द्विवेदी उनका द्वितीय पुत्र, पुत्र ही नहीं बल्कि वे मेरे पिता होने के साथ मेरे गुरु भी थे ये सुखद संयोग भी कम लोगों को ही प्राप्त होता है मगर मेरा सौभाग्य है कि मुझे मिला।
मेरे पिताजी द्वारा जो मुझे बताया गया अपने बारे में उसे कुछ हद तक आप सबके बीच रखने का प्रयास करता हूँ। पिताजी की मात्र 11 वर्ष की उम्र थी जब उनसे पिता का सानिध्य छिना चूंकि वे अपने भाई बहन से बड़े थे तो घर परिवार की एकदम से जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई हमारे दादा जी राजमहल में कार्यरत थे लिहाजा घर की माली हालत भी दयनीय थी फिर ऊपर से इनकी इतनी छोटी उम्र कमाने की भी नहीं थी।
हमारे परिवार ने ऐसे में बहुत जबरदस्त आर्थिक तंगी झेली मगर टीकमगढ़ में उनके बड़े भाई जैसा स्नेह करने वाले स्व श्री छन्नू लाल जी तिवारी, स्व श्री सरदार सिंह जी पूर्व विधायक एवं स्व श्री शंभु दयाल जी दीक्षित का सानिध्य मिला तो इन लोगों ने तत्काल सहायता के रूप में कांग्रेस कार्यालय में कुछ काम दिलाया और ऐसी व्यवस्था की कि रोज पैसा मिलता रहे जिससे घर में दोनों समय का भोजन तो बन सके भले ही रूखा सूखा हो लेकिन पेट तो भरा जा सके इसी व्यवस्था के तहत खुद की पढ़ाई छोटे भाई और बहन की पढ़ाई का भार भी उठाया और जैसे तैसे भरण पोषण के साथ पढ़ाई भी जारी रखी।
चूंकि अंग्रेजों का शासन था और उनके आतंक व क्रूरता के चलते देश से खदेड़ने के आंदोलन देश भर में चल रहे थे इसी दौर में गल्ला आंदोलन हुआ जिसमें इनके देशप्रेम के जज्बे ने इनको आंदोलन में शामिल होने के लिये प्रेरित कर दिया मय इनके अनेक विद्यार्थी भी उसी आंदोलन में शामिल हो कर खूब लूटपाट मचाई और प्रशासन को झुकने पर मजबूर कर दिया।
भले इन सबको आंदोलन का अपराधी मानकर जेल में डाल दिया गयाऔर यातनाएं भी मिलीं मगर इसकी परवाह न करते हुए देश प्रेम के जज्बे को कम न किया बल्कि दुगने साहस से और आगे बढे ऐसे अनेक किस्से है जिनमें वे शामिल हुए उन्होंने देशप्रेम के सामने परिवार की जिम्मेदारी को गौड़ माना मगर प्रथम स्थान पर देश को रखा।देशभक्ति के साथ निडरता और ईमानदारी भी उनका सबसे बड़ा गुण था साथ ही सदा सच्चाई के मार्ग को चुना इसलिये बड़े बड़े अधिकारी भी बात करने से कतराते रहे।
देश की आजादी के बाद एक शिक्षक की नौकरी मिली फिर भी अपनी पढ़ाई को जारी रखा और भाई बहनों की पढ़ाई भी जारी रखी अपनी शिक्षा को सतत आगे बढ़ाते रहे और कानपुर के डी. ए. बी. कालेज से बी. ए. की उपाधि हासिल की इसके बाद एम. ए. हिंदी से किया काशी हिंदू विश्वविद्यालय बनारस से फिर कुछ दिन बाद भाषा विज्ञान से डबल एम. ए. किया डॉक्टर हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से बी. एड. की डिग्री छतरपुर पी. जी. वी. टी. कॉलेज से की।
अपने अध्यापन काल में अनेक लेख लिखे जो देश की भिन्न भिन्न पत्रिकाओं और अखबार में समय समय पर प्रकाशित होते रहे इसके साथ ही कुछ लोगों के अभिनन्दन ग्रंथ में उनकी सम्पादकीय में छपे और देश के बहुत उत्कृष्ट साहित्यकारों की किताबों की समीक्षा भी समय समय पर करते रहे इसके बाद इनका किताब के रूप में प्रथम संस्करण आया वो था हिंदी की सरल भाषा में व्याकरण, वो छोटे बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई थी जिसमें व्याकरण सीखने के बहुत से सरल तरीके बताए गए थे।
मगर आज दुर्भाग्य है कि उसकी कोई प्रति मौजूद नहीं यहाँ तक की प्रकाशक के पास भी उपलब्ध नहीं हो रही। इसके बाद लगभग 1970 से भाषा के विद्यार्थी होने के नाते जिस बोली में जन्में पले और बड़े हुए उसके प्रति कुछ ऐसा करने का बीड़ा उठाया जिसमें वो सदा यादगार भी रहे साथ ही सदियों तक मार्गदर्शक का भी काम करे इसके अंतर्गत सबसे पहले बुंदेलखंड क्षेत्र के एक सौ मील की परिधि में बोली जाने वाली बुंदेली के शब्दों का संकलन का काम शुरू किया जो एक बहुत बड़ा कोष बनकर तैयार हुआ।
फिर उसी विषय बुंदेली की शब्द सम्पदा स्त्रोत एवं सामर्थ्य विषय पर सागर विश्वविद्यालय से डॉक्टर पी के जैन जी के निर्देशन में पी. एचडी. की हालांकि इस सब के बीच एक उन्हें गहरा आघात भी लगा उनके पुत्रवत छोटे भाई जो कैंसर जैसी घातक बीमारी की वजह से 2 जुलाई 1976 को काल कलवित हो गए ये उनके जीवन का सबसे बड़ा आघात था।
इस आघात ने उनके पी. एचडी. के काम को जैसे बिल्कुल रोक दिया फिर लगभग 4 वर्ष बाद इनके अनेक मित्रों ने गम से उभारने में मदद की बल्कि पी. एचडी. के काम को पुनः 1980 में शुरू कराया जब जाकर 2002 में वो सम्पूर्णता को प्राप्त हुई और उन्हें एक समारोह में डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया गया जो उन्होंने अपने स्वर्गीय छोटे भाई को समर्पित की।
पूज्य पिताजी के हिंदी साहित्य और भाषा विज्ञान की तो महारत थी ही साथ में राजनीति एवं इतिहास पर भी अच्छी पकड़ थी उसी पकड़ और महारत के परिणाम स्वरूप उन्होंने एक किताब लिखी हिन्दू मुस्लिम एकता इतिहास के संदर्भ में, जिसे सभी लोगों के द्वारा बहुत ही ज्यादा सराहा गया हालांकि जहाँ कहीं इतिहास को समझने में दिक्कत हुई वहाँ उनके परम मित्र इतिहासकार सेवा निवृत प्राचार्य श्री त्रिलोक चन्द्र जी शर्मा एवं सेवा निवृत्त प्रधान अध्यापक श्री हरि विष्णु जी अवस्थी ने उनका बराबर सहयोग किया जिसे पूरे देश में भी सराहना मिली।
इसके बाद एक अंतिम कृति के रूप में लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे की किताब छपी जो बुंदेलखंड में मील का पत्थर साबित हुई इसमें वे सब लोकोक्तियाँ और मुहावरों को लिया गया जो प्रचलित तो हैं ही साथ ही उनका भी समावेश है जो समय और पुराने आदमियों के समाप्त होने पर विलुप्त होने की कगार पर थे इसलिये ये कृति अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
बुंदेली शब्दकोश और हिन्दू मुस्लिम एकता दोनों संकलनों पर प्रदेश सहित देश के अनेक सम्मानों से उन्हें नवाजा गया खासकर देश की हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा उन्हें गोहाटी में एक बहुत बड़े समारोह में बुलाकर सम्मानित किया गया जिसमें नकद राशि शॉल श्रीफल के अलावा स्थायी धरोहर भी प्राप्त हुई थी जो वास्तव में उनके लिये तो गौरव की बात थी ही सम्पूर्ण बुंदेलखंड के लिये गौरव थी।
सम्मानों की चर्चा में अभी मरणोपरांत भी श्री गंगा प्रसाद बख्सी जी के नाम से धरोहर सम्मान अभी पिछले माह दिसम्बर में ही प्राप्त हुआ जिसे मैंने स्वयं ग्रहण किया।
उनकी अमर कृति बुंदेली शब्द कोष से न केवल देश में बुंदेली पर काम करने वालों को लाभ मिल रहा है बल्कि विदेशों में भी जो कुछ विरले लोग बुंदेली बोली से प्रभावित होकर काम कर रहे हैं उनके लिये शब्दकोश देवतुल्य साबित हो रहा है। मुझे गर्व है कि मैं उनकी संतान हूँ।उनके श्री चरणों में एक बार पुनः श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ और सदा उनके आशीष की कामना करता हूँ।
हमारा प्रयास है कि उन जैसा तो सपने में नहीं बन सकता मगर फिर भी उनकी इस विधा को जहाँ तक हो सकेगा सम्हालूँगा भी और आगे बढ़ाने का भी प्रयास करूंगा साथ ही बुंदेली बोली के विकास में जो भी अधिकतम सहयोग होगा वो करके उनके काम को पूरी ईमानदारी और मेहनत से आगे बढ़ाऊंगा।
दुष्यन्त कैलाश द्विवेदी टीकमगढ़ मध्यप्रदेश
मूल निवास -बानपुर, जिला- ललितपुर (उ० प्र०)।
स्थायी पता-
पुरानी नजाई (बानपुर दरवाजा), टीकमगढ़ म०प्र०
सुरेन्द्र शर्मा “शिरीष” का जीवन परिचय