Bukhare Ki Ladai- Kathanak  बुखारे की लड़ाई- कथानक

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Bukhare Ki Ladai  धांधू के विवाह से संबंधित है जब पृथ्वीराज चौहान की सेना जादू से पत्थर बन जाती है और पृथ्वीराज चौहान बुखारे से भागकर दिल्ली आ जाता है। तब राजकुमारी केसर रानी मल्हना को पत्र लिखकर मदद मागती है। आल्हा,ऊदल, मलखान, सुलिखान, ढेवा, ब्रह्मानंद, बुखारे जाकर युद्ध करते हैं और केसर का डोला लेकर पहले महोबा पहुंचते हैं।

बुखारे की लड़ाई -धाँधू का विवाह

 

द्वापर में महाभारत युद्ध के पश्चात् हस्तिनापुर में विराजमान पांडवों के महल के द्वार पर एक बार नंदी पर सवार शिवजी अपने गणों के साथ पधारे। द्वार पर घंटा गणों ने खड़काया। समस्त पांडव वहाँ उपस्थित थे। घंटा ध्वनि से कुपित हुए अर्जुन ने आते ही कहा, “कौन अपराधी है, जिसने घंटा बजाया?” भगवान् शंकर को यह व्यवहार दुःखद लगा। न प्रणाम, न स्वागत, न कुशल समाचार, सीधे ही अपराधी करार। भगवान् भोलेनाथ प्रसन्न भी शीघ्र होते हैं, परंतु ऐसे अपमान के पश्चात् क्रोधित हो गए।

भगवान् भोलेनाथ ने पांडवों को शाप दे दिया, “कलियुग में तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। द्रौपदी भी बेला नाम से राजकन्या बनेगी। सारे जीवन तुम्हें अनेक राजाओं से युद्ध करने पड़ेंगे। तुम्हारा शत्रु दुर्योधन पृथ्वीराज होगा और दुःशासन तुम्हारे वंश में उत्पन्न होकर भी दुर्योधन के पास ही चला जाएगा।” भगवान् शिव तो शाप देकर चले गए। पांडव चिंतित हुए, परंतु शिवजी के शाप के पश्चात् कोई उपाय संभव ही नहीं था।

बच्छराज की मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न हुए बच्चे को अशुभ जानकर रानी ब्रह्मा देवी ने उसे बाँदी के हाथ में दे दिया। राजा परिमाल ने बाँदी को एक जगह अलग मंदिर में स्थान दे दिया और बच्चे का पालन करने को कहा। जब वह बाँदी गंगास्नान को गई तो पृथ्वीराज ने किसी नटनी के हाथों उस बालक को उठवा लिया। उसके चाचा के पास कोई संतान नहीं थी, अत: उसे गोद दे दिया गया।

बाँदी ने बच्चे के खोने की सूचना राजा परिमाल को दी। जब कुछ दिन बाद समाचार मिला कि पृथ्वीराज के चाचा कान्ह कुमार ने कोई शिशु गोद लिया है, तब परिमाल आश्वस्त हो गया कि शिशु जहाँ पहुँचा है, वहाँ भी इसका पालन अच्छी तरह हो ही जाएगा। अतः राजा परिमाल ने मन में संतोष कर लिया। उसी बच्चे का नाम ‘धाँधू’ रखा गया, क्योंकि वह बहुत मोटा और मस्त था।

बलख और बुखारा दो नगर हैं। बलख नगर के राजा हैं अभिनंदन, जो भवानी अंबा के भक्त हैं। उसकी बेटी चंद्रलेखा है। बुखारे के भूपति हैं रणधीर सिंह। दोनों चचेरे भाई हैं। रणधीर सिंह की कन्या केशर हैं। केशर की सगाई के लिए राजा रणधीर सिंह ने अपने पुत्र मोती सिंह को चार नेगियों के साथ टीका लेकर भेज दिया।

मोती टीका (सगाई का प्रस्ताव) लेकर बहुत से राजाओं के पास गया, परंतु किसी ने स्वीकार नहीं किया, यहाँ तक कि वह कन्नौज गया, परंतु जयचंद ने लाखनि की सगाई स्वीकार नहीं की। नैनागढ़ में राजा नैपाली सिंह के दरबार में भी मोती सिंह टीका लेकर गए। उन्होंने भी स्वीकार नहीं किया।

उरई नरेश माहिल के पास लड़का पूछने के इरादे से जाने लगे तो पृथ्वीराज पुत्र ताहर मिल गया। ताहर ने पूछा, “चारों नेगी साथ लेकर कहाँ घूम रहे हो?” मोती सिंह ने कहा, “राजा माहिल से मिलने उरई जा रहे हैं, ताकि उनकी जानकारी में कोई विवाह योग्य लड़का हो तो बताएँ।” ताहर ने कहा, “दिल्ली में हमारे कान्हा सिंह का पुत्र धाँधू विवाह योग्य है। मेरे साथ दिल्ली चलो।” मोती बोला, “वह बनाफर गोत्र का है। मुझे बनाफरों में जाने के लिए मना किया है, तभी महोबे भी नहीं जा रहा।”

ताहर ने समझाया, लड़का सुंदर है, स्वस्थ है, वीर है। उसका टीका चढ़ा दो। खाली वापस जाने से तो यही अच्छा है। ताहर के साथ मोती दिल्ली चला गया। पृथ्वीराज ने टीका का पत्र पढ़ा और वापस कर दिया। “हमें धाँधू का विवाह नहीं करना। बुखारे जाकर अपनी फौज कौन कटवाएगा?” ताहर ने कहा, “यदि धाँधू का विवाह करवा देंगे तो वह दिल्ली से महोबे कभी नहीं जाएगा।” पृथ्वीराज की समझ में भी बात आ गई और टीका स्वीकार कर लिया।

मोती सिंह ने बुखारे जाकर राजा रणधीर सिंह को टीका चढ़ाने की सूचना दी। धाँधू को टीका चढ़ाने की बात से वह नाराज था। सोचा–द्वारे पर आएँगे, तब देखा जाएगा। इधर दिल्ली में धाँधू के ब्याह की तैयारी शुरू हो गई। तेल-बान की सब क्रियाएँ शुरू हो गई। चौंडा राय पंडित ने अगहन में बरात ले जाने की तैयारी करवाई। ठीक मुहूर्त में दिल्ली से बरात चली। हाथी, घोड़ों पर सवार बराती बुखारे के लिए चल पड़े। बरात की सूचना देने को छेदा नाम के बारी को ऐपनवारी चिट्ठी लेकर भेजा गया।

छेदा बारी के द्वार पर पहुँचने पर राजा ने मोती सिंह को द्वार पर भेजा, परंतु छेदा बारी स्वयं दरबार में जा पहुँचा। नेग पूछने पर तलवार से मुकाबला करने को ही नेग बताया। राजा की आज्ञा पाकर ज्यों ही क्षत्रिय वीर आगे बढ़े, छेदा ने तलवार खींच ली और वेग से तलवार चलाने लगा। छेदा ने घोड़े को एड़ लगाई और मार-काट मचाता हुआ फाटक पार करके निकल गया। छेदा बारी ने आकर अपनी सफलता की सूचना दी।

राजा रणधीर सिंह ने दूती बुलाकर कहा कि छल करके धाँधू को पकड़कर ले आओ। दूती ने सोलह शृंगार किए, पालकी पर झालरदार परदे लगाए और बाग में जा पहुँची, साथ में सहेलियाँ भी थीं। धाँधू भी बाग में बने मठ में दर्शन करने आए थे। दूती ने धाँधू को बुलाकर परिचय किया। धाँधू ने जब बताया कि दिल्ली से राजकुमारी केशर से ब्याह करने आया हूँ, दूती ने तब स्वयं को राजकुमारी केशर बताया और आग्रह किया कि आज रात को मेरे साथ चलो। सवेरे ही मैं आपको आपके डेरे तक पहुँचा दूंगी।

धाँधू ने उसे अच्छा अवसर समझा। उसने अपने हाथी के पीलवान को बुलाकर हाथी डेरे पर ले जाने को कहा और बोला, “मैं स्वयं आ जाऊँगा।” धाँधू दूती के एक डोले में बैठकर चला गया। महल में पहुँचने पर रणधीर सिंह ने धाँधू को एक तहखाने में कैद कर लिया। ऊपर से पत्थर रखकर बंद कर दिया। राजकुमारी केशर को पिता के इस कारनामे का पता चला तो वह दुःखी हुई। उसने अपनी बाँदी (दासी) के हाथ पृथ्वीराज को पत्र लिखकर सूचित किया कि दूल्हा तो बंदी बना लिया गया।

पृथ्वीराज हैरान हुआ कि धाँधू उनके चंगुल में कैसे फँस गया। ताहर ने तुरंत अपनी फौज तैयार की और बुखारे पर चढ़ाई कर दी। उधर रणधीर सिंह ने भी बेटे मोती सिंह को सामना करने के लिए तैयार कर लिया। मोती सिंह ने कहा, “कौन हमलावर है, कहाँ से आया है? जरा सामने आकर जवाब दो।” ताहर ने तुरंत सामने जाकर जवाब दिया, “हम दिल्ली से धाँधू को ब्याहने के लिए आए हैं। अपनी बहन का ब्याह करा दो। नाहक क्यों खून-खराबा करवा रहे हो?”

मोती ने कहा, “धाँधू बनाफर गोत्रीय है। वह राजपूत से नीचा है, उससे ब्याह नहीं हो सकता।” बातों-बातों में बात बढ़ गई और दोनों ओर से तोपें दाग दी गई। गोले दनादन छूटने लगे। फौजें आगे बढ़ती रहीं। आमने-सामने पहुँच भिड़ गई तो भाले और तलवार चलने लगे। तलवारों की खनक के बीच और कुछ सुनाई नहीं पड़ता था। तब तक जीवन नाम की मालिन जादूगरनी राजा रणधीर ने बुलवा ली। उसने पृथ्वीराज की फौज को पत्थर बना दिया। सारी फौज जहाँ थी, वहीं पत्थर हो गई। पृथ्वीराज डेरे से आगे आया ही नहीं, दिल्ली चला गया। उसने स्वयं को पत्थर होने से बचा लिया।

केशर को भी पता लगा कि पिथौरा राय दिल्ली लौट गया तो वह निराश हुई। तब उसने महोबा पत्र भिजवाने का निश्चय किया। उसने रानी मल्हना के नाम पत्र लिखा और अपने तोते के गले में बाँध दिया। तोता महोबे में ठीक मल्हना के महल में जा बैठा। मल्हना ने अपना नाम देखा तो पत्र खोलकर पढ़ा।

केशर ने सब विवरण लिख दिया कि धाँधू को उसके पिता ने तहखाने में कैद कर रखा है। पृथ्वीराज युद्ध छोड़कर दिल्ली चले गए। मेरे ब्याह की तो संभावना ही नहीं रही। बनाफर गोत्रीय धाँधू भी कैद में ही सड़ेगा। आप चाहें तो हम दोनों का कल्याण कर सकती हैं।

माता ने मलखे को बुलवाकर पत्र पढ़वाया। मलखे ने कहा, “हमें धाँधू को छुड़ाने के लिए जाना चाहिए।” फिर ऊदल पहुँच गए तो सारी बात सुनकर बोले, “धाँधू हमारा भाई ही है। हम तुरंत जाते हैं और उसको छुड़वाकर भाँवर भी डलवा लाते हैं।”

आल्हा भी चलने को तैयार हो गए। ब्रह्मानंद, ऊदल, मलखान, सुलिखान, ढेवा सबने अपने-अपने सैनिक तैयार किए और बुखारे के लिए रवाना होने से पहले राजा परिमाल का आशीर्वाद लिया।

फिर ऊदल और मलखान पहले पृथ्वीराज के दरबार में गए। पृथ्वीराज दोनों को आया देखकर हैरान हुआ, परंतु स्वागत किया तथा सम्मान किया। पूछने पर उन्होंने बताया, “आप धाँधू को कैद में छोड़कर यहाँ क्यों चले आए?” पृथ्वीराज ने कहा, “फौज पत्थर हो गई। जादू के सामने मैं विवश हो गया। लड़ने जाता तो मैं भी पत्थर हो जाता, इसीलिए चला आया। अब आप लोगों के साथ हूँ।” जादू का जवाब तलवार से नहीं दिया जा सकता। मलखान की बात मानकर पृथ्वीराज भी सेना लेकर साथ चल पड़ा।

बुखारे से पाँच कोस पहले ही लश्कर ने डेरे डाल दिए। मलखान ने सबको समझा दिया, “अभी किसी को अपने आने का कारण प्रगट मत करना। पहले हम जोगी बनकर भीतर का भेद लेने के लिए जाएँगे। आप सब डेरे में ही रहना। बाहर जाने का कतई प्रयास न करना।” इसके बाद तो मलखान, ढेवा, ऊदल और गंगू चारों जोगी का वेश धारण करके नगर बुखारे में प्रवेश कर गए। फिर संगीत की मधुर स्वर-लहरी नगर में गूंजने लगी।

ऊदल ने सुरीली बाँसुरी बजाई। वीर मलखान ने खंजरी (झाँझ) उठा ली। गंगू भाट ने इकतारा बजाना शुरू किया और ढेवा ने डमरू पर तान छेड़ी। तरह-तरह के रागरागनी गाने लगे। दरबान ने पूछा तो ऊदल ने बता दिया कि जोगी बंगाल के रहनेवाले हैं, हमारी कुटी गोरखपुर में है और अब हिंगलाज देवी के दर्शन करने के लिए जा रहे हैं।

राजा के महल के द्वार पर जो संगीत गूंजा। राजा ने तुरंत जोगियों को बुलवाया। राजा के पूछने पर भी ऊदल ने वही परिचय दिया, कहा कि आज तो तुम्हारी नगरी में रहेंगे, परंतु सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल जाएँगे। राजा ने जोगियों को मोती भेंट किए तो जोगियों ने लौटा दिए। बोले, “बाबा, हमें मोतियों की चाह होती तो जोगी क्यों बनते? हम तो थके-माँदे आए हैं, बस एक समय का भोजन करा दो। कल किसी और घर का दाना-पानी मिलेगा।”

राजा इसे अपना सौभाग्य मानकर तुरंत महल में गए तथा रानी से भोजन तैयार करवाने का आग्रह किया। रानी ने भोजन तैयार करवाकर जोगियों को बुलाकर भोजन करवाया। रानी बोली, “मेरी पुत्री कुछ बीमार है, उदास है। क्या आप उसे ठीक कर देंगे?”

ऊदल ने कहा, “बेटी को दिखाइए, फिर बताएँगे कि क्या उपाय करना होगा?” रानी ने बेटी केशर को बुलवाया। बेटी को देखकर ऊदल ने कहा, “मैं इसकी बीमारी ले  लूँगा। परदा लगा दो। कोई बीच में अंदर न आवे।”

रानी तो बेटी को सुखी करने के लिए सब शर्त मान सकती थी। परदा कर दिया। राजकुमारी केशर और ऊदल ही परदे में रहे। तब ऊदल ने कहा, “भौजी हम महोबे से आए हैं। मैं ऊदल हूँ। धाँधू भाई कहाँ कैद है? मुझे बताओ। मैं उन्हें निकाल ले जाऊँगा।” केशर ने तहखाने की जगह बताकर कहा कि मलखान को भी बुलवा लो। ऊदल ने संकेत से वीर मलखान को बुला लिया। तब रस्से की सहायता से ऊदल नीचे उतर गए और धाँधू को ऊपर ले आए। धाँधू को भी भस्म मलकर जोगी बाना पहनाया और केशर को विवाह का आश्वासन दिया, फिर पाँचों गाते-बजाते अपने डेरे पर पहुंच गए।

राजा रणधीर सिंह बघेल नित्य नगर के बाहर देवी मंदिर जाकर पूजा किया करते थे। ऊदल ने धाँधू को मुँह पर भस्म मलकर मठ में बिठा दिया। उसे बाल बिखेरकर भयंकर बना दिया। ज्यों ही मठ में राजा आया तो धाँधू ने फुरती से राजा को बाँध लिया। तब धाँधू को पहचानकर राजा बहुत हैरान हुआ। तुम्हें तो तहखाने में डाला था, तुम यहाँ कैसे पहुँच गए? धाँधू ने उत्तर दिया कि तुमने भी तो दूती के हाथ छल से मुझे बुलवाया था। छल का उत्तर छल से ही तो दिया जाएगा।

बहुत समय तक राजा नहीं लौटा तो राजमहल में हल्ला मच गया। निजी रक्षक ने जाकर बताया कि राजा को महोबावालों ने कैद कर लिया है। पिता को छुड़ाने के लिए मोती सिंह ने फौज तैयार की और महाबावालों का मुकाबल करने के लिए चल पड़ा। दोनों ओर से रणभेरी बजने लगी। तोपें गरजने लगीं। मोती सिंह ने अपना हाथी आगे बढ़ाया। ऊदल को ललकारकर कहा कि राजा को छोड़ दो और महोबा को लौट जाओ। इस पर ऊदल ने उत्तर दिया। हम महोबा अवश्य जाएँगे, परंतु तुम्हारी बहन केशर का डोला लेकर ही जाएँगे। अतः जल्दी धाँधू के साथ भाँवर डलवा दो।

मोती भी क्रुद्ध था और ऊदल भी। दोनों ओर से तोपों के गोले चलने लगे और गोलियाँ सन्न-सन्न बजने लगीं। हाथी, घोड़े कट-कटकर रुंड-मुंड दिखाई देने लगे। खून के फव्वारे चलने लगे। नदियाँ बहने लगीं। दोनों दल और निकट आए तो भाले, बरछी और तलवारें खटाखट बजने लगीं। घुड़सवार घुड़सवारों से भिड़ गए और पैदल सैनिक पैदलवालों से द्वंद्व करने लगे। पाँच कोस तक सिर्फ सिरोही की खनक ही सुनाई दे रही थी, जो पैदल सैनिक एक बार धरती पर गिर गए, फिर उठ न सके। उन पर दूसरे जा गिरे।

कुछ ने अपने बचाव के लिए स्वयं ही लाश को अपने ऊपर ढक लिया। महोबे के शूरवीरों ने ऐसी मार-काट मचाई कि बुखारे के सैनिक जान बचाकर भागने लगे। कोई अपने लड़कों को याद कर रहा था तो कोई अपने पुरखों को मना रहा था। कोई अपने माँ-बाप को याद कर रहा था तो कोई कह रहा था, इससे तो अच्छा था, हम जंगल की लकड़ी काटकर गुजारा कर लेते, व्यर्थ ही फौजी बने।

मोती सिंह की सहायता के लिए फिर मालिन जादूगरनी आई। मालिन बार-बार मलखान पर जादू मार रही थी, परंतु घोड़ी कबूतरी फुरती से इधर-से-उधर निकल जाती थी। वीर मलखान की दृष्टि मालिन पर पड़ी तो बता दिया, “मैं हूँ मलखान। मुझ पर जादू काम नहीं करता। मेरा जन्म पुष्य नक्षत्र में हुआ है और जन्म से बारहवें घर में बृहस्पति बैठा है। जादू तो क्या, मौत भी मुझसे घबराती है।” कहते-कहते मलखान ने अपनी ढाल से धक्का दिया।

मालिन जमीन पर गिर पड़ी। मलखान को मौका मिल गया। फुरती से उसने मालिन का जूड़ा काट लिया। जूड़ा कटते ही उसकी जादू करने की शक्ति समाप्त हो गई। मालिन को बंदी बना लिया गया। तब उससे कहा, “जिन क्षत्रियों को तुमने पत्थर बना दिया था, उन्हें फिर से सही-सलामत मनुष्य बना दो।” मालिन ने जादू की पुडिया मलखान को ही पकड़ा दी और कहा, इसे छिड़क दो, सब फिर इनसान बन जाएँगे।

पुडिया के प्रभाव से मलखे ने दिल्ली के पत्थर बने सैनिकों को पुनः जीवित कर दिया। मालिन का बंधन खोल दिया। मालिन महलों में लौट गई। मोती ने देखा, मालिन भी काम नहीं कर पाई तो ऊदल के सामने अपना हाथी ले गया। नाहक इन लोगों को मरवा रहे हो। आओ हम-तुम आपस में निपट लें।

ऊदल ने इस प्रस्ताव का स्वागत किया और अपना घोड़ा मोती की ओर बढ़ा दिया। मोती ने पहले सांग फेंकी, ऊदल बच गए। ऊदल पर एक बार और वार कर लो, कहीं फिर पछताओ कि मौका नहीं मिला। मोती ने गुर्ज उठाकर वार किया। ऊदल ने फुरती से स्वयं को बचा लिया। फिर मोती सिंह ने सिरोही से वार किया।

वार बचाते हुए ऊदल बोला, “तुमने लगातार तीन वार कर लिये, अब सावधान हो जाओ। मैं वार कर रहा हूँ।” ऊदल ने दुल घोड़े को एड़ लगाई। वैदुल ने अगले दोनों पाँव हाथी के मस्तक पर दे मारे। ऊदल ने हौदे की रस्सी काट दी। हौदा सहित मोती धरती पर आ गिरा। मौका मिलते ही ऊदल ने उसे बंदी बना लिया। मोती को बंदी बनाकर आल्हा के पास ले आए। राजा तो पहले ही वहाँ बँधा हुआ था।

राजा बोला, “हम दोनों को रिहा कर दो। हम केशर बिटिया के फेरे डलवा देते हैं। हम समझ गए कि बनाफर सचमुच शूरवीर हैं; उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता।” आल्हा ने दोनों को तभी रिहा कर दिया। राजमहल में पहुँचकर उन्होंने पंडित को बुलवाकर मंडप में विधि-विधान करना शुरू कर दिया। मोती ने अपने चाचा अभिनंदन को भी न्योता भेज दिया।

उसकी राजकुमारी चित्रलेखा भी साथ आई। वेदी बनाई गई। महिलाएँ मंगलगीत गाने लगीं। फिर गहनों का डिब्बा मँगाया। ऊदल ने पृथ्वीराज से कहा। पृथ्वीराज ने कहा, “हम तो गहनों का डिब्बा लाए ही नहीं।” ऊदल तब अपने डेरे में आए और गहनों का डिब्बा रूपन के हाथों महल में भेज दिया।

केशर ने रेशमी साड़ी पहनी। ऊपर झालरदार ओढ़ना ओढ़ा, घुमेरदार लहँगा, जिसमें सुनहरी गोटा लगा था। ऊपर से चमकदार गहने। कर्णफूल और झुमके सुंदर लग रहे थे। सातलड़ीवाली चंपाकली और मोहन माला। हार की शोभा निराली थी। केशर की शोभा अपार थी। फिर धाँधू को बुलवाया गया, साथ में घर-परिवार के लोग भी बुलवाए गए। पृथ्वीराज को भी बुलवाया गया। आल्हा, चौंडा पंडित, ढेवा, ब्रह्मानंद, जगनिक, मलखान, सुलिखान और ऊदल सब साथ चले। ऊदल तो सबसे आगे थे ही। खूब नाच करके घोड़ों ने दिखाया।

द्वार पर ही पंडितों ने स्वागत में श्लोक उच्चारण किया। धाँधू को वेदी पर बिठा दिया। गणेश पूजन तथा गौरी पूजन किया गया। नवग्रहों की पूजा करवाई गई। केशर और धाँधू का गठबंधन करवाया गया। कन्यादान करवाया गया।  भाँवर पड़नी जैसे ही शुरू हुई, मोती ने तलवार खींच ली, पर ऊदल सावधान था, उसने तुरंत ढाल अड़ा दी।

दूसरी भाँवर के लिए ज्यों ही खड़े हुए, तुरंत क्षत्रिय दौड़ पड़े। ऊदल ने कहा, “आल्हा! आप फेरों की चिंता करो। इन सबको मैं सँभालता हूँ।” ऊदल, ढेवा, मलखे और ब्रह्मा चारों वीर खड़े हो गए। सबका मुकाबला किया और सबको मारकर भगा दिया। इधर भाँवरें पूरी हुई। राजा रणधीर ने बेटी केशर को डोली में बिठा दिया।

पिथौरा राय को डोले की रक्षा के लिए साथ कर दिया। पहले अपने डेरे में डोला ले गए। वहाँ से मिलकर दिल्ली को रवाना हुए। चार दिन सफर करके लश्कर दिल्ली पहुँचा। पृथ्वीराज ने महोबावालों को भी कुछ दिन अपने यहाँ ठहराकर स्वागत किया। धाँधू और बहू केशर को महोबे माता के पास ले जाने को कहा तो पृथ्वीराज बोले, “अब महोबे जाने की बात मत करो।”

तो मलखान और ऊदल को बहुत बुरा लगा। उन्होंने कहा, “क्या भूल गए कि रानी मल्हना के पास ही चिट्ठी आई थी। उसी ने हमको बुखारे भेजा था। इसलिए माता मल्हना के दर्शन करवाकर हम इन्हें (दूल्हा-दुलहन) वापस दिल्ली भेज देंगे। आप चाहें तो केशर से ही पूछ लें।”

रानी अगमा ने केशर से पूछा, तो उसने बताया कि पाती तो रानी मल्हना को ही भेजी थी। वह बोली, “माता मल्हना के चरण-स्पर्श करना जरूरी है, फिर दिल्ली आ जाऊँगी।” सबकी राजी से ऊदल ने लश्कर महोबे के लिए रवाना कर दिया। रूपन को भेज दिया कि पहले जाकर माता मल्हना को खुश खबरी दे दो कि दुलहन आ रही है। मल्हना तो इंतजार कर ही रही थी। रूपन ने ब्याह का सब हाल सुना दिया और पहुँच रहे हैं, यह भी सूचना दे दी।

मल्हना माता ने स्वागत का भारी प्रबंध किया। सारे नगर की महिलाएँ बुलाकर मंगल गान करवाए। दिवला और तिलका (ब्रह्मा) भी थीं, रानी मछला और फुलवा भी स्वयं सज-धजकर उपस्थित थीं। माताओं ने सब बेटों की बलैया ली। दुलहन को आशीर्वाद दिए। धाँधू और केशर ने सभी माताओं के चरण-स्पर्श किए। केशर ने कहा, “माता! आपने बड़ी कृपा की, जो मेरे स्वामी के प्राण बचाए और मेरा विवाह संपन्न करवाया।”

आठ रोज तक महोबे में आनंद से रहने के पश्चात् उन दोनों को दिल्ली रवाना कर दिया गया। धाँधू ने जाकर पृथ्वीराज को प्रणाम किया। रानी अगमा ने दुलहन केशर को महल में स्वागत करके भरपूर प्रेम दिया। इस प्रकार धाँधू और केशर का ब्याह संपन्न हुआ।

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