Amarkantak अमरकंटक-नर्मदा का उद्गम

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By admin

Amarkantak का रास्ता सघनवन प्रान्त से होकर जाता है । आरण्यक संसार से बरसते पानी में गुजरना अच्छा लग रहा था। बादल सरई के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की छुगनियों पर रुकते, बात करते, बतरस से अरण्यावली को आर्द्र करते और आगे बढ़ जाते हैं अमरकंटक पहाड़ का शिखर बहुत दूर से दिखायी देने लगता है । विन्ध्य और सतपुड़ा का यह समवेत विग्रह बड़ा सुदर्शन और मनोहारी है । इसे मेकल कहते हैं।

मेकल पर्वत की ही दायीं भुजा विन्ध्याचल और बायीं सतपुड़ा है। इन दोनों पर्वतों के बीच नर्मदा निनादित और प्रवाहित है । विन्ध्य और सतपुड़ा से बनी अँजुरी में नर्मदा का जल लहर-लहर है । इस पर्वत का मस्तक पूर्व तक फैला है। यह अपनी विराटता से सम्पूर्ण भारत को पूर्व से पश्चिम तक हरापन और प्राकृतिकता दिये हुए है। दूर से दृष्टि पड़ती है कि कोई रजत-धार आकाश से झर रही है । चारों तरफ हरा-भरा वानस्पतिक संसार है । एक पर्वत अपनी अचलता और विश्वास समृद्ध है । ऊपर आसमान में बादलों की छियाछितौली और धमाचौकड़ी मची है।

एक मोटी जलधार ऊपर से नीचे गिरते दिखायी दे; तो लगता है धरती की प्रार्थनाएँ फलवती होने लगी हैं। यह धारा सोन की है। यह अमरकंटक का पूर्वी भाग है, जो पेण्ड्रारोड से आते समय दिखायी देता है । शहडोल या जबलपुर – डिण्डौरी मार्ग से अमरकंटक पहुँचने पर हमें इसके पश्चिम भाग के प्राकृतिक संभार को देखने का सुख मिलता है ।

सोन नद है । सोनमुड़ा से निकलकर यह पूर्व में चला जाता है। गंगा की सभी सहायक नदियों से आगे जाकर यह गंगा में मिलता है। सोन के जल के द्वारा अमरकंटक अपनी जलांजलि सूर्य को और पूर्व के समुद्र को देता है । नर्मदा के जल-प्रवाह के माध्यम से यह अपनी आदरांजलि पश्चिम के समुद्र को देता है । दोनों ही दशा में और दिशा में इसके आसपास की ज़मीन नम होती है। यह ज़मीन का गीलापन कई-कई जीवन की धड़कनों को पानी के रंग दे रहा है।  

कितनी ही आड़ी-तिरछी सड़क से चलते हुए अमरकंटक पहुँचें, सोन की यह झार इस मार्ग से हर कोण से दिखायी देती है । आँख सरई के पेड़ों की गाढ़ी हरियाली पर अटकती है। वन की सघनता पर आश्वस्त होती है । फिर सोन के सम्मोहन में फँस जाती है । लम्बा घाट चढ़ने पर हम अचानक स्वयं को अमरकंटक के एकदम सान्निध्य में पाते हैं।

सोन आँखों से ओझल हो जाता है। बारिश रुक गई है । अमरकंटक की समतल और रक्ताभ छवि से रूबरू होते आगे बढ़ते हैं। छोटी सी, बिल्कुल छोटी नदी को पतली धार के रूप में छोटे-से पुल द्वारा पार करते हैं । निगाह किनारे लगे बोर्ड पर अटक जाती है- लिखा है‘नर्मदा’ । इतनी छोटी, इतनी पतली । यहाँ बहते हुए इसलिए दिख रही है कि बरसात का मौसम है ।

अमरकंटक का दूसरा ही रूप सामने आता है। कुछ मकान हैं। मंदिर हैं, संतों के आश्रम हैं। कार्यालय हैं। निर्माणाधीन जैन मंदिर है । जन-जीवन है । वनवासियों का निर्द्वन्द जीवन है। टोकनियों में जामुन लेकर वनवासी महिलाएँ बैठी हैं। पके आम के ढेर – के-ढेर हैं। एक अजब शांति है । कुछ मिठाई की, चाय की दुकानें है । नारियल, प्रसाद, माला, कंठी की कई दूकानें हैं। लोग गरीब हैं। नर्मदा उन्हें संभाले हुए हैं। अमर के कण्ठ से निकसती जलधार के किनारे भयानक समय में बेखबर होकर जी रहे हैं ।

बस स्टैण्ड से पूर्व में दूकानों की गली से चलते हुए आगे जाने पर एक जल कुण्ड है। यह नर्मदा का उद्गम स्थल है। कुण्ड ग्यारह कोणीय है। स्वच्छ और शीतल जल लहरा रहा है । कुण्ड के चारों ओर आसपास 20 मंदिर बने हुए हैं। कुण्ड पक्का बना है । कुण्ड विशाल है। कुण्ड के चारों ओर पक्की समतल जगह बना दी गयी है। मुख्य द्वार भी विशाल है । कुण्ड के आसपास बने मंदिर मंझौले आकार के हैं । कुण्ड में पूर्व की तरफ एक छोटा- सा मंदिर है। जिसमें शिव प्रतिष्ठित हैं। अमरेश्वर के कण्ठ से ही नर्मदा निकली है

यह कुण्ड ही नर्मदा का आदिम स्रोत है। जल शिव के कण्ठ से निकलकर कुण्ड में एकत्रित होता रहता है । कुण्ड के बाद नर्मदा भूमिगत होकर 5-6 किलोमीटर दूर पश्चिम में कपिलधारा के पास प्रकट होती है । नर्मदा कुण्ड में डुबकी लगाकर तन-मन का ताप शमन करने का पुण्य लिया जा सकता है। मंदिरों में पूजन-अर्चन, आरती – वंदन वैसा ही है, जैसा प्रायः नर्मदा तट के अन्य मंदिरों में होता है।

नर्मदा कुण्ड का जल और उसका सुखदायी स्वरूप इस स्थान को एक महानदी की नैसर्गिक और दिव्य जन्म स्थली होने का गौरव देता है । यहाँ से रेवा आसमुद्र पश्चिम की ओर बहती चली जाती है। रेवा मन में शोण के विरह का ताप लिये हुए पश्चिम की ओर बह निकलती है। उसकी गति में ताप है और स्वभाव में शीतलता है । एक लोक कथा है- शोण और नर्मदा की प्रणय कथा ।

जुहिला नामक नर्मदा की सखी ने सब गड़बड़ कर दिया । नर्मदा जुहिला को दूति बनाकर अपना प्रणय संदेश शोणभद्र के पास भेजती है । जुहिला शोण के व्यक्तित्व पर मुग्ध जाती है। वह नर्मदा का रूप लेकर सोन का वरण कर लेती है । यह बात नर्मदा को पता चलती है तो वह मारे क्रोध के उल्टे पाँव लौटकर पश्चिम की ओर वेगवती होकर चल पड़ती है। चट्टानों को तोड़ती, पहाड़ों को किनारे करती, उछलती, उत्ताल तरंगों से रव करती वह बहती ही चली जाती है । पीछे मुड़कर फिर नहीं देखती।

उधर सोन को इस रहस्य का पता चलता है, तो वह भी विरह सन्तप्त होकर अमरकंटक के उच्च शिखर से छलाँग लगा लेता है । पूर्व की ओर विरह-विधुर मन लिये बह निकलता है। बहता ही चला जाता है। कुछ दूर जाकर जुहिला उसे मना लेती है । उसमें मिल जाती है। उसमें समा जाती है। लेकिन नर्मदा और सोन दो प्रेमी दो विपरीत दिशाओं में बह निकलते हैं। धरती की करूणा विगलित होकर नर्मदा और सोन के स्वरूप में अजस्र बह रही है।

माई की बगिया सोन और नर्मदा की बाल-सुलभ क्रीड़ाओं की भूमि रही है। यह ऋषि मार्कण्डेय की तपोभूमि भी है । आम्र तथा सरई के पेड़ों के आँगन में यह बगिया है। गुलबकावली के फूलों में यहाँ नर्मदा और सोन का प्रेम अभी भी खिला हुआ है । माई की बगिया में छोटा-सा जलकुण्ड है।  गुलबकावली का क्षेत्र भी बहुत थोड़ा रह गया है ।

एक साधु यहाँ कुटिया में रहते हैं। तीर्थ यात्रियों की आँखों में गुलबकावली का अर्क डालकर आँखों की उमस दूर करते हैं । दृष्टि का धुंधलका छाँटते हैं। लगता है नर्मदा और सोन का प्रणय गुलबकावली के फूलों के माध्यम से जगत की दृष्टि की तपन अभी तक हर रहा है। जीवन का ताप तो दोनों में अपने-अपने जल से शमित कर ही रहे हैं। धरती के सूखे किनारों की हँसी बाँट रहे हैं । उत्सव लुटा रहे हैं ।

जुहिला के मन की खोट और सोन से उसका विवाह होने की खबर लगते ही नर्मदा माई की बगिया से दौड़कर कुण्ड में कूद जाती है। यही कुण्ड नर्मदा कुण्ड है। उस कुण्ड में से क्रोध में भूमिगत होकर पश्चिम दिशा में जाकर दो- तीन किलोमीटर बाद सतह पर आती है । कपिल धारा के पास जल का सोता दिखायी देता है।

यह प्रसंग मानवीय संदर्भ लिये हुए है। लोक ने नदियों को कहीं मानवीय और कहीं दैवी गुणों से मंडित किया है। यह लोक की मानवीय दृष्टि और व्यवहार के प्रकृति तक फैलाव का सुफल है। परन्तु तटस्थ रूप से देखने पर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि माई की बगिया से पुरातन समय में जल स्रोत बहता रहा होगा । वह जल धारा ही वर्तमान नर्मदा कुण्ड तक आती होगी। और फिर पश्चिम दिशा में आगे बढ़कर बहती चली गई होगी।

समय के परिवर्तन और अमरकंटक की वानस्पतिक सम्पदा विरल होने से इस जल स्रोत में भी अन्तर आया। माई की बगिया से लेकर नर्मदा कुण्ड तक की धारा सूख गयी। नर्मदा कुण्ड से आगे दो-तीन किलोमीटर तक भी यही स्थिति रही होगी। नर्मदा कुण्ड से अमरकंटक का एक शिखर और आसपास की भूमि ऊँची है। उसी का जल निरन्तर नर्मदा कुण्ड में आता है ।

अमरकंटक ने अपनी आत्मा से नर्मदा को जन्म लिया है और उसके प्राणों के रस से नर्मदा में अनादि काल से, प्रलयकाल से जल-जीवन निस्रत हो रहा है । अमरकंटक ने नर्मदा को जन्म देकर भारत को वरदान दिया है । यह अमरेश्वर शिव की अमरकंटक के माध्यम से धरती को मिली कृपा है। शिव – कन्या नर्मदा जल के रूप में अमृत-धार है।

सोनमुड़ा सोन का उद्गम है। यहाँ भी एक छोटा-सा पक्का कुण्ड बना दिया है। पहले नहीं था । कुण्ड से पतली जल-धार निकलकर बह रही है और पर्वत के ऊपर से बहकर आती हुई मोटी जल – धार में मिलकर सोन को नद का स्वरूप देती है। थोड़ी दूर जाकर सैकड़ों फीट नीचे गिरकर वृक्षों में अदृश्य-सी हो जाती है। यह सोन पर पहला प्रपात है । यही प्रपात दूर-दूर दिखायी देता है। सोनमुड़ा के कुण्ड में श्रद्धालुओं द्वारा डाले गये सिक्के पड़े हैं। सोन अमरकंटक का गर्व है ।

इसी तरह नर्मदा के उद्गम स्थल पर बना जल – कुण्ड भी बहुत पहले पक्का नहीं था। अपने गाँव में आढ़े-बूढ़ों से और परिक्रमावासियों से सुना है कि अमरकंटक में माई रेवा बाँस के भिड़े में से निकली है । बड़ा हुआ, यहाँ आया तो ऐसा कुछ नहीं था । अमरकंटक में भी बहुत पहले की बातें बताने वाला कोई उत्साही जन नहीं मिला । बाँस के भिड़े से निकलने वाली बात अभी भी जिज्ञासा बनी है । लगता है यहाँ जब आदमरफ्त नहीं रही होगी । प्रकृति अपने निसर्ग पर बार-बार निहाल होकर गर्व करती रही होगी ।

सीमेण्ट और कंकरीट से नदियों के उद्गमों की घेरा बंदी शुरू नहीं हुई होगी, तब बहुत पहले बाँस के भिड़े यहाँ रहे होंगे। उनमें से नर्मदा का जलस्रोत निकलता रहा होगा। बाँस के भिड़ों को साफ करके कुण्ड का निर्माण हुआ हो । या प्राकृतिक स्थितियों के बदलने और बाँस वनों के कटने से बाँस का भिड़ा समाप्त हो गया हो । जो भी हो अमरकंटक के घर जन्म लेकर नर्मदा ने सृष्टि को सोहर गाने का अवसर जरूर दिया है। नर्मदा जीवन-उत्स का चरम और अमर फल है।

नर्मदा कुण्ड से लगभग 4 किलोमीटर दूर कपिल ऋषि की तपस्या भूमि है। नर्मदा यहाँ लगभग 150 फीट ऊपर से गिरती है। यह नर्मदा का पहला प्रपात है। कितनी अद्भुत बात है कि अमरकंटक के पूर्व और पश्चिम में सोन तथा नर्मदा दोनों ही प्रपात बनाते हैं । कपिलधारा में स्नान करने से तन सुख से ज्यादा मन सुख मिलता है । ऊपर गिरता नर्मदा का जल-अनुभव होता है कि हमारे ऊपर आशीर्वाद बरस रहा हो ।

हालाँकि यह अनुभूति भी व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है । कपिल धारा में नीचे तक उतर कर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से सम्भलकर जाना होता है । कपिल धारा से आगे नर्मदा पत्थरों पर से बिछलती हुई आगे बढ़ती है । थोड़ी दूर पर ही दूध धारा है। यहाँ नर्मदा अनेक धाराओं में बँटकर पत्थरों पर से बहती है । ऊपर से नीचे की ओर तेज बहती है । उसके कारण पानी दूधिया हो जाता है । यहाँ से ही नर्मदा का जल खम्भात की खाड़ी तक दूध ही माना जाता है।

जनमानस नर्मदा को माँ मानता है और उसके पानी को दूध की तरह पीकर पोषित और जीवित है। दूध धारा के बाद निर्जन और सघन वनप्रान्त से नर्मदा की यात्रा आरम्भ होती है। कपिल धारा के पास ऊपर बैठी जामुन बेचती वनवासी स्त्री से मैं पूछता हूँ कि अभी तो वर्षा का मौसम है, इसलिए यहाँ नर्मदा में पानी है। प्रपात में पानी गिर रहा है । क्या गर्मी में यहाँ नर्मदा सूख जाती है ? उस स्त्री का सहज उत्तर था–‘नर्मदा कैसे सूख सकती है बाबू । नर्मदा सूख जाएगी तो हम लोग कैसे बच सकेंगे ?’ मैं मौन हो जाता हूँ ।

उत्तर आँखों में पानी बनकर तैरने लगता है। नर्मदा सूख जाएगी, तो संस्कृति सूख जाएगी। धरती का रस सूख जाएगा। प्रकृति का स्वाभिमान खतम हो जाएगा। नर्मदा अनवरत और अविराम प्रवहमान है, इसलिए संस्कृति जीवित है । मनुष्य गतिमय है । लेकिन कपिल धारा के पास से आकाश मार्ग से तार पर लटक – लटककर ट्रालियों में अमरकंटक से खनिज (एल्यूमीनियम ) बालको को जा रहा है। अमरकंटक को खोखला किया जा रहा है। नर्मदा और सोन के उद्गम पर यह अविवेकपूर्ण और अंधा प्रहार है।

अमरकण्ठी नर्मदा का यह क्षेत्र देवों और मनुजों, मिथकों और लोककथाओं, ऋषियों और वर्तमान के रचनाकारों को अपने सन्दर्भों में समाए हुए हैं। कालिदास ने इसे आम्रकूट कहा है। किसी समय में यह समूचा पर्वत आम्रतरूओं से आच्छादित रहा होगा । इस समय तो आम के पेड़ यहाँ विरले ही हैं। सोनमुड़ा और माई की बगिया के पास कुछ घने आम के वृक्ष अवश्य बचे हैं। पर यह अवश्य है कि यहाँ के जंगलों में आम आज भी जंगल-जंगल पाये जाते हैं।

यह क्रम पूर्वोत्तर में सरगुजा जिले के वनों तक और पश्चिम में सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी तक चला आया है । बादलों का जो रूप अमरकंटक में देखा, वह अद्भुत था । वर्षा सुबह से ही थम गयी थी। चार बजे के आसपास देखते-देखते अंधेरा सा छा गया है। एकदम घना – घना धुँआ – धुँआ सा तैरने लगा है। नरम और आर्द्र रूपहले बादलों की चादर ने समूचे वन, पर्वत और सबको ढँक लिया । बादल हमारे पास आ गये हैं । बिस्तर पर, कमरे में, सब जगह फैल गये हैं । एक स्पर्शित अनुभव सम्पन्न किन्तु पकड़ में न आने वाली अनुभूति का तैरता संसार हमारे आसपास था।

हम कमरों में, दालानों में होते हुए भी बादलों के समन्दर में तैरते हुए धरती पर चल रहे थे। जीवन में ऐसा पारदर्शी और रोमिल बादल अनुभव पहली बार हुआ । घनश्याम हमारे पास थे, लेकिन पकड़ से बाहर थे । घनश्याम कहाँ कब किसकी पकड़ में सहज आ पाये हैं ? सुबह होते ही मौसम साफ था। अमरकंटक स्नान कर निसर्ग की अभ्यर्थना में निरत – सा खड़ा था । उसकी अँजुरी का जल नर्मदा बनकर बह रहा है।

शोध आलेख- डॉ. श्रीराम परिहार 

डॉ. श्रीराम परिहार का जेवान परिचय 

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