Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यDohe Par Adharit Lokkavya दोहे पर आधारित बुन्देली लोककाव्य

Dohe Par Adharit Lokkavya दोहे पर आधारित बुन्देली लोककाव्य

आदिकाल मे  जब Bundelkhand की बुंदेली भाषा साहित्य का उदभव हो  रहा था तभी लोककाव्य मे Dohe Par Adharit Lokkavya का सृजन होने लगा था ।  लोगों की रुचि श्रंगार,  नीति, भक्ति और दर्शन की ओर अधिक होने के  कारण उसका प्रभाव बुन्देली के काव्य साहित्य मे देखने को मिलता है ।

दिवारी गीतों का परिवेश
गेय काव्य की पहली बानगी दिवारी लोकगीतों में मिलती है। ये गीत दीपावली (दिवारी) के दूसरे दिन उस समय गाए जाते हैं, जब मौनिया मौनव्रत रखते हैं और गाँव-गाँव घूमते हैं। दिवारी मे गाये जाने वाले गीत Dohe Par Adharit Lokkavya  हैं ।

Bundeli Lokkavya Srijan बुन्देली लोककाव्य सृजन

 

चन्देल-काल में लक्ष्मी लोकदेवी की तरह पूजित हो गई थीं।
लक्ष्मी-पूजन की रात्रि के अन्तिम चरण में और कहीं-कहीं मध्य रात्रि में मौनिया-व्रत प्रारम्भ हो जाता है। गाँव के ग्वाले, अहीर, गड़रिए आदि पशुपालक तालाब या नदी में स्नान करते हैं और फिर सज-धजकर मौन व्रत लेने से मौनियाँ नाम पाते हैं।

सफेद चमकीली कौंड़ियों से गुँथे लालरंग के लाँगिए (जाँघिए) और उन पर छोटी-छोटी घंटिकाओं से जटिल झूमर मौनियों की कटि पर शोभित होती है, उसे ‘लाँगझूमर’ कहते हैं। स्वस्थ गठे हुए वक्ष-स्थल पर लाल रंग की कुर्ती या सलूका एक निराला पौरुष खड़ा कर देते हैं। झूमर पर बँधती है गलगला (बड़े घुँघरू) की दो पंक्तियाँ, जो पाँव के घुँघरुओं के नारीत्व पर हँसने के लिए हर समय आतुर रहती है।

लेकिन वस्त्रों के किनारों से लटकते फुँदने बार-बार सिर हिलाकर उन्हें मना करते हैं। हाथों में मोरपंखों के मूठों की ‘ढाल’ और चाँचर के दो डंडे का ‘शस्त्र’ लेकर भले ही वे मौनियाँ कहे जाएँ, पर लगते हैं साक्षात् वीररस के अवतार।

मौनियों के एक दल के साथ चलते हैं गायक और वादक। घुटनों तक धोती, वक्ष पर ढीला कुर्ता एवं बंडी और सिर पर पगड़ी या साफा लोकगायक की पहचान है, जो चारणो की तरह दिवारी गाने का संकल्प किए कटिबद्ध रहते हैं। एक गायक जब स्वर छेड़ता है, तब वादक सतर्क हो जाते हैं। परम्परित गायकी में ढोल, नगड़िया और मंजीरा रहते हैं, पर इतने बड़े अंचल में वाद्यों की भिन्नता स्वाभाविक है। सागर तरफ टिमकी या नगड़िया प्रमुख है, जबकि भिंड और मुरैना की तरफ ढोलक, मृदंग, कॅसोरी, रमतूला आदि प्रयुक्त होते हैं।

दिवारी गीतों की विशेषता
दिवारी गीत मूलतः चारागाही संस्कृति के गीत हैं, इसलिए उसमें सभी कुछ चरागाही है। चाहे वह सामाजिकता हो, चाहे धार्मिकता और चाहे वह श्रृंगार हो, चाहे नीति-कथन या दर्शन। यहाँ तक कि कविता की कहन और गायन भी चारागाही टेर से मेल खाती है। इस तरह उन गीतों में यदि एक तरफ जीवन का यथार्थ चित्रित हुआ है, तो दूसरी तरफ उनकी कहन में ओज का स्वर बोलता है। यहाँ उन गीतों की कुछ विशेषताएँ रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।


A –   चारागाही  जीवन  की  वास्तविकता
बुन्देली के दिवारी गीत लोकजीवन के ऐसे जुडे हुये है जैसे परम्पराओं से बुंदेली समाज। वे चारागाही संस्कृति के सच्चे प्रतिबिम्ब हैं और गाँव के आलेखन। जीवन की वास्तविकता अपने सही रंगरूप में उन्हीं की सम्पदा है।

कठिन तो चराई जौ गाय की, कये ठाँड़े चढ़त पहार रे,
चलतन टूटी जे पनइयाँ, अरे ललकारत टूटी भाँस रे।
अरे होती तो बछिया अहिर की, चरती मेंड़ लगाय रे,
ठूमक ठूमक पग धरती पै धरती जैसें गोरी सरसों


B –   श्रंगार नीति और दर्शन की  चरागाही  परिणति
नीति और दर्शन के गीत अधिक हैं, श्रंगार के कम। नीतिपरक गीतों में सीधा कथन है, जबकि दर्शनपरक गीत पहेली जैसी व्यंजना में ढले हैं। श्रंगारपरक गीतों की उक्तियाँ भावुकता से लबालब हैं। नीति, दर्शन और श्रंगार जिस तरह उस लोकजीवन के अंग हैं, उसी तरह उनकी अभिव्यक्ति भी उसी से बँधी हैं। सभी की चारागाही परिणति जीवन के प्रति भारी लगाव सिद्ध करती है।

निबिया खाती करई लागै, बैठें सीतल छाँह रे,
हींसा बाँटत भैया बैरी लागै, रन में दाहनी बाँह रे।
कल्लू गइया या कलार की, नौ सौ पूरा खाय रे,
सात घाट को पानी पीबै, नाहर सें बुलयाय रे।
एड़ी महाउर तो छूटे ना, चोली न छूटे बन्ध रे,
चार दिना आए भये ना, तैंतो अहिरा चलो चराबै गाय रे।


C –   काव्य मे यथार्थ  और ओज  का  मिश्रण
इन गीतों की प्रमुख विशेषता है कि ये यथार्थ के बहुत करीब है । वे चाहे जिस युग के हों और उनमें चाहे जो रस बोलता हो, लेकिन यथार्थ उनकी आत्मा की है और आत्मा की आवाज़ ही उनकी शक्ति होती है । लोककवि चाहे अध्यात्म की बात करे, चाहे नीति की, चाहे श्रंगार का माधुर्य बगराए, पर उनके कहने में एक अलग  अंदाज़ होता है। इस प्रकार हर गीत में यथार्थ और ओज का दैहिक ही नहीं, आत्मिक मिलन भी होता है।

D –  चारागाही टेर का सौंदर्य
दो पंक्तियों वाला दोहेनुमा गीत मूलतः चारागाह का गीत है, जहाँ चरवाहा गायों-भैंसों के झुंड लिए अकेला घूमता है। बियावान जंगल में कई चरवाहे पशुओं की देखभाल अलग-अलग करते हैं, पर वे हिंसक पशुओं से बचने के लिए एक दूसरे को अपने-अपने अस्तित्व का बोध कराते रहते हैं।यह तभी सम्भव है, जब उनके गीत की टेर तारसप्तक स्वरों और विलम्बित लय में हो।

पंक्तियों के शुरू और बीच में ‘अरे‘ एवं ‘ओ’ तथा अन्त में ‘रे’ का प्रयोग टेर का तारत्व प्रदान करता है। इसके अलावा इस अंचल की ओजस्विनी प्रवृत्ति भी तारत्व के लिए उत्तरदायी है। असर देखा गया है चरवाहा लोग अपने दैनिक जीवन के बोल –चाल में भी तार सप्तक का प्रयोग करते हैं।

इन गीतों की संगीतात्मकता में एक निराली धुन होती है। कड़खा की चारणी गायकी और दिवारी गायकी में काफी समानता है। दोनों तारसप्तक और विलम्बित लय में गायी जाती है और दोनों में ढोल जैसा वाद्य अधिकतर गीत की अन्तिम पंक्ति के बाद ही बजता है। अन्तर इतना है कि कड़खा की वस्तु वीररसपरक होती है, जबकि दिवारी में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती है। दोनों की गायकी ओजस्विनी है। शिल्प की दृष्टि से दिवारी गीत अनुमान से अधिक अनगढ़ हैं।

उनमें अभिधा को ही ओजमयी बनाकर ऐसा ढाला गया है कि गायन और नृत्य के साथ-साथ चारागाही परिवेश के अनुरूप हो सके। पशु चराने वालों का अक्खड़पन, गाय की मनुहारें, अहीरन की चंचलता और चरागाह की प्रकृति की सहजता सब कुछ इन गीतों में  है। सहज बुनावट और सहज अभिव्यक्ति ही शिल्प के सौन्दर्य की कुँजी है।

बिना पुरुष के तिरिया रोबै, बिन चरवाहै गाय रे,
बिना बाँह का भाई रोबै, बैरी मेंड़ो दबाये जाय रे।
जल तौ जुठारे जल की मछरी, भौंरा जुठारे फूल रे,
कहा चढ़ाओं मैं देवी सारदै, बछुला जुठारे दूद रे…।


वसन्तोत्सव के गीत: सखयाऊ  फाग और राई
चन्देलों के राज्य में वसन्तोत्सव राजकीय और लोकोत्सव दोनों रूपों में मनाया जाता था। कुमारपाल प्रबन्ध में धूलिपर्वोत्सव से स्पष्ट है कि वसन्तोत्सव होली तक चलता था। वसन्तपंचमी से होली तक लगभग सवा माह यह उत्सव मनाया जाता है। आज भी इस अंचल में माघ कृष्ण चौथ  कोतिल गणेश (बड़े गणेश) सें फागगीत गायन प्रारम्भ हो जाता है और रंगपंचमी तक चलता रहता है। तात्पर्य यह है कि फागगीतों का गायन पौने दो या दो माह तक बराबर होता रहता है।

दोहे के आधार पर ‘साखी’ उस नाथपंथी, सिद्ध और योगी की देन है, जिसने साक्ष्य के लिए दोहे को साखी बना दिया। वह साखी इतनी प्रचलित हुई कि लोक ने अपने फागों, गाथाओं आदि में उसे प्रमुख स्थान दिया। दोहे की साखी को सबसे अधिक अपनाया ग्वालों, अहीरों, गड़रियों जैसी पशुपालक जातियों ने।

उन्हें चारागाही टेर के लिए साखी उपयोगी लगी। दिवारी गीत में साखी के बाद वाद्यों की ध्वनि एक पंक्ति बनाती है। फागकारों ने शब्दों की एक पंक्ति खड़ी कर दी है और उसे सखयाऊ फाग बना दिया। इस प्रकार सखयाऊ  फाग का आविर्भाव हुआ है। कहीं-कहीं उसे ‘होरी की साख’ कहा जाता है।

सखयाऊ  फागों का प्रचलन समाप्त-सा है, इसलिए गिनी चुनी फागें ही मिलती हैं। लेकिन सखयाऊ फाग से ही कई लोकगीतों का विकास हुआ है। पहले सखयाऊ  फाग का वह रूप बना, जिसमें एक साक्षी और एक दुम या लटकनिया थी। उसका यह स्वरूप भी दोहे और एक कड़ी के लोकगीत के संयोग से बना है।

बाद में दोहे की अद्र्धालियों में ‘मनमोहाना’ और ‘पिया अड़ घोलाना’ की तुकें जोड़कर डफ या डहका की फागें बनाई गईं, जिन्हें एक विशिष्ट गायन-शैली में ढाल दिया गया। ये फागें डफ लोकवाद्य के साथ गाई जाने के कारण उसी के नाम पर उनका प्रचलन हो गया।

दोहे के आधार पर ही राई गीत विकसित हुआ है। सखयाऊ फाग की दुम या लटकन को जब टेक की तरह प्रयुक्त किया गया और दोहे को अन्तरा की तरह संयोजित, तब राई का जन्म हुआ। कहीं-कहीं केवल टेक के प्रथम अद्र्धांश को दुहराकर शेषांश दूसरे चरण  में गाने का रिवाज है और उसी को राई कहा जाता है। इसी गीत के साथ बेड़िनी नृत्य करती है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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