बुन्देलखण्ड भारत का हृदय है। Bundelkhand heart of India. आजकल जिसे बुन्देलखण्ड कहते हैं, परंतु पूर्व में इसे दशार्ण, जेजाभुक्ति और जुझौति कहते थे। यहाँ पर बहुत समय तक बुंदेला ठाकुरों का राज्य रहा है। जब से बुन्देला क्षत्रियों ने राज्य स्थापित किया उस समय से यह Bundelkhand कहलाने लगा।
बुंदेलखण्ड एक परिचय
दशार्ण (बुंदेलखंड) विश्व की प्राचीनतम भाषा एवं संस्कृति (World’s oldest language and culture)। दशार्ण का अर्थ है- ‘दस’ (या अनेक) नदियों वाला क्षेत्र। ‘धसान‘, दशार्ण का ही अपभ्रंश है। आधुनिक बुंदेलखंड जिसका पूर्व में नाम था दशार्ण यानी 10 नदियों का संगम ।
1- जमुना 2- धसान 3- सिंध 4- बेतवा 5- पहूज
6- नर्मदा 7- सुनार 8- केन 9- चम्बल 10 – टोंस
चन्देलों का राज्य रहा चिरकाल जहाँ पर,
हुए वीर नप गण्ड, मदन, परमाल जहाँ पर,
बढ़ा विपुल बल-विभव, बनें गढ़ दुर्गम-दुर्जय,
मन्दिर-महल मनोज्ञ, सरोवर अनुपम-अक्षय,
वही शक्ति-सम्पत्तिमयी कमनीय भूमि है।
यह भारत का हृदय, रुचिर-रमणीय भूमि है ।।
(राजकवि प्रेम बिहारी ‘मुंशी अजमेरी’)
बुन्देलखण्ड के इस भू-भाग को जैजाकभुक्ति Jaijakbhukti, विन्ध्य जुझौति युद्धभूमि कहा जाता था। शिशुपाल चेदि के युग में साहित्य का विकास हुआ। इसके उपर भगवान कृष्ण का युग इस भूभाग में शासक के रूप में आया जिन्होने गीता महाकाव्य की रचना की। इस भूभाग में कृष्ण द्वैपायन ने पुराणो की रचना की।
वेद व्यास (ved Vyas), वाल्मीकि (Balmiki), भक्त प्रहलाद (Prahlad), आल्हा ऊदल(Alha- Udal) आदि ने इसी भूभाग में जन्म लेकर इस भूखड को गौरवान्वित किया है।बुन्देलखण्ड यह वह भूभाग है जिसे जिसे अनेक विश्व यात्रियों ने सर्व श्रेष्ठ कहकर पुकारा है। यहाँ के वीरों की वीरता से प्रभावित होकर ही अकबर ने बुन्देला वीरों को अपनी सेना में महत्वपूर्ण स्थान दिया और उससे इतिहास लिखा गया।
बुन्देलखण्ड का इतिहास History of Bundelkhand अत्यन्त प्राचीन है और प्रचीनकाल में महाभारत के गुरू द्रोणाचार्य Guru Dronacharya of Mahabharata का जन्म बुन्देलखण्ड के क्षेत्र झाँसी के पूर्व में बाघाट (वाकाट) नामक ग्राम में हुआ था। बाघाट ग्राम में एक ऊंची पहाड़ी गुफाओं से सुसज्जित है और इनमें से एक गुफा में प्राचीन चित्रकारी चित्रित की गई है जो प्राचीन चित्रकला का प्रतीक है।
इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड में तुलसी दास Tulasi Das, सूर दास की तपो भूमि, भगवान श्री राम का वनवास Lord Rama’s exile, भगवान श्री कृष्ण की नारायणी सेना, केशव की कवि भूमि, तथा त्रिवेणी कवियों की कला भूमि रहा है। भारत में जो हाथी पकड़े जाते थे, वे यहाँ के ही जंगल से पकड़े जाते थे।
प्राचीन भारतीय इतिहास एवं साहित्य (Ancient Indian History and Literature) में विन्ध्याचल पर्वत का अत्यधिक महत्व है। इतिहास में बुन्देलखण्ड के विन्ध्याचल पर्वत के अनेक उल्लेख तथा रोचक वृत्तान्त मिलते हैं।
बुन्देलखण्ड के शौर्य
आल्हा-ऊदल-सदश वीर जिसने उपजाये,
जिनके साके देश-विदेशों ने भी गाये,
वही ‘जझौती जिसे बुंदेलों ने अपनाया,
इससे नाम बुन्देलखण्ड फिर जिसने पाया,
पुरावृत्त से पूर्ण, परम प्रख्यात भूमि है।
यह इतिहास-प्रसिद्ध, शौर्य-संघात भूमि है ।।
(राजकवि प्रेम बिहारी ‘मुंशी अजमेरी’)
बुन्देलखण्ड शौर्य और पराक्रम की गाथाओं का देश रहा है और इस भू-भाग का सहयोग भारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए अमूल्य रहा है। इस वसुन्धरा पर रानी लक्ष्मीबाई तथा झलकारीबाई आदि वीरांगनाओं ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये और अपने देश की रक्षा के लिए वे बलिदान हो गई। उन्होंने संसार में वीरांगना शब्द को शुशोभित किया। इतिहास इस बात का साक्षी है।
इसी वीर भूमि ने रण बांकुरे आल्हा-ऊदल, विराटा की पद्यिनी, वीरसिंह जूदेव , महाराजा छत्रसाल , हरदौल , दुर्गावती , महारानी लक्ष्मी बाई , मर्दनसिंह आदि अनेकों वीर नक्षत्रों को जन्म दिया है जिनके रक्त से इस धरती का कण कण सना हुआ है और जिन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से शत्रुओं का मान मर्दित कर bundekhand को गौरवशाली बनाने में सहयोग दिया है।
भारत-प्राण बुन्देलखण्ड ने विदेशी शासक अंग्रेजों के विरुद्ध एक होकर आवाज बुलन्द की और यह बुन्देलखण्ड स्वातन्त्र्य युद्ध का प्रथम केन्द्र बना जहाँ महारानी लक्ष्मीबाई, बानपुर के राजा मर्दन सिंह, बाँदा के नवाब, दीवान नाहर सिंह, राजा खलक सिंह, दोवान जवाहर सिंह, दीवान शत्रुघन सिंह, बाबा पृथ्वीसिंह, पं० परमानन्द, चन्द्रशेखर आजाद, घासी राम व्यास, भगवानदास माहौर, विश्वनाथ गंगाधर, वैशम्पायन, मास्टर रुद्र नारायण सिंह सक्सेना तथा सदाशिव राव मलकापुर आदि ने अपनी अलौकिक भूमिका निभाई है।
आजादी के युद्ध में बुन्देलखण्ड ने हजारों योद्धाओं का बलिदान देकर अपना अमूल्य सहयोग प्रदान कर अपनी अलौकिक विभुतियों का बलिदान देकर राष्ट्रीय एकता के लिए सर्व प्रथम अपना सर्वस्य समर्पण कर अपने त्याग और बलिदान का परिचय दिया है।
बुन्देलखण्ड के महान साहित्यकार
तुलसी, केशव, लाल, बिहारी, श्रीपति, गिरधर,
रसनिधि, राय प्रवीन, पजन, ठाकुर, पद्माकर,
कविता-मन्दिर-कलश सुकवि इतने उपजाये,
कोन गिनायें नाम जायं किससे गुण गाये?
यह कमनीय काव्य कला की नित्य भूमि है।
सदा सरस देलखण्ड साहित्य भूमि है।।
राजकवि प्रेम बिहारी ‘मुंशी अजमेरी’
बुन्देलखण्ड का इतिहास जितना प्रेरक और रोमांचकारी है उतना विश्व में किसी अन्य क्षेत्र का नहीं। बुन्देलखण्ड शैक्षाणिक, सांस्कृतिक, कलात्मक, प्राकृतिक, धार्मिक तथा पर दृष्टियों से भी बुन्देलखण्ड बड़ा सौभाग्यशाली रहा है। पुराणिक काल से बुन्देली और खड़ी बोली के अनेक ग्रन्थों का निर्माण यहाँ पर हुआ।
युगों-युगों से संस्कृत और हिन्दी के अनेक महान कवियों और लेखकों ने अपनी साधना द्वारा इस वसुन्धरा का गौरव बढ़ाया है। बुन्देलखण्ड के संस्कार और सभ्यता उन्नति के शिखर पर रही है। प्राचीनकाल में पांचाल पर इतिहास को छोड़कर भारत के किसी अन्य प्रदेश का इतिहास जेजाकभुक्ति (बुन्देलखण्ड) के साथ होड़ नहीं लगा सकता ।
इस कमनीय वसुन्धरा पर वाल्मीकि , वेद व्यास, भवभूति, जगनिक, तुलसी, केशव, बिहारी मतिराम. पद्माकर, राय प्रवीण, ईसुरी, मुंशी अजमेरी, सुभद्रा कुमारी चौहान, राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, डा. रामकुमार वर्मा, वियोगी हरि, डा.रामविलास शर्मा, डा.वृन्दावन लाल वर्मा, सेठ गोविन्द दास, घासीराम व्यास, कवीन्द्र नाथूराम माहौर, घनश्याम दास पांडेय, नरोत्तम पांडेय, गुणसागर शर्मा “सत्यार्थी“, नर्मदा प्रसाद गुप्त,राम चरण हयारण “मित्र”, मोती लाल त्रिपाठी ‘अशांत”, डा.बलभद्र तिवारी, जनकवि नाथूराम साहू ‘कक्काजू‘, बहादुर सिंह परमार, मदनमोहन वैद्य, “लोकभूषण” पन्नालाल असर आदि साहित्य देवताओं ने साहित्य सुमन की वर्षा कर इसे अधिक सुवासित तथा गौरवान्वित बनाया।
बुन्देलखण्ड का अतीत
यहाँ ओरछा, राम अयोध्या से बस आये,
और उनाव प्रसिद्ध, जहाँ बालाजी धाये,
वह खजुराहो तथा देवगा अति विचित है,
त्यों सोनागिरि तीर्थ जैनियों का पवित्र है।
तीर्थमयी यह मुखद साधना साध्य भूमि है।
अति आस्तिक बुंदेलखण्ड आराध्य भूमि है।
चिवकट गिरि यहां, जहाँ प्रकृति-प्रभुताद्भुत,
वनवासी श्रीराम रहे सीता-लक्ष्मण युत,
हुआ जनकजा-स्नान-नीर से जो अति पावन,
जिसे लक्ष्य कर रचा गया-धाराधर धावन,
यह प्रभ-पद-रजमयी पुनीत प्रणम्य भूमि है।
राजकवि प्रेम बिहारी ‘मुंशी अजमेरी’
बुन्देलखण्ड का अतीत उज्ज्वल तथा गौरवशाली था। आज हम अतीत का स्मरण करते ही भाव विभोर हो जाते हैं और हमारी धमनियों में एक अलौकिक उत्साह भर जाता है। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अतीत अंकित है और हमें प्रगति की प्रेरणा देता है। यह वही बुन्देल वसुन्धरा है जिसने समय समय पर वीरों, कवियों चित्रकारों, कलाकारों तथा गायकों को उत्पन्न कर अपनी विशालता का परिचय दिया है।
यहाँ साहित्य, संगीत तथा कला की अनुपम धारायें प्रवाहित होती थी। यह बुन्देल भूमि की रज कण का ही प्रभाव है कि संगीत सम्राट तानसेन, बैजू, मृदंगाचार्य कुदऊ, रागिनी विशेषज्ञ आदिलखाँ, पंडित गोपाल राव, मास्टर पूरन्दरे आदि कलाकारों ने अपनी रागनियों द्वारा इसके वैभव को बढ़ाया है। विश्व विजयी गामा, इमाम बख्श, हाकी जादूगर मेजर ध्यान चन्द, यशस्वी खिलाड़ी रूप सिंह, और चित्रकार काली चरण तथा मूर्तिकार मास्टर रुद्र नारायण जैसे रस सिद्ध कलाबन्त इसी वैभवपूर्ण बुन्देलखण्ड की देन है।
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Bundeli Jhalak
नमामि नर्मदे – चिरकुंवारी नर्मदा
बुन्देलखण्ड का लोक जीवन
Bundelkhand कला केन्द्र रहा है जहाँ के मन्दिरों की मूर्तिकला विश्व को आशचर्यचकित कर देती है। आज भी दुर्ग, प्रासाद, मन्दिर के भग्नावशेष मौन साधक की तरह अपने चरमोत्कर्ष की यशोगाथा का वर्णन गुन गुनाते हैं । इसी पवित्र वसुन्धरा पर खजुराहो, देवगढ़, अजयगढ़, चन्देरी तथा ग्वालियर आदि पुरातत्व तथा स्थापत्य केन्द्रों और चित्रकूट, ओरछा, कालिंजर, सोनागिरि, सूर्य मन्दिर उन्नाव (बालाजी) आदि तीर्थो का सम्मिलन हुआ है जो समस्त विश्व के पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है।
बुन्देलखण्ड इतिहास, संस्कृति, भाषा, आदि सभी दृष्टियों से एक इकाई रहा है। यहाँ लाखों एकड़ उर्वरा भमि, श्रम साधु खेतिहर, महुआ जीवी मजदूर के लिए बेतवा, केन, धसान, चम्बल, नर्मदा, सिन्ध, पहूज आदि अनेक जल धाराओ का वरदान भी इसी भूमि को प्राप्त है। यह भारत के गौरव का विषय है कि भारत के हृदय बुन्देलखण्ड की विन्ध्य श्रंखलाओं में पन्ना को हीरा खदान, भेड़ाघाट को संगमरमर, भगर्भ में सोना, चाँदी मेगनीज, जस्ता, ताँबा, लोहा, अभ्रक, और गौरा की अपार खनिज सम्पत्ति के भंडार सुरक्षित हैं।
बुन्देलखण्ड ने वास्तव में भारत के उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। यहाँ का अतीत अत्यन्त गौरवपूर्ण है। इसी भूखण्ड में पग पग पर एक विचित्र इतिहास छिपा है और यहाँ के असंख्य दुर्गों प्रासादों एवं मन्दिरों के भग्नावशेष अपनी मूक वाणी में यहाँ के यश की गाथायें निरन्तर गा रहे हैं।
आज बुन्देलखण्ड सभी प्रदेशों में एक पिछड़ा हुआ प्रदेश है। ऐसे गौरवाशाली बुन्देलखण्ड का वर्तमान बहुत अच्छा नहीं है। यहाँ की ग्रामीण जनता में निर्धनता, अशिक्षा और अन्ध विश्वास के पैर जमे हुए हैं। यहाँ उद्योगों का अभाव है और इस प्रदेश के विकास में सरकार गतिशील नहीं है और सदैव ही उपेक्षा करती रही है।
जन जागरण चेतना और उद्योगों के विकास के लिए सरकार को बुन्देलखण्ड के लिये कुछ कदम उठाना चाहिए, तभी यह प्रदेश भी भारत की प्रगति में अपने कदम मिलाकर अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान कर सकेगा। बुन्देलखण्ड प्रदेश का निर्माण बुन्देलखण्ड की जनता के विकास की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है और यह विकसित प्रदेश भारत के विकास में भी अधिक सहायक होगा।
बुन्देलखण्ड की भूली बिसरी परम्पराओं को जागृति करने के लिए एवं विश्व पटल पर लाने के लिये वेबसाईट के माध्यम की आवश्यकता थी जिसमें बुन्देलखण्ड की समस्त लोककलाओं, संस्कृति और परम्पराओं का विवेचन हो। “बुंदेली झलक” bundeliijhalak.Com मे बुन्देलखण्ड की समस्त परम्पराओं का विवेचन है।
ऐतिहासिक भौगोलिक प्राकृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, औद्योगिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा राजनैतिक प्रवत्तियों का भी इसमें समावेश किया गया है। इस वेबसाईट में बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है और बुन्देलखण्ड के समस्त क्षेत्रों की विवेचना की गई है। “बुंदेली झलक” का मुख्य उद्देश्य बुन्देलखण्ड के महान इतिहास और साहित्य के प्रति आदर का भाव उत्पन्न कराना तथा बुन्देलखण्ड वासियों के उनके गत पराक्रम और शौर्य का साक्षात्कार कराना हैं ।
‘Bundelkhand’ बुन्देलखण्ड के विकास के लिए प्रेरित करना तथा अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना “बुंदेली झलक” ‘Bundeli Jhalak’ का उद्देश्य है ताकि वे अपने अतीत के वैभव से परिचित होकर इस वैभव की सुरक्षा कर सकें और अपने प्रदेश को प्रगति के पथ पर आगे ले जा सकें। आप के समक्ष “बुंदेली झलक” उपस्थित है जो समस्त प्रेरणात्रों की देन है। आशा है इस वेबसाईट का जनता में स्वागत होगा।
वेबसाईट “बुंदेली झलक” www.bundeliijhalak.com के निर्माण में जिन कवियों, लेखकों और साहित्यकारों ने मुझे सहयोग प्रदान कर अनुग्रहीत किया है, उनका मैं हृदय से आभारी हूँ। और हमेशा रहूंगा।
जी.एस.रंजन
संस्थापक और निदेशक
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Guluband – सोने के निकासीदार वर्गाकार पत्ता के फलों के नीचे मखमल लगा रहता है और कुंदों में डोरा बरने के बाद छोरों में फुँदना लगाये जाते हैं । यह गले में कसा हुआ-सा होता है। चंदनहार/ चन्द्रहार/ चँदेरिया Chandanhar/Chandrhar/Chanderiya – चाँदी की चन्द्रनुमा चपटी छल्ली वाली लरों का हार साँकर या जंजीर की तरह गले में पहना जाता था। चप्पो/ चम्पाकली हार Chappo/Champakalihar – चम्पाकली की तरह पीले सोने के पत्ते के उतार-चढ़ाव के दानों में कुंदा लगते हैं और कुंदों में सोने का तार या डोरा डाला जाता है । पटवा उसे बर देता है। जलजकंठुका Jalajkanthuka – जलज के अर्थ कमल और मोती-दोनों हैं। भूषण-कला के ज्ञाता से ज्ञात हुआ कि कमल-कंठुका गले का वह हार था, जिसमें कमलाकृति के सोने के गुरिये जरी में बरे रहते थे । यदि जलज का अर्थ मोती लिया जाय, तो फिर जलजकंठुका मुक्ताहार का पर्याय ही सिद्ध होता है। टकार/ टकावर/ टकयावर Takar/Takavar/Takyavar – कलदारों (चाँदी के सिक्कों) में कुंदे लगाकर बनाया गया आभूषण। पटवा उसे जरी से बरकर सजा देते हैं। कोंदर जैसे आदिवासी और काछी, ढीमर, धोबी, लोदी आदि जातियाँ उसे प्रयुक्त करती थीं। इसे झालरो भी कहा जाता है। ठुसी Thusi – एक पट्टे में कम-से कम पच्चीस और अधिक-से-अधिक पैंतीस सोने-चाँदी के फल तथा किनारी में सोने-चाँदी के गुरिया, बोरा और मोती बरे होते हैं । फलों में निकासी रहती है। ठूँस-ठूँसकर गाँसने से ही ठुसी नाम पड़ा है। इसे भी देखिए: स्त्रियों के सिर के आभूषण ढुलनियाँ Dhulaniya – सोने-चाँदी की उतार-चढ़ाव वाली अर्थात् बीच में मोटी और छोरों में पतली ढोलक की बनक की होती है। कुंदों से बरी जाती है। ढुलनिया और तबिजिया मंत्र और टोना के लिए डोरा में बर कर पहनी जाती है। तिंदाना Tithana – मखमल की पट्टी पर सोने की मोतियों की तीन लड़ें जड़ी रहती हैं और छोरों पर गुटियादार डोरा बरा रहता है। पटवा की कलाकारी होती है । तिंदाने के बीच में लगा जड़ाऊ फल 'टेकड़ा' कहा जाता है। सोने के ठप्पादार तिंदाना कहीं-कहीं 'करमा' कहलाता है। धुकधुकू Dhukdhuku – सोने के हार के बीच कमानीनुमा तारों में हीरा जड़ा रहता है और उससे जुड़ा लटकन साँस लेने पर घड़ी के लटकन की तरह हिलता है । हृदय का धड़कन के आधार पर उसका नाम पड़ा है। पाटिया Patiya – सोने केर जड़ाऊ और निकासीदार टुकड़े (वर्गाकार) मखमल की पट्टी पर जड़े रहते हैं। कुंदों से जुड़कर पटवा द्वारा बरे जाते हैं । छोरों पर डोरा और डोरा से बने गुरिया (सराबो) रहते हैं । गुलूबंद के पहले पाटिया का ही प्रचलन था। बिचौली Bichauli – सोने के जड़ाऊ या निकासीदार वर्गाकार फल, छोटे-छोटे गुरियों और मोतियों की लरें डोरा में गुबी रहती हैं और बीच में पहनी जाने के कारण बिचौली कहलाती हैं। मंगल सूत्र Mangal Sutra – आधुनिक प्रचलन में सौभाग्य का प्रतीक बन जाने से काफी प्रसिद्ध आभूषण हो गया है । काली पोत, सोने के गुरिया और निकासीदार या मीनादार फल एक डोरा या साँकर में गँसे रहते हैं और बीच में सोने का कामदार टिकड़ा लटकता रहता है । इस हारनुमा आभूषण को मांगलिक माना जाता है। मालाएँ malayen – सोने के गोल, चौखूँटे और अठपहले गुरियों को डोरा में बर कर माला बनायी जाती है । यह पुष्पमाला की तरह लम्बी होती है । मालाएँ कई तरह की होती हैं । सोने के लम्बे गुरियों की माला सर या सरमाला कहलाती है और चढ़ाये में चढ़ती है । ऊपर की तरह क्रमा: पतले होते मटर के दाने के आकार वाले सोने की गुरियों की माला मटरमाला कही जाती है । सोने के मोतियों के बीच-बीच काले मोती लगाये जाने से मोहनमाला बन जाती है । इलायची की आकृति के मोतियों का माला इलाचयी दानों की माला के नाम से प्रसिद्ध है । सोने के छोटे-छोटे गोल गुलियों की माला गटरमाला है । लड़ियों के अनुसार दुलड़ी, तिलड़ी, चौलड़ी पचलड़ी और सतलड़ी मालाएँ होती थीं। लल्लरी Lallari – सोने के गर्रादार और बीच में रबादार गोल गुरिया के बाद जरी या डोरा की वैसी ही गर्रिया की क्रमिक माला डोरा या जरी से बरी जाती है । दोनों छोरों को सोने की एक गुटिया से निकाला जाता है, जिससे छोर खींचकर उसे छोटा-बड़ा किया जा सके। अभी बीस-पच्चीस वर्ष पहले तक चढ़ाये में चढ़ती थी । सुतिया Sutiya – सोने की ठोस खंगौरियानुमा बनी होती है । बीच में निकासीदार रहती है । समृद्धि की नि शानी मानी जाती है। सेली Seli – सोने के छइयाँ-उतार (छाया की तरह धीरे-धीरे उतार वाले) गुरियों की कई लड़ियों की लम्बी माला सेली कहलाती है । उसके छोरों पर डोरा या जरी के सराबो (गुरिया) लगे रहते हैं। अब इसका चलन नहीं है । हँसली Hansali – चाँदी की ठोस और ताँबे पर सोने के पत्ता की, सामने के भाग में चौपहली होते हुए चपटी होती हैर। खंगौरिया और सुतिया की तरह। चपटी पहल पर निकासी रहती है। छोरों पर गोल होती हुई गूँजदार बनायी जाती है, ताकि उमकाकर पहनी जा सके। हमेल Hamel – सोने की मोहरों में कुंदा जड़े जाते हैं और डोरा या जरी में बरे रहते हैं। हमेल लम्बी और छोटी, दोनों तरह की बनती है। कहीं-कहीं इसे मोहर-माल या मोहरों की माला भी कहते हैं। हार Har – मोतियों के जड़ाऊ और मीनाकारी के तथा नोरत्नी अनेक प्रकार के हार होते हैं। सीतारामी हार काफी लम्बा-चौड़ा होता है और उसके बीच-बीच में सोने के टिकड़ा (जड़ाऊ या निकासीदार) तथा मोतियों की लड़ लगे रहते हैं। शावतारी हार में दस अवतारों के चित्रण में कलाकारी की अनोखी बानगी रहती है। अरस्याऊ हार में आरसी जड़ी होती हैं। […]
[…] है। इन्हीं सोलह श्रंगारों में बुन्देलखंड की Striyon ke Nak Ke Aabhushan (Bundelkhand's Women's Nose jewelry ) का एक […]
[…] बुन्देलखंड मे Striyon ke Sir Ke Aabhushan में टिकुली सबसे प्राचीन है (Head jewelry) क्योंकि भरहुत, साँची और चंदेली (कंदरीय मंदिर, खजुराहो) की मूर्तियों में उसके दर्शन होते है। टीका तोमरकालीन ग्रंथों में उल्लेखित है। तिलक का वर्णन आचार्य केशव ने किया है। बुंदेलों के युग में बुन्देली बेंदा, बुन्देली टिकुली और बुन्देली टीका लोकप्रिय रहे हैं। लोककवि ईसुरी ने बेंदी, बेंदा, बूँदा, टिकुली, दावनी की फागों रची हैं, जबकि भुजबल ने बेंदी, टीका और दावनी का उल्लेख किया है । आजकल बेंदी, बूँदा या टिकुली अधिक प्रचलित है। टिकली Tikali – सोने चाँदी की पलियादार गोलाकृति की होती है और रार से चिपकायी जाती है। काँच की टिकली भी लगायी जाती थी, पर आजकल प्लास्टिक की टिकली प्रचलित है। टीका Tika – सोने की दो से चार अंगुल लम्बी और एक से डेढ़ अंगुल चौड़ी त्रिपुण्ड तिलक के बनक की पत्ती मस्तक के बीच में शोभित रहती है। उसके दोनों ओर बने कुन्दों से डोरा बाँधा जाता है। तिलक Tilak – सोने, चाँदी की पत्ती का अथवा काँच या प्लास्टिक का लम्बे आकार में मनचाही बनक का होता है। पान की बनक अधिक लोकप्रिय रही है । पहले छोरों से डोरा या साँकरों से बाँधा जाता था, बाद में रार से चिपकाया जाने लगा है। इसे भी देखिए: स्त्रियों के नाक के आभूषण स्त्रियों के कान के आभूषण दाउनी या दावनी Dauni/Davni – सोने, चाँदी की सादा या जड़ाऊ अथवा मोती की लरें माथे की बीच में माँग के नीचे से दोनों ओर कानों के पास बालों में कुंदादार खुस्मा से खुसी रहती हैं । ये झालरदार भी होती हैं । बुन्देलखंड की फाग की दो पंक्तियाँ देखें-"सिर पै दमक दाउनी सोहै, मनमोहन मन मोहै । झालर झूम रई मोतिन की, हीरा-लाल गँसो है ।। बुन्देली फड़गायकी में दाउनी की फागें लोकप्रिय रही हैं। बैंदा-बैंदी Bainda/baindi – सोने का सादा या जड़ाऊ, लगभग गोलाकार और कई बनक का होता हैं और माँग से माथे पर बीचों-बीच लटकने के लिए तीन कुंदों से डोरा या साँकर द्वारा बँधा रहता है । जड़ाऊ बैंदा में हीरा, मानिक, मोती आदि सब कि के नग जड़े रहते हैं । मीनाकारी भी की जाती है । बुन्देलखंड के आभूषण बैंदा के चारों तरफ छोटे-छोटे कुंदों से लटकते हुए मोती एक आभामण्डल-सा बना देते हैं । बैंदी बैंदा से छोटी होती है। बूँदा Bunda- सोने, चाँदी और काँच के कई रंग के बीच माथे में रार से चिपकाये जाते हैं। आजकल प्लास्टिक के भी प्रचलित हैं। बुन्देलखंड मे बूँदा की कई फागें मिलती हैं…। "बूँदा रजऊ के माथे चढ़कें, लूटन लागो सड़कें । 'बैंदा सें जुलम करें बूँदा, बूँदा नें जबसें दओ बूँदा । इसे भी देखिए: स्त्रियों के गले के आभूषण स्त्रियों के हाथ के आभूषण सिर के आभूषण सिर के आभूषणों में चिमटी (क्लिप) प्रागैतिहासिक युग (Prehistoric Age)का बुन्देलखंड के आभूषण है। चंदेलकाल में सीसफूल और बीज का प्रचलन अधिक था। कौकरपान या केकरपान Kaukarpan/kekarpan- सोने-चाँदी की पान की तरह पतली पत्ती का बना एक गोलाकर आभूषण, जिसमें खुरमा की बनक बनी रहती है और जो माँग में पहना जाता है । उससे घूँघट उठा रहता है । अब इसका चलन नहीं है। झूमर Jhumar – मुसलमान स्रियों द्वारा पहने जाने वाला आभूषण, जिसमें सोने-चाँदी की साँकरें झूमती रहती हैं और उनमें मोती लगे होते हैं। बीज Beej- सोने का गोल कमलगट्टे जैसी बनावट का पीछे क्रमिक रुप में पतला होता हुआ रवादार बना होता है । आगे माँग में ऊपर उठा रहता है, जिससे घूँघट ऊँचा उठा होता है । उसमें तीन कुंदों से तीन साँकरें या धागे पुबे रहकर पीछे और दायें-बायें हुकदार खुसमा के खोंस दिये जाते हैं। सीसफूल, माँगफूल, चूड़ामणि Sisfool/Mangfool/ Chudamani – सोने या चाँदी का बीज की तरह का बुन्देलीआभूषण, जो रौना या मोती-दार होता है और माँग में माथे की तरफ कुछ झुका पहला जाता है । इससे भी घूँघट ऊपर उठा रहता है । यह ठोस, चपड़ाभरा, सादा, जड़ाऊ-सब तरह का होता है । यह इस बुन्देलखंड का विशेष आभूषण है । सीसफूल की साँकरें मोतियों की होती हैं, इसीलिए फागकार कह उठता है-"ऊपर माँग भरी मोतिन की, सीसफूल को धारें। इसे भी देखिए: स्त्रियों के कमर के आभूषण स्त्रियों के पैर के आभूषण रेखड़ी Rekhdi – चाँदी की गोल ठप्पानुमा कई बनावट की होती है, जो माँग के बीच में घूँघट को ऊँचा उठाये रखती है। बेनी के आभूषण- वेणी के आभूषणों का वर्णन कम मिलता है। चुटिया या चुटीला Chutiya/Chutila – चोटी में बाँधा जाने वाला चाँदी का बना विशेष बुन्देलखंड के आभूषण है जिसे पहले केसपास या केसबंध कहते थे ये अनेक तरह की बनावट के होते हैं। छैलरिजौनी Chailrijoni/ Chailrijhoni- चाँदी की पान की बनक की एक लम्बे कुन्दा में छोटी साँकर से जुड़ी रहती है। छैलरिजौनी या छैलरिझावनी यानी प्रेमी को आकर्षित करने वाली होती है। झविया Jhaviya – चाँदी की साँकरों की जाली वाला बुन्देलखंड के आभूषण है, जो जूड़ा बाँधने के लिए होता है। इसमें गुटियाँ-सी या बोरों की लड़ें-सी लटकती रहती हैं। बेनीपान Benipan – चाँदी का पान की बनक का आभूषण, जो चाँदी की साँकर से जुड़ा रहता है, जिसमें एक ओर बालों में खोंसने का काँटा होता है। बेनीफूल Benifool – चाँदी के फूल की बनक का बुन्देलखंड के आभूषण है, जो एक तरफ साँकर और दूसरी तरफ काँटे से जुड़ा होता है। […]
[…] और विकास बुन्देलखंड की Charagahi Loksanskriti काफी पुरानी है। उसके […]
[…] को लोक देवता के रूप मे माना जाता है। बुन्देलखंड अंचल में Karas Dev को पशुओं का डॉक्टर माना जाता […]
[…] के हरदौलकुँबर साहबKunvar Sahab "Bundelkhand ke lok Devta" बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके […]
[…] मूल कथा बुन्देलखंड की यह Gahnai Lok-gatha कृष्ण के गोपालक और […]
[…] परसा का स्वरूप बुन्देलखंड की चरागाही गाथाओं में ‘‘गहनई’’ का […]
[…] और विकास बुन्देलखंड की Charagahi Loksanskriti काफी पुरानी है। उसके […]
[…] में भी भिन्नता है। रासलीला या 'रहस (बुंदेलखण्ड के रासलीला का नाम) ब्रज की रासलीला से […]
[…] परम्परा का उद्भव बुन्देलखंड में कृष्ण भक्ति का विकास के […]
[…] बुंदेलखंड का खेलपरक पर्व नौरता- […]
[…] बुन्देलखंड में आल्हा इतना अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गया कि पाठक और श्रोतागण परमाल रासो का नाम भूल ही गये हैं। इस ग्रंथ की रचना संवत् 1230 वि. में चारण कवि ‘जगनिक’ ने की थी। जगनिक कालिंजर के राजा परमाल के दरबारी कवि थे। इसी कारण से राजा परमाल की प्रशस्ति में रचे गए ग्रंथ का नाम ‘परमाल रासो’ पड़ा है। इसकी लोक ध्वनि और घटनाएँ इतनी अधिक रोचक हैं कि सारे उत्तर भारत के हर जनपद में यह बड़े चाव से गाया जाता है। कथानक में कोई विशेष अंतर नहीं हैं। केवल लोक ध्वनियों और भाषा का ही अंतर है। मूल कथानक में विशेष अंतर नहीं है, किन्तु रासो का मूल जन्म स्थान बुन्देलखंड ही है। वीरछंद अपने नाम के अनुकूल ओजस्वी और प्रभावकारी होता है। जिसकी लोक ध्वनि और ढोलक के कड़क स्वरों को सुनकर श्रोताओं के अंग-अंग में जोश आने लगता है। प्रायः पावस ऋतु में इस गाथा का गायन किया जाता है। कैसी चुनौती सी दी जा रही है इस ग्रंथ की पंक्तियों में- बारह बरस लों कूकर जीबैं, उर तेरह लों जियें सियार। बरस अठारह छत्री जीबैं, आगे जीवन को धिक्कार। यदि इस ग्रंथ को बुंदेली का प्रथम गाथा काव्य कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें आल्हा- दल के पौरुष से लड़ी गईं 52 भयंकर लड़ाइयों का वर्णन है। चाहे इस ग्रंथ का ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्य भले न हो, किन्तु यह उत्तर भारत की ग्रामीण जनता के कंठ का हार बना हुआ है। आज भी यह गाँव-गाँव में प्रमुख मनोरंजन का साधन बना हुआ है। एक हजार वर्ष के बाद भी लोग इसे उसी चाव से गाते जा रहे हैं। राजाश्रित चारण भाट कवियों का इस क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। उन्हें राजकीय कोषालयों से वृत्ति प्राप्त होती थी। इस कारण से वे निश्चिंत होकर ग्रन्थों की रचना किया करते थे। ऐसे ग्रंथ लेखन की परंपरा रीतिकाल तक संचालित रही। इस ग्रंथ के शौर्य पर आधारित कुछ अंश देखने योग्य हैं। दिल्ली पति पृथ्वीराज चैहान की सेना प्रायः महोबा नरेश परमाल पर आक्रमण किया करती थी। जरा देखिये युद्ध का एक रोमांचक दृश्य- इतनी सुनिकैं राय लंगरी, नैना अगन लाल हो जाय। ऐसों देखो न काहू को, डोला लै दिल्ली को जाय।। बातन-बातन बात बढ़ गई, उर बातन में बढ़ गई रार। दोनों दल में हल्ला हो गओ, छत्रिन खैंच लईं तलवार।। पैदल के संग पैदल भिड़ गये, औ असवारन संग असवार। चली सिरोही तीन पहर लों, औ बह चली रकत की धार।। अपन परायो ना पैचानों, सबकें मारि-मारि रट लाग। सेना में फिर भगदड़ मच गई, गेरँ मच गई भागम भाग।। आठ हजार घोड़ सब जूझे, दिल्ली वारन दियो गिराय। महुबे वारन की सेना में, विजय पताका रई फहराय।। तेगा चटके बर्दवान के, कट-कट गिरें सुघरूवा ज्वान। कज्जल-दल सी सेना उमड़ें, जोधा काट करें खरयान।। धरती धमकें दल-बादर सें, धूरा आसमान गहराय। अकले उदला की धमकन में, सबरौ दल रैंन-बैंन हो जाय।। आल्हा का विवाह होने के बाद रानी सुमना की पालकी राज भवन में पहुँची तो सारे राजभवन में आनंदोत्सव होने लगा। चली पालकी रानी सुमना की, महुबे अंदर पहुँची जाय। परछिन करकैं फिर बहुअर की, मोहन महलन गईं लिवाय। मौं दिखलाई में हो पंचो, हार नौलखा दओ पहराय। मुँह दिखलाई सबरे देबैं, सुनमा मन में रही सिहाय। मोतिन चैक पुराये रानी, किले पै नौबति दई घहराय। श्री गणेश की पूजा करकैं, आल्हा खौं दओ पहराय। बाँधौ मोर बनायौ बरना, नारी मंगल रहीं हैं गाय। राजा परमालें गये कचहरी, दए खजाने मुँह खुलवाय। उन दिनों कोई भी विवाह युद्ध के बिना पूरा नहीं होता था। नैनागढ़ में आल्हा की बारात पहुँचते ही युद्ध प्रारंभ हो गया। ज्यों ही नाई संदेश लेकर पहुँचा तो राजा नैपाली युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया- ताही समया नैपाली ने, क्षत्रिन को लीनों बुलवाय। इतनी बात सुनी रूपना की, राजा रोसवंत होय जाय। बोला अब बैठे देखो, जाकैं लेव मूँढ़ कटवाय। जीवित नाई जान न पाबैं, जाकौ नेंग दे निपटाय। इतनी बात सुनी जब क्षत्रिन, खैंच लई सरसर तरवार। चली सिरोही बँगला भीतर, होन लगी फिर मारा-मार। पूरन ठाकुर एक पटना कौ, बानें मारौ गुर्ज सम्भार। बार बचा गऔ रूपना बारी, अपनी साँग दई है मार। भोजन करते समय भी युद्ध प्रारंभ हो गया – पैलों ग्रास लिया आल्हा ने, जोगा दई तलवार चलाय। बाँह पकड़ लीन्हीं दल ने, उर जोगा खौं दओ गिराय।। दूसर ग्रास लियो आल्हा ने, भोगा लई खींच तलवार। हाथ पकड़ के तब देवा ने, भोगा दओ धरनि पै डार।। तब तक विजया हाथ गहो है, लीनी अपनी खैंच तलवार। बाँह पकर कैं जा विजया की, तब जागन नें दिया पछार।। हुकम दै दओ सब क्षत्रिन कौं, क्षत्री सुनलो कान लगाय। जब ज्वोंनार जियेंमन आबैं, सबकी कटा लेउ करवाय।। नैपाली राजा की पुत्री राजकुमारी सुनमा विवाह के पूर्व देवी जी के मंदिर में जाकर पूजा करती हैं और निर्विघ्न विवाह संपन्न होने की कामना करती है- सपनौ दयो रात देवी नें, मठ पर ढोल देव पहुँचाय। जो न भेजो अमर ढोल को, सारौ राज नष्ट होय जाय।। ऐसौ सपनों सुनिकैं भैया, राजा गयों सनाकौ खाय। कहन लगो बेटी सुनमा सें, उनखौं अपनें हियें लगाय।। अमर ढोल लै जाव लाड़ली, मठ के भीतर पहुँची जाय। पूजा कीनी जग-जननी की, बेटी बोली वचन सुनाय। जग-जननी मैं सुता तुमारी, सेवा करों चरण सिर नाय। देव वरदान हमें हे माता, मोय वर मिलें बनाफर राय।। महोबे के सारे बनाफर महान वीर थे। उनके रण कौशल के समक्ष बड़े से बड़े शत्रु योद्धा तक नहीं टिक सकते थे। उनके नौकर-चाकर और कर्ता कामदार तक बहुत शक्तिशाली थे। जरा देखिये उनके रूपना बारी के शौर्य और साहस को- रंग-बिरंगौ हो गओ रूपना, दोनों हाथ करैं तलवार। कछु मारे कछु भाग खड़े भये, क्षत्री डार-डार हथियार।। चल दओ रूपना नैनागढ़ सें, अब तक सुनियों कान लगाय। देख माजरा नैपाली नें, सब क्षत्रिन सें कहा सुनाय। जिनके घर में ऐसो बारी, तिन जोधन सें कहा बताय। तनक सो छोरा बारी वारौ, गयो यहाँ पर गजब दिखाय। विवाह के पूर्व नैपाली की पुत्री आल्हा के सौन्दर्य और पौरुष का समाचार सुनकर उनके प्रेम-प्रसंग में अधीर हो जाती है और पाती लिखने के लिए तत्पर हो जाती है- ऐसी सोसत सुनमा बेटी, कर में कागद लियो उठाय। पाती लिख दई सुनमा बेटी, सुनियो पंचो ध्यान लगाय।। जैसी रुकमिनि की सुधि लीनी, सुनिये किसन चंद भगवान। तैसई लाज बचइयों मोरी, प्यारे पती यहाँ पै आन।। पाती अस लिख दीनी भइया, उर सुअना सें बोली नार। सुअना एक सहारौ तोरौ, मोरी नईया कर दे पार।। उड़ जा सुअना गढ़ महुबे कों, जाँ बे बसें बनाफर राय। मोरी पाती लै जाकैं तूँ, नर दल खौं दइयों जाय।। आल्हा- दल के मन में अपने सैनिकों के प्रति बहुत प्रेम रहता था। वे उन्हें अपने भाई से भी बढ़कर मानते थेः- नौकर-चाकर तुम नईं मोरे, भइया लागों बड़े हमार। आज लाज है हाथ तुमारे, ल बलइयाँ भ्रात तुमार।। जो तुम जोधा मनें करों तो, वीरन कौन करें जे काम। लोक हँसाई हुयै जगत में, हम सब हुइयैं फिर बदनाम। इतनी बात सुनीं दल की, गयो रोस रूपना को आय। तमक कैं बोलो रूपना बारी, भइया सुनों उदै चंदराय। राजा नैपाली ने राजाओं को संदेश देते हुए कहा – नाई भाट बुलाये भूपति, ऐसो कहन लगो समझाय। वर के लायक बेटी हो गई, भइया सुनलो कान लगाय।। कठिन लड़ाई नैंनागढ़ की, सब भूपों को देव बताय। अमर ढोल जिनके घर कहिये, दुश्मन नाम सुनत दहलाय।। जोगा-भोगा जोधा बाँके, तिनकी मार सही ना जाय।। जो नैनागढ़ को आकैं जीतें, ताको दूं सुता हरसाय। टीका लैकैं तीन लाख कौ, नैंगी चल रये खुशी मनाय। सुरति लगाय दई देहली की, जाँ पै बसैं पिथौरा राय।। पहुँचे नैंगी जब देहली में, पृथ्वी राज के शुभ दरबार। पढ़ी पत्रिका नैपाली की, साफ-साफ कर दई इंकार।। चल दये नेंगी फिर देहली से, गढ़ कनबज में पहुँचे जाय। आठ पेंड़ सैं मुजरा करकैं, जयचंद को दई पाती जाय।। पाती पढ़कैं अजय चंद नें, टीका दिया तुरत फिरवाय। नैनागढ़ के नैंगी लौटे, पहुँचे नैपाली ढिंग जाय।। आल्हा ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। नैपाली की सेना ने घमासान युद्ध किया, किन्तु वह सेना आल्हा- दल के सामने कैसे टिक सकती थी। दल ने सारी की सारी सेना को हरा दिया और अमर ढोल छीन लिया। यह समाचार पाते ही राजा नैपाली घबड़ा गया। गाथाकार ने इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है- इतमें सुनमा महलन आई, बोली नैपाली सें जाय। कहा कहूँ सुनिये दादा जी, दल लै गयौ ढोल छिनाय।। इतनी बात सुनत नैपाली, इक दम गयो सनाकौ खाय। बोलों बेटी तूने मेरा, जीवन दीना आज डुबाय।। पायो ढोल इन्द्र से मैंने, अब सुरपति सें कहूँ मैं जाय। इतनी सुन नैपाली चल दओ, पहुँचो इन्द्र पुरी में जाय।। जाय वंदना की इंदुल की, बोला इंदल बचन सुनाय। कारन कवन यहाँ आये हों, नैपाली वा कथा सुनाय।। तब नैपाली कहन लगो है, सुनियो स्वामी कान लगाय। अमर ढोल को लै गये दल, प्रभु सुनमा के हाथ छिनाय।। तब ही इंदुल कहनें लागो, उर राजा सें कहीं सुनाय। धीरज राखों अपने मन में, हाल ढोल मैं दूं मंगाय। आल्हा के विवाह के समय नैनागढ़ में घोर संग्राम हुआ। नैपाली राजा के पुत्र जोगा से दल ने कह दिया कि पहले तू अपने तीन वार कर ले और इसके बाद मेरी बारी है। तीन वार पूरे होने के बाद फिर दल ने कहा- वार तीन कर चुका सूरमा, अब ले मेरा वार बचाय। तेगा खींच लयो दल ने, फिर घुरवा के लागो जाय।। मर गओं घुरवा उत जोगा कौ, दूजा अश्व चढ़ो है आय। बंद लड़ाई दोनों दल भई, संध्या समय गयो है आय।। चर चर चारा पंछी लौटे, अपनें घोंसलु पहुँचे जाय। चमके तारे आसमान में, सज्जन सुन लो कान लगाय।। जोगा पौंचो नैनागढ़ में, सभी पिता से कहा हवाल। रात वितीत भई बातन में, भैया भयो सुबह तत्काल।। हुकम सबेरे लै जोगा फिर, रनकौ डंका दियो बजाय। नैंनागढ़ सें जोधा चल दये, पौंचे रन खेतन में जाय।। उन दिनों सैनिक अपने स्वामी के लिये जान देना अपना परम धर्म मानते थे। रण बाँकुरे दल का कथन कितना सटीक और सार्थक है। दल तब ही कहने लागे, लूं बलइयाँ भ्रात तुम्हार। नौकर-चाकर तुम नईं मोरे, भइया लागों बड़े हमार।। जो तुम जोधा मनें करें तो, वीरन कौन करें जो काम। लोक हँसाई करें जगत में, हुइयैं अपुन सबई बदनाम।। इतनी बात सुनीं दल की, गयो रोस रूपना को आय। तमक कैं बोलो ऐंपन बारी, भइया सुनों उदै चंदराय।। देर न करों करिलिया घोड़ी, भइया जल्दी देव सजाय। ढाल तेग दै देव आल्हा की, देव बैजन्ती पाग बँधाय।। जो जो चीजै रूपना माँगी, सो दल ने दईं गहाय। ऐंपन बारी लैकैं कर में, घोड़ी चढ़ो गनेस मनाय। आल्हा खण्ड में अनेक स्थलों पर युद्ध के सजीव चित्र अंकित किये हैं, जिनमें से अनेक स्वाभाविक और कुछ अस्वाभाविक से प्रतीत होने लगते हैं। आल्हा खण्ड की यह मान्यता है कि – मरबौ इक दिन होय जरूरी, सदा अमर कोउ रहता नाय। रन खेतन में जो कोउ मर गओ, सुर्ग लोक में पहुँचो जाय। दोनों दल में चली सिरोही, जीकौ हाल कहो ना जाय। खट-खट खट-खट तेगा चल रओ, बाजी छपक-छपक तलवार। सर-सर सर-सर सरही चल रई, जीके लगें निकरबैं पार।। कंता चलो बिलायत वालो, घोड़ा काटैं मय असवार। भाला चल रओ नाग-दमन कौ, जीपै छैं अंगुल की धार।। युद्ध के वीभत्स दृश्य के- पैर काट लये काउ-काउ के, कोउ के धड़ पै सिर है नांय। कोउ के बाजू कटे पड़े हैं, रन में डरो-डरो चिल्लाय। लोथ काउ की गज पै लटकी, कोउ घुरवा पै लटको जाय।। हाती कुचल रहे लासन खौं, ठोकर लग कैं गिर-गिर जाय। सुना परैं नईं कान बुचक गये, गूँगा उर बैरा हो जाय।। उन दिनों प्रायः नीति प्रधान युद्ध हुआ करते थे। संध्या होते ही दोनों ओर का युद्ध स्वतः ही बंद हो जाता था- जब दिन मुंद गओ अनी बदल गई, वक्त शाम कौ पौंचो आय। बंद लड़ाई की ज्वानों ने, सारे रहे खून से न्हाय।। लाल-लाल सब उन्ना हो गये, घुरवा रहे खून से न्याय।। फटी-पपीड़ी जब दिन निकरौ, वक्त सुबह कौ पौंचो आय। आल्हा पौंचे दरबार में, तब सब भये इकट्ठे आय।। हाथिन वारे हाथिन सज गये, औ घोरन पै घुरल सवार। हाती इक दन्ता मँगबाऔ, जी पौं चढ़ों पिथोरा राय।। चैड़ा धाँधू तुरतै सज गये, भाँत-भाँत के लै असलाह। तीजे घंटा के बाजत खन, लश्कर कूच दिशा करवाय।। खाइ-इनामें अरे बढ़-बढ़ कैं, तुमने समसर भुगते राज। आज के दिन खौं तुमें सेवतो, सो मिल जुरें समारों काज।। नौन हरामी अरे चाकर मरैं, यारो मरैं बैल गरयार। चढ़ी अनी पै जो कोउ बिचलै, की मरें गरभ की नार।। आल्हा- उदल और राजा परमाल के स्वामी भक्त सैनिकों का मंतव्य देखने योग्य है- नौन तुमारो हमनें खायो, हमनें समरस भुगते राज। आज की बेरां रन खेतन की, राखैं सदा भवानी लाज।। चाहें छिंगुरी कटबैं अंगुरी, उर कट जाय छितंरियन मांस। टारे टरें न रह खेतन सें, जोलों चलें देह में सांस।। सिंह की बैठक क्षत्री बैठे, जे सब धरें नगन तरवार। मुँह नहिं देखो जिन तिरिया को, जिनकैं मार-मार रट लाग।। पंगति-पंगति सें दल बैठो, भस्मा भूत लगो दरबार।। दुर्गा लोट रही पल्थी पर, जैसें लौटें करिया नाग।। पृथ्वीराज गरजा खेतन में, गुस्सा रहो बदन में छाय। तीर-शब्द भेदी जब मारौ, बार न जीकौ खाली जाय।। विजय सिंह दक्खिन में लड़ रओ, पूरब लड़ै वीरसिंह ज्वान। विजय भान पच्छिम में लड़ रओ, कोउयें खबर का की नाय।। जाति बनाफर की ओछी है, कोउ न पियें घड़ा कौ नीर। दया भाव काँ धरो उनन में, को जानें मन की पीर।। रासो काल में आल्हा-शैली और वीर छंद को छोड़कर इसी प्रकार की अन्य लोक गाथाओं की रचना की गई थी, जो रासो परंपरा से हटकर है। हालाँकि आदिकाल के अधिकांश रासो ग्रंथ डिंगल (राजस्थानी) में लिखे गये थे। इस काल का बुंदेली साहित्य का केवल एक ही ग्रंथ ‘परमाल रासो’ (आल्हा खण्ड ) ही महत्त्व पूर्ण था, जिसमें बुंदेली साहित्य और संस्कृति की झाँकी भलीभाँति दिखाई दे रही है। यह विशाल ग्रंथ 52 लड़ाइयों का संकलन है। सेना की साज-सज्जा, अस्त्र-शस्त्रों का प्रकार, अस्त्र-शस्त्र संचालन, समर-भूमि की स्थिति, हाथी-घोड़े और सैनिकों की लाशों का ढेर। सुन्दर राजकुमारियों को प्राप्त करने हेतु विविध प्रयत्न और विवाह के अनेक अवसरों पर घोर संग्राम। इस युग में श्रृँगार और वीर जैसे रसों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया था। हालाँकि इतिहास और साहित्य की दृष्टि से ये अधिक मूल्यवान तो नहीं हैं, किन्तु मनोरंजन की दृष्टि से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। […]
[…] बुन्देलखंड की अधिकांश लोक गाथाओं की रचना आदर्श-पात्रों की प्रशस्ति गायन के लिए हुई है। चाहे वे रासो, राछरे या पंवारे हों, सबके सब आदर्श पात्रों के प्रशस्ति गायन ही है। बहुत से साके तो ऐसे हैं, जो राछरों और पंवारों से मिलते-जुलते हैं। बुन्देलखंड के साकों की खास विशेषताएँ हैं – अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन, अप्रामाणिकता, लोक संगीतात्मकता, मौखिक परंपरा, सांस्कृतिक चेतना, आदर्श प्रधानता और राष्ट्रीय विचार धारा। अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन – किसी व्यक्ति के कार्य-कलापों का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर करने की प्रथा तो बहुत प्राचीन है। सारा का सारा पालि, प्राकृत और संस्कृत का साहित्य इस प्रवृत्ति से भरा पड़ा है। हिन्दी के रीतिकालीन काव्य की आधार भूमि तो अतिशयोक्ति ही है। कुछ विद्वान इसी प्रवृत्ति के कारण रीतिकालीन काव्य को अप्रामाणिक और असाहित्यिक मानते हैं। लोक साहित्य में अनेक स्थलों पर इस प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। लोक गाथाओं में तो इस प्रवृत्ति की अधिकता है ही। साकेकारों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर की है। उन दिनों किसी भी कायर राजा को शक्तिशाली सिद्ध करना और किसी बुद्धिहीन राजा को सर्वगुण संपन्न करना साकेकारों के बायें हाथ का खेल था। यही कारण है कि साकों का वर्णित विषय अतिशयोक्ति पूर्ण है। अमानसिंह की लोकगाथा में कहा गया है कि राजा अमानसिंह अपनी बहिन को लिवाने के लिए ‘धेंगुवा-अकौड़ी को चल देते हैं। बहिन का डोला निकालने के लिए मार्ग में पड़ने वाले घने-घने जंगलों को कटवाते हैं। मल्लाह बुलाकर गहरी नदियों में नावें डलवाते हैं। साके में कहा भी गया है – धेंगुवां अकोड़ी की डागें परतीं हैं, डोला कहाँ होकैं जायें। धेंगुवां अकोड़ी की गैरी हैं नदियां, बढ़ई बुढ़ाये मइया। डागें कटायें डोला ओई होकैं जाये, मल्ला बुलाहैं नाव डराहैं, डोला होई होकैं जायें।। हरदौल के साके में कहा गया है कि हरदौल मरने के बाद भी अपनी बहिन कुंजावती की पुत्री की शादी में विविध सामग्री सहित उपस्थित हो जाते हैं- ‘हरदौल चीकट लैकैं आये कुंजावति के द्वारे।’ मृत्यु के बाद व्यक्ति को और क्या कहा जा सकता है? इसे अतिशयोक्ति कहें या झूठोक्ति। राजा हिन्दूपति की लोकगाथा में कहा गया है कि हिन्दूपति की तलवारों के वार देखकर अंग्रेज सैनिक दंग रह जाते थे। रज्जब बेग पठान की वीरता का वर्णन भी अतिशयोक्ति पूर्ण है – लड़े शूर सामन्त वर, लोहागढ़ की आन। प्रान-दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।। सात दिना नौ जुद्ध भओ, लोहागढ़ दरम्यान। फिरे फिरंगी बचा त, अपनें अपनें प्रान। अप्रामाणिकता- हालाँकि गाथाओं की मूल आधार भूमि तो इतिहास ही है। किन्तु कल्पना प्रचुरता के कारण मूल पात्रों और मूल घटनाओं के अतिरिक्त अनेक अनैतिहासिक पात्र और मूल घटनाएँ जुड़ गईं हैं, जिनके कारण उनकी ऐतिहासिकता में संदेह होने लगा है। अमानसिंह के साके में लिखी घटनाएँ काल्पनिक सी प्रतीत होती हैं। धेंगुवा अकौड़ी में उनकी बहिन का विवाह हुआ था। वे उन्हें लिवाने के लिए गये थे। भोजन करते समय किसी कारणवश साले-बहनोई का विवाद हो गया। अमानसिंह ने क्रुद्ध होकर बहनोई की छाती में कटार भोंक दी, जिससे स्थल पर ही बहनोई की मृत्यु हो गई और उनकी बहिन उनके कारण ही विधवा हो गई, किन्तु अपनी बहिन की दीन दशा को देखकर आत्मग्लानि के कारण आत्महत्या कर ली। बुंदेलखण्ड के इतिहास में पन्ना के राजा अमानसिंह और उनके द्वारा लड़ी गई एकाध लड़ाई का वर्णन है किन्तु मुख्य घटना का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसी कारण से अधिकांश विद्वान इस गाथा को अप्रामाणिक ही मानते हैं। इतिहास में दीवान हरदौल के कार्यों का विधिवत् उल्लेख किया गया है। वे इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उनकी वीरता और स्वाभिमान प्रियता के कारण उनके बड़े भाई जुझारसिंह के कुछ सामंत और सरदार उन्हें ईर्ष्या-द्वेष की दृष्टि से देखने लगे थे। हिदायत खाँ की शिकायत के कारण ही जुझार सिंह ने हरदौल की हत्या का प्रपंच रचा था। वीरसिंह देव के तीन विवाह हुए थे। प्रथम रानी से जुझारसिंह और दूसरी रानी से हरदौल हुए थे। ये सब ऐतिहासिक घटनाएँ ही हैं। हैदर खाँ से तलवार का सामना करने और कुंजावती की पुत्री के विवाह में जाने वाली घटनाएँ तो काल्पनिक ही हैं। यही स्थिति लोहागढ़ के राजा हिन्दूपति की है। लुहारी (लोहागढ़) के जागीरदार हिन्दूपति तो थे और उनकी मुठभेड़ अंग्रेजों के साथ हुई थी। ये सब तो बुंदेलखण्ड के इतिहास में भी उल्लेख है। किन्तु वीरता अतिशयोक्ति पूर्ण और काल्पनिक ही है। कल्पना की ऊंची-ऊंची उड़ानों के कारण ऐतिहासिकता कुछ धुंधली सी पड़ जाती है। लोक-संगीतात्मकता- समस्त बुंदेली साके लोक संगीतबद्ध हैं। ये सबके सब बुंदेली लोक-ध्वनियों में आबद्ध हैं। अमानसिंह कौ साकौ प्रायः ढोलक के साथ वर्षा ऋतु में गाया जाता है। जब आकाश में काले-काले बादल घनघोर गर्जना करने लगते हैं, तब संध्या के समय साकेकार ऊंची आवाज में ढोलक के स्वर में तीव्रता लाते हुए साके का आलाप भरने लगता है- सदा तों तुरइया हाँ अरे फूलें नईं, सदा न सावन होय। रे हा….. हा हा ये टेर सुनते ही गाँव के लोग चारों ओर एकत्रित होकर आनंद लेने लगते हैं। राजा धनसिंह कौ साकौ इकतारे की ध्वनि के साथ गाया जाता है। इसकी लोक ध्वनि कहीं-कहीं द्रुत और कहीं-कहीं मंद होती है। प्रायः इसका गायन सम पर ही होता है। वसुदेवा, भाट लोग द्वार-द्वार पर इसका गायन करते हुए भिक्षा माँगते हैं। जब इस गाथा को मधुर-ध्वनि में गाया जाता है, तब अधिक रूचिकर प्रतीत होता है। इस को सुनने में लोगों को बहुत रूचि है। राजा हिन्दूपति कौ साकौ ढोलक, झाँझ और झेला के साथ गाया जाता है। इसको गाते समय प्रायः गायकों का स्वर उच्च होता है। ढोलक की कड़क के साथ लोक ध्वनि भी उच्च होती जाती है। ऐ….. हाँ……हाँ…..हाँ……हाँ….. प्रान दान दै राख लई, हाँ……हाँ…..हाँ……हाँ….. ऐ……हाँ……हाँ….. लोहागढ़ की शान। हरदौल के साके की स्थिति बड़ी विचित्र है। यह विविध लोक ध्वनियों में हर समय गाया जाता है। यदा-कदा बुंदेली बालाएँ इसे समवेत स्वर में गाया करती हैं- ‘नजरिया के सामनें तुम, हरदम लाला रइयौ’ प्रायः विवाहोत्सव के अवसर पर इन गीतों की विशेष उपयोगिता है। ये साकौ कभी गारी के रूप में, कभी फाग के रूप में और कभी कवित्त और सवैया के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ये हर प्रकार से लोक संगीतबद्ध तो है ही, गेयता और संगीतात्मकता इसका प्रमुख गुण है। मौखिक परंपरा- भारत का अधिकांश लोक साहित्य मौखिक है। जो मूल और स्वाभाविक लोक साहित्य है, वह तो अभी भी मौखिक है। उसे लिपिबद्ध करने में सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो जायेंगे। कुछ इसी तरह की स्थिति लोक गाथाओं की भी है। कुछ लोकगीत, लोकोक्तियाँ और लोक गाथाएँ तो लोगों ने संकलित कर ली हैं, किन्तु अभी तक लोग लोकगाथाओं के विषय में ज्यादा नहीं जानते। कुछ लोगों ने तो साकों का नाम सुना भी नहीं होगा। गाँवों में आज भी कुछ ऐसे वयोवृद्ध व्यक्ति विद्यमान हैं, जिन्हें अनेक साके कंठस्थ हैं। सांस्कृतिक चेतना- लोक गाथाओं में तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक चेतना सुरक्षित है। साके इस क्षेत्र में आगे हैं। अमानसिंह के साके में डोला का संकेत है। उन दिनों राजाओं और जागीरदारों की वधुएँ और बेटियाँ डोला में बैठकर ही आया-जाया करती थीं। कहार डोला के भार को कंधे पर वहन किया करते थे। गाथा में कहा गया है – धेंगुवां अकोड़ी की डाँगें परतीं, डोला कहाँ हो जाय। भोज्य सामग्री में माँडला, बरा और पकौरी का विशेष स्थान रहा है। अमानसिंह की बहिन अपने भाई के स्वागत के लिए सुस्वादु व्यंजन तैयार करती है – तीते-मीते गेंहुआं पिसाये बैंन नें, मँडला पकाये झक-झोर। कचिया उड़द के बरला पकाये, दहियँन दये हैं बुझवाय। ऐसा लगता है कि उन दिनों जाँघिया पहिनने का प्रचलन था। लाल पोशाक अच्छी मानी जाती थी। कहार लोग पचरंग पोशाक धारण किया करते थे। सारन बँधें है लाल उड़न बछेरा, घुल्ला पै टँगी है लगाम। बक्सन धरे लाला तुमरे जाँघियाँ। उतई टंगे हतयार। हरदौल के साके में चीकट का वर्णन है – हरदौल चीकट लैंकें आये, कुंजावति के द्वारे। मरने के बाद भी हरदौल प्रेत के रूप में कुंजावति के घर चीकट लेकर उपस्थित हुए। साके में चीकट की सामग्री का वर्णन तत्कालीन संस्कृति का परिचायक है। आज भी बुंदेलखण्ड में उस चीकट की प्रथा का प्रचलन है। उन दिनों तलवारों, भालों और तोपों से युद्ध होता था। हिन्दूपति की लोकगाथा में उन सारे अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन किया गया है – तोप की तड़क गरज सुन गोलन की, छूटत मुनीश बड़े साहिबन के ध्यान। भनत मुकुंद इतै काछिल तमंक लरो, काटि-काटि लीन्हें उन गोरन के प्रान। राजा महाराजा हिन्दूपति कौ प्रताप बढ़ौ, नंदहू किसोर झुकि-झारी कृपान। उन दिनों शकुन-अपशकुन का विशेष ध्यान दिया जाता था। वीर युद्ध में जाते समय छींक का विशेष विचार किया करते थे। धनसिंह की लोकगाथा में इसका स्पष्ट उल्लेख है – छींकत घोरा पलान्यो, बरजत भये असवार। जातन मारों गोर खौं, गढ़ एरच के मैंदान। उसी गाथा में अपशकुन की भी चर्चा है- डेरी बोलैं टीटही, दाहिनी बोलें सियार। सिरके सामैं तीतुर बोलें, पर भू में मरन काहे जात।। खाली घड़ा, एकाक्ष व्यक्ति, सर्प के द्वारा रास्ता काटना आदि स्थितियों को बुंदेलखण्ड में अपशकुन सूचक माना जाता है। यहाँ के अधिकांश साकों में लोक-चेतना के दर्शन होते हैं। आदर्श प्रधानता- हमारी संपूर्ण बुन्देली संस्कृति ही आदर्श प्रधान है। इस पुण्य वसुन्धरा पर अवतरित होने वाले महापुरुषों ने जीवन के ऐसे अनेक आदर्श प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें आज सारा भारत मान्यता प्रदान कर रहा है। भारत ही नहीं अन्य देशों के लोग भी उन आदर्शों पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। साकों की मूलाधार भूमि तो उच्चादर्श ही है। अमानसिंह की गाथा में कहा गया है कि पन्ना के राजा अमानसिंह सावन के महीने में अपनी बहिन को लिवाने के लिए ‘अकोड़ी’ चले जाते हैं। भोजन करते समय साले-बहनोई में विवाद हो गया। विवाद इतना अधिक विद्रूप हुआ कि अमानसिंह ने क्रोधित होकर अपने बहनोई की छाती में कटार भोंक दी, जिससे घटनास्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु का समाचार पाते ही उनकी बहिन विलाप करने लगी, अमानसिंह से बहिन का विलाप नहीं देखा गया और क्षुब्ध होकर छाती में कटार भोंककर प्राण त्याग दिये। ऐसे सहृदय राजा की यशगाथा आज भी जन-जन की ज़बान पर है -‘काँ गये राजा अमान, काँ गये राजा अमान तुम खौं जे रो रई चिरइयाँ।’ लाला हरदौल का बलिदान तो सारे बुंदेलखण्ड का गौरव है। अपने उज्ज्वल चरित्र का परिचय देने के लिए जान-बूझकर भाभी के रोके जाने पर भी विष मिश्रित भोजन करके प्राण -त्याग देते हैं। अपनी भाभी को रोता हुआ देखकर कह उठते हैं – भौजी कैसी सिर्रन हो गई, भइया की कई करनें। साँसी आ जा नायं मांय की बातन में नई परनें। विष कौ कौर बिना कयें खा लओ बात बड़े की मानीं। जी के कारण भारत भरमें हो गई अमर कहानी। उनके उच्चादर्श के कारण ही उन्हें सारे बुंदेलखण्ड में देवतुल्य पूजा जाता है। आज भी बुंदेली बालाएँ सम्मान सहित गाया करती हैं- नजरिया के सामनें तुम हरदम लाला रइयौ। प्रवीण राय की बुद्धिमत्ता और उच्चादर्श से कौन परिचित नहीं है। ऐसे महापुरुषों के चरित्र-चित्रण करने के लिए साकों की रचना हुई है। राष्ट्रीय विचार धारा – बुंदेलखण्ड में प्रचलित अधिकांश साके इस विचारधारा से ओतप्रोत है। उस समय सारे देश की राजनैतिक स्थिति ठीक नहीं थी। देश की अख डता कुछ-कुछ खंडित सी होने लगी थी। देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था। राजा पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं देख रहे थे। इस फूट का लाभ विदेशी जाति को प्राप्त हुआ। अनेक वर्ष तक भारत में मुगलों का शासन रहा, जिससे कुछ देशभक्त राजा हमेशा लड़ते रहे। महाराणा प्रताप, शिवाजी और छत्रसाल से तो सारा देश परिचित ही है। राजा छत्रसाल के साके विविध लोक ध्वनियों में गाये जाते हैं। चाहे आप हिन्दूपति, चाहे धनसिंह और चाहे मधुकर शाह का साकों देखें, उनमें राष्ट्रीयता के दर्शन अवश्य ही होते हैं। राजा हिन्दूपति ने अंग्रेजों के साथ घोर संग्राम किया था। लड़ते-लड़ते मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर कर दिये। साके में कहा गया है- पैलाँ मारो गोर खों, गढ़ एरच के मैंदान। धोकौं हो गओ पाल में, सो मारे गये कुँवर धनसिंह। महाराज मधुकरशाह ‘टिकैत’ की राष्ट्रीय भावना से कौन परिचित नहीं है? राजा मर्दनसिंह और राजा बखत वलीशाह, जिन्होंने मातृभूमि के श्रीचरणों प्राण प्रसून अर्पित कर दिये थे। चाहे मुगलकाल रहा हो या चाहे ब्रिटिश काल, बुन्देलखंड के अमर सपूतों ने अपने शौर्य का परिचय दिया है। […]
[…] बुन्देलखण्ड की सुरहिन गाथा Bundelkhand Ki Surhin Gatha […]
[…] बुन्देलखंड मे Striyon ke kan Ke Aabhushan कर्णवलय, बारी, नगफनियाँ खुटिला, मुरकी, ताटंक, खुभी, झलमली आदि का उल्लेख है ।कनफूल, लोलक, ऐरन, बालियाँ, झुमकी, खुटी, ढारें, साँकर आदि मिलते हैं। ऐरन- सोने की गोल जड़ाऊ यी निकासीदार तरकी में कुंदा से एक या तीन पत्ती जुड़ी रहती हैं। पत्तीयाँ जड़ाऊ या कामदार बनायी जाती हैं । बीच की पत्ती में लम्बा-सा लटकन हिलता रहता है। ऐरन के ऊपर की कान को घेरने वाली साँकर कनचढ़ी कही जाती है। कनफूल- कुकुरमुत्ता जैसी आकृति के सोने के कर्णफूल सादा और झुमकीदार दो तरह के होते हैं। उन पर अधिकतर रबा की समानान्तर पंक्तियाँ रहती हैं। कभी-कभी छीताफली या दूसरी बनक (डिज़ाइन) भी बनाते हैं। डाँड़ी की सीध में ऊपर की तरफ नग जड़ा रहता है । जड़ाऊ कनफूल कम पहने जाते हैं। वजनी होने के कारण कनफूल को साधने के लिए साँकर उरमा, झेला और मकोरा की साँकर कहलाती है। वह या तो डाँड़ी में लगे कुंदे से जुड़ी कान को घेरती है अथवा ऊपर की तरफ सिर में खुसी रहती है या दूसरे कान की साँकर से जुड़ी होती है। कनौती- सोने, चाँदी, पोत और मोतियों की साँकर, जो कान को घेरती है, कनौती कहलाती है। कुण्डल- सोने के बाला से बड़े सादा और जड़ाऊ होते हैं। उनमें मोती लटकते रहते हैं। वे कई बनक के होते हैं। खुटी, खुटियाँ, खुटिला- सोने, चाँदी गिलट और सब धातुओं की पान-चिड़ी, फूल, पत्ती, ईंट आदि बनक की या हीरा, मोती, नीलम की जड़ाऊ बनती हैं। खुभी- भाले के फल के आकार की खुटिया खुभी कहलाती है। इसे भी देखिए: स्त्रियों के नाक के आभूषण स्त्रियों के गले के आभूषण झुमका, झुमकी- सोने के निकासीदार या जड़ाऊ फूल में लगे कुंदा से लटकती छत्रनुमा गोल, चौखूँटी और अठपहली झुमकी के निचले किनारे पर बोरा या मोती लटकते रहते हैं। आकार में कुछ बड़े झुमका होते हैं। झुमकी जालीदार, रबादार, फूल-पत्ती आदि कई बनक की बनती है। झुलमुली- झाला या पीपलपत्ता के आभूषण का आंचलिक नाम झुलझुली बताया गया है। ढारें- सोने या चाँदी की कनफूल की तरह गोल निकासीदार या जड़ाऊ होती हैं और निचले किनारे में लगे कुंदों से अंग्रेजी अक्षर यू की तरह साँकरें लटकती रहती हैं, जो क्रमा: भीतर कीर तरफ छोटे यू में बदलती जाती हैं। ये साँकरें कपोलों पर लुरकती सुंदर लगती हैं। तरकी- सोने या चाँदी की फूल की तरह निकासीदार या जड़ाऊ कान की कुचिया को स शुशोभित करने वाली तरकी कहलाती है। तरकुला- सोने के कनफूलनुमा, पर कनफूल से चौड़े रबादार और कलसादार आभूषण,जिसमें रौना (बोरा या मोती) लगे रहते हैं और उनसे जुड़ी झुमकी आभा का अलग रंग बिखेरती है, तरकुला कहलाता है। उससे छोटी-तरकुली कही जाती है। तरौना- सोने के कनफूल से जुड़ी झुमकी या झुमकीनुमा लटकन को तरौना या तरिवन अथवा कहीं-कहीं तरकी कहते हैं और इसी को संस्कृत में ताटंक या तालपर्ण कहा जाता है। फुल्ली या बैकुण्ठी- सोने की गोलाकार छोटी बारी, जिसमें छोटे-छोटे मोती पुबे रहते हैं और जो कान के अगले भाग में पहनी जाती है। वंदनी-माँग में काँटा खोंसकर कर्णफूलों को जोड़ने वाली साँकरें, जो दोहरी और यथोचित लम्बी होती हैं। बारी- सोने, चाँदी, पीतल के तार की गोलाकार कई बनक की होती हैं । बारी कई प्रकार की बनती हैं । बारी में त्रिभुज जैसी आकृति जोड़ने पर तीतरी, तीन गुरिया चपटे तार में पुबे होने पर तिगड़ी, छोटी बारी में गुरिया, मोती पुबे होने से दुरबच्ची, बोरनदार बारियों को गुरखुर्रूँ, कान के ऊपरी भाग में पहनी जाने वाली पत्तादार बारी को बारीपत्ता कहा जाता हैं । बाला- मोटे तार के गोलाकार लौंड़ी से लटकते हुए । पहले लड़के और पुरुष, मोती, मूँगा पुबे हुए पहनते थे, अब स्रियाँ उन्हें सादा रुप में पहनती हैं । बिचली- सोने-चाँदी की कान के गड्ढे में पहनी जाने वाली बारी के बनक की होती है । बिजली- सोने-चाँदी की नगदार या जड़ाऊ बारी जो कान के ऊपरी भाग में पहनी जाती है और जिसके हिलने से बिजली जैसी चमक उत्पन्न होती है । बुंदे- मुसलमान स्रियों द्वारा पहने जानेवाले ऐरन की बनक के होते हैं । मुरकी और मुरासा- सोने-चाँदी के मोटे तार की गोलाकार कान में लौंड़ी से थोड़ी-सी ढीली पहनी जाती है । जड़ाऊ और मोतीदार भी होती है । बड़ी मुरकी जड़ाऊ और मोती पुबे मुरासा कही जाती है, जो कपोलों के स्र्पा करती है । लाला- सोने के टाप्सों में दो मोतीदार लड़ें लटकती हैं, उन्हें लाला कहते हैं और एक लड़ के लटकन वाले झाला कहे जाते हैं । लोलक- सोने-चाँदी के झुमकों की तरह सादा और जड़ाऊ कनफूलों के साथ पहने जाते हैं और अकेले भी । सुंदर बनक के कारण लोलक कहे जाते हैं […]
[…] बुन्देलखंड के संस्कारपरक लोकगीतों में लोकाचारों, रीति-रिवाजों और संस्कृति का प्रतिबिम्बन हुआ है। इसलिए लोकसंस्कृति और संस्कारपरक लोककाव्य है। bundeli Lokgeeto ki Visheshta यह है कि इन लोकगीतों में समस्यामूलक सामाजिक यथार्थ के भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। कन्याओं के विवाह की समस्या एक शाश्वत समस्या रही है, लेकिन इस युग में अपहरण की समस्या महत्त्वर्पूण सामाजिक समस्या है। कन्याओं का अपहरण और तलवारों की छाया में विवाह के कई लोकसाक्ष्य मिलते हैं। इतना ही नहीं, विवाहित नारियों का अपहरण भी होता था। जोगी के वेश में अपहरण के उदाहरण से धार्मिक पाखंड का आभास होता है। भौजी और ननद के झगड़े की समस्या पारिवारिक है, लेकिन नारी के मनोविज्ञान को चित्रांकित करने में समर्थ है। सौत की समस्या सामन्तीय विलासिता की देन है। नीतिपरक और आदर्शपरक गीतों में पारिवारिक और सामाजिक एकता तथा पारस्परिक प्रेम का उद्देश्य प्रधान रहा है, ताकि बाहरी आक्रमणों से संस्कृति की रक्षा की जा सके। संस्कारपरक गीतों में नारी की अभिलाषाओं, कल्पनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं की सहज और निश्छल अभिव्यक्ति मिलती है। उसके चरित्रा में भावुकता का पुट बहुत अधिक है, दाम्पत्य सुख की चाह ही प्रधान है और संघर्ष का तो अभाव ही है। इसी कारण संस्कारपरक गीत भावप्रधान हैं, विचारपरक नहीं। इन गीतों में भौजी और ननद के व्यंग्य-विनोदों तथा भौजी-देवर के हास्य-विनोदों के द्वारा एक ऐसे व्यंग्यकाव्य की सृष्टि हुई है, जो पारिवारिक मर्यादा और स्वास्थ्य के लिए अनुकूल सिद्ध हुआ है। भौजी की चतुरता ननद और देवर की माँग के तेवर शान्त कर देती है और विनोद की वातावरण उत्पन्न कर परिवार में आनन्द बिखेरती रहती है। वर्णप्रधान गीतों में या तो विवाह पूर्व दूल्हा-दुलहिन के सौन्दर्य, सजाव-श्रंगार और सपनों का चित्राण हुआ है या लोकाचार का। पहले गीतों से दूल्हा-दुलहिन के पारिवारिक महत्त्व का स्पष्ट संकेत है और दूसरे गीतों से लोकाचार का सांस्कृतिक महत्त्व सिद्ध होता है। ये गीत लोकाचार की सीख देते हैं। लोकोत्सवी गीत चन्देलयुग में लोकोत्सवों की बाढ़-सी आ गई थी, इसलिए चन्देलों की राजधानी महोबा का नाम महोत्सवनगर था। चन्देल नरेश मदनवर्मन के राज्यकाल में वसंतोत्सव का वर्णन जिन मंडन के ‘‘कुमारपाल प्रबन्ध’’ में मिलता है। ‘‘आल्हा’’ लोकगाथात्मक महाकाव्य में कजरियों के कृषिपरक उत्सव का वर्णन किया गया है। चन्देलनरेश परमर्दिदेव के अमात्य और नाटककार वत्सराज के ‘कर्पूरचरित’’ नामक भाण और ‘‘हास्यचूड़ामणि’’ नामक प्रहसन के आरम्भ में नीलकंठ यात्रा महोत्सव का उल्लेख है। ‘‘विश्वनाथ मन्दिर’’ नामक खजुराहो के मन्दिर के गर्भगृह की परिक्रमा में पृष्ठभाग के फागोत्सव के दृश्यों से होली महोत्सव के लोकप्रिय होने का प्रमाण मिलता है। राजशेखर कृत ‘‘काव्यमीमांसा’’ में महानवमी के दिन अस्त्र-शस्त्र का पूजन एवं हाथी, घोड़े और सैनिकों की सज्जा तथा दीपावली में दीपमालाएँ रखने का स्पष्ट संकेत है। चन्देल राजा शिवभक्त थे, अतएव यहाँ ‘‘शिवरात्रि’’ महोत्सव लोकप्रचलन में था। महोबा में देवी चंडिका के मन्दिरों में नवरात्रि के उत्सवी प्रभाव के साक्षी स्वयं मन्दिर ही हैं। नौरता एक सामूहिक खेल है, जो नवरात्रि में उत्सव का रूप ग्रहण कर लेता था। लोकोत्सवों की इस पृष्ठभूमि में अनेक लोकगीत रचे और गाए गए है। जवारा उत्सव और गीत जवारा पहले एक लौकिक उत्सव था, जो यव या जौ अर्थात् अन्न के सम्मान में मनाया जाता था। वर्ष में दो बार चैत और क्वाँर महीने के शुक्ल पक्ष में अमावस के बाद परमा को जौ बोये जाते हैं, फिर नौ दिन निरन्तर सींचे-पोसे जाते हैं और नवें दिन जुलूस के सामूहिक रूप में किसी नदी या जलाशय में सिराए जाते हैं। पहले किसान की अन्तर्दृष्टि इतनी तीव्र थी कि वह जवारों को देखकर फसल का सगुन विचार लेता था और उसका अनुमान एक वैज्ञानिक जैसा सटीक निकलता था। लेकिन बाद में यह उत्सव देवी-पूजा से जुड़कर भक्तिपरक एवं धार्मिक बन गया। काफी खोज करने पर मालूम हुआ कि फसल अच्छी न होने पर किसान ने फसल उपजानेवाली भूदेवी की पूजा की और धीरे-धीरे वह देवी-पूजा का लोकोत्सव हो गया। कृषक वर्ग जवारों को देवी के चरणों में अर्पित करता है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए देवी गीत गाता है, जिन्हें भगतें या देवी के भजन कहते हैं। चन्देल-युग में शिव और शक्ति को ही विशेष महत्त्व प्राप्त था। इसलिए देवीगीतों की समृद्धि इस युग की विशेषता है। जवारों में स्त्रिायाँ सिर पर जवारे रखे हुए सामूहिक रूप में गाती हैं और हर झुंड अलग-अलग गीत गाता है, जबकि पुरुष ढोलक और झाँझ वाद्यों के साथ गाते हैं। कहीं-कहीं मंजीरा, तारें, मृदंग आदि बजाते हैं। इन गीतों में देवी की स्तुति, भक्ति और उनके वीरत्वव्यंजक चमत्कारों का वर्णन होता है। इन गीतों को अँचरी या अचरी, जस और भगत कहते हैं। अँचरी में देवी के प्रति अर्चना, जस में देवी के यश और भगत में देवी के प्रति भक्ति का भाव है। देवी का देवल प्रकृति के सौन्दर्य से शोभित है। चम्पा, केवड़ा, बेला, चमेली से सुवासित और अनार, नीबू, नारंगी से सुफलित देवी के द्वार पर वरदान चाहनेवालों की भीड़ लग जाती है। मइया के दुआरे इक अँधरा पुकारे, देउ नयन घर जायँ हो माँ। मइया के दुआरे इक बाँझ पुकारे, देउ पूत घर जायँ हो माँ।… इन देवीगीतों की विशेषता है देवी के संघर्ष और शौर्य का र्वणन है । इस संकट-काल में वीरतापूरक चेतना के जागरण की अनिवार्यता अनुभव की गई थी, इसलिए देवी के दैत्य या असुर के वध को प्रधानता मिली। इस दृष्टि से इन मुक्तकों में तीन रूप प्रमुख रहे हैं1. प्रकृतिपरक, 2.भक्तिपरक, 3. संघर्षपरक। प्रकृतिपरक रूप मइया के मढ़ में चम्पा घनेरो बास भई फुलवन की। मइया के भुअन में गंगा बहत है नाॅव डरी चंदन कीभक्तिपरक रूप कैसें कै दरसन पावँरी, मइया तोरी सँकरी दुअरियाँ ? सँकरी दुअरियाँ मइया, चंदन जड़ी जे किंवरियाँ। कैसें.। मइया के दुआरे इक भूँको पुकारै, देउ भोजन घर जायँ हो माँ।… संघर्षपरक रूप पाँच पैंड़ आँगू लई मइया, आड़े हने तिरसूल हो माँ…। आँग भीड़ माई पुतरीं बनाई, चैंसठ जोगिन उतरायँ हो माँ…। जै जै बूँद गिरें लहू की, लहू जिमी ना जाय हो माँ…। पैलो खरग जब घालो जालपा, दानो गिरो भर्राय हो माँ…। कजरिया उत्सव और गीत कजरियों के समय युद्ध की घटना में राजकुमारी चन्द्रावलि के डोला की रक्षा करने का श्रेय आल्हा- उदल जैसे भाइयों को है। इस कारण कजरिया जैसे कृषिपर्व का सम्बन्ध भाई-बहिन के प्रेम से जुड़ गया है। इसीलिए इस जनपद में इस उत्सव के साथी लोकगीत जहाँ राछरे हैं, वहाँ ‘‘सावन’’ नामक लोकगीत भी हैं। सावन गीतों में, विशेषतया कजरिया में गाए जानेवाले गीतों में भाई-बहिन का प्रेम, बहिन का मायके के प्रति लगाव, ले जाने के लिए आते भाई की प्रतीक्षा, ससुराल की दूरी का दुख, भाई के न आने पर दुख की घनी बदली की वर्षा, आदि विषयों का सन्निवेश रहता है। प्रेमपरक होने के कारण ये गीत भावात्मक अधिक हैं। सावन आने पर बहिन भाई की प्रतीक्षा करती है…. साउन सेंदुरा मँग भरे बिरना, चुनरी रंगाई बड़े भोर, बीरन मोये भाई को देस दिखइयो। किन्नै दीनै मनभर सुनवा किन्नै लहर पटोर ? भाई ने दीनो मनभर सुनवा बाबुल ने लहर पटोर। बिरन ने दीनो चढ़त कौ घुड़ला, भौजी सेंदुर भरी माँग।… इस प्रतीक्षा से अधिक तत्परता नीचे की पंक्ति में है ऊंचे अटा चढ़ हेरै बहिना, अजहूँ न आये राजा बीर, माई मोरी आसों की कजरिया मायके की। इन पंक्तियों में बहिन के मन में संकल्प की दृढ़ता है, इसीलिए भाई द्वारा डाँग (जंगल), नदी, भूख, प्यास, नींद आदि बाधाएँ बताई जाने पर वह उनका समाधान क्रमशः बढ़ई, केवट, मिठया, ढीमर, सेज आदि द्वारा कर देती है। कठिनाई तो तब होती है, जब एक जोगी अपने को भाई कहकर युवती का अपहरण कर ले जाता है। युवती को तब मालूम होता है, जब वह कहता है कि ‘‘उससे भाई मत कहो, वह तो तुम्हारा स्वामी है’’। यह जानकर युवती कटारी से आत्महत्या कर लेती है। गीत की पंक्तियों में बलिदान की भावना स्पष्ट है… मोरे बाबुल को आय बगीचा, ओई तरें डोली उतार। जोगी बीरन जिन कहौ धनियाँ, जोगी है स्वामी तिहार। इतनौ सुनो जब प्यारी धनियाँ, मार कटारी मर जायँ …दीपावली उत्सव और गीत बुन्देलखण्ड की दिवारी उस राष्ट्रीय महापर्व का अंग है, जिसे पूरा देश उल्लास और उत्साह से मनाता है, लेकिन इस जनपद के दिवारी गीत उन ग्वालों के गीत हैं, जो पशुधन के स्वामी होने के नाते कृषि से जुड़ी एक महत्त्वर्पूण संस्कृति के प्रतिनिधि रहे हैं। वे पशुधन के पोषक और उत्पादक हैं और रक्षक भी। रक्षा में संघर्षपरकता और शौर्य आवश्यक है, इसीलिए दिवारी में पूजित सुराता, सुरातू या सुरेता शक्ति या शौर्य के प्रतीक हैं। शब्दकोश में ‘‘सुरेता’’ का अर्थ ‘‘अति पराक्रमी’’ एवं ‘‘वीर्यवान’’ दिया गया है। पात बिहूने रूखड़ा, बिना सार ससुरार रे। बहिन बिहूनी बीरबिन, गली बिसूरत जाय हो। 1 पीली पिछोरी पाट की, काँख दबी तरवार रे। दैबे उरानो जा रये, राजन के दरबार रे। 2 आवत देखे कान्ह जू, सभा उठी भर्राय रे। चंदन चैकी बैठका, सरकाय लोंजिया पान रे। 3 फेर लुहांगी ठाँड़े भये, बाबा नन्द के लाल रे। एक मल्ल की चुपरी का, हुकरादे दो उर चार रे। 4 लंका के मैदान में, अंगद रोपे जाँग रे। जाँग हलाई न हलै, धरती हल हल जाँय रे। 5 पाँचों गीतों में एक अन्तरवर्ती ओजस्विनी धारा प्रवाहित है, जो किसी भी मन के संकल्प की वही दृढ़ता देती है । पहले गीत में बीर बिना बहिन के सोच का उदाहरण है, जबकि दूसरे गीत में निर्भीकता के प्रभाव को दर्शाया गया है। कृष्ण के आने पर सभासदों में भय-सा छा जाता है। चैथे गीत में कृष्ण लोहांगी लेकर खड़े होते हैं, तो मल्लों की वीरता छूमंतर हो जाती है। अन्तिम पाँचवें गीत में अंगद के पाँव रोपने का वर्णन है, जो उत्साह की दृढ़ता का प्रतीक है। महाशिवरात्रि उत्सव और भोला गीत चन्देल युग में शिव महादेव के रूप में राजाओं और उनकी जनता के आराध्य थे, इसीलिए खजुराहो में महाशिवरात्रि को मेला होता था। राज्य की ओर से पूजा की व्यवस्था की जाती थी और नाटकों के अभिनय से मनोरंजन भी शिवभक्ति में समिधा का एक अंग था। सुदूर ग्रामों से गाँव के झुंड-के-झुंड शिव सम्बन्धी गीत गाते हुए आते थे और शिवपूजा में सम्मिलित होते थे। शिवभक्ति से जुड़े होने के कारण वे भोला-गीत के नाम से प्रसिद्ध हुए। 1.सपरबे खों कासी तो बनाई रे, कासी बनाई पुजबे खों बनाये भोलानाथ रे…। 2.महादेव बाबा गजरा खों बिरजे, गजरा खों बिरजे बे ठाँड़े मलिनिया के दोर रे, महादेव बाबा हो…। 3.सपर लेव कासी की झिरियाँ रे, कासी की झिरियाँ कट जै हैं जनम भर के पाप रे, सपर लेव हो…। 4.तपस्या अरे गौरा नें करी रे, गौरा नें करी, संकर जू खों लये हैं मनाय रे, तपस्या अरे हो…। 5.नर्मदा जू की लहरन में रे, लहरन में रे, गौरा रानी अन्हा रईं लाये केस रे, नरबदा जू की हो…। यहां नर्मदा को गंगा की तरह मानकर उसका जल शंकर जी को चढ़ाते हैं। शिवरात्रि के दिन नर्मदा में स्थान और उसका जल भरकर काँवरिया शिव पर चढ़ाने के लिए यात्रा करते हैं। काँवरि धरती पर रखने से अशुद्ध हो जाती है, इसलिए काँवरिया अपने साथ जोड़िया रख लेते हैं। थक जाने पर काँवरि बदल लेते हैं और गीतों के द्वारा अपनी थकान का परिहार करते हैं। नर्मदा के कछारों और उत्तर में भिंड-मुरैना (गंगा के पास) आदि में ये गीत दो पंक्तिवाली साखियों के रूप में प्रचलित रहे हैं। नरबदा उलटी तौ बहै, गंगा जमुना बहैं सूदी धार रे…। नरबदा मइया दूदन बहै, गंगा बहैं रस धार हो.. देहिया जा दुरलभ भई रे, स्वामी मोरे अँगना भये हैं बिदेस। मतारी बाप बैरी भये रे, स्वामी मोरे लै चलौ अपने देस… लगन तौ तोई सें लागी हो… पीसत छोड़े पीसने रे, मोरे स्वामी चुरत चनन की दार रे…। बारे छोड़े पालने रे, मोरे स्वामी, सबई कुटुम-परवार रे… निकर चली तोरे कारनै हो… गंगा तोरे नीर खों रे, तलफत रये दिन-रैन हो…। मेहर भई भोलेनाथ की, जाय करे अस्नान हो… लगन तौ तोई सें लागी हो… उक्त गीतों में माया रूपी जगत त्याग कर शिव की भक्ति का संकल्प है, लेकिन यह भोलेनाथ की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। ऐसा प्रतीत है कि चन्देलों के पराभव से उत्पन्न निराशा के कारण लोक संहार के देवता का आश्रय लेने के लिए आकुल था। मदनोत्सव के गीत चन्देलों का मदनोत्सव ही वसंतोत्सव के रूप में प्रसिद्ध हुआ और लोक में लोकरंजक गीतों का गायन प्रचलित हो सका। बुन्देली में उन्हें फागगीत कहा गया। अभी दोहे के आधार पर रचित सखया फाग एवं राई के सम्बन्ध में लिखा जा चुका है.. इक गोरी इक साँवरी, दोउ हाटै जायँ। कौना बिसायै काजरा, कौना बिसाहै पान ? गोरी बिसायै काजरा, सँवरी बिसाहै पान। किनके ढुर गये काजरा, किनके रचे गये पान ? गोरी के ढुर गये काजरा, सँवरी के रच गये पान।… उक्त पंक्तियाँ दोहे की ही अद्र्धालियाँ हैं, लेकिन उनकी अर्द्धपंक्तियों में ‘‘मनमोहना’’ और ‘पिया अड़ घोलाना’’ जोड़ने से एक विशिष्ट गायन-शैली बन गई है। उसका रूप निम्न प्रकार प्रचलित था.. इक गोरी इक साँवरी, मनमोहना। दो हाटै जायँ, पिया अड़ घोलाना इस रूप के साथ कभी-कभी पूरी पंक्ति में ‘पिया अड़ घोलाना’ जोड़कर 35 मात्रा की एक पंक्ति कर देते हैं, जबकि टेक 22 मात्राओं की ही रहती है। तुकान्त होने से गायन में माधुर्य आ जाता है, लेकिन निरर्थक जुड़ाव खटकता है। इसीलिए यह फागरूप अब प्रचलन में नहीं है। इसी तरह आभीर या अहीर छन्द के प्रयोग से झूलना की फागें प्रचलित हुईं। लय के झूलने के कारण उनका यह नामकरण प्रचलित हुआ। उनके प्रथम चरण में अहीर छन्द के पहले दो मात्राएँ जोड़ दी गई हैं, इस प्रकार 11 त्र 13 मात्राएँ प्रयुक्त हुई हैं। दोहे में भी 13$11 त्र 24 मात्राएँ होती हैं, और उसके समचरण में 13 मात्राएँ ही रहती हैं। अन्तर यह है कि अहीर छन्द के चरणांत मे 11 (लघु गुरू लघु) होते हैं, जबकि दोहे के समचरण के अन्त में गुरू का प्रयोग होता है। गुरू के प्रयोग से लय का झूला विराम पा लेता है और लघु के कारण झूला की गति बनी रहती है। फाग के दूसरे चरण में 16, 18, 19, 21 मात्राएँ तक मिलती हैं। झूला की गति जहाँ तक चली जाए, वहीं तक भिन्न-भिन्न मात्राओं का चरण चलता है। गाँव में इस फागरूप को डिड़खुरया भी कहते हैं, जिसका अर्थ है डेढ़ खुर या पाद या चरणवाली। लखतन नच जाबैं मोर, अटा पै कारे बादर मँडराये। ब्याहन गये महादेव, हिमंचल कर जोरैं बिनती करबैं। रिषि बोलैं सिव सें जाय, अनोखे तप सें तप रईं पारबती। […]
[…] के गुण-गान के रूप में गाये जाते हैं। बुंदेलखण्ड में यह शब्द उपद्रव या उत्पात के अर्थ […]
[…] Bundelkhand के Adikalin Bundeli Lokkavya के तृतीय चरण की कालपरिधि 14वीं शती से 15वीं शती का पूर्वार्द्ध तक निर्धारित की गई है। इस काल मे चन्देलनरेश भोजवर्मन का राज्य-काल रहा । इन सौ-डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों की हृास हुआ है। […]
[…] शासनकाल चन्देली इतिहास का युग था। Bundelkhand मे Chandelkal ka lokkavya और लोक साहित्य एवं अन्य […]
[…] बुन्देलखण्ड क्षेत्र का गाँव मवई , ज़िला-टीकमगढ़, […]
धन्यवाद
[…] बुंदेलखंड में विभिन्न लोकनृत्यों का प्रचलन है। बुंदेली लोक नृत्य में विभिन्न प्रकार के गीतों का गायन होता है। बुंदेलखंड में लोकप्रिय लोकनृत्य मे बधाई नृत्य, बरेदी नृत्य, होली नृत्य, जवारा नृत्य, आदिवासी करमा नृत्य, सैरा नृत्य, रावला, राई नृत्य, कानड़ा नृत्य, ढ़िमरयाई नृत्य, नौरता नृत्य आदि हैं । Bundelkhand Ke Loknritya बुंदेलखंड के लोक जीवन में प्राण वायु की तरह रचे बसे हैं। […]
[…] Bundelkhand के महाकवि ईसुरी की आध्यात्म परक फागें अद्वितीय हैं। Isuri Ka Adhyatm समाज को चिंतन मनन के लिए प्रेरित करता है उन्होंने मनुष्य शरीर की क्षणभंगुरता को बडे़ आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। मनुष्य को जीवन में प्राप्त अनुभवों से सीखने की प्रेरणा दी है। जिसकी जैसी बुद्धि-जैसी समझ होती है वह वैसा ही समझ लेता है, किन्तु वे जो कह रहे हैं, वह शाश्वत सत्य है। […]