आदिकाल (10वीं शती से 14वीं शती तक) वस्तुतः लोकभाषाओं के उत्कर्ष का काल है। इस काल मे Bundeli Lokkavya Ki Pravrittyan बिस्तार से जानने के लिये चरणवद्ध तरीके से देखना होगा।जिसमें समय-समय पर स्थिति और परिस्थितियों के आधार पर सामाजिक एवं राजनीतिक आधार पर अनेक बदलाव आते हैं और अनेक लोक काव्य उन्नयन हुआ।
आदिकालीन लोककाव्य की प्रवृत्तियाँ आदिकाल (10वीं से 14वीं शती)
उसके पहले चरण में दोहा (दूहा) और गाहा के आधार पर कई प्रकार के लोकगीत अवतरित हुए थे। दूहा के आधार पर दिवारी गीत, डिड़खुरयाऊ और सखियाऊ फागें, दूहा की लटकन के आधार पर राई तथा गाहा के आधार पर देवीगीत ने जन्म लिया था। कारसदेव की लोकगाथा एक विकसित महाकाव्य बन गई है। उसकी अतुकान्त बन्दिश और लोकगायकी उसे पहली गाथा सिद्ध करती है।
द्वितीय चरण में गाथाओं का उत्कर्ष हुआ है और तीसरे चरण में मुक्तकों का ही लोकप्रचलन रहा है। इस जनपद में लोक के निकट बुन्देली लोकभाषा ही रही है, जबकि संस्कृत राजसी वर्ग की भाषा थी और लोक की समझ के बाहर होने से उसका प्रसार सीमित हो गया था। यही कारण है कि लोकभाषाएँ की रचनाएँ पर्याप्त संख्या में मिलती हैं। यहाँ उनकी वस्तु और शिल्पगत प्रवृत्तियाँ संक्षेप में प्रस्तुत हैं।
बुन्देली लोककाव्य मे वीररसात्मकता
आदिकालीन लोककाव्य की केन्द्रस्थ प्रवृत्ति थी वीररसात्मकता। Bundeli Lokkavya Ki Pravrittyan वीर रस सेअधिक प्रभावित रही, चाहे चरागाही लोकसंस्कृति को बिम्बित करनेवाला लोककाव्य हो, चाहे भक्तिपरक लोककाव्य, उसकी धुरी में वीरतापरक कथा या घटना रही है।
उदाहरण के लिए, कारसदेव की लोकगाथा में मुख्य कथा या घटना कारसदेव और गढ़राझौर के राजा के बीच संघर्ष है। देवीपरक गाथाओं में या तो देवी और असुर के संघर्ष की कथा को महत्त्व मिला है या देवी की भक्ति पानेवाले भक्त को स्वयं अपना सिर काटकर देवी को अर्पण करना पड़ा है।
उदाहरणस्वरूप ‘दानौ की गाथा’ में देवी का युद्ध दानव से होता है, जबकि ‘जगदेव की गाथा’ में जगदेव अपना सिर तलवार से काटकर देवी को भेंट करने के लिए अपनी पत्नी द्वारा पहुँचा देता है। ओजत्व की दीप्ति दोनों में है।
वास्तविकता यह है कि विदेशी आक्रमणों के खिलाफ वीररसात्मक रचनाओं द्वारा ही संघर्षधर्मी लोकचेतना जाग्रत की जा सकती थी। इसीलिए सारा लोककाव्य जागरण के आन्दोलन में जुट गया था। वीररसपरक लोककाव्य के लोकप्रचलन का यही उद्देश्य था। ‘कजरियन कौ रौछरो’ में युद्ध का वर्णन है, तो ‘उरई को राछरो’ में युद्ध की संस्कृति का या परिवार पर युद्ध के प्रभाव का।
‘जोगी को राछरा’ में एक जोगी द्वारा भाई बनकर नायिका के अपहरण की कथा है, जिसमें डोला रोककर आत्महत्या कर लेती है। ‘आल्हा’ लोकमहाकाव्य में 15 गाथाओं में से 12 युद्ध वर्णनों से भरी हैं। साथ ही युद्धपरक संस्कृति के कई चित्र जहाँ त्याग और बलिदान की आस्था जगाते हैं, वहाँ राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए वीरत्व को अनिवार्य मानते हैं और उत्साह एवं ऊर्जा की प्रेरणा देते हैं। आल्हा भले ही आल्हा और ऊदल की वैयक्तिक वीरता का काव्य रहा हो, पर वह वैयक्तिकता की परिधि लाँघकर सार्वजनीन और सार्वकालिक हो गई है।
बुन्देली लोककाव्य मे ऐतिहासिकता के प्रति सचेतनता
राजा भोज की गाथा, जगदेव की गाथा और लोकमहाकाव्य आल्हा की गाथाएँ ऐतिहासिक पात्रों की कथा एवं ऐतिहासिक घटनाओं के ताने-बाने से बुनी हुई हैं। राजा भोज की गाथा में राजा भोज धार का परमार नरेश है, जो भारत भर में विख्यात रहा है। उसका पुत्रा पालन्दर जयसिंह ही है और गाथा का ‘करन गूजरो’ (चौथी दिसा में करन गूजरो, बोकाड़ै पुरानो दाँव हो माँय) कलचुरी नरेश कर्ण है, जिसने 1041 ई. से 1072 ई. तक चेदि देश पर राज्य किया था। इस प्रकार यह गाथा ऐतिहासिक है।
जगदेव की गाथा का नायक जगदेव धार के परमावंशीय राजा उदयादित्य (1056-81 ई.) का छोटा पुत्रा था, जो अपनी देवीभक्ति के लिए प्रसिद्ध था। ‘आल्हा’ लोकमहाकाव्य की मुख्य घटना ऐतिहासिक युद्ध है, जो पृथ्वीराज चौहान और चन्देल नरेश परमर्दिदेव (परमाल) ने लड़ा था। पृथ्वीराज चौहान तृतीय, कान्यकुब्ज नरेश जयचन्द और परमर्दिदेव ऐतिहासिक पात्र हैं ही, साथ ही चंद बरदाई चौहान के सामन्त कन्ह, कैमास आदि भी इतिहास में मिलते हैं और लोकवृत्तों में भी।
राछरों मे ‘कजरियन को राछरो’ और ‘उरई को राछरो’, दोनों ऐतिहासिक हैं। कजरियन को राछरो आल्हा गाथा भुजरियन की लड़ाई का लघु संस्करण है। उरई को राछरा में पृथ्वीराज चौहान, परमर्दिदेव, आल्हा, ऊदल आदि ऐतिहासिक पात्रा भी हैं। इस प्रकार लोककवि जनपद की इतिहासचेतना के प्रति सदैव जागरूक रहा है।
लोकभक्ति का ओजत्व
इस कालखंड में देश की जरूरत पर लोकभक्ति भी वीररसात्मक हो गई थी। देवी गीतों में जहाँ भक्तिपरक भावना का फैलाव है और उसमें त्याग और बलिदान की भावना आवश्यक समझी गई है, वहाँ देवी के असुर-संहार में ओजमयी वीरता से लोकभक्ति का ओजत्व जागा है।
कारसदेव गूजर, अहीर आदि पशुपालक जातियों के लोकदेवता हैं और उनका लोकदेवत्व उनकी वीरता पर निर्भर है। दिवारी लोकगीतों के लोकदेव कृष्ण भी अपने शौर्य के कारण ही पूजे गए हैं। इस प्रकार किसी के लोकदेवता बनने अथवा लोकभक्ति पाने के लिए वीरत्व एक मानदंड बन गया था। विदेशी आक्रमणों की परिस्थिति में देश के हर लोकदेवता और उसकी भक्ति में प्रेमी को शौर्य का पाठ पढ़ाना पड़ता है।
चारागाही संस्कृति का बिम्बन
इस कालपरिधि में कारसदेव की गाथा, धर्मासाँवरी, गहनई और परसा चार लोकगाथाएँ प्रचलित रहीं हैं, जिनमें चारागाही संस्कृति के विविध चित्रा लिखे गए हैं। अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध कवि हर्बर्ट स्पेंसर की कृति ‘फेयरी क्वीन’ को चरागाही संस्कृति का महाकाव्य माना गया है, पर चारागाही संस्कृति के विविध दृश्यों की भरमार जितनी कारसदेव की गाथा में है, उतनी अन्यत्र मिलना कठिन है। बन, चारागाह, पशु आदि के दृश्यों के साथ युद्ध-वर्णन और दिव्य दृश्यों के वर्णन, सब मिलकर एक सुन्दर झाँकी प्रस्तुत कर देते हैं। वस्तुतः यह गाथा गोचारणी संस्कृति का अलबम है।
एलादी शिव से वरदान माँगती है, तो कहती है कि उसे ऐसा भाई दें, जो भैंसों को चराने में कुशल हो, भूतों को भगा दे और राजाओं को पराजित कर दे। चारागाही संस्कृति में पशुपालन ही मुख्य धन्धा था। बड़े भोर से जागना और लोई एवं दौनी का पात्र लेकर खोड़ जाना, खोड़ से धौरी डेंगुरी एवं उसकी लबाई का रँभाना, पड़ेलू पकड़कर भैंस लगवाना और बछेड़ाय कड़कर गायों की दौनी करवाना तथा नौ मन की खेप रखकर एवं दस पड़ेलू और दस बछेड़ा लेकर बाजार की तरफ जाना के दृश्यों को गूजर की बेटी ही देखती है।
चारागाही संस्कृति के नायक राजू गूजर में स्वाभिमान और निर्भीकता का अच्छा मेल है। जब गढ़राझौर का राजा अपने पुत्रा के लिए डाँड़ में राजू की पुत्री एलादी को माँगता है, तब राजू डाँड़ में पुत्री को देना उचित न समझ अपना गाँव ही छोड़ देता है और चम्बल की झाँझ में बस जाता है।
आदिकालीन साहित्य में बदला लेने की प्रवृत्ति तत्कालीन सांस्कृतिक विशेषक है, जो चारागाही संस्कृति में भी मिलती है। कारसदेव ने अपने पिता के अपमान का बदला गढ़राझौर के राजा से लिया था। युद्ध में पराजित कर गाय-भैंसों का खोड़ हाँक ले जाना ही चारागाही संस्कृति का एक और विशेषक है। गाथा की अन्तिम पंक्तियों में चम्बल-सी दूध की नदियाँ बहने, कछारों दोहनी का स्वर गूँजने और गोरी धन का दूधों-पूतों से फलने की कामना पूरी गाथा को सांस्कृतिक बना देती है।
परम्परित भावरूपों से मुक्ति
लोककाव्य सहज और स्वच्छन्द भावुकता का काव्य है, इसलिए उसमें परम्परित भावरूपों से मुक्ति की अप्रत्यक्ष घोषणा है। एक तो सारा लोककाव्य गीति-प्रधान है, यहाँ तक कि आल्हा लोकमहाकाव्य भी महाकाव्यत्व के घेरे में गीतिकाव्य ही है, अतएव उसमें लोकभावों का सहज और निश्छल आवेग है।
उसकी स्वच्छन्दता परम्परित महाकाव्यों के परम्परित भावरूपों के बन्धनों से छुटकारा है। हर गाथा में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों की भूमि पर एक ही केन्द्रीय भाव की बार-बार आवृत्ति भावधारा के प्रवाह में गतिशीलता और शक्ति ला देती है। इस तरह अंगीभाव प्रत्येक बार अंग रूप भावों के संयोग में विविध भंगिमाओं से उतार-चढ़ाव पाता हुआ अपने गंतव्य तक पहुँचता है। इस दृष्टि से आल्हा लोकमहाकाव्य की भाव-व्यंजना हिन्दी के समस्त महाकाव्यों से भिन्न कोटि की है। उत्साह की बार-बार आवृत्ति ऐसी प्रतीत होती है, जैसे कोई मल्ल पैंतरे बदल-बदलकर लड़ रहा हो।
युद्धपरक संस्कृति का चित्रण
आदिकालीन लोकगाथाओं और खास तौर से आल्हा लोकमहाकाव्य की गाथाओं में युद्धों और विवाहों के अनेक वर्णन युद्ध-वीरता और प्रेम-व्यापार की विधिताओं से भरे पड़े हैं। प्रत्येक गाथा एक युद्ध का आख्यान है, जिसमें सैन-सज्जा, शत्रु का भेद लेना, सेना की ब्यूह-रचना, शौर्य-परीक्षा, द्वन्द युद्ध, शस्त्र-वर्णन, युद्ध के दृश्य आदि का चित्राण हुआ है।
साथ ही युद्ध के प्रभाव के रूप में पत्नियों का सती होना, बदले की भावना का उभरना, नगर और दुर्ग का विनाश, परिवार का करुण क्रन्दन और वेदना आदि तो तुरन्त होनेवाले परिणाम हैं, लेकिन देर तक प्रभावशील हैं विशिष्ट परिवार, राज्यों की और यहाँ तक कि राष्ट्र की क्षति। इतिहासकारों ने चन्देलों और चौहानों के युद्ध को राष्ट्रीय विनाश का कारण माना है।
युद्धपरक संस्कृति में निहित आदर्श भी गौरव के विषय हैं। उदाहरण के लिए, जन्मभूमि का प्रेम, परिवार का प्रेम, राज्यभक्ति, राष्ट्रीय सम्मान की भावना और इन सबकी वेदी पर चढ़ी व्यक्तिगत वीरता तथा स्वाभिमान, सभी वैयक्तिक और सामूहिक आदर्श हैं। जन्मभूमि, राज्य और देश के प्रति प्रेम की भावना श्रद्धा का अंग है। दूसरी तरह का प्रेम-व्यापार, युद्ध-वीरता का साधन मात्रा है, साध्य नहीं।
वास्तविकता यह है कि विवाह, प्रेम, संयोग, वियोग जैसे कोमल पक्ष युद्ध से दब गए हैं, क्योंकि सभी वैवाहिक संस्कार बिना युद्ध के सम्पन्न नहीं हो पाते। प्रेम-व्यापार में कुछ मध्ययुगीन रूढ़ियों, जैसे रूप-गुण-श्रवण, शुक-सन्देश, योगी वेश धारण करना आदि का प्रयोग भी हुआ है। प्रेम में लोकरंग में डूबी स्वच्छन्दता के दर्शन कम होते हैं। केवल नायिका का दृढ़ संकल्प, साहस और वीरता तथा मिलन एवं विनोद में नवीनता है। नायिका का सतीत्व प्रेम की ऊँचाई प्रदर्शित करता है।
दरबारी संस्कृति के कुछ समवाय, जैसे चुगली, ईर्ष्या, धोखा, छल-कपट, कंचनी का नृत्य, भेंट देना आदि भी कथा में बुन दिए गए हैं। त्योहार, मेले और लोकोत्सवों के वर्णनों के साथ जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र आदि रोमांचक तत्त्व भी इस संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। अन्तिम गाथा में आल्हा का युद्ध की संस्कृति से त्याग और साधना का प्रतीक कदली बन चले जाना युद्ध के प्रति विरक्ति का चिन्तन-दर्शन प्रस्तुत करता है, जो आल्हा लोकमहाकाव्य का भरत वाक्य जैसी कल्याणकारी कामना से प्रेरित है।
लोकगायकी की लोकप्रियता
लोकगाथाओं में कुछ ऐसी हैं, जो आज तक उसी लोकधुन में गाई जाती हैं, जैसे कारसदेव की गाथा, आल्हा की गाथाएँ आदि, जिस लोकधुन में प्रारम्भ हुई थीं। इन साक्ष्यों से लोकगायकी की लोकप्रियता प्रमाणित हो जाती है। वैसे सांगीतिक अनुशीलन से स्पष्ट है कि एक स्वर के सन्निवेशवाली कारसदेव की गाथा की गायकी सबसे प्राचीन है।
कारसदेव की गाथा की लोकधुन ‘गाहा’ पर आधारित है और उसके बाद का विकास ‘धर्मासाँवरी’ में हुआ है। ‘गहनई’ लोकछन्द की ओर उन्मुख हुई और उसने दिवारी गीत की गायकी का सहारा लिया है। ‘परसा’ गाथा में ‘गाहा’ का ही अनुसरण है और ‘आल्हा’ गायकी से मिलती-जुलती उसकी ओजमय लय है। ‘आल्हा’ की वर्तमान स्थिति यह है कि महोबा गायकी तो अपनी पुरानी ओजमयी लोकधुन अपनाए हुए है।
बहरहाल, पूरे उत्तर भारत और दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में आल्हा गायकी का प्रचलन उसे राष्ट्रीय लोकगायकी सिद्ध करता है। प्रचलन ही नहीं, गुणवत्ता में भी यह राष्ट्रहित की गायकी है, क्योंकि युद्ध या वीरता के क्षेत्रा में उसका ओजस्वी स्वर राष्ट्र की रक्षा के लिए उत्साह फूँकता है। सैनिकों की सबसे लोकप्रिय गायकी होने से उसकी आवश्यकता अनिवार्य हो गई है।
लोक काव्य की विशेष उपलब्धि
उक्त प्रवृत्तियों के आलोक में कुछ निश्चित निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकता है। एक तो यह सर्वमान्य है कि आदिकालीन लोककाव्य से ही लोकभाषा और हिन्दी की गेय पद काव्य या गीति-परम्परा चली है। दूसरे, हिन्दी की वीरकाव्य-परम्परा और खासतौर से वीरचरित काव्य एवं घटनापरक वीरकाव्य-परम्परा के उद्भावक स्रोत भी लोकमहाकाव्य आल्हा में निहित हैं। तीसरे, ऐतिहासिक काव्य-परम्परा का आरम्भ आदिकालीन लोककाव्य में हुआ है और उसका विकास ही हिन्दी के ऐतिहासिक काव्य में दिखाई पड़ता है। अनुभूति और अभिव्यक्तिगत अनेक सूत्र आदिकालीन लोककाव्य के ऋणी हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल