नैनागढ़ के राजा नैपाली सिंह महोबे के राजा परमाल को अपनी बराबरी का नही समझता था लेकिन इसकी बेटी सुनवां आल्हा से ब्याह करना चाहती थी इसी कारण Nainagadh Ki Ladai राजा नैपाली सिंह और आल्हा के बीच हुई।
नैनागढ़ के राजा नैपाली सिंह के तीन पुत्र थे—जोगा, भोगा, विजय और एक पुत्री थी सुनवां। सुनवां अत्यंत रूपवती थी। सखियों के संग खेलकूद में आनंद करती रहती थी। माता-पिता भी पुत्री से प्रसन्न थे। एक दिन एक सखी ने कह दिया, “अब तक राजा ने तेरे लिए कोई दूल्हा नहीं देखा। खेल-खेल में तू जवान हो गई है।
सुनवां ने यह बात अपनी माँ से कह दी। राजा नैपाली रनिवास में आए तो रानी ने राजा को सारी बात बताई। उन्हें भी लगने लगा कि सचमुच सुनवां यौवन में कदम रख रही है। अगले दिन राजा ने दरबार में पंडित को बुलवाकर पत्र लिखवाया और दूतों के हाथ देश-देश के राजाओं के पास भेजा। दूतों से कह दिया कि महोबे मत जाना, बनाफर हमारी बराबरी के राजपूत नहीं, बल्कि चंदेलों के चाकर हैं।
दूत संदेश लेकर वर की खोज में निकल पड़े, परंतु कुछ महीनों में लौटकर सूचना दी कि कोई योग्य वर नहीं मिला। बनाफर आल्हा और भाइयों के पास हम गए नहीं। माता-पिता को बातचीत करते सुनवां ने सुन लिया। आल्हा, ऊदल, मलखान की बहादुरी की कहानियाँ उसने सुनी थीं।
अतः स्वयं ही ऊदल के नाम उसने पत्र लिखा “प्रिय ऊदल! मैं तुम्हें अपना देवर मानकर पत्र लिख रही हूँ। अपने अग्रज आल्हा को दूल्हा बनाकर लाओ। मैं उनको अपना स्वामी मान चुकी हूँ। मेरे पिता को राजी करना तुम्हारा ही दायित्व है।” पत्र चोंच में लेकर तोता उड़ गया।
तोता महोबा जा पहुँचा। प्रात:काल ही ऊदल सैर करने बगीचे में गया था। तोता वहाँ पहुँच चुका था। आम की डाल पर तोते को बैठा देखकर ऊदल वहाँ पहुँचा तो देखा चोंच में कागज है। ऊदल को पास आता देखकर तोते ने कागज गिरा दिया। ऊदल ने कागज उठाया तो अपना नाम देखकर चकित हुआ।
पत्र खोलकर पढ़ा तो ऊदल प्रसन्न हो गया। सबसे पहले ऊदल ने तोते को साथ लिया और पत्र लेकर राजा परिमाल के दरबार में पहुँचे। राजा ने पत्र को पढ़ा और अपनी गद्दी के नीचे सरका दिया। वीर मलखान बोले, “दादाजी! पत्र कहाँ से आया है और इसमें क्या सूचना है, आपने इसे गद्दी के नीचे क्यों छिपा लिया?”
राजा परिमाल ने सारी बात बता दी, परंतु कहा कि नैनागढ़ के राजा ने हमें टीका नहीं भेजा। यह पुत्री सुनवां का पत्र है। युद्ध तो करना पड़ेगा। अभी हमें युद्ध स्वीकार नहीं करना चाहिए। मलखान और ऊदल दोनों ने कहा कि आपको युद्ध नहीं करना पड़ेगा। उनके जोगा-भोगा दो वीर हैं तो क्या हुआ, इधर ऊदल और मलखान जान की बाजी लगाने को तैयार हैं।
राजा परिमाल ने रानी मल्हना को जाकर बताया कि मलखान और ऊदल दोनों को समझा देना; नैनागढ़ से लोहा लेना हमें भारी पड़ेगा। रानी मल्हना ने दोनों वीर पुत्रों को बुलाया और समझाने की कोशिश की। मल्हना से मलखान ने कहा, “माता हम मानने वाले नहीं हैं। आल्हा के लिए यह ईश्वर ने ही संदेश भेजा है। इसको स्वीकार करने में ही हमारी कीर्ति है। इनकार करने से हमारी शान में बट्टा लग जाएगा।
माता विवश हो गई। उसने दिवला और तिलका, दोनों को बुलवाया। तीनों ने प्रसन्नतापूर्वक पंडित को बुलवाया। विवाह के लिए पंचांग से शुभ घड़ी दिखवाई। पंडित ने कहा कि इस समय ही शुभ घड़ी है, तुरंत ब्याह की तैयारी करो। फिर तो और महिलाओं को बुलवाकर मंगलगान होने लगे। वीर आल्हा को बुलवाकर चौकी पर बिठाया गया। सात सुहागिन महिलाओं ने आल्हा पर तेल-हल्दी चढ़ाने की क्रिया शुरू कर दी।
सभी को यथायोग्य नेग-इनाम दिए गए। आल्हा को सुंदर वस्त्र पहनाकर पालकी में सवार किया। रानी मल्हना, दिवला और तिलका ने आल्हा को तथा और भाइयों को भी आशीर्वाद दिए। रानी दिवला कुएँ में गिरने की परंपरा निभाने चली तो मल्हना बोली, “यह रस्म मैं पूरी करूँगी, मैंने आल्हा-ऊदल को पाला है।” दिवला को तो एतराज ही नहीं था।
मल्हना कुएँ में गिरने का नाटक करने लगी तो आल्हा ने उन्हें गोदी में उठा लिया और विवाह करने का आश्वासन दिया। आल्हा ने तीनों माताओं के चरण छुए और कूच का डंका बजा दिया।
ऊदल ने फिर सुनवां के लिए पत्र लिखा और तोते के गले में बाँधकर उसे उड़ा दिया। ऊदल ने पत्र में सुनवां को भरोसा दिया कि आल्हा की बरात आ रही है। विवाह किए बिना हम नहीं लौटेंगे, चाहे प्राण चले जाएँ। इधर मलखान ने तोपें सजवाई। हाथी सजवाए और घोड़े तैयार किए। ब्रह्मा, ढेवा सब तैयार होकर नैनागढ़ की ओर चल पड़े। नैनागढ़ से पाँच कोस पहले ही डेरा डाल दिया। पाँच कोस तक डेरों में फौजें बैठ गईं। तब ऊदल ने रूपन को पत्र देकर राजा नैपाली को संदेश देने को कहा। रूपन नैनागढ़ के द्वार पर पहुँचा।
द्वारपाल ने उसे भीतर पहुँचाया। रूपन ने राजा को प्रणाम किया और पत्र दिया। परिचय बताया कि महोबा से आए हैं। आल्हा का विवाह है। बरात लाए हैं। राजा नैपाली ने रूपन को पकड़ने का आदेश दिया, परंतु रूपन अपनी तलवार से वार करता हुआ बाहर निकल आया। खूनम-खून रूपन अपने डेरे में पहुँचा तो मलखान ने वहाँ का हाल पूछा। रूपन ने कहा कि नैनागढ़ की लड़ाई बहुत कठिन पड़ेगी।
नैनागढ़ के राजा नैपाली सिंह ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर युद्ध की तैयार का आदेश दिया। तोपें, हाथी, घोड़े सब तैयार हो गए। पैदल सैनिक भी बख्तर पहनकर तैयार हो गए। जोगा ने अपने पिता को बताया कि इतनी बड़ी सेना लेकर आए हैं कि कोसों दूर तक झंडे-ही-झंडे दिखाई पड़ रहे हैं।
नैनागढ़ की सेना को सामने से आता देखकर महोबा की सेना भी तुरंत तैयार हो गई। दोनों ओर से पहले नगाड़े बजे, फिर तोपें चलीं। तोपों के गोले धुआँधार मचाने लगे। जब सेनाएँ और कम अंतर पर रह गई तो बंदूकें आग उगलने लगीं। गोली हाथियों के लगती तो वे चिंघाड़ने लगते। घोड़े के लगती तो रण छोड़कर भागने लगता और सैनिक के लगती तो वहीं गिर जाता।
फिर सेना आमने-सामने पहुँच गई तो तलवार और भालों से लड़ने लगे। खटखट तलवारें चल रही थीं। हौदे रक्त से भर गए थे। जिस पर वार पड़ता, वहीं से रक्त का फव्वारा छूटता। जीवितों की जुल्फें भी रक्त से लाल हो गई। आठ कोस की दूरी तक केवल तलवारों की आवाजें आ रही थीं। कदम-कदम पर लाशें बिछी पड़ी थीं। ढाल खून पर ऐसे तैर रही थीं, मानो खून की नदी में कछुए तैर रहे हों। ऊदल का घोड़ा वैदुल हर मोर्चे पर नाच रहा था।
ऊदल ने उत्साह दिलाया तो महोबे वाले और उग्र हो गए। महोबे के वीरों ने ऐसा युद्ध किया कि नैनागढ़ के सैनिक अपने हथियार फेंककर भागने लगे। कोई रो-रोकर अपने बेटों को याद कर रहा था तो कोई पुरखों को पुकार रहा था।
कोई अपनी पत्नियों को याद कर-करके विलाप कर रहा था। जोगा के साथ तीन लाख सैनिक आए थे, जो डेढ़ लाख ही रह गए। आधे मारे जा चुके। भोगा ने यह सूचना नैनागढ़ जाकर अपने पिता नेपाली सिंह को दी। राजा ने भोगा को रनिवास से लोकर अमर ढोल दिया तथा कहा, “इस ढोल को ले जाओ। ढोल की आवाज जिसके कान में पड़ेगी, वह मरा हुआ भी उठ जाएगा।
भोगा ने युद्ध में जाकर अमर ढोल बजाया। जो डेढ़ लाख सैनिक भूमि पर पड़े थे। वे उठ खड़े हुए। महोबा के केवल दस हजार सैनिक काम आए थे, वे भी उठ खड़े हुए, पर ऊदल और मलखान की चिंता बढ़ गई। उन्होंने कहा कि इस ढोल ने सारी मेहनत बेकार कर दी। तब ऊदल वेश बदलकर नैनागढ़ गया। वहाँ के महलों में पहुँचा।
सुनवां अपनी खिड़की में खड़ी थी। अपने महल में अलग सूरत को पहचानकर वह सीढियों से नीचे उतरी। ऊदल ने सुनवां से कहा कि या तो हम तुम्हें ब्याहकर ले जाएँगे या अपने प्राण दे देंगे। पता नहीं क्या होता है, आधी फौज हमने खपा दी थी, परंतु मरे हुए सैनिक फिर से उठकर लड़ने लगे। अब हम क्या करें?
तब सुनवां ने बताया कि यह अमर ढोल का कमाल है। मैं उस ढोल को वापस मँगाने का उपाय करती हूँ। तुम प्रातः माली का वेश बनाकर देवी के मंदिर के पास आ जाना। नजर बचाकर अमर ढोल को ले जाना। बस फिर विजय तुम्हारी है। अगले दिन प्रातः ऊदल को निमंत्रित करके सुनवां ने माता को बताया कि मुझे देवी-पूजन करना है, अमर ढोल मँगवा दो। माता ने राजा से कहा तो राजा ने साफ इनकार कर दिया कि रणभूमि से ढोल वापस नहीं लाया जाएगा।
सुनवां ने माता से कह दिया कि यदि ढोल नहीं आया तो मैं पेट में छुरी मारकर मर जाऊँगी। अतः रानी ने राजा पर बहुत जोर डाला और अमर ढोल रणभूमि से मँगा लिया गया। उधर ऊदल माली का रूप बनाकर घोड़े को एक ओर खड़ा करके बाग में देवी के मंदिर में जा पहुँचा। योजना के अनुसार सुनवां ढोल बजवाते हुए मंदिर आई। वह पूजा करने अंदर गई तो ढोलची भी अंदर चला गया। अवसर पाकर अमर ढोल उठाकर दुल पर सवार होकर ऊदल अपने डेरे पर लौट गया।
मलखान से ऊदल बोला कि अब युद्ध के लिए रणभेरी बजवा दो। फिर तो तो तैयार कर दी गई। नगाड़े बज उठे। हाथी सवार हाथियों पर और घुड़सवार घोड़ों पर चढ़ गए। जोगा ने भी राजा को बताया कि महोबावाले फिर चढ़कर आ रहे हैं। राजा ने भोगा, जोगा, विजय और पटना के राजा पूरन को फौजें तैयार करने का आदेश दिया। पहले डंके पर तोपें सज गई, दूसरे पर हाथी-घोड़े सज गए और तीसरे डंके की चोट पर सारा लश्कर चल पड़ा।
दोनों सेनाएँ फिर भिड़ गई। मारा-मारा होने लगी। वीर फिर कट-कटकर भूमि पर गिरने लगे, फिर रक्त की नदियाँ बहने लगीं। वैदुल घोड़े पर सवार ऊदल ने बाईस हाथियों के हौदे खाली कर दिए, फिर वह जोगा के सामने पहुँचा। ऊदल बोला, अब हम-तुम आपस में फैसला कर लें। जोगा ने कहा पहले तुम अपना वार करो।
ऊदल ने कहा, “हम कभी पहला वार नहीं करते। भागते को पीछे से नहीं मारते। निहत्थे पर या स्त्री पर हथियार नहीं उठाते। तुम अपना वार करो।” तब जोगा ने धनुष खींचकर बाण चलाया। वैदुल ने दाएँ हटकर वार खाली जाने दिया, फिर जोगा ने तीन बार तलवार के वार किए, तब ऊदल ने भाला फेंका। जोगा का घोड़ा पाँच कदम पीछे हट गया। फिर सामने से भोगा आ गया। उसे जवाब देने को मलखान आ भिड़ा।
भोगा ने तलवार का वार किया, पर मलखे ने चोट बचा ली। मलखान वार करना ही चाहते थे, तभी ऊदल ने आवाज लगाकर वार करने को मना किया, “अरे, इसे मत मारना। भाँवर पर नेग कौन करेगा?” फिर मलखान और ऊदल ने रण में मारा-मारी मचा दी। नैनागढ़ की सेना भागने लगी। राजा नैपाली फिर देवी के मठ में अमर ढोल लेने गए। वहाँ अमर ढोल न देखकर घबराया। पूजा करके हवन करवाया। तब देवी की आभा ने कहा, “तुम्हें इंद्र ने ढोल दिया था। मैं इंद्र से फिर ढोल मँगा देती हूँ।”
देवी ने इंद्रलोक में जाकर कहा। इंद्र ने देवता भेजकर ढोल तो मँगा लिया, पर देवी को बताया कि आल्हा को शारदा माता ने अमर रहने का वरदान दिया है, अतः आल्हा के विरुद्ध हम कुछ नहीं करेंगे, अतः अमर ढोल को फोड़ दिया गया। देवी ने राजा नैपाली से कहा कि ढोल फट गया, अब काम नहीं करेगा।
फिर राजा नैपाली ने अपने मित्र सुंदरवन वाले अरिनंदन को पत्र भेजकर सहायता के लिए बुलाया। सुंदरवन से अरिनंदन ने आकर नदी के पार डेरा डाला। ज्यों ही नदी में नावों पर नृत्य शुरू हुआ। आल्हा देखने लगे तो अरिनंदन ने आल्हा का परिचय पूछा और नाव पर बिठाकर सुंदरवन को रवाना कर दिया।
बहुत देर तक आल्हा के न मिलने पर ऊदल और मलखे ने ढेवा से कहा कि अपने पतरा से देखकर बताओ। तब तक रूपन ने आकर सारी घटना बता दी। ढेवा ने उपाय बताया कि ऊदल सौदागर का वेश बनाकर जाए। तब ऊदल ने दुल पर मखमल की झूल डलवाई और स्वयं घोड़ों का सौदागर बन गया। सुंदरवन पहुँचकर फाटक पर द्वारपाल से कहा कि वह घोड़ों का सौदागर है। अरिनंदन को खबर भेज दी कि घोड़ा खरीद लें। अरिनंदन ने कीमत पूछी तो ऊदल ने कहा—पहले सवारी करके देख लो, फिर कीमत पूछना।
राजा ने अपने दरबारी जनों को घोड़ा परखने को कहा, परंतु वे घोड़े से डर गए। ऊदल ने कहा कि घोड़े काबुल से लाए हैं। पाँच घोड़े महोबा में बेचे थे। दो जूनागढ़ में बेचे हैं। अरिनंदन ने आल्हा को बुलाया और कहा कि घोड़े पर सवारी करके दिखाओ तो कैद माफ कर देंगे। आल्हा बजरंगबली को याद करके घोड़े पर सवार हुए। ऊदल ने इशारा कर दिया। ऊदल भी अपने दुल पर चढ़े और घोड़ों को तेजी से दौड़ा लिया।
आल्हा-ऊदल दोनों अपने दल में पहुँचे तो ऊदल मलखान से बोला, “जल्दी युद्ध शुरू करो और आल्हा भाई की भाँवर डलवाओ।” नगाड़ा बजा दिया। हाथी वाले हाथी पर चढ़ गए, घुड़सवार अपने-अपने घोड़ों पर चढ़ गए। ऊदल वैदुल पर, मलखान कबूतरी पर, जगनिक हरनागर घोड़े पर, ढेवा मनुरथा पर, सुलिखे घोड़े करेलिया पर और ताला सैयद सिंहनी घोड़ी पर सवार हो गए।
आल्हा अपने पंचशावद हाथी पर बैठे। मन्ना गूजर और रूपन वारी सबने तैयारी कर ली। दूसरी तरफ राजा नैपाली सिंह ने भी तीनों लड़के खड़े कर दिए। दोनों लश्कर खेतों में पहुँच गए। पटना वाला पूरन भी चौथे भाई की तरह साथ था।
ऊदल ने कहा, “जल्दी सुनवां की भाँवर डलवा दो, क्यों नाहक अपनी जान गँवाते हो?” जोगा बोला, “बनाफर ओछी जात है, पूरे राजपूत नहीं हैं।” ऊदल ने तुरंत जवाब दिया, “मेरा नाम ऊदलसिंह राय है। दस्सराज तथा माँ देव कुँवरि के पुत्र हैं।“ फिर तो दोनों ही आपस में जूझने को तैयार हो गए।
जोगा ने पहले तीर चलाया, फिर भाला मारा, परंतु वैदुल घोड़े ने दाएँ-बाएँ हटकर वार बचा दिए, फिर जोगा ने सिरोही का वार किया। सिरोही टूटकर मूठ हाथ में रह गई। ढाल को घुमा के मारा तो जोगा को धरती पर गिरा दिया। फिर तो ऊदल ने जोगा को जंजीर से बाँध लिया।
भोगा ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया तो मलखान ने भी अपनी घोड़ी को आगे बढ़ा दिया। भोगा ने तलवार के तीन वार लगातार किए, जिन्हें मलखान ने बचा लिया। फिर मलखान ने ढाल से धक्का मारा तो भोगा गिर गया। इस प्रकार भोगा भी कैद हो गया।
विजया आगे बढ़ा तो ढेवा भिड़ गया। यहाँ भी तलवार के वार खाली गए। उसी प्रकार विजया को भी गिराकर बंदी बना लिया। राजा पूरन हाथी पर सवार थे, उनसे जगनिक भिड़ रहा था। उसने एक झटके में महावत को मार गिराया। फिर हौदा के स्वर्ण पुष्प और अंबारी को गिरा दिया। पूरन घबरा गया था, उसे भी जगनिक ने बाँध लिया।
आल्हा का दल इन्हें बाँधकर अपने डेरे पर ले आया। माहिल भी रोज का हाल पता करता रहता था। वह अपने घोड़े पर सवार हो नैनागढ़ जा पहुँचा। नैपाली ने माहिल को चौकी पर बैठाया। माहिल ने कहा, “महोबावाले बड़े वीर हैं। तुम्हारे चारों पुत्र उन्होंने कैद कर लिये हैं, परंतु बनाफर गोत्र ओछी जात है, अतः ब्याह करना तो उचित नहीं है। रास्ता मैं बताता हूँ, तुम ब्याह की स्वीकृति देकर आल्हा को बुलवा लो। सारे भाई साथ आएँगे, फिर एक कमरे में बिठाकर सबके शीश काट लो।”
धोखेबाज माहिल ने अपनी धोखे की चाल चल दी। नेपाली भी तैयार होकर महोबा वालों के डेरे पर पहुँच गया। साथ में पंडित, नाई, भाट और नेगी सब ले लिये। रूपन वारी ने उन्हें आल्हा का तंबू दिखा दिया। नैपाली राजा आल्हा के तंबू में जा पहुँचा।
आल्हा ने उनके लिए चौकी बिछवा दी। बैठकर राजा ने कहा, आल्हा, तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं और राजा परिमाल भी धन्य हैं, जिनके पास तुम्हारे जैसे सेनानायक हैं। तुम्हारे जो घर के, परिवार के हैं, वे हमारे साथ चलें। मैं अभी भाँवर डालने की व्यवस्था करवाता हूँ।” मलखान ने कहा, “हम सब चलेंगे, हमारी फौज भी चलेगी। बाजे-गाजे के साथ आएँगे।”
राजा ने कहा, “अकेले आल्हा को भेज दो, भाँवर डलवाकर अभी विदा करके ले आना।” ऊदल ने कहा, “तुम हमारे साथ धोखा तो नहीं कर रहे?” राजा नैपाली ने तुरंत गंगाजल मँगा लिया और कसम खाई। आल्हा साथ जाने को तैयार हो गए, साथ में ताला सैयद, ब्रह्मा, ढेवा, ऊदल, मलखे, सुलिखे, रूपन, मन्ना सब तैयार हो गए। जोगा, भोगा, विजया, पूरन चारों को कैद से छोड़ दिया गया।
नैपाली ने महल में पहुँचते ही मँढा गाढ़ने का आदेश दे दिया। पुरोहित नेगी और पंडित सब बुलवा लिये। नैपाली ने दो हजार लड़ाके सैनिक बुलाकर कोठरियों में छिपा लिये। सबको अंदर करके फाटक बंद कर लिया गया। पहली भाँवर पड़ते ही जोगा ने अपनी तलवार खींच ली।
आल्हा को मारना चाहा तो मलखे ने तुरंत ढाल अड़ा दी। दूसरी भाँवर पूरी हुई तो भोगा ने तलवार का वार किया, तब ऊदल ने ढाल अड़ा दी। तीसरी भाँवर पर विजया ने वार किया तो ढेवा ने ढाल अड़ा दी। चौथी भाँवर पड़ते ही राजा नैपाली ने जादू कर दिया। सब बेहोश हो गए तो इन्होंने सबका सिर काट लेने का विचार किया, परंतु सुनवां ने भी जादू के जवाब में जादू चला दिया। सुनवां ने ऊदल से कहा, “अभी डोला विदा करवा लो। अभी जादू का प्रभाव है। ये वार नहीं कर सकते।”
रूपन ने तुरंत पालकी द्वार पर मँगवा ली और सुनवां स्वयं जाकर पालकी में बैठ गई। इतने में होश में आते ही राजा नैपाली ने हल्ला मचाया, “महोबे वाला कोई जाने न पावे।” सबके शीश काट लो। कोठरियों में छिपे लड़ाके बाहर आ गए और युद्ध करने लगे। महोबे वालों ने अपनी बहादुरी से जोगा, भोगा, विजया सबको बाँध लिया।
सैकड़ों वीर मारे गए। मंडप में खून की नदियाँ बहने लगीं। आल्हा पर जादू चलाकर उसे काबू में कर लिया। बाकी सातों ने लड़कर नैनागढ़वालों के छक्के छुड़ा दिए। अब आल्हा को बंद कर लिया। डोला लेकर शेष सभी डेरे पर पहुँच गए। ढेवा ने पतरा देखकर बताया कि राजा नैपाली ने आल्हा को बाँध लिया है।
फिर सौदागर का वेश बनाने वाला उपाय किया गया। तब वैदुल पर सवार ऊदल और सुनवां करलिया घोड़े पर चढ़कर चली। मालिन के घर पहुँचकर बोली, पुष्पा तुम जाकर महल में पता लगाकर आओ कि आल्हा कहाँ है? मेरा पता मत बताना। पुष्पा ने कहा, मैं यहीं से बता रही हूँ कि आल्हा शीशमहल में हैं। गूजरी दूधवाली का रूप बनाकर चली जाओ।
सुनवां सिर पर दही की हाँड़ी रखकर शीशमहल में पहुँच गई। तब सुनवां ने कहा, “मैं चित्तौड़गढ़ के राजा मोहन की बेटी हूँ। तुम्हें कैद से छुड़वाने आई हूँ।” तब सुनवां को अपनी अंगूठी निकालकर आल्हा ने दे दी। अंगूठी लेकर वह मालन के घर पहुँच गई। ऊदल से बोली, “अब सौदागर बनकर शीशमहल में पहुँच जाओ। घोड़ा बेचने की बात करो।”
ऊदल सौदागर बनकर दोनों घोड़े लिये वहाँ जा पहुँचा। द्वारपालों ने पूछा तो बता दिया कि काबुल से घोड़ा बेचने आया हूँ। राजा को खबर अपने आप पहुँच गई। घोड़े देखकर कीमत पूछी तो ऊदल कहने लगे, पहले चढ़कर देखो, फिर कीमत भी लग जाएगी। कोई चढ़ने को तैयार न हुआ तो ऊदल ने कहा, दिल्लीवाले या महोबे वाले राजकुमार इन पर सवारी कर चुके हैं।
अगर कोई दिल्ली या महोबे का क्षत्रिय हो तो चढ़कर देख ले। राजा ने तुरंत आल्हा को बुलवा लिया और कहा कि घोड़े की चाल परखकर दिखाओ। ऊदल ने इशारा कर दिया; आल्हा खुश हो गया। आल्हा-ऊदल दोनों घोड़ों पर चढ़कर अपने डेरे में जा पहुँचे, इधर सुनवां भी सवारी करके डेरे पर पहँच गई।
फिर तो उन्होंने अपने डेरे उखड़वाए और शीघ्र ही महोबे को चल दिए। रूपना वारी को पहले सूचनार्थ भेज दिया। रूपना ने माता मल्हना को सूचना दे दी कि बरात मदन ताल पर पहुंच चुकी है। नैनागढ़ में भारी युद्ध हुआ, परंतु आपके आशीर्वाद से आपके पुत्र जंग जीतकर सुनवां का डोला लेकर आए हैं।
माता मल्हना ने रनिवास में सबको समाचार देकर मंगलाचार की तैयारी कर ली। रानी दिवला और तिलका को भी बुला लिया। उधर रूपना ने मदन ताल पहुँचकर ऊदल को सूचित किया कि माताओं को समाचार दे दिया है। ऊदल ने पं. चिंतामणि को बुलवाकर घर में प्रवेश करने की शुभ घड़ी पूछी। पंचांग विचारकर पंडितजी ने बताया कि इस समय मुहूर्त उत्तम है। शीघ्र ही वधू का गृह-प्रवेश करवाना चाहिए। सुनकर ऊदल और मलखान ने बरात को घर की ओर मोड़ दिया। यहाँ माताओं ने आरती का सब प्रबंध कर रखा था। द्वार पर सुनवां सहित आल्हा का आरती किया गया।
दोनों वर-वधू ने तीनों माताओं के चरण स्पर्श किए। महिलाएँ लोकगीत गाते हुए उन्हें महल के सुसज्जित निश्चित कमरे के द्वार तक छोड़कर आई। सबको प्रसाद वितरित किया गया। पूरे महोबे में आनंद से नृत्य- गायन कई दिन तक चलते रहे।