Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीMaharaj Chhtrasal महाराज छ्त्रसाल (बाल्यकाल) 

Maharaj Chhtrasal महाराज छ्त्रसाल (बाल्यकाल) 

बुन्देलखण्ड के शौर्य प्रतीक Maharaj Chhtrasal का बाल्यकाल बहुत बिसम परिस्थितियों मे गुजरा मोर पहाड़ी के जंगल में, जो कटेरा नामक गांव से तीन कोस है, रानी ने बुंदेलखंड के भावी विख्यात वीर छत्रसाल को जन्म दिया। जिस समय इस वीर बालक छत्नसाल का जन्म हुआ उस समय मुगलों की चंपतराय से लड़ाई चल रही थी। Maharaj Chhtrasal का जन्म भी उस जंगल में हुआ था जहाँ पर मुगल लोग चंपतराय को घेर लेने का प्रयत्न कर रहे थे।

बुन्देलखण्ड के महान योद्धा महाबली महाराज छ्त्रसाल का बाल्यकाल 

चंपतराय, औरंगजेब से लड़ते हुए स्वर्ग को सिधार गये । उनके  जीवन का अधिकांश समय लड़ाई ही में वीता। वे मुगलों की अधीनता स्वीकार करने को कभी तैयार नही  हुए परंतु सदा ही स्वतंत्रता के लिये युद्ध करते रहे । चंपतराय घनवान नही थे। जागीर महेबा से उन्हें बहुत ही थोड़ी आमदनी होती थी । रुद्रप्रताप के पुत्र उदयजीत को जो जागीर मिली थी उसकी कुल आमदनी वार्षिक 12000 रुपए थी ।

यह छोटी जागीर उदयाजीत के पुत्र और पौत्रों में बंटती आई और जो चंपतराय को मिली उसको वार्षिक आय केवल 350 रुपये थी, परंतु चंपतराय ने अपना नाम अपनी वीरता के द्वारा किया। उनमें सेना इकट्ठी करने और  उसका सदुपयोग करने की विशेष योग्यता थी । सबसे पहले, जब चंपतराय युवा भी न हुए थे, उन्होंने कुछ थोड़े से सिपाही एकत्र करके मुगल राज्य के एक गाँव को लूट लिया था। मुगलों के गाँव के मुगल शासकों को लूटकर उन्होंने कुछ धन एकत्र किया था। इसी धन से छ्त्रसाल ने सेना तैयार की थी। मुगलों से युद्ध के समय इनके अतुल्यरण-कौशल का परिचय सारे जगत को मिल गया था।

जिस समय शाहजहाँ के सरदार बाकीखाँ से युद्ध हुआ और बाकीखाँ हारकर वापस गया उसी समय बाकीखाँ ने अचानक चंपतराय के ज्येष्ठ पुत्र सारबाहन को घेरकर सार डाला था। उस समय सारबाहन की उमर केवल 14  वर्ष की थी परंतु इस उमर में अपनी वीरता के कारण वे बुंदेलों को बहुत प्रिय हो गए थे ।

इनके मरने से इनकी माता को बहुत  दुःख हुआ कहा जाता है कि इनको माता ने स्वप्न में देखा कि सारबाहन उनसे कह रहे हैं कि में फिर से गर्भ में आऊँगा। इसी के कुछ दिनों के पश्चात्‌ सारबाहन की माता ने गर्भ धारण किया और सबका यही विश्वास हो गया कि जेठे राजकुमार सारबाहन फिर से रानी के गर्भ में आए हैं । 

रानी गर्भावस्‍था में भी अपने पति चंपतराय के साथ रहा करती थीं। वे दिन ऐसे थे कि बुंदेले वीरों की रमणियाँ अपने घरों में न रहकर रणभूमि में जाकर अपने पति के साथ रहती थीं और समय समय पर सहायता करती थीं । रानी को गर्भा- वस्था का समय लड़ाइयों के मैदानों में ही कटता था । इसी समय में चंपतराय अपनी रानी के साथ ककरकचनए की पहाड़ों में मुगलों की सेना के द्वारा घेर लिए गए  ऐसी दशा में भी चंपतराय अपनी पत्नी को ले अचानक मुगलों की सेना से बचकर भाग गए । इस कृत्य से मुगल सेना का बड़ा आश्चर्य हुआ ।

इसके छ: महीने बाद मोर पहाड़ी के जंगल में, जो कटेरा नामक गांव से तीन कोस है, रानी ने बुंदेलखंड के भावी विख्यात वीर छत्रसाल को जन्म दिया। महाराज छत्रसाल का जन्म ज्येश्ठ शुक्ल तीज शुक्रवार संबत्‌ 1705 विक्रमीय विलंबि नामक संवत्सर में हुआ था। यद्यपि उनकी जन्‍्मपन्नी में उच्च का कोई  भी ग्रह नहीं है पर नवांश कुंडली के अनुसार उसमें 5 राजयोग हैं। जिस समय वीर बालक छत्नसाल का जन्म हुआ उस समय मुगल लोगें की चंपतराय से लड़ाई चल रही थी।

छत्नसाल का जन्म भी उस जंगल में हुआ था जहाँ पर मुगल लोग चंपतराय को घेर लेने का प्रयत्न कर रहे थे। जन्म से ही बालक छत्रसाल को महल की सेज सोने को नही मिली किंतु प्रकृति देवी की गोद ही इन्हें जन्म से खेलने के लिये मिली । संसार में आते ही वीर छत्रसाल को तोपों और बंदूकों का शब्द और धरो, मारो, पकडो का शोर सुनने को मिला । इस दशा में रहते ही छत्रसाल की अवस्था छ: मास की हो गई । 

एक समय, जब छत्रसाल की अवस्था केबल सात मास की थी, राजा चंपतराय उनकी रानी और कुछ सैनिक एक जंगल में अपना भोजन बनाकर खा रहे थे। अचानक मुगल सेना ने इन सबको घेर लिया और इनका भागकर निकल जाना भी कठिन हो गया। सब सैनिक भागे और चंपतराय भी अपनी रानी के साथ भाग गए, पर सात महीने के छत्रसाज्ञ का उठा लेने का किसी को ध्यान न रहा। चंपतराय और  उनके सैनिकों के भाग जाने के पश्चात्‌ मुगल सेना उस स्थान पर आ पहुँची और चंपतराय को वहाँ पर न देखकर चली गई । छत्रसाल उसी स्थान पर पड़े रहे और

छत्रसाल सौभाग्य से बच गए। इसके पश्चात्‌ चंपतराय ने जब देखा कि बालक छत्रसाल उनके साथ नहीं हैं ते उन्होंने ढूंढ़ने के लिये अपने सिपाही भेजे और एक सिपाही छत्रसाल को उठा लाया । छत्रसाल को पाकर चंपतराय को असीम आनंद हुआ, परंतु उन्होंने छत्रसाल को ऐसी दशा में अपने पास न रखने का निश्चय कर लिया । इस घटना के दूसरे ही दिन रानी अपने पुत्र छत्रसाल को लेकर अपने मायके चली गई। यहाँ पर छत्रसाल और उनकी माता चार वर्ष तक रहे ।

जिस समय छत्रसाल की अबस्था चार वर्ष की हुईं उस समय बालक छत्नसाल और उनकी माता मायके से चंपतराय के पास वापिस आई । छत्रसाल की वीरता के चिन्ह इसी समय से दिखने लगे थे। लड़ाइयों में से निकली हुई रुधिर की नदियाँ और  युद्ध में मरे हुए वीरें के शरीर देखकर इनके मन में डर नही उत्पन्न होता था, वरन्‌ वे इन वीभत्स दृश्यों को हमेशा देखा करते थे । बंदूकों और  तेपों का शब्द सुनकर वे डरकर भागने का प्रयत्न नही करते थे, परंतु जिस ओर से शब्द आता था उसी ओर  देखने को  दौड़ते थे । छोटी अवस्था से ही छत्रसाल ने तलवार लेकर खेलना आरंभ कर दियाथा। 

छत्रसाल की तेजपूर्ण मुद्रा और बाललीला देखकर सब लोगें का यही मालूम होने लगा था कि यह बालक कोई पराक्रमीपुरुष होकर क्षत्रिय-कुल का उद्धार करेगा । इनका नाम “छत्रसाल” इनके गुणों पर से ही पड़ा था। बाल्यकाल से ही छत्रसाल को सरदारों के साथ का व्यवहार भी उत्तम था। जो  सरदार चंपतराय से मिलने आते थे उनसे छत्नसाल, बालक होने पर भी, रीति के अनुसार अभिवादन करते थे। इनका यह व्यावहारिक चातुर्य देखकर पिता को हर्ष और विस्मय होता था। 

छत्रसाल को बाल्यकाल में चित्र बनाने का भी शौक था। परंतु वे हाथी, घोड़े, सवार, बंदूक और तोप आदि के ही चित्र बनाते थे। धर्म में भक्ति भी छत्नसाल को बाल्यकाल से ही थी। वे सदा मंदिरों में नियमपूर्वक जाते थे और  प्रार्थना करते थे। रामायण और  महाभारत की कथाओं के सुनने की उन्हें विशेष इच्छा रहती थी। इन कथाओं के योद्धाओं की वीरता का हाल सुनकर उनके हृदय में बहुत उत्साह उत्पन्न होता था।

छत्रसाल का विद्याध्ययन सात वर्ष की आयु से आरंभ हुआ। इस समय वे अपने मामा के यहाँ रहते थे । विद्याध्ययन के साथ इन्होंने सैनिक शिक्षा भी प्राप्त की। सेना-संबंधी कार्य भार विद्याध्ययन दोनों में ही इन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि का परिचय दिया। महाराज छत्रसाल एक चतुर सेनापति ही नहीं वरन्‌ विद्वान और कवि भी थे।

दस वर्ष की आयु के पहले से ही वीर छत्नसाल ने बरछी चलाना, तलवार और अन्य सश्त्रों से अचुक निशाने मारना पर दोड़ते हुए घाड़े पर से शिकार खेलना सीख लिया था । जंगल के हिंसक जानवरो से युद्ध करते समय उन पर कैसे वार करना चाहिए, यह वे शीघ्र सीख गए ।  पुस्तकों के पढ़ने में इनका मन बहुत लगता था।

छत्रसाल सहरा नामक गांव में थे, जब इन्हें अपने माता-पिता की मृत्यु का पता चला । ये खबर उस सैनिक ने दी थी जो चंपतराय और  उनकी पत्नी के साथ उस स्थान में था जहाँ चंपतराय घेरे गए थे। वह किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर खबर देने को भाग आया था। जब चंपतराय की मृत्यु हुई तब छत्रसाल के पास न सेना थी और न धन ही था ।

पिता-माता की मृत्यु सुनने पर शोक होना स्वाभाविक ही है। परंतु ये उत्साही और धैर्यवान युवक थे। इन्होने अपने रहने इत्यादि का स्थान और  सेना संग्रह करने का प्रबंध तुरंत ही  सोच लिया । उन्हें चंपतराय का वृद्ध सेनिक मिला । इसने छत्रसाल का आदर किया । फिर छत्रसाल महेबा में अपने काका सुजानराय के पास , गए।

इनके काका ने छत्रसाल को पहले न देखा था। वे छत्रसाल के बड़े भाइयों  को जानते थे। इससे छत्रसाल ने अपना पूरा परिचय सुजानराय को दिया, जिसे सुनकर सुजानराय ने बड़े प्रेम से भेंट की । इसके पश्चात्‌ कुछ दिनों तक छत्रसाल अपने काका के पास रहे, परंतु शीघ्र ही ऐसा प्रसंग आया कि जिसमें छत्रसाल को अपना बाहुबल और रणचातुर्य दिखलाने की आवश्यकता पड़ी ।

छत्नसाल को  काका के यहाँ रहना अच्छा न लगा। वे मुसलमानों से युद्ध करने के लिये उत्सुक हो रहे थे। उन्होंने अपने विचार अपने काका से भी प्रकट किए, परंतु छत्रसाल की बातें को  सुनकर काका डर  गये  और उन्होंने छत्रसाल से शांत रहने और मुगलों से युद्ध न करने के लिये कहा । छत्रसाल को  अपने काका की बात अच्छी न लगी और वे अपने भाई अंगदराय के पास चले आए । उस समय अंगदराय देवगढ़ में थे। इन लड़ाइयों के समय मे छत्रसाल के सब भाई अलग अलग थे ।

महोबा की जागीर इतने बड़े कुटुंब के लिये काफी नही होती थी । इससे सब अपना निर्वाह जहाँ पर बन पड़ा करते थे। अंगदराय देवगढ़ के किले में नौकर थे। जब छत्रसाल अंगदराय से मिले तब अंगदराय इनको देखकर बड़े प्रसन्न हुए । छत्रसाल ने यवनों से स्वतंत्न्ता प्राप्त करने का अपना उद्देश्य अंगदराय से कह सुनाया । अंगदराय ने छत्रसाल के उद्देश्यों को सुनकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की, परंतु छत्रसाल से कहा कि बहुत सावधानी से चलना अच्छा होगा। इस प्रकार दोनों भाई एकमत होकर मुसलमानें से युद्ध करने और देश जीत लेने का प्रयत्न करने लगे । 

बंदेलखण्ड का कुछ भाग चंपतराय ने अपने अधिकार में कर लिया था, परंतु पीछे से मुसलमानों ने बुंदलों की ही सहायता से उसे छीन लिया था । अब सेना के बिना छत्रसाल का उद्देश्य असम्भव था और धन के बिना सेना इकट्टी करना कठिन कार्य था । इससे दोनो भाइयों ने अपनी माता के  जेवर बेचकर सेना एकत्र करने का निशचय किया। अब इन दोनो ने देवलवारा नामक गांव में, जहाँ इनकी माता के गहने थे, जाकर उन्हें ले लिया और  बेच दिया, फिर उस धन के द्वारा एक छोटी सी सेना तैयार की । 

वि० सं० 1727 में देवगढ़ ( छिंदवाड़ा ) में राजा कूरम- कल्ल ( कोकशाह ) का राज्य था। इस राजा ने राजपूत सेना के  सहारे देवगढ़ में मुगलों से युद्ध करने का निश्चय कर लिया। मुगल- राज्य की ओर से जयसिंह कूरम-कल्ल (कोकशाह) के हाथ से देवगढ़ का किला ले लेने के लिये जा रहा था । इस समय छत्रसाल और अंगदराय ने अपना पराक्रम दिखाने का अवसर जान राजा जयसिंह का सहायता देने का वचन दिया। इसने इन दोनों का बढ़ा आदर किया और उनसे सहायता लेना स्वीकार किया।

इसी समय दिल्ली दरबार से हुक्म आया कि जयसिंह अपना काम बहादुरखाँ के सुपुर्द कर दें। पीछे से बहादुर खाँ भी सेनापतित्व का भार (पद)  लेने के लिये आ पहुँचा। बहादुर खाँ और राजा चंपतराय से मित्रता रही थी । इन दोनों में पागबदलौअल भी हो चुकी थी (पागबदलौअल-जो अपनी घनिष्ट मित्रतानिभाते थे वे आपस मे पगडीबदल लेते थे) इसलिये बहादुर खाँ ने भी छत्रसाल और अंगदराय से अच्छा बर्ताव किया और उन्हें सहायता देने के लिये धन्यबाद दिया।

छत्रसाल इस युद्ध में बहुत वीरता से लड़े । कूरमकल्ल ( काकशाह ) की राजपूत सेना ने मुगल सेना को आगे नही बढ़ने दिया, परंतु छत्रसाल भी  कुछ वीर सिपाहियों को लेकर आगे बढ़े । छत्रसाल दुशमन  की सेना को चीरते हुए भागे बढ़े और उन्होंने शीघ्र ही देवगढ़ के किले की ढाल की रस्सी पकड़ ली। इससे मुगल सेना भी उत्साहित हुई झार कूरमकल्ल ( कोकशाह ) की सेना पीछे हटी ।

अंत में देवगढ़ ले लिया गया, परंतु जिस समय छत्रसाल आगे बढ़े थे उसी समय एक राजपूत सरदार नें छत्नसाल के गले पर एक तलवार जोर से मारी, पर गले पर बिछुआ होने के कारण छत्रसाल की जान बच गई। छ्त्रसाल को ऐसी गहरी चोट आई कि छत्रसाल वहीं रणभूमि में गिर पड़े और  उनके विश्वासी घोड़े ने उनके शरीर की रक्षा की ।

मुसलमान लोग देवगढ़ लेकर खुशी मनाने लगे पर जिसके साये से उन्हें विजय मिली थी उसकी उन्होंने कोई फिकर नही  की । अंत में छत्नसाल के साथी सैनिक छत्रसाल को उठा लाए और छत्रसाल का घाव कुछ दिलों मे अच्छा हो  गया। छत्रसाल का मुसलमानों का यह बर्ताव बहुत बुरा लगा। जब मुसलमानी सेना विजय प्राप्त करके दिल्ली पहुँची तो बहादुर खाँ को मनसबदारी मिली, परंतु छत्नसाल का काई सम्मान न हुआ ।

दिल्लीपति औरंगजेब हिंदुओं का कट्टर विरोधी था और  वह हमेशा हिंदुओं का नष्ट करने के प्रयत्न में ही रहता था। इसने हिंदुओं पर जजिया नामक कर लगा दिया था, काशी के ब्राह्मणों का वेदाभ्यास बंद करा दिया, त्योहारों पर हिंदुओं के विमानों का निकालना बंद कर दिया, काशी आदि कई स्थानों के मंदिर गिरवा दिए और उनके स्थानों पर मसजिदें बनवा दीं।

उसने मूर्तियों को पैरों के नीचे कुचलवाया । इन्हीं कारणों से हिंदू प्रजा इससे नाराज थी और  जिस प्रकार मध्य भारत में हिंदू धर्म की रक्षा वीर छत्रसाल ने की उसी प्रकार दक्षिण में बीर शिवाजी ने हिंदू धर्म द्वेषी मुसलमानों का साम्राज्य नष्ट करने में कोई कसर नही की ।

कालिंजर – अंग्रेजों से संधि  

आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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