Kritaghn कृतघ्न

इंसान कब ,कहाँ और कैसे Kritaghn कृतघ्न हो जाता है ??  ‘‘सर! मुरादाबाद से तीन बार फोन आ चुका है, कोई बुजुर्गवार महिला हैं, कह रही थीं, आप ही से बात करेंगी। मैंने उन्हें बताया साहब कोर्ट में हैं, एक बजे के बाद जब वह चेम्बर में आएंगे, तभी बात हो पाएगी।’’ निजी सचिव ने नोट बुक खोल ली थी ‘‘एक मिनट।’’ वाशरूम की ओर जाते हुए मैंने कहा, ‘‘तब तक आप नम्बर मिलाइए।’’ निजी सचिव ने फोन मिलाया और दूसरी ओर से ‘हैलो!’ होने के बाद रुकने को कहा गया, तब तक मैं वाशरूम से बाहर आ गया। निजी सचिव ने अपना मोबाइल मुझे थमा दिया।

‘‘भैया! बब्बू भैया बोल रहे हो?’’ ‘‘हां मामीजान मैं बब्बू बोल रहा हूं। सब खैरियत तो है। मामूजान कैसे हैं?’’ ‘‘बब्बू बेटा! खैरियत नहीं है, तुम्हारे मामू की तबीयत बहुत खराब है, रमजान को तो तुम जानते ही हो, कोई फ़िक्र नहीं है उसे, अपने पास बुला लो इन्हें, ठीक से दिखला दो बेटा वहीं लखनऊ में।’’ ‘‘जी…मैं रमजान से बात करता हूं।’’

‘‘कोई फायदा नहीं…यहां अब हम लोग इसके किसी काम के नहीं रहे। बतलाऊं बेटा! जब तक इसके बच्चे छोटे थे, हमने बच्चे सम्भाले, घर की देख-रेख से लेकर झाड़ई-पोंछा तक किया, पर अब नहीं किया होता, तो इलाज भी मुश्किल है। खुदा के लिए बुला लो बेटा अपने यहां। इस दोजख से निकाल लो…तुम्हारे मामू मर जाएंगे।’’ मामी सिसकने लगती है।

‘‘अच्छा ठीक है मामी! अपने आपको सम्भालिए। मैं आप दोनों को बुलवाता हूं लखनऊ, आज ही शाम को। मामू कहां पर हैं, बात कराइए।’’ मामूजान की आवाज धीमी, दयनीय अस्पष्ट सी सुनाई दी। मैंने निजी सचिव को मामूजान की डिटेल नोट कराते हुए निर्देश दिया कि वह मुरादाबाद से बीमार मामू को पी.जी.आई. लखनऊ में शिफ्ट कराने की व्यवस्था कराएं और निजी सचिव के जाने के बाद मैंने अपने ममेरे भाई रमजान को फोन किया, वहां से कोई उत्तर नहीं मिला, घंटी बजती रही।

सायं चार बजे के बाद जब मैं वापस चैम्बर में आया तो दराज में रखे मेरे मोबाइल में रमजान की दस मिस्ड कालें पड़ी थीं। मैंने रमजान को फोन मिलाया। ‘‘भाईजान कई बार मिला चुका हूं, मीटिंग में था…’’ ‘‘कैसे हैं मामूजान?’’ ‘‘परहेज से रहते नहीं हैं, बीमार तो पडेंगे ही, कितनी बार कहा कि…’’ रमजान मैंने पूछा, ‘‘मामूजान की तबीयत कैसी है, डॉक्टर क्या कह रहे हैं?’’

‘‘मैं तो आज ही दिल्ली से आया हूं। पापा को दो-तीन दिन से बुखार है, शालू से पूछता हूं, शालू…शालू…’’ ‘‘अरे सुनो, उन्हें क्या हुआ है…डॉक्टर क्या बता रहे हैं?’’ ‘‘डॉक्टर…क्यों शालू! डॉक्टर को…पापा जी को दिखलाया…भाईजान! डॉक्टर को नहीं दिखलाया। पैरासिटामोल और एंटी…’’ ‘‘बिना डॉक्टर को दिखाए…दवा दे रहे हो।’’ ‘‘ये शालू…बुखार की दवा दी है।’’ ‘‘ऐसा करो मैं व्यवस्था करा रहा हूं। तुम उनको लखनऊ भेजने की तैयारी करो…एक मिनट होल्ड करो, निजी सचिव के चेम्बर में आने पर मैंने उसकी ओर देखा।

‘‘सुनो रमजान! एम्बुलेंस पहुंचने वाली है, मामूजान को तुरन्त वहीं हॉस्पिटल में दिखलाकर मुझे बताओ और वहां कोई परेशानी हो तो लखनऊ साथ में तुरन्त लेकर आ जाना।’’ ‘‘लखनऊ? मेरी कल अरजेंट मीटिंग है भाई…’’ ‘‘ओफ्फो। पहले उनको डॉक्टर को दिखलाओ, फिर फोन करो मुझे।’’ मैं थोड़ा आवेश में आकर बोला।

वाशरूम से वापस लौटकर मैं कुछ देर के लिए विश्राम कक्ष में रखे दीवान पर लेट गया, ऐसा प्रतिदिन करता हूं। पन्द्रह मिनट के इस विश्राम में कोई खलल न हो, इसका ध्यान जमादार रखता था। विश्राम कक्ष की लाइटें बंद कर वह कक्ष के बाहर रखी कुर्सी पर बैठ गया।

‘बब्बू’…‘बब्बू’ कहते, मामू उसे अपने कन्धों पर बैठा लेते थे। जब वह ननिहाल जाता या मामू उनके पास आते थे। हरदम हँसते-मुस्कराते मामू उसे बहुत अच्छे लगते थे। मामू की माली हालत ठीक नहीं रहती थी। अम्मा रुपये-पैसे से अक्सर उनकी मदद करती रहती थी। तीन बेटियों के बाद रमजान के पहले दिन ही मामी के बेटा होने पर उसका नाम रमजान रख दिया गया था।

रमजान के बड़े होते ही उसके बेहतर भविष्य को लेकर मामूजान उसे लखनऊ छोड़ गये थे। अम्मा ने रमजान को बेटे की तरह पाला-पोसा और उसकी पढ़ाई का पूरा ध्यान रखा। वह अपने बच्चों व रमजान के बीच कोई भेद नहीं रखती थीं बल्कि यह कहा जाए कि भेदभाव उनके संस्कार में ही नहीं था, वह कुछ फर्क करना जानती ही नहीं थी। लखनऊ के नामी स्कूल लामाटिनियर से इंटरमीडिएट, लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद ही रमजान बैंक में अधिकारी बन दिल्ली चला गया। वहीं एक ईसाई लड़की के चक्कर में पड़ गया, बहुत समझाने-बुझाने के बावजूद उसने उसी ईसाई लड़की से चर्च में जाकर शादी भी कर ली थी। मां-बाप की रुपये-पैसे से मदद करना तो दूर, उनके हाल-चाल भी उसने लेने बंद कर दिए थे। मामू, मामी अक्सर अम्मा से शिकायत करते, पर सब लाचार थे। रमजान ने अपने बीवी-बच्चों और नौकरी के अलावा सब कुछ भुला दिया था।

अम्मा जी रमजान के इस तरह बदल जाने से आहत थीं। उन्हें उम्मीद थी कि रमजान बड़ा होकर उनके भाई का सहारा बनेगा। उम्मीद फिर जाने से व्यक्ति आहत तो होता ही है। आहत करने वाला यदि उसका सगा है तो उसकी सलामती की दुआ भी करता है। उसे कोसता तो है, पर श्राप कभी नहीं देता और मामा मामी तो कोसना भी नहीं जानते थे।

अम्मा जी की इच्छा जान तीनों ममेरी बहनों को अच्छा घर-वर ढूंढ़कर उनके ब्याह में यथाशक्ति उसने मदद की थी। बहनों के विवाह में रमजान मेहमान की तरह आया और चला गया। बहनों की शादी में उसने धेला खर्च नहीं किया और न ही अपनी बीवी-बच्चों को ही लेकर आया। मुझसे भी वह खिंचा-खिंचा रहा बल्कि व्यंग्य करते हुए एक बार बोला था, ‘‘भाईजान! इतने पढ़े-लिखे थे, कोई कम्पटीशन निकालते, भला! आजकल वकालत में धरा ही क्या है?

मुक्किलों की ओर मुंह ताको, सीनियर्स और जजों की चिरौरी करते फिरो, ऊपर से झूठ पर झूठ बोलते रहो…मुझे तो वकालत का पेशा निहायत वाहियात लगता है। मुझे देखो शान से नौकरी करता हूं। संडे हो या मंडे, अपनी पगार पक्की।’’ और पता नहीं क्या-क्या व्यंग्य बाण चलाता रहा था। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कुछ लोगों की फितरत में होता है।

यही फितरत रमजान में उन दिनों कूट-कूटकर भरी हुई थी। चेम्बर के दरवाजे पर कुछ खटका, ध्यान भंग हुआ, दीवान से उठकर मैंने टेबिल पर लगी बेल पुश कर दी जो जमादार के लिए संकेत होता था। चेम्बर की लाइटें जमादार ने जला दीं। निजी सचिव को खबर कर दी, ‘‘हुजूर जाग गए हैं।’’

निजी सचिव ने बताया, ‘‘मामूजान को एम्बुलेंस से जिला अस्पताल में ले जाया गया, वहां डॉक्टर से भी बात कर ली हैं। डेंगू की सम्भावना बता रहे हैं। टेस्ट होंगे, वहीं कराए जाएं या जैसा सर आप बताएं।’’ ‘‘एक पल विचार करने के बाद मैं बोला, ‘‘वहां कोई फायदा नहीं, लखनऊ शिफ्ट करा लो। पीजीआई, लोहिया, बलरामपुर कहीं भी बात कर लो अगर डेंगू निकला तो कौन-सा हॉस्पिटल ठीक रहेगा।’’

‘‘तीनों ठीक हैं, सिविल भी ठीक है, जहां कहें सर! सहारा प्राइवेट है।’’ ‘‘सहारा।’’ ‘‘जी सर! इलाज और व्यवस्था के मामले में नम्बर वन है। इस समय लखनऊ के सारे अस्पताल डेंगू के मरीजों से भरे पड़े हैं।’’ ‘‘तो फिर सहारा से बात करो और वहीं एडमिट कराओ, पांच बज रहे हैं मुरादाबाद से लखनऊ आते-आते दस-ग्यारह तो बज ही जाएंगे।’’ …. ‘‘जी सर।’’…. ‘‘ठीक है कराओ।

मैंने मोबाइल से घर बात की, अम्मा जी को बताया। निवास में पहुंचते-पहुंचते शाम के सात बज चुके थे। भाई के स्वस्थ हो जाने की दुआ करते अम्मा जी चिंतित मिलीं। अम्मा जी की मंशा जान व मामूजान की नाजुक स्थिति देख उन्हें शहर के सबसे महंगे व अच्छे सहारा हॉस्पिटल में भर्ती करा दिया गया। मामी एक पल के लिए भी मामूजान को अपनी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं। यही स्थिति अम्मा जी की थी, वह अपने भाई को शीघ्र स्वस्थ देखना चाहती थीं।

हॉस्पिटल में सभी उचित प्रबन्ध कर दिए गये थे। मामूजान की ब्लड रिपोर्ट में डेंगू पाया गया था। प्लेटलेट्स चालीस हजार पर आ चुके थे। बुखार उतारने के लिए पैरासिटामोल के साथ दी गयी एंटीबॉयटिक दवाओं ने पर्याप्त दुष्प्रभाव छोड़ रखा था। रमजान व शालू की घोर लापरवाही से मामूजान की जान पर बन आई थी।

हॉस्पिटल में भर्ती हुए मामूजान को पूरा एक सप्ताह हो रहा था, पर उनके स्वास्थ में सुधार रंचमात्रा भी नहीं हुआ था। प्लेटलेट्स तमाम उपायों के बावजूद बढ़ नहीं रहे थे। रमजान को फोन करना बंद कर दिया गया था। उसका फोन आए, सवाल ही कहां उठता था। कैसा कलयुगी बेटा है जो अपने बीमार बाप को हॉस्पिटल आकर देखना तो दूर फोन से हालचाल भी नहीं लेता था। कैसा बैंक, कैसी नौकरी? कैसी व्यस्तता जो अपने ही मां-बाप के लिए समय न दे सके?

यह भी कहना मुनासिब न था कि ‘वह उस चुड़ैल क्रिस्ट्रान के चंगुल में है।’ जैसा कि मामीजान कहा करती थी और अम्मा अपने भाई की नाजुक हालत में उनकी हर बात पर सहमति जतातीं। डेंगू के प्रकोप ने मामूजान को पूरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया था। सुबह से ही उनकी हालत खराब हो चली थी। उल्टियां रुक ही नहीं रही थी।

प्लेटलेट्स दस हजार पर आ चुके थे। डॉक्टर्स नाउम्मीद हो चुके थे। तमाम कोशिशों के बावजूद मामूजान को बचाया नहीं जा सका। पद, प्रभाव, पैसा और उत्तम चिकित्सकीय सुविधा के बावजूद, जब हम अपने प्रिय को बचा नहीं पाते, तब कहीं महसूस होता है, कहां, कैसे और क्या चूक हो गयी और फिर सिर्फ और सिर्फ अफसोस करने के सिवाय कुछ शेष नहीं रह जाता है।

हॉस्पिटल का कुल खर्चा दो लाख के करीब आया था जिसे मैंने चुका दिया था। रमजान को इत्तला कर दी गयी थी। प्रतीक्षा थी कि वह आए और मामूजान को सुपुर्देखाक किया जाए। रमजान की प्रतीक्षा बेमानी लग रही थी, पर कहीं रस्मोदस्तूर हमारे दिलोदिमाग में कायम करता है कि इस मौके पर बेटा आए।

भले ही वह महानालायक और नाकारा ही क्यों न हो, रमजान की तरह। मेरी तीनों ममेरी बहनें रमजान के आने से काफी पहले अपने परिवार के साथ लखनऊ पहुंच चुकी थीं। तीनों का रो-रोकर बुरा हाल था। रमजान पहले की तरह अकेला ही आया। उसके अकेले आने पर सभी मन ही मन नाखुश थे, पर मौके की नजाकत को देखते हुए हम सभी खामोश रहे।

रमजान की आंखों का पानी मर चुका था। उस बेगैरत इन्सान की आंखों से एक बूंद आंसू का नहीं टपका। पुत्रा होने के अंतिम फर्ज को वह रस्म की तरह पूरा करता रहा, पर यहां गौर करने लायक बात यह थी कि मामूजान के जनाजे के समय का सारा व्यय वह ऐसे वहन कर रहा था जैसे उसने ही अब तक का सारा खर्चा उठाया हो। कब्रिस्तान में भी दिल खोलकर रुपये बांटे। उसी की लापरवाही के कारण मामूजान का यह हाल हुआ था।

देहली वापसी का ट्रेन का टिकट लम्बी वेटिंग में था। रात को ही रमजान को वापस नई दिल्ली लौटना था। अपने साथ मामी को ले जाने का न तो उसने जिक्र किया, न ही आगे उन्हें ले जाने का कोई इरादा उसकी बातचीत से स्पष्ट हो सका था। ‘‘बब्बू भैया! मेरा वापसी का टिकट लम्बी वेटिंग में है।’’ रमजान ने खीसें निपोरी थीं। रमजान का बोलता चेहरा देखने से लग रहा था जैसे कह रहा हो, खुदगर्ज, बेशर्म और बेगैरत इन्सान की जब भी मिसाल देना, मेरा जिक्र करना, मुझको नमूना करना।

यह वही रमजान था जो कभी मेरे वकालत पेशे की खिल्ली उड़ाता था। आज मेरे पद व रुतबे के सामने नतमस्तक, फीका पड़ा था। मैंने निजी सचिव को मोबाइल पर निर्देश देते कहा, ‘‘मौर्या! देहली के लिए लखनऊ मेल से एक टिकट कन्फर्म करा देना माई ब्रदर मि. रमजान हुसैन, एज 49, पी.एन.आर. नम्बर 265-2420467’’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

आलेख -महेंद्र भीष्म

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