कलकत्ता की सेना जो मध्यभारत की ओर रवाना हुई उसके नायक करनाल वेलेसली थे। वेलेसली ने बुन्देलखण्ड में घुसने का निश्चय कर ही लिया था और उन्होंने संवत् 1835 में कालपी पर आक्रमण कर दिया। चार महीने तक अंग्रेज कालपी मे रहे पर आगे नहीं बढ़ पाए । उस समय अँगरेजों का गवर्नर वारेन हेस्टिंग्ज बड़ा कूटनीतिज्ञ था । उसने नागपुर के भोंसले से एक गुप्त संधि कर ली थी जिसके अनुसार भोंसले ने अंग्रेजों की सेना को नहीं रोकने का वचन दिया था। परिणाम Bundelkhand Me Angrejo Ka Aakraman शुरू हो गया
अँगरेजों और फ्रांसीसियों का युद्ध संवत् 1820 में समाप्त हुआ और इस युद्ध में अँगरेजों की जीत हुई। अँगरेज धीरे धोरे अपना राज्य बढ़ा रहे थे। मुगलों से सनदें लेकर अँगरेजों ने कारखाने खोले और इन कारखानों की रक्षा के बहाने वे लोग सेना रखने लगे और कारखानों के आसपास किले भी बनवाने लगे।
जिस समय राजाओं में प्रापसी युद्ध हो रहे थे उस समय अगरेजों ने अपनी सेना बढ़ाई और कमजोर राजाओं से देश छीनना इन्होंने आरंभ कर दिया। इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अँगरेज लोग भारत के सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य के अधिकारी हो गए । बक्सर के युद्ध के पश्चात् अँगरेजों को बंगाल की आमदनी वसूल करने का अधिकार मिल गया। इस समय अँगरेजों की ओर से गवर्नर लार्ड क्लाईव था।
बाजीराव के पश्चात उनका पुत्र बालाजी बाजीराव उर्फ नाना साहब पेशवा हुआ । नाना साहब के मरने पर पूना में फिर झगड़े शुरू हो गए। अधिकतर सरदारों की सम्मति से माधवराव पेशवा हुए पर थोड़े ही दिनों के बाद वि० सं० 1829 में वे बीमारी के कारण मर गए। इनके मरने पर इनके भाई नारायणराव पेशवा बनाए गए।
नारायणराव पेशवा राघोबा की सहायता से मार डाले गए और राघोबा ने स्वयं पेशवा होने का दावा किया। महाराष्ट्र के सरदार चाहते थे कि राघोवा पेशवा न हों । इन सरदारों में मुख्य नाना फड़नवीस थे। जब राघोवा ने पेशवा बनना बहुत कठिन देखा तब इसने अँगरेजों से सहायता माँगी। अंग्रेजों को यह सुनकर बहुत खुशी हुई और उन्होंने राघोवा की सहायता के लिये अपनी सेना भेजी। इस सहायता के कारण महाराष्ट्र में बहुत परिवर्तन हुए परंतु इनका सबसे पहला धक्का बुंदेलखंड को लगा ।
बुन्देलखण्ड की स्थिति इस समय बड़ी सोचनीय थी। बुंदेलखंड के दक्षिण में गोंड लोगों का राज्य था। गोंड राज्य धीरे धीरे छोटा होता जा रहा था। और इस समय गोंड राजा और मराठों से भी झगड़े हो रहे थे। पेशवा ने महाराजशाह पर आक्रमण करके इसे हरा दिया, महाराजशाह युद्ध में मारा भी गया।
महाराजशाह के पुत्र शिवराजशाह ने मराठों से सुलह कर ली और मराठों को चार लाख रुपए सालाना मिलने भी लगे । यह रकम चौथ के रूप में सागर वालों को दी जाती थो। भोंसले भी ललचाये और उन्होंने भी गोंड राज्य से छौथ माँगी ! परंतु गोंड राज्य चौथ नही दे सकता था और नागपुरवालों से लड़ भी नही सकता था । इसलिये राजा शिवराजशाह ने अपने राज्य के 6 गढ़ भेंसलों को दे दिए।
शिवराजशाह के मरने पर उसका लड़का दुजेनशाह संवत् 1806 में गद्दी पर बैठा परंतु इससे प्रजा असंतुष्ट थी और इसके काका निजामशाह ने इसे मरवा डाला और वह राजा बन गया। निजामशाह ने शासन अच्छा किया और मराठों को चौथ देना बंद कर दिया। सागरवालों ने निजामशाह पर आक्रमण करके उसे हराया और उसके भतीजे नरहरशाह को राजा बनाया।
नागपुरवालों ने निजामशाह के पुत्र सुमेरशाह का पक्ष लेकर नरहरशाह को गद्दी से उतार दिया और सुमेरशाह को राजा बनाया। सागरवालों ने फिर गढ़ा पर चढ़ाई की, सुमेरशाह को कैद कर लिया और नरहरशाह को राजगद्दी दी। नरहरशाह राजा था, परंतु मराठे नरहरशाह के राज्य मे बहुत हस्तक्षेप करते थे और गढ़ा मे मराठों की एक सेना भी रहती थी। नरहरशाह यह पसंद नही करता था और वह अपने मंत्री गंगा गिर की सहायता से मराठों से स्वतंत्र होने का प्रयत्न कर रहा था।
बुन्देलखण्ड के बुंदेले राजाओं मे भी झगड़े हो रहे थे। पन्ना राज्य से भी इसी प्रकार के आपसी झगड़े हो रहे थे। राजा हिंदूपत की मृत्यु विक्रम संवत् 1821 में हुई। इनके बड़े पुत्र सरमेदसिंह को राज्य न दिया गया परंतु छोटे पुत्र अनिरुद्धसिंह को राज्य मिला । पन्ना राज्य में इस समय दो दीवान थे।
इन दोनों में राजा अनिरुद्धसिंह वेनी हजूरी का पक्ष लेते थे और दूसरे दीवान कायमजी चौबे की कुछ नही चल पाती थी। इसलिये कांयमजी चौबे भी सरमेदसिह को उकसाने का प्रयत्न कर रहे थे। कई राजा लोग भी सरमेदसिंह की सहायता के लिये तैयार थे। सारा बुंदेलखंड इस पन्ना राज्य-संबंधी झगड़ों में लगा हुआ था । इसी समय अँगरेजों ने इस झगड़े से फायदा उठाया।
राघोबा को अंग्रेजों ने सहायता देने के लिये सेना भेजने का निश्चय कर लिया। फौज कलकत्ते से भेजी जानेवाली थी । साधारणत: फौज कलकत्ते से बंबई को जलमार्ग से भेजी जाती थी । परंतु अंग्रेजों को मध्यभारत का हाल मालूम था इसलिये उन्होंने अपनी सेना मध्यभारत में से भेजने का निश्चय किया।
अवध के सूवेदार अंग्रेजों के मित्र थे इसलिये अंग्रेजों की सेना यहाँ तक आसानी से आ सकती थी । अंग्रेज लोग किसी प्रकार कालपी पर अपना अधिकार कर लेना चाहते थे और इसी लिये उन्होंने अपनी सेना मध्यभारत होती हुई भेजी थी । कालपी एक बड़ा प्रधान नगर समझा जाता था । जिसके अधिकार में यह नगर आ जाता था उसे चारों ओर आक्रमण करना आसान हो जाता था।
मुसलमानों ने जब बंगाल पर पहले आक्रमण किया था तब उन्होंने कालपी पर अपना अधिकार सबसे पहले किया था। मराठों ने दिल्ली पर जब आक्रमण किया तब कालपी का उनके अधिकार मे होना उन्हें बहुत सहायक हुआ था । अंग्रेज चाहते थे कि किसी भी प्रकार उनका अधिकार कालपी पर हो जाय। उन्हें कालपी पर चढ़ाई करने का बहाना यही था कि वे राघोबा पेशवा की सहायता को जाना चाहते थे। बुंदेलखंड के मराठे राघोवा के विरुद्ध थे और उन्होंने अँगरेजों की गति रोकने का निश्चय कर लिया था । काल्पी, जालौन और कोच के प्रबंध की देख-रेख इस समय गंगाधर गोविंद करते थे।
कलकत्ते की सेना जो मध्यभारत की ओर रवाना हुई उसके नायक करनाल वेलेसली थे। इन्होंने गंगाधर गोविंद से मध्य भारत होते हुए जाने की अनुमति माँगी पर गंगाधघर गोविंद ने अनुमति नही दी। करनाल वेलेसली ने बुन्देलखण्ड में घुसने का निश्चय कर ही लिया था और उन्होंने संवत् 1835 में कालपी पर आक्रमण कर दिया। कालपी के समीप मराठों से अँगरेजों ने युद्ध किया।
अँगरेजों ने मराठों को हराकर कालपी पर अधिकार कर लिया। इतने पर भी मराठों ने धैर्य नहीं छोड़ा और उन्होंने अँगरेजों की सेना को कालपी से आगे नही बढ़ने दिया। चार महीने तक अंग्रेज कालपी मे रहे पर आगे नहीं बढ़ पाए । उस समय अँगरेजों का गवर्नर वारेन हेस्टिंग्ज बड़ा कूटनीतिज्ञ था । उसने नागपुर के भोंसले से एक गुप्त संधि कर ली थी जिसके अनुसार भेंसले ने अंग्रेजों की सेना को नहीं रोकने का वचन दिया था।
भोपाल के नवाब को भी अँगरेजों ने मिला लिया था। इसलिये अँगरेजों का डर केवल यमुना से विंध्यगिरी तक का ही था, क्योंकि इस भाग पर ही गंगाधर गोविद का अधिकार था। शेष भाग पर भोपाल के नवाब और भोंसले का अधिकार था और इन लोगों ने अंग्रेजों की फौज को न रोकने का वचन दे दिया था। परंतु गंगाधर गोविद के राज्य से निकलना ही अगरेजों को असंभव मालूम होने लगा ।
इसलिये अंग्रेजों ने दूसरी युक्ति सोची। वेलेसली के एक सहायक सेनापति गॉडर्ड ने कायमजी चौबे को मिलाया। कायमजी चोबे को आशा दी गई कि अंग्रेज तुम्हारी सहायता करेंगे। विश्वास में आकर कायमजी ने केन नदी के किनारे से बुंदेलखंड में होते हुए जाने का मार्ग दे दिया। अंग्रेज इस मार्ग से निकल गए।
यह सेना कर्नल गॉडर्ड के साथ मालथौन, खिमलासा, मिलसा और होशंगाबाद होती हुई दक्षिण में पहुँची। भोपाल के नवाब और भोंसले ने अँगरेजों की संधि के अनुसार अंग्रेजी सेना को नही रोका । गॉडर्ड सिंधिया को हराता हुआ महाराष्ट्र में पहुँचा और वहाँ मराठों से उसका युद्ध हुआ । इस युद्ध का अत संवत् 1838 में हुआ ।
अँगरेजों और मराठों से संधि हो गई और राघेवा पेशवा न बनाया गया, वरन नारायण राव का पुत्र साधव नारायण पेशवा बनाया गया। इस प्रकार नाना फड़नवीस की बात रह गई। नाना फड़नवीस पहले से ही माधव नारायण के सहायक थे |
बुन्देलखण्ड में से अंग्रेजों के निकलने से मराठों की व्यवस्था शिथिल हो गई। परंतु मराठों ने अंग्रेजों के चले जाने पर कालपी पर फिर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने कायमजी चौवे को सहायता देने का वादा किया था। परंतु कायमजी चौबे और बेनी हजूरी में जो युद्ध हुआ उसमें अंग्रेजों की कोई सहायता न थी ।
कायमजी चौबे ने सरमेदसिंह का पक्ष लिया । बॉँदा के राजा गुमानसिंह ने अपने प्रसिद्ध सेनापति नोन अर्जुनसिंह को सरमेदसिंह की सहायता को भेजा । इस युद्ध के लिये दोनों ओर से बड़ी तैयारियाँ हुई। यह युद्ध इतना भयानक हुआ कि इसे कई विद्वानों ने बुंदेलखण्ड का महाभारत कहा है। पन्ना राज्य की सेना का नायक वेनी हजूरी था। वेनी हजूरी और नोने अर्जुन सिंह का युद्ध गठेवरा के निकट संबत् 1840 में हुआ।
इस युद्ध में कई वीर मारे गए। कहा जाता है कि इस युद्ध के कारण सारा बुंदेलखंड वीरें से खाली हो गया । नोने अर्जुन सिंह बड़ी वीरता से लड़े। उनके शरीर में 18 घाव लगे थे। अंत में नोने अर्जुनसिंह की विजय हुई। बेनी हजूरी युद्ध में मारा गया। पन्ना का राज्य सरमेदसिंह को मिला।