Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यAdikalin Bundeli Lokkavya Srijan आदिकालीन बुन्देली लोककाव्य सृजन

Adikalin Bundeli Lokkavya Srijan आदिकालीन बुन्देली लोककाव्य सृजन

Bundelkhand के Adikalin Bundeli Lokkavya Srijan के तृतीय चरण  की कालपरिधि 14वीं शती से 15वीं शती का पूर्वार्द्ध तक निर्धारित की गई है। इस काल मे चन्देलनरेश भोजवर्मन का राज्य-काल रहा । इन सौ-डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों की हृास हुआ है।

बुन्देली लोककाव्य सृजन 14वीं शती से 15वीं शती

 

चन्देलों का पराभव (शिकस्त)
चन्देलनरेश भोजवर्मन के राज्य-काल (1282-1300 ई.) में अजयगढ़ और कालिंजर का छोटा प्रदेश ही उसके राज्य में सम्मिलित था। चन्देल उत्तराधिकारियों में ही राज्य के छोटे-छोटे टुकड़े हो गए थे। एक अगौरी बड़हर का चन्देल राज्य, जो मिर्जापुर जिले के भीतर था; दूसरा विजयगढ़ राज्य, जो वाराणसी के दक्षिण भाग में था, तथा वरदी राज्य जो रीवा राज्य की पूर्वी सीमा पर था।

गुलाम वंश का बादशाह बलबन अनेक बार अपने आक्रमणो से इस प्रदेश को रौंदता रहा और खास तौर से इस प्रदेश के पश्चिमी प्रदेश को 1300 ई. के पश्चात् मुसलमानों ने कई आक्रमण किये थे। कुतुबुद्दीन ऐवक, अल्तमश, नसीरूद्दीन और बलबन ने कई आक्रमण किए और चन्देलों के पुख्ता राज्य को विनष्ट कर दिया।

आशय यह है कि 14वीं शती से लेकर 15वीं शती तक के पूर्वार्द्ध तक अशान्ति ही बनी रही। मुसलमानों के हिंसक आक्रमणों से समाज की मनोवृत्ति में काफी परिवर्तन आ चुका था। सभी वर्ण और जातियाँ अपने में सिमटकर ‘कछुआ धर्म’ का पालन करते थे। पूरा समाज अपने आचरण में कट्टर और मान्यताओं में रूढ़ हो गया था, जिसकी वजह से उसमें सामाजिक दुर्बलताएँ भी आ गई थीं।

अपनी संस्कृति और धर्म में विनाश होने के भय से वे तुर्कों से दूर रहते थे, जिसे इतिहासकार अलबेरूनी ने स्पष्ट किया है। उसका आरोप है कि हिन्दू उन्हें ‘म्लेच्छ’ कहते थे और उनके स्पर्श से ही अपने को ‘अपवित्र’ मान लेते थे। वस्तुतः तुर्कों की निर्मम और घातक हिंसा, स्त्रिायों का अपहरण एवं पुरानी धरोहर नष्ट करने की नृशंस मनोवृत्ति ने समाज को कट्टरता और रूढ़िवादिता अपनाने के लिए विवश कर दिया था।

सामाजिक परिस्थिति में लोकसंस्कारों के पालन में भी कट्टरता आ गई थी। स्त्री के अपहरण और अपमान की समस्या का समाधान कठिन हो गया था, इसलिए कन्या-वध का प्रचलन हुआ। साथ ही बाल-विवाह भी होने लगे। विवाह एक ही उपजाति में होने लगे थे। पति के युद्ध में जूझने और निधन होने पर सती प्रथा का सहारा लेना स्त्री के लिए विवशता बन गई थी।

सभी प्रकार की बाधाओं से बचने के लिए तन्त्र-मन्त्र की क्रियाओं पर विश्वास होना प्रारम्भ हो गया था। धीरे-धीरे पाखंडों का राज्य हो गया। सम्प्रदायों का परस्पर संघर्ष तेज हो चुका था। हिन्दू समाज के लोग तुर्कों से घृणा करते थे, इसलिए दोनों के मूल्यों में भी संघर्ष था। यह सब होते हुए भी समाज के सचेत सदस्य अपने देश और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना बलिदान करने को कटिबद्ध रहते थे। अनेक देवियों-देवों की पूजा चल पड़ी थी, क्योंकि पराजित मन किसी-न-किसी देवी या देव से संरक्षण पाने का अभिलाषी था। पराजय की निराशा को भक्ति की आस्था ही दूर कर सकती थी।

वीररसपरक लोककाव्य
विदेशी आक्रमण के साथ विदेशी संस्कृति की घुसपैठ ही अधिक घातक थी, जिसका सामना लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति ने अहिंसक रूप में किया था। सत्ता का दमन इतना ज़्यादा था कि मनुष्यों का आन्दोलन खड़ा करना कठिन था, क्योंकि उस समय कोई राज्य संगठित और शक्तिशाली नहीं था।

सर्वत्र विशृंखलन, विभाजन और बिखराव था। यहाँ तक कि परिनिष्ठित साहित्य में Bundelkhand के Adikalin Bundeli Lokkavya की भी कोई प्रामाणिक रचना इस जनपद में नहीं मिली, जिसके जुझारू तेवर हों और भले ही उसका माध्यम प्रतीकात्मकता हो। ऐसी स्थिति में लोककाव्य ने ही लोक के जागरण का उद्देश्य निश्चित किया था और लोकमन की चेतना को झकझोरा था। उसकी अभिव्यक्ति के दो रूप थे।

भक्तिपरक लोककाव्य
भक्तिपरक लोकगीतों में देवीपरक गीत ही ऐसे हैं, जिनमें संकट से रक्षा करने का उत्साह है। एक गीत में दुष्ट और बलकारी को नष्ट करनेवाली दुर्गा से संकट काटने की प्रार्थना की गई है।
कर-करके समर तूने दुस्टन को दीनो मिटाय।
बड़े-बड़े बलकारी जायके दीनो कटाय
बिघन विनासन हार मैया संकट काटन हार।

देवी जू को बिघ्न-विनाशक मानकर लोककवि ने तत्कालीन संकट की ओर संकेत किया है। इस रूप में भक्ति वीररस-प्रधान हो जाती है। देवीपरक गीतों में संघर्ष के लिए उत्साह मिलता है, जबकि शिव, राम, कृष्णपरक में या तो लीलापरक व्यापारों का संकेत है या पारिवारिक सम्बन्धों का। शिवपरक गीतों में वैवाहिक आनन्द की उपलब्धि को कठिन साधना या तपस्या का फल माना गया है और रामकृष्णपरक गीतों के लीला-संकेतों से स्पष्ट है कि लोक में रामकृष्ण-कथा प्रचलित थी।

पारिवारिक और सामाजिक लोककाव्य
पारिवारिक लोककाव्य में परिवार के विविध चित्र उभरे हैं। एक तरफ लोकसंस्कारों, जन्म और विवाह के वर्णन हैं तो दूसरी तरफ परिवार के सदस्यों के परस्पर सम्बन्धों के वास्तविक चित्राण हैं। लोककवि जो अपनी आँखों से देखता है, वही लिखता है। मुसलमानों के लगातार हमलों से रक्षा के लिए पुरुषों की जरूरत थी, जबकि स्त्री की रक्षा की समस्या बनी हुई थी। इसी कारण पुत्रा-जन्म पर पूरा परिवार फूला नहीं समाता था और पुत्री-जन्म पर वज्र की रात्रि होती थी। एक लोकगीत में दोनों स्थितियों के प्रभाव का यथार्थ अंकन है।


ता दिन पूत तुम जनमे, भई है सोने की रात।
देवरानी जिठानी मोरी होंसी फूली डोलें।
ससुरा लुटाबै रास।
ता दिन धीय तुम जनमी, भई है बजुर की रात।
सास जिठानी मुख हू न बोलें,
सैयाँ सँवरिया पर घर सोथे,
ससुर बसे खरियान।


संकटों से घिरी परिस्थिति में परिवार सिमट जाता है और भीतरी सम्बन्ध घनिष्ट हो जाते हैं। आदिकाल में बहिन-भाई के सम्बन्ध काफी गाढ़े थे, अब पराभव-काल और प्रगाढ़तम हो गए थे। बिटिया के विवाह में विदा होने पर माता-पिता और भाई को कितना दुख होता था। परिवार के भीतर ही भीतर सभी व्यापारों के सीमित होने से भौजी और ननद के सम्बन्ध तनावग्रस्त हो गए थे।

चन्द्रावल बिटिया दूर री माई
उनके भइया लिबउआ जायँ री
उनके चन्दा सूरज दो वीर री माई
उनके नीले घुड़ला सजे साज री माई।

तेवरइया के फूल भौजी सदई न फूलें
सदई न सावन हम झूलन आबी

काहे खों भौजी मोरी आँखें निकारो
बन की मुनइया-सी उड़ उड़ जैहैं।

भइया कहत हैं पासई बियाहैं
भौजी नें कर दई हमखों पराई

आज की रात भौजी तुमरे भवनै
कल तो चले परदेस की गैलैं।

सामाजिक चेतना जगाने के लिए लोककाव्य में देह की नश्वरता, प्रेम की दृढ़ता और पौरुष को चुनौती देनेवाली वस्तु का चयन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किया गया है।
का लै आये का लै जैहो, का पै करो गुमान।
काया माया डरी रहे, जायँ अकेले प्रान

खेत तो बइये कपूर के, कस्तूरी के बाग।
बायँ तो गइये सपूत की, और निभा लै जायँ

निभा लेव बारे की प्रीत बुढ़ापे नों।
फल खाये ते प्रेम सौं, रये तुमायी छायँ

अबका उड़हैं देस कों, हम जरें तुमाये साथ।
बिरछा बे पंछी जानों ना रे।

मरदवा जबई बदहों रे,
जबई बदहों रे, जब चल्लाँ में गइया लगाव रे।

वैविध्यपरक लोककाव्य
वीररस जहाँ प्रधान होता है, वहाँ शृंगार गौण रहता है। लोकजीवन में तो उसका रस संजीवनी बूटी के रस की तरह है, अतएव यत्र-तत्र सैरा, लमटेरा और फागों में उसके उदाहरण मिलते हैं।

नजर के सामूँ रइयो,
अरे सामूँ रइयो, बिन देखें परत नइयाँ चैन रे…।
चंचल लुगइया रे,
अरे हरवाये की हाँ हाँ

चंचल लुगइया अरे हरवाये की,
सींकन कजरा देय रे।

मारे बखर के अरे भोंदू सो गये,
ऊको जियरा लहरियाँ लेय रे…।

उक्त उदाहरणों में कृष्ण की चंचल पत्नी की भावुकता का लोकसहज चित्राण है, जो बखर चलाने के श्रम के कारण सोये पति को देखकर अपने मन की भावुक लहरों के संग बहती रहती है। ‘जियरा लहरियाँ लेय’ में अतृप्ति के फलस्वरूप उठनेवाली यौवन की अंगड़ाइयों का सहज संकेत है।

निश्चित है कि विदेशी संस्कृति का सामना अपने दर्शन, अध्यात्म और नीति से ही संभव है, अतएव संकटापन्न काल में उनकी सजगता अनिवार्य थी और उसका आभास तत्कालीन लोककाव्य मे दिखाई पडता है।

उड़ चल रे हंसा तुही, जौ पिंजरा न सुहाय रे।
कै उड़ चल तू मानसरोवर, कै चंदन की डाँग रे

बैरिन भई जा देहिया, अँगना रोकैं गैल।
माई बाप रिनिया करें, बेड़ी डारैं छैल।

पिया लै चलो अपने देसा रे।
पात बिहूने रूखड़ा हो, बिना सार ससुरार।

बहिन बिहूनी बीर बिन, गलिया बिसूरत जाय।

पहले उदाहरण में हंस आत्मा का प्रतीक है, जो देह के पिंजड़े में नहीं रहना चाहती। इसलिए वह मानसरोवर या चन्दन के वन में उड़ना चाहता है। दूसरे उदाहरण में भी देह, आँगन जगत के प्रतीक हैं और माता-पिता उसके ऋण का भार तथा रसिक प्रेमी बेड़ियाँ डालकर उसे रोके रहना चाहते हैं, पर जीव ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह अपने देश ले चले।

दोनों उदाहरणों में दार्शनिकता और अध्यात्म का समन्वय है। तीसरे में नीतिपरक कथन है कि जिस तरह पत्तों के बिना पेड़ शोभा नहीं देता, उसी तरह साले के बिना ससुराल शोभा नहीं पाती, क्योंकि भाई के बिना बहिन गली भर बिसूरती रहती है।

एक नीतिपरक लोकगाथा भी मिली है, जिसमें ‘सत्त’ के ग्रहण करने से सब कुछ मिल जाता है। राजा के ‘सत्त’ की परीक्षा ही अग्निपरीक्षा है। प्रस्तुत गाथा में राजा जब ‘दलुद्दर’ की मूर्ति के गुण बखान करने के लिए कहता है और कलाकार बतलाता है कि मूर्ति अवगुणों की खान है। तभी से राजा की परीक्षा शुरू होती है।

राजा को विपत्ति के घेरने, सुखों को भगने और क्रूर अर्जन होने की चिन्ता नहीं रहती और वे मूर्ति को खरीदकर अपने प्रासाद पहुँचा देते हैं। फलस्वरूप प्रजा, कर्त्ताकामदार, न्याय, धर्म और लक्ष्मी, सभी राज्य छोड़कर चले जाते हैं। फिर भी राजा सत्त को नहीं छोड़ता। इस ‘सत्त’ की परीक्षा ही अग्निपरीक्षा है, जो इस गाथा को लोकगाथा की संज्ञा से अभिषिक्त कर देती है। नीतिपरक गाथा का इससे अधिक सटीक उदाहरण दूसरा नहीं मिलता।

बुन्देलखंड की मूर्तिकला के इतिहास में अलक्ष्मी की मूर्ति एक महत्त्वपूर्ण विशेषता रखती है। लेकिन पुरातत्त्व में उसकी कोई कथा नहीं मिलती। मेरी समझ में ‘अलक्ष्मी’ और ‘दालुद्र’ एक ही हैं। यह लोकगाथा मूर्तिकला की मूकता को मुखरता देती है।

लोकजीवन में जहाँ जीविका अर्जित करने के लिए व्यवसाय जरूरी है, वहाँ मनोरंजन के लिए खेल और नृत्य। लोकोत्सव में सामाजिक एकता और रंजन, दोनों होते हैं। सभी क्रिया-कलापों को तत्कालीन लोककाव्य ने महत्त्व दिया है।

छिटक जुन्हैया निरमल जुनि हुइयो,
जिन मोरी बैरिन होय।
पिया पसर खों बरदा ढीलें, मोरी सूनी सिजरिया होइ
असढ़ा तो लागे रे,
असढ़ा तो लागे ओ मोरे प्यारे,
दूब गयी हरयाय।
बीरन लुबउआ आये नहीं,
घर चुनरी धरी रँगाय
गौर री गौर, खोलो किवरियाँ
बाहर ठाँड़ी पूजनहारी।
गौर पुजंतर बेटी आयी सहुद्रा
गौर पुजंतर पूजा को फल माँगै।
मात पिता को राज जो माँगै।
भइयन की जोड़ी माँगै
भौजी गोद भतीजो माँगै।


उक्त पहले उदाहरण में कृषक की पत्नी चाँदनी से निवेदन करती है कि वह स्वच्छ मत  हो, नहीं तो उसकी बैरी बन जाएगी, क्योंकि उसके कृषक पति बैलों को पसर चराने चले जाएँगे और उसकी सेज सूनी हो जाएगी। दूसरा उदाहरण सैरा नृत्यगीत का है और तीसरा नौरता खेल का है, जिसमें गौरी से एक कन्या माता-पिता का राज्य माँगती है। इस प्रकार इस समय भी Bundelkhand के Adikalin Bundeli Lokkavya मे गीत की वास्तविकता का चित्रण करने के लिए लोकजीवन के विविध कार्यव्यापारों का अंकन किया है।

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि संकट-काल की कठिन परिस्थितियों में लोककाव्य ने अपने कवि-कर्म का उचित निर्वाह किया है। लोककवि शासन के दमन से नहीं डरता, पर आक्रमणकारियों के निरंकुश और हिंसक हमलों के कारण वीरतापरक लोकगीत कम रचे गए और भक्तिपरक अधिक। इससे इस निष्कर्ष पर पहुँचना सरल है कि लोक का उत्साह प्रत्यक्ष रूप में न प्रकट होकर व्यंजना से व्यक्त होता रहा है। उस काल का अधिकांश लोककाव्य तो उपलब्ध नहीं है।

इस काल के लोककाव्य में राम, कृष्ण, शिव आदि की लीलाओं के संकेत भी मिलते हैं, जिनसे मध्ययुगीन भक्तिपरक रामकृष्ण काव्य और लोककाव्य का प्रेरणा-स्रोत खोजने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।  एक स्थिति यह भी है कि इस काल में दोहे पर आधारित लोककाव्य अधिक प्रचलित रहा, गाहा पर कम। भक्तिपरक लोककाव्य की लोकप्रियता यह सिद्ध करती है कि लोक की हताशा के उपचार के लिए उसके विकास की अति आवश्यकता थी और यह तथ्य लोककवियों की समझ में था।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’ जी के मार्गदर्शन मे
डॉ.रामशंकर भारती जी के मार्गदर्शन मे
श्री विनोद मिश्र ‘सुरमणि’ जी के मार्गदर्शन मे

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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