Bundeli Lok-gathayen बुन्देली लोक-गाथायें

लोक जीवन में लोक-गाथाएँ बड़े प्रेम और तन्मयता से गायी तथा सुनाई जाती है। यह कथा परक गीत होते हैं। इनमें कहानी गीत के माध्यम से आगे बढ़ती है। इस प्रकार लोक- गाथाओं को इति वृातात्मक लोक काव्य कहा जा सकता है। इनका आकार सामान्य लोक गीतों से अधिक बड़ा होता है। Bundeli Lok gathayen लोकभाव का हृदय है। जिससे लोकरस (melody of folk) की अभिव्यक्ति होती है।

                    बुन्देलखंड की प्रत्येक लोक-गाथा किसी-न-किसी लोककवि की रचना है, जो अपनी लोकानुभूति Public Perception और लोकाभिव्यक्ति Public Expression के कारण लोक-गाथा Folklore बन गई है। Bundeli Lok Gathayen जो गीत के माध्यम से कहाँनी कही जाती है

कालान्तर में लोककवि का नाम लुप्त होने की वजह से वह ‘‘अनाम’’ हो जाती है। यदि कवि की ‘‘छाप’’ रहती है अथवा वह रचना किसी कवि के हस्तलिखित संग्रह में मिल जाती है, तो उसके रचयिता की पहचान हो जाती है। ‘‘सनाम’’ ( नामयुक्त) Named हो जाने पर भी वह लोक-गाथा ही रहती है। शर्त यह है कि वह लोकमुख में हो।

लोकमुख में रहना लोक द्वारा ग्रहण करने पर निर्भर है और यह एक अलग प्रक्रिया है। इसमें कथा और कथावस्तु की प्रासंगिकता ही विशेष स्थान रखती है। दूसरा स्थान किसी चरित्र का चित्रण है, जिसके व्यक्तित्व में लोक के लिए आकर्षक रहता है। इसके बाद कुछ गौण तत्त्व होते हैं, जैसे- भाषा, लोकधुन, प्रचार के साधन, गायकी में रुचि आदि, जिनमें से कोई एक कभी-कभी इतना प्रभावपूर्ण होता है कि केवल उसी के बल पर कोई रचना लोक-गाथा के पद पर आसीन हो जाती है।

Bundeli Lokgathayen ‘आल्हा’ गाथा में कथा चरित्र और गेयता (गाने वाला) Lyricism महत्त्वर्पूण है, जबकि अल्हैतों ने लोकभाषा पर उतना ध्यान नहीं दिया। कारसदेव और धर्मा-साँवरी की गाथाओं में बुन्देली के पुराने शब्द ज्यों-के-त्यों जड़े हुए हैं। ‘‘गहनई’’ गाथा में कुछ शब्दों के अर्थ खोजने में काफी कठिनाई होती है। आल्हा की ओजमयी लोकधुन ने उत्तर भारत ही नहीं, वरन् दक्षिण के कुछ क्षेत्रों को भी सम्मोहित कर लिया था और छः-सात सौ वर्षों में वही आकर्षण बना रहा।


कथा लोक-गाथा का तन है, तो लोकादर्श मन “If the legend is the body of folklore, then the folk ideal mind”। कथा के पात्र मुख, आँख, कान जैसे विभिन्न अंग हैं, जो अपने विविध व्यक्तित्वों से कथा रूपी तन को सार्थकता प्रदान करते हैं। लोकविवेक है उसकी बुद्धि और लोकभाव है हृदय। दोनों के सामरस्य (Harmony) से लोकरस (melody of folk) की अभिव्यक्ति होती है।

अभिव्यक्ति की सहजता ही लोकाभिव्यक्ति है। लोक-गाथा की लोकाभिव्यक्ति में गेयता अधिक महत्त्वर्पूण है। गेयता लोकलय पर निर्भर है, जो शास्त्रीय रागात्मकता से स्वछन्द रहती है। इस तरह लोक-गाथा का कथा, चरित्र, भाव, विचार, कल्पना, भाषा, गेयता आदि में लोकतत्व इतने प्रभावी रहते हैं कि लोक उन्हें अपना ही मानकर ग्रहण कर लेता है और मौखिक परम्परा से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित transferred कर देता है। लोक-गाथा का लोकत्व ही उसकी मौखिक परम्परा की संजीवनी है।

लोक-गाथा वर्णनात्मक होती है, परन्तु उसकी वर्णनप्रधान शैली में कथानकरूढ़ियों के प्रयोग से एक निश्चित बदलाव आता है। यह अवश्य है कि इस तरह का बदलाव रूढ़िगत होने से अपना असर कम कर देता है। चमत्कारवाली रूढ़ियाँ आकर्षक होती हैं, इसलिए उनकी भरमार रहती है। इसके अतिरिक्त गायक का वाचिक अभिनय प्रधान रहता है, जो नाटकीय तत्त्व का समावेश कर देता है। कुछ पंक्तियों की बार-बार आवत्तिधत्ते का काम करती है। ‘टेक पद’ भाव और कथा की अन्विति करता है। पुनरावृत्ति गेयता को और संगीतात्मक बना देती है।

धर्मासाँवरी -बुन्देली लोक गाथा


आचंलिकता या स्थानीयता लोक-गाथा की प्रमुख विशेषता है। जिस जनपद में वह प्रचलित होती है उसकी लोकभाषा, लोकधुन, लोकछन्द, लोकसंस्कृति, लोकरूढ़ि, लोकगायकी आदि लोकप्रवत्तियों को आत्मसात कर अपना बना लेती है।

एक जनपद की लोक-गाथा दूसरे जनपदों में यात्रा करती है, तो वहाँ की स्थानीय लोकभाषा, लोकसंस्कृति और अन्य लोकप्रवत्तियों को अपना लेती है, लेकिन कथा और लोकछन्द या लोकलय पहले जनपद की ही रहती है।

प्रामाणिक उदाहरण आल्हागाथा का है, जिसकी कथा और आल्हछन्द पूरे उत्तर भारत में प्रचलित हैं, भले ही बुन्देली गाथा की लोक प्रवत्तियों में परिवर्तन आ गया हो। आल्हागाथा की महोबा गायकी जितनी ओजस्विनी (प्रभावपूर्ण) है, अन्य जनपदों की नहीं है। अतः इस तरह आल्हागाथा के कई रूप लोकप्रचलित हैं। यहाँ तक कि बुन्देलखंड में ही महोबा गायकी, दतिया गायकी, सागर गायकी, पुछीकरगवाँ गायकी आदि विभिन्न रूप मिलते हैं। इसी तरह ढोला-मारू, सुरहिन, सीता-बनवास आदि लोकगाथाओं की विविधता मिलती है।


जन मानस की सोच लोक-गाथा की भावुकता को समझता है और उसे एक दायरा प्रदान करने में सहायक होता है। कई लोक-गाथाएँ इतिहास के तथ्यों को अपने में छिपाए रहती हैं, जिन्हें संवेदनशील आँखें ही खोज पाती हैं। लोककल्पना प्रधान पात्र ही ऐतिहासिक होते हैं।

लोकगाथाओं का इतिहास लोक का इतिहास होता है, किसी राजा या सामंत की जीविनी नहीं। उदाहरण के लिए ‘‘मथुरावली की गाथा’’ में एक मुगल सामन्त मथुरावली को बन्दी बनाकर रखता है और उसे जबरन अपनी बीवी बनाना चाहता है। इस कारण मथुरावली उसे पीने का पानी लाने भेजती है और आग लगाकर जल जाती है। इतिहासकार इस गाथा के तथ्य को इसलिए स्वीकार नहीं करता है कि मुगल सामन्त (गाथा में मुगल) कोई विशेष सामन्त नहीं है और मथुरावली कोई विशेष नारी नहीं।

लोकगाथा में तो ‘‘विशिष्ट’’ के स्थान में ‘‘सामान्य’’ ही जीवित रहता है। लोक का यह मतलब नहीं है कि ‘‘फलाने’’ मुगल सामन्त ने अमुक कार्य किया है, वरन् उसे यह तथ्य प्रस्तुत करना है कि मुगल-युग में नारी का अपहरण होता था और नारी अपनी ‘‘लाज’’ रखने के लिए या तो जल जाती थी या आत्महत्या कर लेती थी। यह तथ्य ऐतिहासिक ही है, उसे ‘‘सन्दिग्ध ऐतिहासिकता’’ कहना उचित नहीं है। वस्तुतः हमारा इतिहास विशिष्टों का इतिहास है।

लोक-गाथा किसी धार्मिक कट्टरता, सम्प्रदाय, किसी खास दर्शन या विचारधारा और किसी भी आग्रह या पक्षपात से मुक्त होता है। यही कारण है कि लोक-गाथाएँ लोकसामान्य वैचारिकता को ही ग्रहण करती हैं। लोकगाथा की प्रारम्भिक पंक्तियों में लोकदेवताओं की स्तुति होती है, जैसे मनियादेव, महावीर, पंचपीर आदि। लोकदेवता लोक का देवता होता है, किसी खास धर्म या वर्ग का नहीं, अतएव ‘‘सुमरनी’’ में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया जाता है।


जनमानस की भावना वह है जो लोक द्वारा लोकस्तर पर भावित होता है। ‘सीता-बनवास’ की गाथा में सीता की वेदना से हर सहृदय दुखित हो जाता है। प्रेम, त्याग, वेदना, बलिदान आदि भाव लोकभाव तभी बन पाते हैं। लोकभाव और लोकविवेक का सामरस्य Harmony जब लोककल्पना के घेरे में होता है, तब लोकानुभूति साकार हो उठती है। लोकानुभूति को लोकसहज अभिव्यक्ति में व्यक्त करने को लोकाभिव्यक्ति कहना उचित है। जिसमें साहित्यिक गढ़ाव और जुड़ाव नहीं होता। न तो शब्दों का खेल होता है और न अलंकरण का चमत्कार। अर्थों के रहस्यवाद से मुक्त सार्थक अभिव्यक्ति का आदर्श नमूना लोक-गाथाओं में मिलता है।


गेयता लोक-गाथा की अभिव्यक्ति में केन्द्रीय विशेषता है, जो कथा के परिवर्तन के बावजूद नहीं बदलती। हर लोक-गाथा एक विशिष्ट लोकलय या लोकधुन से जुड़ी होती है और एक से विशेष छन्द की रचना करती है। लोक-स्वच्छन्द से मेरा तात्पर्य है लोकमर्यादा से नियंत्रित  रहकर स्वच्छन्द होना।

जिस लय या धुन में इतनी सहज नैसर्गिकता Naturalness और संयमित स्वच्छन्दता हो, जो किसी खास व्यक्ति या वर्ग को ही नहीं, वरन समूचे लोक को उद्वेलित करने में सक्षम हो और लोक द्वारा गृहीत हो सके, उसे लोकलय या लाकधुन कहना उचित है। कभी-कभी एक लोक-गाथा लोकप्रिय होकर विशिष्ट गायक-दल खड़ाकर लेती है और उसकी गायकी एक विशेष रूप धारण कर लेती है, जो एक साँचे में ढलकर रूढ़ बन जाता है। ऐसी स्थिति में उसमें परिवर्तन कर एक नयी लोकधुन फूटती है।

आल्हागाथा इस परिवर्तन का प्रामाणिक उदाहरण है। यह भी सही है कि स्त्रिायों ने परम्परागत लोकधुनों को सुरक्षित रखा है, जबकि पुरुषों ने नई-नई लयों को अपना लिया है। उदाहरण के लिए, भुजरियों या कजरियों की लड़ाई, ‘आल्हा’ गाथा में है और राछरा एवं मंगादा गीतों में भी, जो लोकगाथा की कसौटी में खरे उतरते हैं। आल्हा पुरुष गाते हैं और स्त्रिायाँ राछरा एवं मंगादा, इसलिए राछरा और मंगादा की लोकधुन आज भी परम्परागत है।

लोकसंगीत लोक गाथा के रचनाकाल के निर्धारण में भी सहायक है। एक स्वर में गाई जाने वाली लोक-गाथा प्राचीन काल की है, जैसे कारसदेव की गाथा एक स्वर में गाई जाती है। उसका आधार तारषड्ज होता है। ऐसे गीतों में अन्तरा नहीं होता और वे सामूहिक रूप में गाए जाते हैं। सेरे और दिवारी गीत इसी कोटि के गीत हैं। चार स्वरों के स्वर-सन्निवेशवाले गीत इसी काल-परिधि में आते हैं। इनकी भाषा भले ही पुरानी न हो, पर स्वर-सन्निवेश से वे आदिकाल के हैं। मध्ययुग की गाथाएँ चार से लेकर सात स्वरों के स्वर-सन्निवेश से रची गई हैं।

लोकसंगीत लोक-गाथा की कथा और भाव में मधुर प्रवाह देकर उनकी रसवत्ता बढ़ाता है तथा प्रवाह के वेग और उतार-चढ़ाव से एक आंतरिक नाटकीयता उत्पन्न करता है। कथा और भाव के अनुरूप लोकसंगीत में एक ऐसी जीवन्तता आती है कि वह सबको संघटित कर देती है और इस प्रकार लोकसंगीत बाहर से आरोपित नहीं लगता। लोकसंगीत के अनुरूप लोकवाद्यों का भी प्रयोग होता है। ‘आल्हा’ में ढोलक और मंजीरा, ‘श्रवण कुमार’ और ‘गोपीचन्द’ में सारंगी और मंजीरा तथा ‘ढोलमारू’ में ढपला और घुँघरू प्रयुक्त होते हैं। वाद्यों के चयन में परिवर्तन होता रहता है।


लोक-गाथाओं में विशेषतया प्रबन्धात्मक या महाकाव्यात्मक गाथाओं में संवादों से उत्पन्न नाटकीयता का तत्त्व अत्यन्त प्रभावी होता है, क्योंकि वह श्रोताओं पर सीधे असर करता है। इस कारण लोकगायक भी अपनी गायकी को प्रभावी बनाने के लिए गायन-शैली में ही अभिनय का सहारा ले लेता है।

इसका प्रामाणिक उदाहरण है ‘आल्हागाथा’ की महोबा गायकी, जिसमें गायक वाचिक अभिनय का सहारा लेता है। वह वीर रस में तेज और कम्पित, करुण और वीभत्स में धीरे से बोलना कांपती आवाज़ मे और श्रंगार में भावानुरूप स्वर आन्दोलित करता है। कभी-कभी मुखज चेष्ठा और हस्त-संचालन से ऐसी बनावटी भावाभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है कि अभिनय की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है।

‘आल्हागाथा’ आहार्य या आयासित नहीं है, वरन् गायक की गायन से तल्लीनता के कारण स्वतः फूटा है। तात्पर्य यह है कि अभिनय वस्तु और भाव के अनुरूप सहज-स्वाभाविक होना जरूरी है। स्वर के उतार-चढ़ाव, काकु और कम्पन के साथ-साथ नेत्र, मुख, सिर और हाथों से भावोचित मुद्राएँ सोने में सुहागे का कार्य करती हैं।


प्राचीन लोक-गाथाओं में नृत्य की भूमिका महत्त्वर्पूण थी, लेकिन धीरे-धीरे नृत्य लुप्त हो गया है। वर्तमान में कुछ लोक गाथाएँ नृत्य के सदुपयोग से विशिष्ट बन गई हैं। उदाहरण के लिए ‘ढोला-मारू’ में नृत्य की अपनी विशेषता है। गायन के अन्त से नृत्य का जुड़ाव पैरों की थिरकन और घुँघरू की रुनझुन से हो जाता है।

गायक हस्तमुद्राओं से भावाभिव्यक्ति करता हुआ चक्राकार घूमता है और उसके घुमाव को कलात्मक रूप देने के लिए कमर और पैरों का संचालन घुँघरू के बोलों पर होता रहता है। हल्के से कन्धे उचकाने से अंगों के संचालन की लयात्मकता गति पाती रहती है। गायन के साथ नर्तन की संगति गायक को विश्राम देती है और अगली पंक्तियों की पृष्ठभूमि बनाती है।


यह सही है कि लोक-गाथाएँ मौखिक रूप में जीवित रही हैं और उनकी मौखिक परम्परा ही उनकी विकासशीलता की जिम्मेदार है। लिपिबद्ध होने से उनका पाठ निर्धारित हो जाता है और उसके विकास की गति या तो अवरुद्ध हो जाती है या मन्द पड़कर विकास में अंकुश लगा देती है। लिपिबद्ध होने से गाथा की मौखिक परम्परा पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। मौखिक पाठ और उसके विकसित रूप निरन्तर गाए जाते रहे हैं। इसके बावजूद लोक गाथाओं को लुप्त होने से बचाने के लिए उनका लिपिबद्ध होना आवश्यक है।

बुन्देलखंड की कुछ लोक-गाथाएँ आदिकाल यानी कि चन्देल-काल की हैं, तो कुछ मध्य-काल की। मथुरावली और मानो गूजर की गाथाएँ मुगल-काल की हैं, क्योंकि उनमें मुगल सामन्त का वर्णन आया है। बिजौरा की कुँवरि की गाथा 1528 ई. के बाद की रचना है, क्योंकि उसमें बाबर के चन्देरी पर आक्रमण का परिनाम वर्णित है। तात्पर्य यह है कि लोक-गाथाएँ हर युग में रची गईं और हर युग में लोकप्रचलित हुईं।


लोक-गाथा के शैली में परिवर्तन। गायक लोकगाथा सीखता है, तो उसकी सीख में परम्परागत शैली होती, जो उसने गुरु से प्राप्त होती है। अतएव उसकी गायकी का आधार गुरु की शैली का है। अगर लोक-गाथा-गायन में प्रतियोगिता है, तो गायक अपनी ओर से कुछ छन्द बीच-बीच में जोड़ता है। ये छन्द स्वरचित या किसी दूसरे कवि के होते हैं।

लम्बी गाथा होने पर अथवा कथानक या चरित्र मे नयापन लाने के लिए वह अपनी ओर से स्वरचित पंक्तियाँ जोड देता है। इस रूप में शैली का कुछ अंश परिवर्तित रूप में जुड़ जाता है। एक-दो नई पंक्तियाँ तुरन्त गाकर सुना दी जाती हैं। अगर लोकगाथा में प्रतिद्वन्दिता नहीं है, तो परिवर्तन बहुत कम होता है। आल्हागाथा की गायकी में होड़ की भावना है, जबकि अन्य गाथाओं में नहीं है या बहुत कम है।


गायकी में प्रतियोगिता होने से लोक-गाथा विकसनशील हो जाती है। गायक चमत्कारर्पूण प्रसंगों का समावेश कर कई कथाचक्र खड़े करता हुआ उन्हें ऐसे बुनता है कि कोई सूक्ष्मदर्शी आँख ही उसके ताने-बाने को समझ पाती है। कभी-कभी गायक आशु कवि की भूमिका अदा करता हुआ वर्णन का विस्तार करता है और कभी नीतिपरक छन्दों को सम्मिलित कर पात्रों के क्रिया-व्यापार की पुष्टि करता है। श्रोताओं को आकर्षित करने के लिए कुछ तर्क पूर्ण संवाद भी जोड़ता चलता है। इस प्रकार लोकगाथा एक लोक महाकाव्य में परिवर्तित हो जाती है।


कुछ लोकप्रिय गाथा अवश्य ही दूसरे जनपदों में गाई जाती है। उसकी यात्रा एक से दूसरे जनपद तक तभी होती है, जब उसमें स्थानीयता के साथ-साथ सार्वजनिक और सार्वकालिक होने की अद्भुत क्षमता हो। उसमें व्यापक लोकादर्शों और शाश्वत सन्देश की समन्विति हो। कथानक में लचीलापन और चरित्रों में श्रेष्ठता भी जनपदीय सीमाएँ लाँघ जाती है। अपनी श्रेष्ठ शैली के कारण बुन्देली की आल्हागाथा राष्ट्रीय लोकगाथात्मक महाकाव्य बन गई है।

बुन्देली की ढोला-मारू राजस्थान और ब्रज से यहाँ आई है। कारसदेव की गाथा में गोचारणी लोकसंस्कृति और धर्मासाँवरी भी चारागाही लोक की कोख से फूटी है। ‘जगदेव की गाथा।’ गुजरात की है, तो ‘राजा भोज की गाथा’ मालवा की। इस तरह लोकगाथाएँ कई जनपदों के बीच सम्बन्ध-स्थापन का महत्व्पूर्ण कार्य करती हैं। एक जनपद के लोकादर्शों को दूसरे जनपदों में ले जानेवाली सांस्कृतिक एकता की लोक माध्यम-लोकगाथा का अलग महत्त्व है।


देवीगीतों, देवीपरक आख्यानक गीतों और देवीपरक गीत लोक-गाथाओं मे प्रयोग किये जाते रहे हैं । देवीपरक गीतों के साथ कुछ देवीपरक गाथाओं का अनुशीलन किया गया था, जिनमें भक्तिपरक भावुकता के साथ नैतिकता आदर्शों का तालमेल था। उनमें देवी की संहारक शक्ति से विजातीय तत्त्वों के विरुद्ध लड़ने की उर्जा तो थी, लेकिन इतिहास-तत्त्व के अभाव के कारण युगबोध से जुड़ाव नहीं था। इसीलिए लोककवि ने ऐतिहासिक चरित्रों को ग्रहण कर अपनी कथा पर प्रामाणिकता की छाप लगाना उचित समझा।

देवीभक्ति में सीझे तीन ऐतिहासिक पात्रों-राजा भोज, जगदेव और आल्हा की गाथाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं। इन ऐतिहासिक पात्रों में राजा भोज अपनी रक्षा के लिए लोहे का प्रासाद बनवाकर उसके चारों ओर अपनी सेना खड़ी करता है, फिर भी नहीं बचता।

जगदेव अपना सिर उतारकर देवी को दे देता है, जिससे व्यक्ति की रक्षा का सम्बन्ध अपना सिर काटने से जुड़ जाता है क्योंकि देवी द्वारा सिर उगाने का दृढ़ विश्वास उसकी आस्था का सम्बल है। उससे आगे देवीभक्त आल्हा की गाथाएँ हैं, जो देवीभक्ति की प्रेरणा से लौकिक वीरता का महाकाव्य बन गई हैं। इस प्रकार दैवीवीरता से लौकिक वीरता की ओर जाना गाथाओं की विकास-दिशा है और जगद्देव की गाथा दोनों में सेतु का निर्माण करती है।

‘जगदेव की गाथा’ जगदेव परमार की देवीभक्ति की यशोगाथा है। कुछ विद्वानों ने उसे पँवाड़ा कहा है और अपने मत की पुष्टि में दो बातें रखी हैं। पहली यह है कि बुन्देली मुहावरा‘‘पँवारो गात फिरत’’, जिसका अर्थ लम्बी कथा कहा गया है, जगदेव की कथा के लिए उचित बैठता है। दूसरी यह है कि ‘‘परमार या पँवार से ही यह पँवारा शब्द बना हो।’’ कुछ लोग महाराष्ट्र के पँवाड़ा या पोवाड़ा को सामने रखकर अपना औचित्य सिद्ध करते हैं। यदि परमार या पँवार से पँवाड़ा लोकप्रचलित हुआ हो।

बुन्देलखंड में प्रचलित पँवाड़ों में केवल मालवे के परमार राजाओं का वर्णन हो, तो फिर परमार राजाओं के अलावा अन्य लोकगाथाएँ पँवाड़ों की संज्ञा से वंचित रह जाएँगी। दूसरी आपत्ति यह है कि यदि पँवारों को वीरगाथा कहा जाए, तो प्रस्तुत जगदेव की लोकगाथा उसमें नहीं समा  पाएगी, क्योंकि उसका केन्द्रीय भाव भक्ति का है। इसलिए पँवाड़ा या पँवारा के स्थान पर लोकगाथा या वीररसपरक लोकगाथा का प्रयोग अधिक है।

एक बार राजा दलपंगुरा के दरबार में देवी खुले केश आई, पर जगदेव को देखकर केश ढँक लिए। इस पर दलपंगुरा राजा जल गया और उसने जगदेव से चैगुना दान देने का वचन दिया। देवी कंकाली जगदेव के यहाँ दान लेने गई। जगदेव ने अपनी तलवार से सिर उतार रानी द्वारा भिजवा दिया। देवी ने रानी से कहा कि वह ऐसे दान स्वीकार नहीं करती जो मन मैले (उदास) करे। इस पर रानी भी अपना सिर उतारने को तैयार हुई कि देवी ने उनका हाथ पकड़ लिया। फिर देवी दलपंगुरा के दरबार में आई और जगदेव का सिर दिखलाकर चैगुना दान माँगा। दलपंगुरा राजा का गला सूख गया और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली थी।

इस गाथा का नायक जगदेव है, जो धार के परमार वंशीय राजा उदयादित्य (1056-81 ई.) का छोटा पुत्रा था। देवी कोरी के पाठ में उदयादित्य को उजराजीत और जगदेव को जगदेवा पुमार कहा गया है। हरजू कोरी के पाठ में उदयादित्य का उल्लेख नहीं है। उदयपुर के शिवालय में सबसे पुराने अभिलेख उदयादित्य के हैं। जगदेव चालुक्यों के विशेषतः सिद्धराज जयसिंह(1093.1143 ई.) के आश्रय में रहा है और उसने अद्भुत पराक्रम एवं साहस के कार्य किए हैं।

(1129-65 ई.) के समय चन्देलों की राजधानी महोबा पर हुआ था। कालिंजर का मदनवर्मन का अभिलेख और चंदबरदायी का रासो दोनों में जयसिंह की पराजय बताई गई है। परन्तु गुजरात के प्रमाण जयसिंह की विजय का उल्लेख करते हैं। सही यह है कि महोबा के वसन्तोत्सव से प्रभावित होकर जयसिंह ने युद्ध की बजाय मित्राता करना उचित समझा था।

बहरहाल सिद्धराज जयसिंह के साथ जगदेव की भक्ति और वीरता की गाथा भी आई है और जगदेव की गाथा बुन्देली में रची जाकर लोकप्रचलित हो गई। इसके बाद ब्रजी में रूपान्तरित हुई। बुन्देली में यह गाथा गुजरात से ही आई थी, पर वह यहाँ भक्तिपरक हो गई और उसका मुख्य कारण था चन्देल राज्य में शाक्त मत का लोकप्रचलन। यह सही है कि धरमासन और दलपंगुरा या दलपंगर की खोज इतिहास में मुश्किल है।

असल में ये नाम प्रतीकार्थ के बल पर लोक में आए हैं। धरमासन धर्म के आसन अर्थात् आधार वाला राजा है, इसीलिए वह देवी को कन्या के रूप में मानता है। दलपंगुरा अपने सैन्यदल में यानी शक्ति में पंगु है, इसलिए वह त्याग-बलिदान जैसे गुणों से हीन है। संक्षेप में, इस गाथा की वस्तु में इतिहास और लोकत्व का अच्छा समन्वय हुआ है। यदि एक तरफ समुद्र के आचमन और जगदेव के धड़ से सिर उगाने में देवत्व की महिमा है, तो दूसरी तरफ जगदेव द्वारा नारी की प्रशंसा और अपना सिर उतारने में मानवत्व की गरिमा है। जगदेव की रानी दिया हुआ दान वापस नहीं लेती और देवी द्वारा उदास मन का दान अस्वीकृत करने पर अपना सिर उतारने लगती है।

ये दोनों विशेषताएँ भारतीय नारीत्व की पहचान स्थापित करने में सक्षम हैं। साथ ही मुतियन चैक पुराये, कंचन कलश धराये, चन्दन चैकी, दुहा पखारे पाँव आदि लोकसंस्कृति की आस्था है जो कथा में संस्कृति का रंग भर देते हैं। गर्व (घमंड) पर देवी का और नारी के महत्त्व पर जगदेव का कथन गाथा में आदर्श खड़े करता है। गाथा का कथानक जगदेव और उसकी रानी के आदर्शों तथा त्याग की अद्भुत मिसाल की धुरी पर टँगा रहता है, जिससे उसकी गतिशीलता कभी मर नहीं सकती।

नमामि नर्मदे – चिरकुंवारी नर्मदा

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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