लोकभाषा का विकास लोकभाषा की उत्पत्ति परिस्थितियों, उसके आदिकालीन स्वरूप और विकास के इतिहास के सम्बन्ध में साहित्य के इतिहासकारों और भाषाविदों में कई भ्रान्तियाँ हैं। Bundeli Bhasha Aur Lok Sanskriti Ki Vivechna एक वृहद विषय है। भारतीय संस्कृति और धर्म की गतिशीलता में ही लोकभाषा का उद्भव हुआ है।
चन्देलों का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है। चन्देलों के राज्यकाल में बुन्देलखंड की सभ्यता और संस्कृति को न कोई नुकसान हुआ और न ही विजातीय संस्कृति का कोई प्रभाव पड़ा। दूसरी बात यह है कि बुन्देली भाषा का उद्भव मुगलों के प्रदेश पर अधिकार करने के पहले हो गया था। इतिहासकार यह मान चुके हैं कि काशी, कन्नौज और महोबा के दरबारों में भाषा-कविता का मान था। मुगलों का प्रभाव उसके बाद ही प्रारम्भ हुआ।
Discussion of Bundeli language and Folk Culture
इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के उपरान्त हिन्दी की लोकभाषाओं का उदय अपनी भाषा-सम्बन्धी विशेष परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। एक भाषा जब अत्यन्त परिभाषित होकर शास्त्रीय और सीमाबद्ध हो जाती है, तो दूसरी भाषा तुरन्त विकसित होती है।
कला के उत्कर्ष में ग्वालियर तोमरकाल में एक प्रमुख केन्द्र था, जबकि मथुरा-वृन्दावन भक्ति और धर्म-भावना का केन्द्र था। जिस कला और साहित्य तथा उसके साथ भाषा का विकास ग्वालियर में हुआ, उसका धर्म में उपयोग मथुरा- वृन्दावन में हुआ । चन्देलों का राज्यकाल 9वीं से 13वीं शताब्दी तक पाँच सौ वर्षों की लंबी अवधि समेटे हुए है और इसी समय देशी भाषा का उद्भव और विकास हुआ।
दूसरी बात यह है कि चन्देल साम्राज्य के अन्तर्गत लगभग पूरा मध्यदेश एवं दक्षिणी भारत का कुछ भाग सम्मिलित था। तीसरे चन्देलों ने इस मध्यदेश की संस्कृति को जहाँ एकता ,उन्नति और विस्तार दिया, वहीं कला को अपने आश्रय में विकसित कर एक ऊंचाई पर खड़ा कर दिया।
चंदेलो के शासन-काल में देशी भाषा का विकास जल्दी हुआ और इतना ही नहीं, वह साहित्य या काव्य की भाषा के रूप में भी शीघ्र प्रतिष्ठित हुई।यद्यपि पश्चिम में भदावरी, ब्रज और मालवा तथा पूर्व में बघेली बोलियाँ अपने स्वरूप धारण कर रहीं थीं, तब केन्द्र में बुन्देली का विकास हो चुका था। चन्देलों के राज्य की प्रमुख राजधानी महोबा, धार्मिक राजधानी खजुराहो और सैनिक राजधानी कालिन्जर थी। ग्वालियर (गोपगिरि, गोपाद्रि) और मथुरा तक का प्रदेश चन्देलों के अधीन था।
अतएव स्पष्ट है कि उस समय महोबा, खजुराहो और कालिंजर के क्षेत्र की भाषा ही साहित्य या काव्य-भाषा के पद की अधिकारिणी हुई और पूरे राज्य में उसी का प्रचार-प्रसार हुआ। बाद में मध्यदेश की संस्कृति का केन्द्र ग्वालियर बना, जहाँ इस भाषा का द्वितीय उत्थान हुआ। भक्ति-आन्दोलन की चेतना से प्रभावित होने पर तीसरा केन्द्र मथुरा- वृन्दावन रहा, जहाँ इस भाषा को तृतीय उत्थान में एक व्यापक प्रसार मिला।
इससे सिद्ध है कि बुन्देलखंड के दोनों केन्द्रों में लगभग 16वीं शताब्दी तक जो भाषा पल्लवित, पुष्पित और परिष्कृत होती रही तथा काव्य-भाषा के रूप में मान्य रही, वही मध्यकालीन काव्य की भाषा कही जा सकती है। इसलिए उसे मध्यदेशीय न कहकर बुन्देली मानना ही न्याय संगत है।
महाराज गंडदेव की 1023 ई. में देशी भाषा या बुन्देली में रचित एक कविता का उल्लेख इतिहास में मिलता है। जब 1023 ई. में बुन्देली भाषा में साहित्य की रचना होने लगी थी, तो यह निश्चित है कि उसके दो-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व अर्थात 9वीं शती के प्रारम्भ में ही बुन्देली का प्रभाव हो गया था। दूसरे प्रदेशों से लगभग 2000 वर्ष पहले लोकभाषा के उदय का कारण यह भी हो सकता है कि चन्देलों के शासन-काल में 9वीं शती से ही एक परिवर्तन का प्रारम्भ होता है और चन्देलों के इतिहास में उन्नति का वास्तविक प्रारम्भ एवं नए युग का सूत्रपात 910 ई. से होता है।
यशोवर्मन से तो (930 ई.-950) एक व्यापक परिवर्तन उभर आता है। दूसरा कारण यह है कि बुन्देलखंड में बाहरी आक्रमणों का ताँता-सा लग जाता है, अतएव उन आक्रमनों से अपनी संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए लोकभाषा एक अनिवार्य माध्यम बन जाती है। एक तो चन्देल नरेश महाराज धंग के काल में निर्मित जिननाथ का जैन मन्दिर का सं. 1011 (सन् 954 ई.) का अभिलेख है, जिसमें कुछ वाटिकाओं की भेंट का उल्लेख है। उनमें से एक वाटिका का नाम ‘‘धंगवारी’’ है।
जिसमें वारी शब्द संस्कृत की वाटिका या वाटी के लिए प्रयुक्त हुआ है और वह लोकप्रचलित बुन्देली का ही शब्द है। इसी प्रकार अजयगढ़ के सं. 1243 (1186 ई.) के अभिलेख में ‘चैंतरा’ (चैत्रो) बुन्देली का प्रयोग है। पुरातत्वविद कनिंघम ने अजयगढ़ के सं. 1269 (1212 ई.) की भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि शिमला के पंडित द्वारा उसे संस्कृत नही कहा गया है, वरन् कोई हिन्दी की बोली बताया गया है।
वस्तुतः उसकी भाषा संस्कृत न होकर तत्कालीन बुन्देली थी। इसी तरह सं. 1372 का अभिलेख संस्कृत में नहीं है। तात्पर्य यह है कि बुन्देली का उदय 954 ई. के पूर्व 9वीं शती में हुआ था, क्योंकि अभिलेखों में उन्हीं शब्दों का प्रयोग होता है, जो मान्य हो जाते हैं। लोकभाषा में अभिलेखों की परम्परा निरन्तर गतिशील रही है।
लोक संस्कृति के अन्तर्सम्बन्ध की खोज के लिए दो महत्त्वपूर्ण सूत्र पर्याप्त हैं। पहला है लोक, जिससे साहित्य और संस्कृति जुड़कर लोक के हो जाते हैं और लोकहित में होने से लोक द्वारा गृहीत हो जाते हैं। लोक के होने का गुण लोकत्व है, जो साहित्य और संस्कृति को लोकमय बना देता है।
बुन्देलखंड के साहित्यिक इतिहास के लिए पुराने कवियों की पांडुलिपियों का अध्ययन करने से पता चलता है कि कई बारामासियाँ जो बारामासी-संकलनों में लिखित थीं, वे लोकमुख में भी थीं। कई ऐसी भी थीं, जो लिखित थीं, पर लोकप्रचलन में नहीं थीं। दोनों की तुलना से लोकत्व अर्थात् लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति का समन्वय स्पष्ट हो जाता है। दूसरा सूत्र है लोकमानव, जिसने एक तरफ लोकसंस्कृति को जिया है, भोगा है और दूसरी तरफ लोकसाहित्य को रचा है।
लोकमानव की संज्ञा मैंने जान-बूझकर चुनी है, क्योंकि मानव अकेले में उसकी वैयक्तिकता आड़े आती है, जबकि लोकमानव से वह लोक के एक सदस्य अर्थात् लोकचेतना को आत्मसात करनेवाले का बोध होता है। लोक और लोकमानव के सूत्रों से लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है।
लोकसंस्कृति वस्तु है, जिसे लोकसाहित्य पद्य या गद्य की किसी विधा में रूपायित कर अभिव्यक्त करता है। लोकजीवन के वैचारिक पक्षµलोकदर्शन, लोकधर्म, लोकमूल्य और लोकविश्वास तथा लोकाचरण के लोकसंस्कार, लोकरीतियाँ, लोकप्रथाएँ, लोकरंजन, लोकोत्सव, लोकक्रीड़ाएँ और लोकव्यवहार, जो लोकपरम्परा से प्राप्त हैं अथवा जो वर्तमान में लोकोपयोगी हैं, सभी लोकसंस्कृति के अंग हैं।
लोककवि लोकजीवन के किसी दृश्य-खंड को पहले भोगता है, फिर उससे प्राप्त अनुभव को अपनी स्मृति-पटल में टाँक लेता है और मन की प्रभावी स्थिति में उसे अपनी कल्पना में लाकर लोकशब्दों में अभिव्यक्त कर देता है। इस रूप में लोकजीवन में व्याप्त लोकसंस्कृति लोकसाहित्य की वस्तु है, जिसके बिना लोकसाहित्य का सृजन सम्भव नहीं है। लोकसंस्कृति जब जिस रूप में लोकप्रचलन में होती है, तब उस रूप में उसकी अभिव्यक्ति लोकसाहित्य करता है। दूसरे शब्दों में, लोकसाहित्य तत्कालीन लोकसंस्कृति के प्रकाशन का एक लोकमाध्यम है।
लोकसंस्कृति का हू-ब-हू अंकन या प्रतिबिम्न लोक-साहित्य में रहता है अथवा लोककवि या लोकसर्जक उसमें कुछ जोड़ता-घटाता है। असल में, लोकसाहित्य के ‘लोकत्व’ को अधिकाधिक सुरक्षित रखने के लिए लोकजीवन के लोकव्यापार को यथारूप व्यक्त करने का प्रयास होता है और वही सजह उच्छन है। यह निश्चित है कि उसमें अनुभूति की वैयक्तिकता बाधा नहीं बनती। यदि वैयक्तिक अनुभूति का व्यक्तिकरण होता है, तो वह भी लोकीकृत रूप में बदलकर। एक उदाहरण देखें…
अलगरजी भरे बेलाताल, गगर मोरी न डूबै रामा।
सासो की डूबै, ननद की डूबै, मोरी रई उतराय, गगर मोरी।
देवरानी की डूबै, जेठानी की डूबै, मोरी रई उतराय, गगर मोरी।।
उक्त पंक्तियों में नायिका की अनुभूति इसलिए वैयक्तिक है कि सरोवर में अपार जल है और उसकी सास, ननद, देवरानी, जेठानी, सभी की गागरें उससे जल भरती हैं, पर उसकी गागर नहीं भरती। लोककवि ने मन के अलग-अलग होने की उक्ति से उसे लोकीकृत कर दिया है। नायिका की मन गागर दूसरों से भिन्न है और मन की भिन्नता से उसे तृप्ति नहीं हो पाती।
लोकीकरण में लोक की मर्यादा, शील-संकोच, लज्जा और नैतिकता होती है, इसलिए लोककवि लोकमर्यादा, लोकलाज या लोकसंयम की लक्ष्मण-रेखा पार नहीं करता। शिष्ट साहित्य में अश्लील दृश्यों का अंकन सम्भव है, पर लोकसाहित्य में नहीं। राधाकृष्ण के सुमिरन के बहाने की बात अलग है। कभी-कभी कोई लोकोत्सव जैसे ‘होली’ या लोकनृत्य ‘राई’ में कोई शृँगारिक पंक्ति उभरती है, पर वह लोक की सहमति पाकर ही गाई जाती है।
क्या लोकसाहित्य की रचना लोकसंस्कृति में परिवर्तन करने की क्षमता रखती है। लोकसाहित्य की प्रभावी पंक्तियाँ तो व्यक्ति पर काफी प्रभाव छोड़ती हैं। उदाहरण के रूप में एक मजदूर की थकान जब उसकी कार्य-क्षमता पर हावी होने लगती है, तब एक मनरंजनकारी लोकगीत उस थकान को सुला देती है। ठीक इसी प्रकार बौद्धिकता से बोझिल बेचैनी को एक उपयुक्त लोकगीत दूर कर देता है।
इतना ही नहीं, लोकगीतों की भाषा रूढ़िबद्ध एवं शास्त्राय भाषावाली रचना को नई ताजगी देती है। साथ ही रूढ़िबद्ध काव्यधारा को लोकगीतों का प्रभाव एक स्वतन्त्राता, एक नयापन और एक रसवत्ताभरी जड़ी-बूटी लेकर आता है। लोकसाहित्य भाषा और साहित्य को उसकी शास्त्रायता और रूढ़िबद्धता से मुक्त करता है। लोकसाहित्य के संस्कारपरक लोकगीत लोकसंस्कारों की रक्षा करते हैं तथा वीररसपरक लोकगीत और लोकगाथाएँ सैनिकों को उत्साहित कर देश की रक्षा में सहायक है।
उदाहरण के लिए, बुन्देलखंड के आल्हा ने देश की सैनिक टुकड़ियों को हमेशा जगाया है। बहुत पुराने समय से आक्रामक विदेशी संस्कृति से सुरक्षा करने में और भारतीय संस्कृति को जीवित रखने में जितना लोकसंस्कृति का योगदान है, उतना ही सहायक रहा है लोकसाहित्य। आज का इस वैज्ञानिक और भौतिक मूल्यों से घिरी परिस्थितियों में लोकजीवन की बौद्धिक बोझिलता और यान्त्रिकता को तोड़ने तथा जीवन में सरसता घोलने में लोकसाहित्य अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है। लोकसंस्कृति का प्रचारक-प्रसारक होने में उसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
देली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल