Tatos ततोस

ज़िंदगी मे कई  ऐसी घटनानायें घटती है जिनकी कभी आशंका भी नही होती और उन घ्टनाओं के कारण कई  बार  बहुत गुस्सा आता है पर मन  मसोस कर  रह जाना पडता है. फिर  सोचते हैं कि  ‘इतेक समझदारी अपन हां पैला काए नई सूझी?’’ श्यामा का जी Tatos से भर उठा, उसने कृष्णबिहारी को अंधेरे में टटोला, पर वह श्यामा की बातों से बेखबर, कब का सो चुका था।

 

घर  बनाना तो आसान है पर घर सम्हालना बहुत मुश्किल

जब श्यामा अपनी देवरानी पद्मा के पास पहुंची, तब उसका बेटा राजू अपनी मां से मान-मनौवा करवा रहा था। ‘‘ले बेटा, दूध पी ले, मोरो अच्छो राजा बेटा…’’ पद्मा अपने इकलौते बेटे राजू को मनाते हुए बोली। ‘‘मोय दूध नयी पीने और न मोय आज स्कूले जाने। राजू के द्वारा अपनी मां से बांह छुड़ाने का प्रयास करते गिलास का सारा दूध फर्श पर बिखर गया।

पद्मा के माथे पर हल्की शिकन उभरी, पर वह अपने आपको नियंत्रित करते हुए शांत स्वर में अपने हठीले बेटे को मनाते हुए पुनः बोली, ‘देख तेने सबरो दूध बगरा दओ…कछु बात नईयां, मैं दूसरो गिलास भरे देत, पर तोए दूध पीने परे…।’’ पास रखी गुर्सी, जिसमें ठंडी होती जा रही कण्डे की राख की गरमाहट डेकची में रखे दूध को कुनकुना किए हुए थी।

पद्मा ने डेकची में रखे दूध में जम आई मोटी मलाई की परत को उंगली से हटाते हुए नीचे का गाढ़ा सफेद दूध गिलास में भर लिया और अपने दुलारे बेटे से आग्रह-पूर्वक बोली, ‘‘मोरो अच्छो बेटा। अब तो दूध पी लेहे…हे…न?’’ राजू अपनी मां के मन को रखने की इच्छा से एक घूंट दूध पीकर रुक गया फिर बोला, ‘‘मीठो नइयां तनकऊ।’’

‘‘पी ले बेटा! ज्यादा मीठे से चुनचुना कैसे काटत फिर…अरे जिज्जी, जिज्जी! तुम इतेक दूर काय ठाड़ी? ऐंगर आ जाओ।’’ पद्मा अपनी जेठानी श्यामा को बरोठे में खड़ा देख अपने सिर पर पड़े लापरवाह घूंघट को सही करते हुए बोली। ‘‘काय हल्की…जो दूध काए नई पियत?’’ फर्श पर बिखरे दूध को देखते हुए श्यामा ने अपनी देवरानी से पूछा। ‘‘का बताओ जिज्जी, ईहां तो दूध से इतेक परेज है कि मैं का बताओं, मानतई नईयां…अबे इन्हें पता पर जाए तो एक लपाड़ा में सीधे हो जें जे।’’ पक्के फर्श पर बिखरा दूध आंगन में नाबदान में पतली धार बनकर घुस रहा था।

श्यामा दूध मांग रहे अपने चौथे बेटे दीपू को, दूध के स्थान पर दो थप्पड़ जमाकर यहां आई थी। बड़े भुन्सारे उसे रोज अपनी देवरानी के यहां दूध लेकर आना पड़ता था। एक भैंस और दो गायें थीं उसके पास। भैंस आजकल गाभिन है जबकि दोनों गायें, कजरी व डूडी अभी लग रही हैं, जिनसे सुबह-शाम कुल जमा तीन लीटर दूध निकलता था, जिसमें नाममात्रा का दूध बचाकर बाकी दूध अपनी देवरानी व मुहल्ले के दूसरे लोगों को बेचकर वह अपने घर खर्च में महत्त्वपूर्ण सहयोग करती थी।

श्यामा की आंखों में दीपू का रुआंसा चेहरा उभर आया, ‘‘अम्मा मोय दूध पीने। राजू की बराबर उम्र का था दीपू। एक ही खानदान, एक ही पीढ़ी के थे दोनों, परन्तु असमानता थी कि एक दूध लुढ़का रहा था जबकि दूसरा दूध के लिए रो रहा था। ‘‘ले…न…तो…पी…ते दूध…संझा के दद्दा से तोरी शिकायत करो।’’ पद्मा ने गिलास का दूध वापस डेकची में उड़ेल दिया, ‘‘अब जा स्कूले।’’ राजू स्कूल के लिए बस्ता उठाकर आंगन से बरोठा पार करते हुए बाहर निकल गया। राजू के चले जाने के बाद पद्मा श्यामा की ओर उन्मुख हो बोली, ‘‘बताओ जिज्जी कैसे आई?’’

‘‘हल्की…कछु पईसन की जरूरत आन पड़ी…ई महिना के दूध के हिसाब से काट लईयो।’’ श्यामा संकोच करते-करते बोली। ‘‘जिज्जी मोरे लो तो है नईयां…हां, दस-बीस रुपइया जरूर बक्सा में परे हुइएं, संझा के ये आ जैहें, सो दिला देहो।’’ पद्मा विनम्रतापूर्वक बोली। ‘‘हल्की, दसई-बीस दे राखो…वैसे जरूरत तो सौ…खांड़ की आन पड़ी ती। बाकी संझा के लाला से दिला दइयो…मैं सोमवती हां पठेहो।’’ श्यामा ने एक बार फिर फर्श पर बिखरे दूध की ओर इस भाव से देखा मानो, उसके आंचल का दूध फर्श पर बिखर गया हो।

‘‘हओ तख्त पर बैठो जिज्जी। मैं अबई आउत।’’ पद्मा रुपये लेने अन्दर चली गयी। श्यामा बरोठे में पड़े शीशम के पुराने तख्त पर बैठ गयी। जब वह पहली बार इस घर में ब्याह कर आई थी, तब इसी तख्त पर उसे सबसे पहले बैठाया गया था। नयी बहू के पास बैठने की लालसा में न जाने गांव की कितनी लड़कियां व महिलाएं उसके पास बैठ गयी थीं। यही कोई बीस-बाइस साल पहले की बात है। तब उसके अजिया ससुर जिन्दा थे। वे गांव भर के लिए ‘नन्ना’ के सम्बोधन से जाने जाते थे। उनका मान आसपास के गांवों तक में फैला हुआ था। बड़ी-बड़ी पंचायतों में उन्हें सम्मान के साथ बुलाया जाता था। तब ‘नन्ना’ गांव के मुखिया के साथ-साथ घर के भी मुखिया थे। सब लोग मिलजुल कर रहा करते थे।

एक ही रसोई में खाना बनता था। रखत-बखत इतना था कि बीसियों लोगों का खाना रोज बनता था। ‘नन्ना’ कहा करते थे, ‘‘वो घर, घर नइयां जहां पिण्डा-भर आटा न मड़े और चार-छह बाहर के खाके न जाएं।’’ जब उसका पहला बेटा उदयशंकर पैदा हुआ था, तब ढेर सारी खुशियां मनायी गयी थीं। उसके बेटे की चंगलियां पूरे गांव में फिराई गयी थी। उसके मंझले लाला शहर से कैमरा ले आए थे। खूब फोटो खिंची थीं। हाथी, घोड़ा, नाचने वाली नचनान्हे, सब चंगलियां के साथ थे। पूरे तीन दिन नौटंकी, कीर्तन वगैरह होता रहा था।

नन्ना के आंख बंद करते ही उनके चारों बेटे न्यारे हो गये। नन्ना के सबसे बड़े बेटे (उसके ससुर) व तीसरे बेटे गांव की खेती देखते थे जबकि दूसरे व चौथे बेटे शहर में अच्छी नौकरी में थे। श्यामा, नन्ना के सबसे बड़े बेटे की पुत्रावधू थी जबकि पद्मा, नन्ना के तीसरे बेटे की पुत्रवधू थी। इस प्राकर श्यामा, पद्मा की चचेरी जेठानी हुई। पारिवारिक बंटवारे के कुछेक साल बाद ही श्यामा के ससुर भी अपने पीछे विधवा पत्नी, चार बेटे और दो बेटियां छोड़कर चल बसे। इनमें बड़े बेटे कृष्णबिहारी (उसके पति) व दोनों बेटियों का ब्याह हो चुका था। तब नन्ना भी जीवित थे।

ससुर की मृत्यु के बाद उनके शेष तीनों बेटों का भी समय से शादी-ब्याह हो गया और उनकी कुल जमा साठ बीघा जमीन को मां सहित चारों भाइयों ने बांट लिया, इस तरह कृष्णबिहारी के हिस्से में बारह बीघा जमीन आई। लाड़-प्यार में पले-पढ़े कृष्णबिहारी को पिता की मृत्यु के बाद आटे-दाल का भाव पता चला। बारह बीघा कृषि-भूमि, वह भी असिंचित, जिसमें सात प्राणियों का जीवन-यापन कृष्णबिहारी व श्यामा के लिए अक्सर मुश्किलें पैदा कर देता था।

दूध बेचकर जो थोड़ा-बहुत पैसा मिल जाता था, उससे घर खर्च में श्यामा को बहुत मदद मिल जाती थी। ‘‘जिज्जी, जे लेओ।’’ पद्मा ने श्यामा के हाथ पर दस-दस के दो नोट रखते हुए कहा। श्यामा की सोच टूटी। रुपये लेकर वह जाने लगी। ‘‘जिज्जी, तनक सुनियो तो…’’ पद्मा श्यामा को रोकते हुए बोली, ‘‘सकारे सत्यनारायण भगवान की कथा करावे की सोची है। सो सब जनन को न्यौता है, इतई जैऊने।’’ श्यामा कुछ देर रुक मन में उत्पन्न हुई खुशी को दबाते हुए बोली, ‘‘भली सोची…आ जेबी।’’

‘‘जिज्जी संझा के दूध तनक बिलात चाउने हुए काए से पंचामृत हां दही जमाने पड़े।’’ ‘‘सबरो लेत आहो।’’ ‘‘और जिज्जी, सकारे हां सोमवती हां पक्की पठा दइयो।’’ पद्मा दरवाजे तक अपनी जेठानी श्यामा को छोड़ते हुए बोली। ‘‘हओ पठा देहो ते परेशान न हो। सब अच्छे से निपट जे है। ते अब अन्दर जा।’’ श्यामा पास ही स्थित बंटवारे के बाद मिले अपने घर की ओर जाते हुए बोली, जो कभी गाय-भैस बांधने के प्रयोग में लाया जाता था।

थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर कृष्णबिहारी व श्यामा ने ‘सार’ को रहने योग्य घर में बदल लिया था। ‘‘हुलकी आ जाए…ई नाट परे नठ्या की ठठरी बर जाए…ई हां…इतई हगे को ठोर मिलत…’’ श्यामा जब पद्मा के घर से वापस लौटी, तब झबरा को उसकी सास की धाराप्रवाह गालियां मिल रही थीं, जो बाहरी दालान पर गन्दगी करके भाग चुका था। मुहल्ले-भर का इकलौता कुत्ता झबरा उसकी सास की गालियां खाने का आदी हो चुका था और आए दिन दालान गंदा कर जाता था। जब श्यामा घर के अन्दर पहुंची, तब उसने देखा कृष्णबिहारी, रो रहे दीपू को अपनी गोद में लिए चुप करा रहा है। श्यामा को देखकर कृष्णबिहारी बोला ‘‘चल तो तना डूड़ी (गाय) हां लगा के देखे अतपई छटांक दूध निकरई आ हे। जो बिना दूध पिए चुप न हुए।’’

श्यामा स्टील के गिलास में डूड़ी का थन निचोड़ते हुए अपने पति से बोली, ‘‘सांसी…अपनी डूडी साक्षात गऊ माता है। जब चाहे दोंह लो।’’ ‘‘चलो इतेक दूध में जो मान जे हैं।’’ कृष्णबिहार ने आधे से ज्यादा दूध से भर चुके गिलास में देखते हुए कहा, ‘‘मोए हारे जाए हां अबेर हो रई।’’ श्यामा ने मचलते दीपू के होंठों पर कच्चे दूध का गिलास लगा दिया। नन्हा दीपू रोना-मचलना छोड़, गटागट दूध पीने लग गया। ‘‘कलेऊ तना सोकारे लेत आइए।’’ कृष्णबिहारी जानवरों को अपने साथ खेतों की ओर ले जाते हुए श्यामा से बोला।

‘‘हओ।’’ श्यामा ने दीपू के मुंह पर लगे दूध के फैन को अपनी धोती के पल्लू से पोंछते हुए हामी भरी। दोपहर जब सूरज देव सिर के ठीक ऊपर आ चुके थे, तब नीम के पेड़ की छांव में कृष्णबिहारी अपनी पत्नी श्यामा के द्वारा बनाकर लाया हुआ भोजन, जिसमें उसकी मन पसंद डुबरी (बुंदेली व्यंजन) भी थी, को स्वाद ले-लेकर खा रहा था। श्यामा उसके पास बैठी घास का सूखा तिनका दांत से चबा रही थी। ‘‘सुनो…सकारे हल्की ने सत्यनारायण भगवान की कथा विचारी है, अपन सब जनन हां न्यौतो है।’’ श्यामा घास के तिनके को परे फेंकती हुई बोली। ‘‘अच्छा…काय जो मट्ठा गुंजी वाली कक्की के इते को आए का?’’

कृष्णबिहारी भोजन कर चुकने के बाद छुका हुआ मट्ठा पीते हुए बोला। ‘‘हओ।’’ …‘‘तबई इतेक पानू मिलो है ई में।’’ ‘‘काए अपनी हल्की कितेक नोनी है, जब कबहूं पूजा-पाठ कराहे अपन सब जनन हां जरूर न्यौते।’’ कल के निमंत्राण की खुशी श्यामा के मन से कम न हुई थी। कृष्णबिहारी ने भोजन कर चुकने के बाद जमीन पर लेटे-लेटे स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। ‘‘अथई के तना झट्टई घरे आ जाइयो, दिन बूड़े के पैला।’’ श्यामा जूठे बर्तन समेटकर टोकरी में रखते हुए बोली। ‘‘हओ…आ जे हो।’’ कृष्णबिहारी दांत में फंसे अन्न-कण को नीम की सींक से निकालते हुए बोला। श्यामा जब खेतों से वापस लौटी, तब भी उसने अपनी सास को बड़बड़ाते सुना। इस बार उनकी गालियों का निशाना बर्फ बेचने वाला था।

‘‘सबरो अनाज, जे लरका मोड़ी…ई बरफ वाले हां पूज के बढ़ाए देत…ई हां भवानी सकेल ले जाए..ई की सबरी बरफ में लुगरिया लग जाए…इतई मोरी छाती पे डुगडुगी बजाए हां मिलत बरगए हां…ई चौमासे में मोड़ा-मोड़ियन हां बरफ चुखा-चुखा के बिगारे देत…नाट परो…।’’ श्यामा ने नीम के हाते तक दृष्टि दौड़ाई, पर उसे बर्फ वाला कहीं दिखाई नहीं दिया। वह बेचारा भी उसकी सास की तरह गली, मुहल्ले की बूढ़ी-पुरानी औरतों के मुंह से रोज ही मिलने वाली गाली और श्राप का आदी हो चुका था…‘‘क्या करे?’’

उस गरीब को भी तो अपना पेट पालना है, किसी तरह। श्यामा सोचने लगी। रात्रि के दूसरे प्रहर में सोने से पहले श्यामा ने कृष्णबिहारी से कहा, ‘‘काए अगर हल्के लाला की तरां तुमऊं अपने बाप-मताई के अकेले होते? तो जे दिन देखे हां काए…परते? तुमाए लो भी हल्के लाला की तरां साठ बीघा खेती की जमीन होती, टेक्टर होतो, अच्छो रखत-बखत सब कुछ होतो…। श्यामा कुछ देर रुककर बोली, ‘‘और जे जोन तुमने चार-चार बच्चा पैदा कर दए, उने तो और बुरए दिन देखे हां मिलने…हल्की बहू और हल्के लाला कितेक समझदार निकरे…बस एकई लरका पैदा करो उन्ने राजू…कितेक लाड़-प्यार पाऊत ऊ अपने बाप-मताई से…।’’

श्यामा की आंखों के सामने सुबह-सबेरे का दृश्य उभर आया, जब हल्की बहू अपने पुत्र राजू को मना-मनाकर दूध पिला रही थी। तभी उसकी आंखों में दीपू का रुआंसा चेहरा भी घूम गया, जो दूध के लिए रो रहा था। वह आगे बोली, ‘इतेक समझदारी अपन हां पैला काए नई सूझी?’’ श्यामा का जी ततोस से भर उठा, उसने कृष्णबिहारी को अंधेरे में टटोला, पर वह श्यामा की बातों से बेखबर, कब का सो चुका था।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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