Tesu Bundeli Lok Parv टेसू – बुन्देली लोक पर्व

बुन्देलखण्ड की लोक परम्पराओं में Tesu Bundeli Lok Parv  बुन्देलखण्ड के बालकों का खेलपरक लोक पर्व है । टेसू नाम का  वीर पुरूष जो उसके वैभव, शौर्य, अड़ियलपन तथा जबरन चौथ बसूलने की प्रवृत्ति का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। टेसू के मूल स्थान का उल्लेख इतिहास ग्रन्थों में नहीं मिलता है। किन्तु यह निश्चित है कि उसके शौर्य प्रसंग दूर-दूर तक चर्चित रहे हैं तभी तो वह ब्रज से बुन्देलखण्ड तक अपने स्मृति-चिन्ह छोड़ गया।

बुन्देली लोक परंपरा में ‘सुआटा’ नामक एक खेल है जिसे किशोरियाँ एक माह तक खेलते हैं। इसी के अंतर्गत शारदीय नवरात्रि से शरद पूर्णिमा तक यह गीत गाया जाता है। यहाँ सुआटा की परम्परा पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालना आवश्यक है। ‘सुआटा’ बुन्देलखण्ड के किशोरियों का क्रीड़ात्मक उपासना विधान है जिसे बुन्देली संस्कृति का विशिष्ट लोकात्सव कहा जा सकता है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) तक पाँच चरणों में पूरा होता है।

प्रथम चरण में ‘मामुलिया’ खेली जाती है। यह किशोरियों का खेल है जो भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक चलता है। इस अवधि में किशोरी बालिकायें दीवाल पर एक आयताकार आलेख बनाती है। जिसके चारों ओर बेलबूटे तथा अंदर ऊपर की ओर दोनों कोने में सूर्य तथा चन्द्र चित्रित होते हैं।

सायंकाल किशोरी बालिकायें झुण्ड बनाकर घरों से निकलती हैं। तथा बेर या बबूल की बांटेदार टहनी लेकर उसे पुष्पों से सजाकर, दुलहिन सा बनाकर गीत गाती हुई गली-गली घूमकर जंगल की ओर जाकर सूर्यास्त के बाद इस टहनी को, जिसे सज्जित रूप में ‘मामुलिया’ कहते हैं, प्रतिदिन किसी जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है।

तत्पश्चात् वे किशोरी बालिकायें उक्त वर्णित सुआटा आलेख के पास एकत्रित होती हैं तथा गाती हुई उस आलेख पर गोबर की थपियाँ चिपकाती हैं। तत्पश्चात् चंद्रमा को साक्षी मानकर तथा वन्दन करके अपने-अपने घरों को लौट जातीं हैं। प्रातः वे थपियाँ उसमें से निकालकर एकत्रित रख ली जातीं हैं । तथा अंतिम दिन उन थपियों को जलाशय में विसर्जित कर देते हैं।

द्वितीय चरण में ‘नौरता’ खेल होता है। यह आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी तक नवरात्रि में चलने के कारण नौरता कहलाता है। इसके अंतर्गत ‘सुआटा’ नामक दैत्य राजा की प्रतिमा गोबर से बनाकर रत्नों की प्रतीक कौड़ियों से उसे अलंकृत करते हैं तथा प्रतिदिन उस दैत्य प्रतिमा को दुग्ध स्नान कराया जाता है एवं गौरी प्रतिमा स्थापित करके उसकी भी नित्य पूजा की जाती है।

यह पर्व उस दैत्य की विवशतापूर्ण पूजा तथा उससे मुक्ति हेतु गौरी की प्रार्थना का प्रतीक है। अष्टमी को सामूहिक भोज ‘भसकूँ’ होता है जिसमें किशोर-किशोरियाँ सम्मिलित होते हैं। बालिका का विवाह हो जाने के बाद उसे सुआटा खेल से मुक्ति लेने हेतु सुआटा उजाना पड़ता है। जो बालिकायें सुआटा खेलती रहीं हैं वे विवाहोपरान्त पड़ने वाले इस लोकपर्व में नवमी के दिन सुआटा उजाती I

तृतीय चरण में बालक ‘टेसू’ खेल खेलते हैं। यह आश्विन शुक्ल अष्टमी से शरद पूर्णिमा तक चलता है। इस लेख का प्रतिपाद्य यही टेसू खेल तथा उसे खेलते समय गाया जाने वाला लोकगीत है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

चौथे चरण में बालिकायें नवमी से चतुर्दशी तक ‘झिंझिया’ खेलती हैं। इसे ढिरिया भी कहते हैं। मिट्टी के एक घड़े में उपरी भाग में सैकड़ों छेद करके, घड़े के अंदर अनाज तथा उसके ऊपर प्रज्जवलित दीपक रखकर ढिरिया बनाते हैं। इसे लेकर किशोरियाँ द्वार-द्वार जाकर पैसा या अनाज माँगती हैं।

पाँचवें चरण में ये बालक-बालिकायें मिलकर टेसू तथा झिंझिया (ढिरिया) का ब्याह रचाते हैं। बालक टेसू की बारात धूम धाम से लेकर झिंझिया के घर जाते हैं। महिलायें झिझिया नृत्य करतीं हैं। सारी वैवाहिक रस्में पूरी होकर खेल समाप्त हो जाता है।

कथा-किंवदंती
सुआटा नामक एक दैत्य किशोरी कन्याओं को परेशान करता था। जब वे सहेलियों के साथ वनविहार को जातीं, वह दैत्य उन्हें परेशान करता, छेड़ता तथा पूजा करने को बाध्य करता था। बालिकायें चन्द्राबलि तथा सूरजबलि नामक ६ धर्म-भाइयों से रक्षा की याचना करतीं तथा उनके संरक्षण में सुरक्षित घर पहुँचने की अनुमति लेकर वनों से चलतीं थीं। फिर भी दैत्य की छेड़ाखानी जारी थी। कन्यायें माँ गौरी से भी प्रार्थना करतीं थी-उस दैत्य से मुक्ति के लिये। इसी बीच ‘टेसू’ नामक वीर का उदय होता है।

टेसू बड़ा पराक्रमी था वह  सुआटा को परास्त करके झिझिया के साथ ब्याह रचाता है। विवाह के पश्चात् सुआटा का अंग-प्रत्यंग लूटा जाता है, हाथ पैर तोड़कर फेंक दिये जाते है। उसके रत्नालंकृत आवरण तथा आभरण की प्रतीक कौड़ियाँ लूटकर लोग घर ले जाते हैं। विजय पर्व पर अर्जित संपत्ति की प्रतीक यह कौड़ियाँ, तिजोरी में रखना लोग शुभ मानते हैं ।

लोककथाओं में पात्रों की स्वरूप भिन्नता की जो प्रवृत्ति देखने को मिलती है। उसका प्रभाव टेसू पर भी है। उपर्युक्त दो लोककथाओं को ही लें। एक में टेसू रक्षक के रूप में है, दूसरे में प्रेमासक्त । सत्यता कुछ भी हो किन्तु यह लोककथा चिरकाल से किशोर-किशोरियों के मनोरंजन तथा विवाह संस्था संबंधी ज्ञानवर्द्धन का व्यवहारिक साधना  रही है।

कुछ लोग ‘टेसू’ को लोक देवता के रूप में परिगणित करते हैं किन्तु हिन्दुओं के देवी देवताओं में कहीं उनका नाम का उल्लेख  नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि लोक जीवन में जो प्रेरक पुरूष के रूप में जन स्वीकृति प्राप्त कर सके वे लोक देवता पद पर प्रतिष्ठित हो गये।

संभव है, टेसू को लोक देवता मानने वालों की उक्त धारणा रही हो किन्तु टेसू की पूजा गंभीर पूजा विधान में नहीं होती है। अपितु खेलों में ही उनकी चर्चा आती है, अतः उनकी गणना लोक देवता के रूप में करना उचित नहीं है। दूसरी ओर हुरदौल बुन्देली लोक संस्कृति में एक अनिवार्य देवता हैं, जो शुभ कार्यो के प्रारम्भ से नवदंपत्ति के गृह प्रवेश तक सर्वत्र पूजित, वंदित एवं गाये जाते हैं।

टेसू गीत तथा खेल की अवधि शारदीय नवरात्रि से आश्विन पूर्णिमा तक है। कहीं यह पूरी नवरात्रि कहीं अष्टमी से चतुर्दशी तथा कहीं नवमी से पूर्णिमा तक खेला जाता है ।  टेसू खेलते समय बालक बांसों की खपचियों से बनी एक पुरुषाकृति हाथों में लेकर चलते हैं।

इसे ही टेसू कहते है। कहीं-कहीं इसे पुतले का रूप देकर पूर्ण वीरवेश में हाथों में तीर कमान अथवा तलवार लिये हुये बनाते हैं। इसके सिर पर मुकुट या साफा तथा शरीर पर राजसी अलंकरण होता है। किन्तु कहीं-कहीं केवल तीन बांसों की खपचियों पर एक सिर मात्र रखकर घुमाते हैं।

कुछ विद्वानों का मत है कि ‘कृष्ण द्वारा बब्रुवाहन को मूर्ख बनाने की स्मृति में टेसू खेला जाता है। कहा जाता है। कि महाभारत कालीन योद्धा बब्रुवाहन को मरणोपरान्त (शमी वृक्ष पर रखे अपने सिर से) महाभारत युद्ध देखने का वरदान मिला था। इस कथानक के रूप में तीन लकड़ियाँ शमी वृक्ष तथा उस पर रखा सिर बब्रुवाहन का प्रतीक है। कुछ संदर्भों के अनुसार उक्त कथानक बर्बरीक से संबंधित है न कि बब्रुवाहन से।  

टेसू खेलने में किशोर बालक एक झुण्ड के रूप में टेसू का पुतला लेकर सड़कों, गलियों तथा मुहल्लों में निकालते हैं। उसके शौर्य गीत गा-गाकर द्वार-द्वार घूमकर पैसा अथवा अनाज उगाहते हैं । पूर्णिमा के दिन संचित अनाज का नकदीकरण करके टेसू का विवाह संपन्न कराते हैं।

लोकगीतों में टेसू यद्यपि एक उद्धारक के रूप में चित्रित है किन्तु बुन्देली लोकजीवन में वह बने-ठने हास्यास्पद दिखने वाले व्यक्ति का पर्यायवाची बन गया हे । लोग ऐसे व्यक्ति को देखकर कहने लगते है, वह टेसू सा लगता है।

टेसू के लोकगीत अनादि अनन्त हैं। न उनका प्रारंभ प्रामाणिक हैं, न अंत। तमाम सारी ऊटपटांग बातों एवं मनोविनोदी प्रसंगों को भी इनमें जोड़कर दिया हैं। उनमें टेसू गीत प्रारंभ करते ही आशु कविता की प्रतिभा जाग जाती है। इस लेख में हमने परवर्ती पृष्ठों में इस लोकगीत के जो उद्धारण दिये हैं वे संभव हैं साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि में घटिया लगें किन्तु यथार्थपरक रूप में उन्हीं के कारण उनकी प्रस्तुति भी आवश्यक है।

ऊटपटांग तथा संदर्भहीन बातों को भी बालक किस प्रकार रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हैं, यह समझना इस गीत के मनोविनोदात्मक पहलू को उजागर करने के लिये, आवश्यक है। अलग-अलग स्थानों तथा अलग-अलग झुण्डों द्वारा गये जाने वाले लोकगीतों को समग्र रूप में रख कर ही टेसू की समन्वित तस्वीर सामने आती है।

अनेक लोक गीतों के पाठों में कुछ प्रारम्भिक पंक्तियां टेसू के शौर्य तथा वीरवेश की झलक प्रस्तुत करती हैं-
टेसू आये वानवीर
हाथ लिये सोने का तीर
एक तीर से मार दिया
राजा से व्यवहार किया।
नौ मन पीसें दस मन खाँय
घर घर टेसू माँगन जाँय
पड़वा बोले आँय, आँय, आँय ।

एक गीत में कुछ वर्णन इस प्रकार आता है-
टेसू राय जब घंट बजायें
नौ नगरी दस गाँव बसायें । टेसू राय की सात बहुरियाँ
नाचें कूदें चढ़ें अटरियाँ ।

ऐसा टेसू वीर कई अट्टालिकाओं वाले भवन में अपनी सात रानियों के साथ रहता है। उसकी विजयवाहिनी के घण्टों की आवाज से नगर बसते और उजड़ते हैं। कुछ अन्य गीतों में कुछ और विचित्र कथन हैं-
टेसू मूतें घर बल्लाय,
चकया चलौ सब बह जाय
नौंन कौ डबला घरई में रै जाय ।
***********************

टेसू टेसू काँ गये ते,
हथिया खिलाउन गये तें ।
हथिया ने कीक मारी
दौरे परे पच्चीसा
पच्चीसन की जोड़ी आई
बिलैया जूझ गई
सास बहू रूठ गई ।
सास को टूटौ घूँटौ
बहू को करम फूटौ ।
***********************

इमली की ताड़ ताड़ चढ़ी पतंग
हाथी घोड़ा ले गये डंक
डंका बांका कैसौ बजै
बैरी सारौ हल हल कपै,
बैरी मों की कैसें खाय,
खाय खाय चौकड़िया खाय ।
चौकड़िया कुल दिया बुझाय ।

टेसू की इन विचित्र प्रशस्तियों के बाद पैसा मांगने की बात शुरू होती है, दाता की प्रशंसा तथा सदाशीष से-
“बड़ौ दुआरौ, बड़ी अटरिया
बड़ौ जानकें टेसू आये,
मेंड़न मेंड़न रौंसा फूलै
बन फूले कचनार ।
सदा बखरिया ऐसें फूलें
जी में हाथी झुकें दुआर
ई में हाथी झुकें हजार ।

किन्तु जब दाता का दिल नहीं पसीजता । वह पैसे नहीं देता है, तो टेसू अपना अड़ियलपन प्रकट करते हैं। लड़के गाने लगते हैं-
“टेसू अगड़ करें, टेसू झगड़ करें
टेसू लैई के टरें ।
टेसू की गई कोऊ न खाय,
खाय खाय चौकड़िया खाय ।
***********************

टेसू बब्बा हेंई खड़े
खाबे कों मागें दही बड़े
दही बड़े में मिर्चा भौत
कल जानें है कानी हौद ।
कानी हौद पै चढ़ी पतंग
बापै लेटे टेसू मलंग
टेसू मलंग ने दई तलवार
कूँद परे ‘फलाने’ परवार ।

ये बालक फलाने के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम देते हैं- जिसके दरवाजे मांगने आते हैं। फिर भी जब पैसा नहीं मिलता है तो बालक जोर जोर से चिल्लाने लगते हैं।
“एक पैसा होता तो पन्नी मंगवाते
पन्नी अच्छी होती तो टेसू सजवाते ।
टेसू अच्छा होता तो महल बनवाते ।
महल अच्छा होता तो चक्की लगवाते,
चक्की अच्छी होती तो आटा पिसवाते
आटा अच्छा होता तो पूड़ी बनवाते,
पूड़ी अच्छी होती तो सास को खवाते,
सास अच्छी होती तो गधा पै बैठाते,
गधा अच्छा होता तो डण्डा लगवाते ।
डंडा अच्छा होता तो चूल्हे में जलाते ।
चूल्हा अच्छा होता तो नदी में बहाते
नदी अच्छी होती तो टेसू मलंग नहाते ।

यदि इतना गाने पर पैसा मिल जाता है। तो बालक बड़े प्रसन्न होते हैं तथा गाने लगते हैं ।
“हिरन खुरी भई हिरन खुरी
हिरना मांगै तीन खुरी
तीन पुरी कौ पाइया
देहरी दूध जमाइया
देहरी बैठे कूकरा
खुशी रहे तेरौ पूतरा

कभी-कभी कोई वाचाल बालक व्यंग्य बाण छोड़ देता है ।
“टेसू आये धूम से
टका निकारौ सूम सें ।

जब तक बालकों को पैसा या अनाज नहीं मिलता है-वे गाते रहते हैं। टेसू को माध्यम बनाकर जाने क्या-क्या ऊटपटांग बातें मिलाकर संदर्भहीन बातों को टेसू से जोड़कर समूहगान जारी रहता है। यह सचमुच मनोरंजक भी बन जाता है ।
“ए.बी.सी.डी.ई.एफ. जी.
बामें निकरे पंडित जी ।
पंडित जी ने बांचौ चिट्ठा ।
बामें निकरौ नाऊ कौ पट्ठा ।
नाऊ के पट्ठा ने मूड़ौ मूड़,
बामें निकरौ पेड़ कौ हूँड़ ।
पेड़ के डूंड़ में लग गई सुर्ती,
बामें निकरी लाल लाल कुर्ती ।
लाल कुर्ती में बन गऔ खाना,
बामें निकरौ तोपखाना ।
तोपखाने में बन गई खीर,
बामें निकरे गंजे फकीर ।
गंजे फकीर ने बनाई मड़ैया,
बामें निकरे सात बढैया ।
सात बढ़इयन ने बनाऔ पलंग
बापै बैठे टेसू मलंग ।

किसी वृद्ध व्यक्ति को देखकर ये बालक उछलने कूदने लगते हैं। हाथ में टेसू लिये, उनका निशाना वह बेचारा बुड्ढा बन जाता है वे गाते हैं-
“बब्बा बब्बा काँ गये ते
पतरी छोड़ हँगन गये ते ।
पतरी लै गऔ कउआ
बब्बा हो गऔ नउआ ।
नउआ ने मूड़ौ मूड़
बब्बा हो गये, रै गये हूँड़ ।
हूँड़ में धरदऔ अंगरा,
बब्बा हो गये बंदरा ।
बंदरा ने चुगी बाती,
बब्बा हो गये हाँती ।
हाथी ने धरी गैल,
बब्बा हो गये बैल।
बैल की टूटी अनियां,
बब्बा हो गए बनिया ।
बब्बा ने बाँटी सिन्नी,
बब्बा हो गए हिन्नी।
हिन्नी ऊलै खेत में
बब्बा घुस रेत में

जो पैसा देता है वह भी मनोविनोदी गीत सुनने के लिये ‘और सुनाओ’ कहकर बालकों को उकसाता है तथा चटखारे ले लेकर सुनता है। टेसू के खेल या गाने में अमीर-गरीब का अंतर नहीं होता है। बड़े आदमियों (धनिकों) के पुत्र भी टेसू लेकर मांगने निकलते हैं। यह भिक्षा नहीं टेसू का हक है। बुन्देलखन्ड के गांवों में लोग वर्ष भर इंतजार करते हैं कि कब क्वॉर के महीने का उत्तरार्द्ध आये और टेसू दरबाजे पर मांगने आये।

कार्तिक स्नान बुन्देली महिलाओं का लोक पर्व 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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