मन मे टीस लगना स्वाभाविक कहै शिवनारायण बाबू से पूरा वृत्तांत सुनकर उनकी पुत्रवधू किरण एवं उनके दूसरे पुत्र धनंजय के लिए मेरे अंतर्मन से हार्दिक आशीर्वाद और साधुवाद के शब्द स्वतः निकल पड़े, वहीं मेरे अन्तस तक एक Tees पैठ गयी। किस तरह हमारे देश की ललनाएं दहेज रूपी दानव की क्षुधा मिटाने के लिए अपने शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगों तक को बेचने के लिए आज भी मजबूर हैं।
मजबूरीवश अपनी किडनी बेचनी पड़ती है
‘‘हैलो!’’…‘‘सर! बंगलौर से कॉल है।’’…‘‘बात कराओ।’’…‘‘हैलो, हैलो…मैं प्रकाश वर्मा बंगलौर से बोल रहा हूं…मैं आपके यहां कार्यरत श्री शिवनारायण वर्मा का बेटा हूं। मुझे उनसे बहुत जरूरी बात करनी हैं। प्लीज मेरी उनसे बात करा दीजिए।’’
‘‘अच्छा, अच्छा…आप फोन होल्ड कीजिए, मैं अभी बात करवाता हूं।’’ मैंने इंटरकॉम से शिवनारायण बाबू को उनके बेटे के फोन की सूचना दी। वह मेरे चेम्बर में कुछ पल में ही आ गये। रिटायरमेंट के करीब शिवनारायण बाबू यद्यपि पदोन्नति पाकर राजपत्रित अधिकारी बन चुके थे, परन्तु छोटे-बड़े सभी उन्हें शिवनारायण बाबू कहकर ही सम्बोधित करते हैं।
पिता-पुत्र के मध्य फोन पर हो रही वार्ता की ओर मेरा ध्यान अनायास खिंच गया। वार्तालाप के दूसरे पक्ष से स्पष्ट हो रहा था कि शिवनारायण बाबू के बेटे की किडनी खराब हो गई है। दूसरी किडनी शीघ्र प्रत्यारोपित कराई जानी है, जिसके कारण शिवनारायण बाबू को उनका बेटा बंगलौर बुला रहा है। शिवनारायण बाबू के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भाव पुत्रा-प्रेम और उसकी पीड़ा को गहराई से स्पष्ट करा रहे थे।
मुझे शिवनारायण बाबू एवं उनके बेटे के प्रति सहानुभूति हो गयी। फोन करने के बाद शिवनारायण बाबू अपने चश्मे को सही करते हुए मेरे प्रश्न चिद्दित चेहरे को देखकर स्वयं बताने लगे, ‘‘सर! मेरे बड़े बेटे का फोन था, अभी दो साल पहले उसकी किडनी खराब हो गयी थी, तब वहीं बंगलौर में किसी लड़की की किडनी उसके शरीर में प्रत्यारोपित कराई गयी थी। तब उसके विभाग ने किडनी प्रत्यारोपण का पूरा व्यय वहन किया था।
‘‘तो फिर किडनी दोबारा क्यों ट्रांसप्लांट की जा रही है?’’ मैंने बीच में ही प्रश्न किया। ‘‘सर! बेटे ने लापरवाही की, वह दो माह से अधिक समय तक बंगलौर छोड़कर यहां यूपी में रह गया जबकि किडनी जिस क्षेत्र के व्यक्ति की ली जाती है, उसी क्षेत्र की जलवायु किडनी को सूट करती है। दो माह से अधिक दिनों तक यहां रह जाने से उसकी किडनी में पुनः खराबी आ गयी। अब वह बदली जाएगी।’’ …‘‘ओह! क्या इस बार भी उसका विभाग किडनी ट्रांसप्लांट का पूरा व्यय उठाएगा?’’
‘‘नहीं सर! विभाग ने एक बार खर्चा उठा लिया, दोबारा का प्रावधान नहीं है। बेटा बता रहा था कि इस बार बहू अपनी किडनी देगी।…सर! मुझे दस-बारह दिन के लिए बंगलौर जाना होगा। इसी शुक्रवार को किडनी ट्रांसप्लांट होनी है।’’ शिवनारायण बाबू प्रार्थना के स्वर में बोले। ‘‘ठीक है, आप बंगलौर जाइए। आपका जाना आवश्यक है। आप चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा। हां! आप अपना चार्ज मिस्टर चटर्जी को दे दीजिए और जो आवश्यक पैडिंग काम हो, उसे मिस्टर चटर्जी को समझा दीजिएगा।’’ मैंने कहा।
शिवनारायण बाबू मेरे चेम्बर से बाहर चले गये, परन्तु मेरे लेखकीय मन को उनकी इस बात ने उद्वेलित कर दिया कि ‘इस बार बहू अपनी किडनी देगी। क्या उनकी नवब्याहता बहू को ही अपने पति के लिए अपनी किडनी दान करने की प्रथम पात्रता है? क्या उनकी बहू की किडनी खराब होने की स्थिति में उनका बेटा भी अपनी किडनी पत्नी को दान करने के लिए सहज तैयार हो जाता? क्या स्वयं शिवनारायण बाबू इसकी स्वीकृति इतने सहज शब्दों में दे पाते, जितने सहज शब्दों में उन्होंने कहा कि इस बार बहू अपनी किडनी देगी’ शायद नहीं।
मेरे मन में यह अन्तर्द्वन्द तब तक चलता रहा, जब तक कि शिवनारायण बाबू पूरे पन्द्रह दिन बाद बंगलौर से वापस नहीं आ गए। ऑफिस आकर सर्वप्रथम उन्होंने मुझे अपने बेटे के शरीर में सफल किडनी प्रत्यारोपण की सूचना दी। मैंने उन्हें बधाई देते पूछा, ‘‘और आपकी बहू का स्वास्थ्य ठीक है?’’ ‘‘जी हां।’’ मेरे प्रश्न का आशय भांपते हुए शिवनारायण बाबू आगे बोले, ‘‘सर! किडनी मेरे छोटे बेटे ने दी।’’ ‘‘क्यों? आप तो कह रहे थे कि बहू अपनी किडनी देगी।’’ मैं आशा के विपरीत उत्तर पाकर अचंभित हो गया। ‘सर! आपको बताता हूं। एक्चुअली सर! हुआ यह कि आगे शिवनारायण बाबू द्वारा मुझे जो बताया गया, उसका कहानी-रूप बहुत अच्छा बनता है। उसी प्रयास में आगे का वृत्तांत वर्णित है
डॉ. पद्मानाभन् आई.वी.पी., सी.टी. स्कैन व अल्ट्रासाउंड की रिपोर्टों को गौर से देख रहे थे। उनके सामने प्रकाश अपनी पत्नी किरण के साथ बैठा हुआ था। पति- पत्नी दोनों के माथे पर परेशानी की सिलवटें थीं। रिपोर्ट जानने के लिए बेचैन हो रहे थे। ‘‘हां तो मिस्टर प्रकाश, क्या आपके शरीर में पहले भी किडनी ट्रांसप्लांट की गयी थी?’’ डॉक्टर पद्मनाभन ने प्रकाश से पूछा। ‘‘जी हां! दो साल पहले…’’ थूक निगलते हुए प्रकाश बोला।
‘‘किडनी कहां ट्रांसप्लांट की गयी थी?’’ ‘‘यहीं बंगलौर में सर, इसी अस्पताल में, डॉक्टर भडूचा थे उस समय।’’ ‘‘अच्छा! ऐसा है मिस्टर प्रकाश! आपकी यह किडनी भी खराब हो चुकी है। दूसरी किडनी की आप व्यवस्था कर लें। किडनी जल्दी से जल्दी ट्रांसप्लांट किए जाने की आवश्यकता है।’’ डॉक्टर पद्मनाभन ने रिपोर्टें प्रकाश की ओर बढ़ाते हुए कहा।
‘‘जी…’’ प्रकाश सिर हिलाते हुए बोला, ‘‘डॉक्टर साहब, कब तक?’’ ‘‘मैंने कहा न जल्दी से जल्दी, ये आपकी वाइफ हैं न?’’….‘‘जी हां।’’…‘‘ऐसा है! मैडम आप इनको अपनी एक किडनी दे दीजिए।’’ डॉक्टर पद्मनाभन किरण से मुखातिब होकर बोले।…‘‘…जी…जी हां…’’ किरण ने प्रकाश की ओर देखते हुए कहा। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं।
‘‘आप घबराइए नहीं, हम सभी के शरीर में अमूमन दो किडनी होती हैं। आपके द्वारा अपनी एक किडनी अपने पति को दे देने से आपके पति की जान बच जाएगी और दूसरी किडनी से आपका काम भी आसानी से चलेगा, हां! आपके शरीर से किडनी निकालने के लिए एक ऑपरेशन जरूर करना पड़ेगा।
डॉक्टर पद्मनाभन ने किरण की घबराहट को महसूस कर उसे समझाते हुए कहा। ‘‘जी, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं…मैं…अपनी किडनी दूंगी।’’ किरण के मुंह से नपे-तुले शब्द निकल गये, परन्तु उसकी घबराहट कम नहीं हुई। उसने पर्स से रूमाल निकाला और अपने माथे पर छलक आईं पसीने की बूंदों को पोंछ लिया।
डॉक्टर की किडनी देने की सलाह पर किरण की असहजता से प्रकाश मन ही मन खिन्न हो उठा। ‘‘अच्छा डॉक्टर साहब, मैं आपसे इस विषय में कल पुनः मिलता हूं। प्रकाश ने डॉक्टर पद्मनाभन से विदा ली और उनके कक्ष से बाहर आ गया। किरण उसके पीछे थी। अपने फ्लैट तक आते समय, रास्ते में प्रकाश और किरण दोनों में कोई बात नहीं हुई।
किडनी देने की बात पर किरण की घबराहट व असहजता को प्रकाश अपने प्रति उसकी बेवफाई का जामा मन ही मन पहनाकर खिन्न हो उठा था जबकि किरण के मन में हजारों-हजार बुलबुले बनकर फूट रहे थे। वह स्वयं को ऐसे दोराहे में फंसी महसूस कर रही थी, जिसकी एक ओर उसका ऐसा जीवन था, जिसमें भूतकाल की वह बात सबके सामने उजागर हो जाती, जिसे वह अपने पति तक को पता चलने नहीं देना चाहती थी तो दूसरी ओर वह अपने पति का जीवन तो सुरक्षित कर देती परन्तु स्वयं का जीवन बलिदान कर देने के बाद।
फ्लैट में आकर भी प्रकाश ने किरण से कोई बात नहीं की और न ही उसके द्वारा लाए गये पानी के गिलास को ही छुआ, वह उदासी ओढ़े सोफे पर पसर गया। किरण ने प्रकाश के जूते-मोजे उतारे, टाई की नॉट ढीली की, परन्तु प्रकाश उससे कुछ नहीं बोला। अपनी आंखें बंद किए वह अनमना-सा सोफे पर लेटा रहा। उसका गला रुंध गया था। वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। किरण प्रकाश के मनोभाव को अच्छी तरह समझ रही थी।
वह अन्दर बेडरूम में चली गयी और बेड पर औंधे मुंह निढ़ाल लेटते ही रो पड़ी। बहुत देर तक किरण निश्चय-अनिश्चय की स्थिति में डूबती-उतराती अपने अतीत को याद कर रोती रही। अन्ततः उसने अपने निश्चय को दृढ़ किया, आंसू पोंछे और किचन में कॉफी बनाने चली गयी। ‘‘प्रकाश…कॉफी…!’’ किरण ने ट्रे सेंटर टेबल पर रखते हुए पूर्ववत सोफे पर आंखें बंद किए विचार-मग्न प्रकाश से निवेदन किया।
‘‘प्रकाश!’’ किरण प्रकाश के बालों को अपने दोनों हाथों की उंगुलियों से समेटते हुए बोली, ‘‘प्रकाश! मैं तुम्हें अपनी किडनी दूंगी, तुम्हारे बिना मैं अपना जीवन…सोच भी नहीं सकती। मैं अपनी किडनी दूंगी…।’’ कहते-कहते किरण प्रकाश के चेहरे की ओर झुकती चली गयी और प्रकाश के पहलू में आकर उसके सीने पर सिर रख फफक कर रो पड़ी।
प्रकाश की आंखों में भरे आंसू उसके आंख खोलते ही बाहर लुढ़क पड़े। दोनों एक-दूसरे को अपने-अपने आंसुओं से बहुत देर तक भिगोते रहे। आंसुओं के बह जाने से दोनों के हृदय निर्मल और मन हल्के हो गये। ठंडी हो चुकी कॉफी को किरण पुनः गरम कर लाई। रात्रि-भोजन के बाद दोनों आलिंगनबद्ध एक-दूसरे को बहुत देर तक प्यार करते रहे। सोने से पूर्व तय हुआ कि कल ही लखनऊ फोन कर बाबू जी व मां जी को किडनी-प्रत्यारोपण की बाबत सूचना देकर बुला लिया जाए। तदुपरांत शीघ्र किडनी प्रत्यारोपित करा ली जाए।
प्रकाश नींद के आगोश में चला गया जबकि किरण प्रकाश के सो जाने के बहुत देर बाद तक विचारों के द्वन्द्व में उलझती-सुलझती रही और इसी बीच उसे नींद ने कब आ घेरा, उसे कुछ पता नहीं चल पाया। अगले दिन प्रकाश ने डॉक्टर पद्मनाभन से किडनी-प्रत्यारोपण की तारीख लेकर लखनऊ अपने बाबूजी को किडनी-प्रत्यारोपण की सूचना एवं मां जी सहित बंगलौर शीघ्र आने के लिए फोन कर दिया।
दो दिन बाद ही लखनऊ से प्रकाश के बाबूजी और उसका छोटा भाई धनंजय बंगलौर आ गये। प्रकाश की मां अस्वस्थता के कारण साथ नहीं आ सकी थी। किडनी-प्रत्यारोपण की निर्धारित तारीख आ गयी। डॉक्टर भडूचा जो पहले प्रकाश के शरीर में किडनी का सफल प्रत्यारोपण कर चुके थे, अपनी विदेश यात्रा पूरी कर प्रकाश के ऑपरेशन के ठीक एक दिन पहले बंगलौर वापस आ चुके थे।
डॉक्टर पद्मानाभन ने अपने सीनियर डॉक्टर भडूचा को प्रकाश का केस समझा दिया। किरण की रिपोर्टों पर गौर करने से डॉक्टर भडूचा और डॉक्टर पद्मनाभन् दोनों सकते में आ गये। कारण रिपोर्टों में किरण के शरीर में केवल एक ही किडनी स्पष्ट हो रही थी। उसके शरीर में दूसरी किडनी नहीं थी। दोनों ने किरण को तुरन्त अपने कक्ष में बुलवाया। सहमी किरण सिर झुकाए कक्ष में आ गयी।
‘‘बैठिए, आप ही किरण हैं।’’ डॉक्टर भडूचा ने किरण से पूछा। ‘‘जी हां, कुर्सी पर बैठने के बाद किरण ने जैसे ही डॉक्टर भडूचा की ओर देखा, वह चौंक पड़ी। चौंके डॉक्टर भडूचा भी…’’ ‘‘तुम? तुम्हें देखा है मैंने…याद आया…अरे! डॉक्टर पद्म क्या अनर्थ होने जा रहा था। डॉक्टर भडूचा अपनी याद्दाश्त पर जोर डालते हुए आगे बोले, ‘‘इस लड़की ने आज से लगभग दो वर्ष पहले अपनी एक किडनी इसी अस्पताल में दान की थी और मैंने ही इसकी किडनी निकालकर किसी जरूरतमंद मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित की थी, क्यों? बोलो, मैं सच कह रहा हूं न? डॉक्टर भडूचा अब किरण से पूछ रहे थे।
परन्तु किरण कब की संज्ञा-शून्य हो कुर्सी पर अचेत हो चुकी थी। गरीब माता-पिता की छह सन्तानों में किरण सबसे बड़ी थी, जिसने अपने विवाह हेतु दहेज जुटाने के लिए चोरी-छुपे अपनी एक किडनी दान के नाम पर पचास हजार रुपये में बेच दी थी। तब उसे यह पता नहीं था कि भविष्य में उसके अलावा भी कोई यह बात जान पाएगा लेकिन जब उसके पति को ही किडनी की जरूरत आन पड़ी, तब उसके अन्दर की भारतीय नारी जाग उठी और उसने अपने शरीर में मौजूद एकमात्र किडनी अपने पति के जीवन की रक्षा के लिए दे देने का निश्चय कर स्वयं मृत्यु को वरण करना चाहा था।
प्रकाश का ऑपरेशन टल गया। किडनी प्रत्यापित नहीं हो सकी। प्रकाश पर किरण की सत्यता प्रकट हो चुकी थी। वह किरण के द्वारा विवाह पूर्व किए गये किडनी के दान या दूसरे रूप में कह लीजिए विक्रय से बहुत क्षुब्ध हो उठा था। इस बीच वह किरण के मां-बाप को सैकड़ों ताने दे चुका था। कुछ देर बाद किरण की चेतना वापस लौटी। किरण की स्थिति बिन पानी के तड़पती मछली की भांति हो गयी थी। वह अपने प्रति प्रकाश की नफरत सहन नहीं कर सकती थी।
‘‘डॉक्टर साहब, मेरी किडनी मेरे पति को दे दी जाए…मैं स्वेच्छा से इसके लिए तैयार हूं…मुझसे लिखित में ले लीजिए…मैं आपके सामने हाथ जोड़ती हूं…आपके पैर पकड़ती हूं…प्लीज…डॉक्टर साहब, मेरे पति की जान बचा लीजिए…’’ किरण की कारुणिक चीखें डॉक्टर भडूचा के कक्ष में गूंज उठीं। धनंजय ने अपनी भाभी को सम्भालने की कोशिश की। डॉक्टर भडूचा, डॉक्टर पद्मनाभन् के साथ स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए ऑपरेशन थिएटर में लेटे प्रकाश के समीप पहुंचे।
एक बार फिर डॉक्टर भडूचा को चौंकना पड़ा। उनके सामने लेटा मरीज…जिसके शरीर में उन्होंने लगभग दो वर्ष पूर्व किडनी का सफल प्रत्यारोपण किया था, उसे उसकी पत्नी किरण द्वारा ही अपने विवाह के पूर्व दी गयी थी। डॉक्टर भडूचा इस संयोग से आश्चर्यचकित हो उठे।
उन्होंने तुरन्त किरण को ऑपरेशन थिएटर में बुलवाया। किरण के साथ प्रकाश के बाबूजी व छोटा भाई धनंजय भी वहां आ गया। डॉक्टर भडूचा ने सबके सामने स्पष्ट किया, ‘‘किरण के द्वारा आज से दो वर्ष पूर्व जो किडनी दी गयी थी, वह प्रकाश के शरीर में मैंने ही प्रत्यारोपित की थी। चूंकि किरण के द्वारा अपनी किडनी देने की बात गुप्त रखने की प्रार्थना की गयी थी, अतः उस समय मिस्टर प्रकाश को केवल यह बताया गया था कि किसी लड़की ने अपनी किडनी उसे दी है जो कि यहीं बंगलौर की रहने वाली है।
तभी प्रकाश को यह हिदायत भी दी गयी थी कि वह पन्द्रह दिन से अधिक समय तक बंगलौर से ज्यादा दूर नहीं रहे क्योंकि जिस क्षेत्र के व्यक्ति की किडनी किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित की जाती है, उसके लिए यह आवश्यक होता है कि वह किडनी देने वाले व्यक्ति के क्षेत्रा के आस-पास ही रहे क्योंकि उसी जलवायु पर किडनी ठीक कार्य करती है, अन्य स्थान पर वहां की जलवायु से किडनी खराब हो सकती है।’’
डॉक्टर भडूचा की बातों को सुनकर प्रकाश के मन में किरण व उसके माता-पिता के प्रति उपजा क्षोभ तत्क्षण कपूर की भांति उड़ गया। वह कुछ देर पूर्व अपने मन में उपजे क्षोभ के प्रति लज्जित हो उठा। उसने अपने पायताने खड़ी किरण की ओर देखा।‘‘डॉक्टर साहब…मेरी भाभी को दहेज जैसी सामाजिक बुराई के कारण मजबूरीवश अपनी किडनी बेचनी पड़ी थी। यह महज ईश्वरीय संयोग है कि वह किडनी भाई साहब के शरीर में प्रत्यारोपित की गयी थी। मेरी भाभी कितनी महान और त्याग की जीती-जागती मिसाल हैं।
अपने पति के जीवन की रक्षा के लिए अपने शरीर में शेष इकलौती किडनी को भी देने के लिए वे तत्पर हैं, परन्तु अब उन्हें किडनी देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं भाई साहब को अपनी किडनी दूंगा…कृपया आप मेरा चेकअप कर लें।’’ धनंजय ने डॉक्टरद्वय के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत करते हुए अपने पिता की ओर देखा। शिवनारायण बाबू गद्गगद हो आगे बढ़े। उन्होंने अपने छोटे बेटे धनंजय को मौन स्वीकृति देते हुए उसकी पीठ थपथपाई।
शिवनारायण बाबू से पूरा वृत्तांत सुनकर उनकी पुत्रवधू किरण एवं उनके दूसरे पुत्र धनंजय के लिए मेरे अंतर्मन से हार्दिक आशीर्वाद और साधुवाद के शब्द स्वतः निकल पड़े, वहीं मेरे अन्तस तक एक टीस पैठ गयी। किस तरह हमारे देश की ललनाएं दहेज रूपी दानव की क्षुधा मिटाने के लिए अपने शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगों तक को बेचने के लिए आज भी मजबूर हैं।