कवि व क्रांतिकारी श्री श्रीपत सहाय रावत का जन्म हमीरपुर जिले के ग्राम जराखर में विक्रम संवत् 1956 को हुआ। Shripat Sahay Rawat के पिताजी स्वर्गीय खूबचन्द्र जी रावत लोधी राजपूत क्षत्रिय समाज के एक सुप्रतिष्ठित सदस्य थे। वे स्वयं एक कवि व सच्चे देशभक्त थे। इनके यहाँ उस समय की अनेक साहित्यिक व राजनैतिक पत्रिकायें आती थीं। श्रीपत सहाय की प्रारंभिक शिक्षा गुरु श्री चतुर्भुज पाराशर के निर्देशन में हुई। वे ही इनके काव्य गुरु थे।
कवि व क्रांतिकारी श्री श्रीपत सहाय रावत
परीक्षाओं के रूप में आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा की परीक्षा इलाहाबाद केन्द्र से उत्तीर्ण की। आप एक प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। आपकी दो पुस्तकें ‘ग्राम सतसई’ तथा ‘काव्य कृपाण’ प्रकाशित हुई हैं। काव्य कृपाण में राष्ट्रीय रचनाओं का तथा ग्राम सतसई में ग्रामीण जीवन की सुन्दर झाँकी अंकित की गई है।
इन्हांने आजादी की लड़ाई में सक्रिय योगदान दीवान शत्रुघन सिंह के साथ दिया। 1936-37 की गहरौली कांफ्रेंस में जिसमें नेहरू जी पधारे थे, तथा 1938 में इनके गाँव जराखर में आयोजित कांफ्रेस आपका योगदान उल्लेखनीय रहा था। जराखर कांफ्रेंस में नेहरू जी, पं. गोविन्द वल्लभ पन्त, सम्पूर्णानन्द तथा बुन्देलखण्ड के श्रेष्ठ कवि घासीराम व्यास आदि पधारे थे।
श्री श्रीपत सहाय रावत ने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अनेक जेल यात्रायें की। इनमें 1930 में हमीरपुर व इलाहाबाद जेल में, 1932 में लखनऊ व फैजाबाद जेल में, 1940 में फैजाबाद जेल में तथा 1942 में उन्नाव जेल में बन्द रहे। जेल में इनके साथ अनेक राष्ट्रीय नेताओं के साथ कवि मित्र श्री बालकृष्ण शर्मा तथा श्री बालेन्दु जी आदि भी बन्द रहे। आप आजादी मिलने पर दस वर्ष तक लगातार विधायक रहे तथा क्षेत्र के विकास हेतु अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
वीर का न्यायपूर्ण रहना व्यवहार सदा
वीर मुँह देखी कभी बात नहीं करता है।
वीर ही पराये दुःख देखकर दुःखी रहै,
वीर ही अनाथों के महादुःख हरता है।
वीर जो कहेगा वही करके दिखावेगा
धोखा दे दूसरों की सम्पत्ति नहिं हरता है।
वीर सदैव न्याय के पक्ष में बोलता है और वह किसी भी प्रकार से मुँह देखी बात नहीं करता है, उसकी नजर में सभी बराबर हैं। वे वीर ही होते हैं जो दूसरों के दुख से दुखी होते है एवं असहायों, अनाथों के कष्टों का हरण करते है, क्योंकि वह शरीर के साथ-साथ हृदय से वीर होते हैं। कवि श्रीपति कहते हैं कि वीर की कथनी करनी में अन्तर नहीं होता, वह जो कहता है वही करता भी है, वह किसी भी प्रकार के छल इत्यादि के द्वारा दूसरों की सम्पत्ति का हरण नहीं करता है।
शेर शिवाजी देशभक्त का नाम कभी न डुबावैंगे।
बलिवेदी के लिये दौड़ कर हंसते हंसते जावैंगे।।
प्रण प्रताप का पूरा होगा इसमें देर न लगावैंगे।
किंचित मात्र लक्ष मारग से पीछे पग न हटावैंगे।।
कवि ने मातृभूमि के परम उपासक शिवाजी की तुलना शेर से की है और देशवासियों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि जिस देशभक्ति के कारण उनका नाम अमर हुआ है वह नाम हम नहीं डुबोएँगे। मातृभूमि की रक्षा के लिए पल भर देर न करते हुए हँसकर अपना बलिदान दे देंगे, कवि श्रीपति जी आगे कहते हैं कि महाराणा प्रताप ने जो प्रण किया था, उसको पूरा करने में देर नहीं करेंगे। जो लक्ष्य निर्धारित किया है उसकी ओर बढ़ने वाले कदमों को पीछे नहीं हटायेंगे अर्थात् उस लक्ष्य की ओर लगातार बढ़ते ही जायेंगे।
खाक छान कर वन वन की हम कष्ट महान उठावैंगे।
भोग विलास स्वार्थ आदिक को लातों से ठुकरावैंगे।।
एक बार हल्दीघाटी का फिर से दृश्य दिखावैंगे।
किसी विपत्ति से कभी न डर के पीछे पग न हटावैंगें।।
जिस प्रकार शिवाजी अनेक कष्टों को सहन करते हुए वनों में फिरते रहे और जंगली अनाज की रोटियाँ खाई थीं, उसी प्रकार हम भी सत्य रूपी वनों में घूमते हुए महान कष्टों को उठायेंगे और भोग, विलास, स्वार्थ, छल-छन्द इत्यादि को लात मारकर दूर भगा देंगे। कवि श्रीपत जी आगे कहते हैं कि पुनः एक बार हल्दी-घाटी के जैसा संग्राम का दृश्य दिखलायेंगे। महाराणा प्रताप द्वारा बताए गये मार्ग से कभी भी पैर वापस न खीचेंगे चाहे उस मार्ग पर अनेकों कष्टों को सहन करना पड़े।
प्रजा-मन-मन्दिर में राजत थे देव-रूप
संकट में मित्र बृद्ध बनिता आबाल के।
विद्या अभिधान सोपान देश उन्नति के
पुंज शौर्य साहस के कुशल कर बाल के।।
दीनन की ढाल थे मराल न्याय करने के
दुष्टन के काल कुल-गौरव नरपाल के।
भारत के लाल आदर्श महिपाल रहे
‘श्रीपति’ गुन-गान करें वीर छत्रसाल के।।
महाराज छत्रसाल प्रजा के मन-मंदिर में देव रूप में राज्य करते थे, अर्थात् अपनी वीरता एवं न्याय के कारण उनकी स्थिति ईश्वर तुल्य थी। वे बृद्धों, बनिता, अबलाओं को संकट से उबारने वाले मित्र थे, देश की उन्नति में सहायक सोपान विद्या, अभिधान धारण करने वाले, शौर्य साहस के पुंज या प्रतिमूर्ति एवं कुशल करने वाले थे।
दीन-हीन, निस्सहाय लोगों के लिये वे ढाल का काम करते थे तथा वास्तविक न्याय के पक्षधर थे, राजाओं के कुल गौरव महाराज छत्रसाल दुष्टों के लिए काल के समान थे। कवि श्रीपत जी वीर छत्रसाल के गुणों का गान करते हुए कहते हैं कि भारत माता के लाल वीर छत्रसाल एक आदर्श महाराज थे।
युद्ध के नगारे जब बाजे आय द्वारे पर,
क्रोधित उतारी पोशाक सब जनाने की।
कर में कृपाण लै कटार खोंस कम्भर में,
कीन्ही सब देखभाल किला कारखाने की।
सेना चतुरंग ले तुरंग पै सवार हो,
धूर में मिलाई शान सारे तोपखाने की।।
झांसी महरानी ने होकर सुकमार नार,
राखी थी पूरी तरह आन मरदाने की।।
जब झाँसी के द्वारा अंग्रेजों ने युद्ध का एलान किया तब झाँसी की रानी ने क्रोधित होकर औरतों वाली पोशाक छोड़कर मर्दाना पहनावा धारण किया। एक हाथ में तलवार दूसरे हाथ में ढाल लेकर और कमर में खंजर खोंसकर सभी प्रकार से झाँसी के किले की रक्षा की।
महारानी ने अपनी सेना के चारों अंगों को लेकर किले के शिखर पर पहुँच गईं और विदेशियों के सारे तोपखानों को जो युद्ध में उसकी शान बढ़ा रहे थे, धूल में मिला दिया अर्थात् तहस-नहस करके रख दिया। आगे कवि श्रीपत जी कहते हैं कि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने एक कोमल स्त्री होने के बावजूद भी हर प्रकार से वीरों की इज्जत बचा रखी थी।
राज पर चढ़ाई की अवाई सुनी शत्रू की,
अंग अंग फरके उमंग भरे तन के।
दृष्टि पड़ी ढाल पर हाथ करवाल पर,
पाग लाल भाल पर मिसाल मर्दन के।।
पहने दस्ताने मस्ताने कसे बख्तर और,
साज सजे रण के तो अस्त्र शस्त्र ठन के।
महलों के फाटक से निकल पड़ी घोड़े पै,
फार कढ़ै चपला ज्यों घान घोर घन के।।
इस पद में कवि कहता है कि जब महारानी ने राज्य पर आक्रमणकारियों की चढ़ाई के बारे में सुना तो क्रोध से अंग फड़कने लगा, परन्तु उसमें भी शरीर उमंग से भर गया। तभी महारानी की दृष्टि ढाल एवं तलवार पर पड़ी, उत्साह से क्रोधित महारानी का मस्तक लाल हो गया था और उसकी तुलना सिर्फ वीर पुरुषों से की जा सकती है।
उन्होंने युद्ध के सभी उपयोगी पाँचों अस्त्रों को धारण किया और हाथों में दस्ताने भी कसे। युद्ध के सारे सामान तैयार किये तो अस्त्र-शस्त्र अपने आप बज उठे। आगे कवि श्रीपत जी महारानी लक्ष्मीबाई की उपमा बिजली से देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार तमाम घनघोर काले बादलों को चीरकर बिजली चमक उठती है उसी प्रकार महारानी भी घोड़े पर सवार होकर महलों के द्वार से निकल पड़ी।
पीठ पै सुवन कसे ऐसी महारानी जंचै,
गिर्जा गनेश लिये जाती चन्द्रमौल कैं,
आन बान वाली मैदान में निकल गई,
कर में कृपाण लैके सर्व सैन्य रौल कैं,
जैसे रण चण्डी शत्रु झुंड मुंड खंड करें,
वैसे अंड वंड कीन्हीं शत्रु सैन्य पौल कैं।
पीछे दगाबाज ने आ बार करन चाहो तो,
घोड़ा को घुमा कें रानी भाला हन्यो तौल कैं।।
कवि श्रीपत जी कहते हैं कि महारानी अपने पुत्र को पीठ पर कसे ऐसी प्रतीत हो रही हैं जैसे देवी पार्वती जी अपने पुत्र गणेश को कैलाश में लेकर जाती हैं। अपनी इज्जत, शानों-शौकत को धारण करने वाली महारानी हाथों में तलवार एवं सभी सैनिकों को लेकर रण क्षेत्र पर निकल गई।
महारानी लक्ष्मीबाई दुश्मनों के अंगों को भंग कर रही थीं। तलवार से सैनिकों को पौल (काट) रहीं थी जैसे देवी रणचण्डी शत्रुओं के झुण्ड को धड़विहीन करती हैं। जब महारानी दुश्मनों को मार रहीं थीं तभी एक धोखेबाज ने पीछे से आकर उन पर जैसे ही हमला करना चाहा वैसे ही झांसी की रानी ने अपने घोड़े को घुमाकर उसे भाले से मार गिराया। उसका काम तमाम कर दिया।
चक्कर कर घोड़ा यों कावा काट धावा करे,
दादुर के समूह में ज्यों खेले भुजंगिनी।
खैंच के सिरोही वीर रानी काठ छांट करे,
चीड़ फाड़ डारै पैड़ जैसे कि मतंगिनी।
भर कै छलांगैं और सांगैं फेंक मारें कई,
छेद डारैं दानव ज्यों दुर्गा रण-रंगिनी।
भालों की दपेटों की चपेटों में लपेटे फिरै,
भेड़ों के झुण्डों को ज्यों रपेटे फिरै सिंहिनी।
युद्ध क्षेत्र में महारानी का घोड़ा अपने पैरों से भूमि को काट-काट कर शत्रु दल पर ऐसे आक्रमण करता है जैसे दादुर के समूह से नागिन खेलती है। महारानी तलवार के बल पर दुश्मनों की भीड़ को ऐसे काट-छाँट कर रही हैं जैसे आरी पेड़ को चीड़-फाड़ डालती है। झाँसी की रानी बड़ी ही स्फूर्ति के साथ शत्रुदल पर साँगें ऐसे मारती हुई प्रतीत होती हैं जैसे कि दुर्गा दानवों को रण में छंद-भेद कर डालती है।
आगे कवि श्रीपत कहते हैं कि जिस प्रकार सिंहनी भेड़ों के झुण्ड पर टूट पड़ती है और अपना शिकार करती हैं उसी प्रकार रानी लक्ष्मीबाई भी भालों की नोंक पर दुश्मनों को नाथ डालती है।
दुर्गा को रूप धुवाँधार धरे बाई साव,
झांसी के किले पै मचे तोपों के धड़ाके हैं।
आली पर बार-बार गोली पर गोली गिरे,
आगे और पीछे कड़ाबीन के कड़ाके हैं।
बढ़ी जाय आगे नहीं पाँव धरै पीछे वह,
काल से कराल व्याल भालों के सड़ाके हैं।
मारैं सरराटे परराटे परै बैरियों के,
खड़ग और खाँड़े के खूब ही खड़ाके हैं।
कवि कहता है कि लक्ष्मीबाई ने युद्ध के मैदान पर दुर्गा के समान विकराल रूप धारण कर लिया है। झाँसी के किले पर तोपों की धड़ाम-धड़ाम की आवाजें सुनाई दे रही हैं। दुश्मनों की भीड़ पर गोलियों की बरसात हो रही है, इतना ही नहीं कड़ाबीन (तोप का नाम) की मार के सामने कोई भी शत्रु अपने पैर नहीं टिका पा रहा है।
काल से भी अधिक विकराल मार रानी के भालों की है, जिसके सहारे वे आगे बढ़ती जाती हैं। दुश्मनों पर जब रानी के सरराटे की मार पड़ती है तो उनके होश उड़ जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में खड्ग और खाँड़े की आवाजें ही सुनाई पड़ती हैं।
झाँसी महारानी का साहस देख शत्रु कहैं,
उलझे जो इससे यह मूर्खता हमारी थी।
कहते थे फूलों की कोमल फुलवारी इसे
यह तो महा आफत के काँटों की क्यारी थी।।
आये थे लेने जान सुरभी राज महलों की
पैनी नखों वाली ये तो सिंहनी शिकारी थी।
समझे थे नारी सुकमारी भ्रम भारी रहा
रेशम की सारी मढ़ी लोहे की कटारी थी।।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का अद्वितीय रण कौशल देखकर उनके दुश्मनों में खलबली मच गई और वे आपस में कहने लगे कि यह मूर्खता थी जो इनसे बेकार में उलझ गये। हमने सुना था कि यहाँ की रानी फूलों की बगिया के समान सुकोमल है लेकिन यह भ्रम था, जबकि वास्तविकता यह है कि रानी भारी विपत्ति रूपी काँटों की क्यारी हैं।
शत्रु आगे कहते हैं कि हम तो राजमहलों की शोभा हरने आये थे अर्थात् रानी को मारकर झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे यह हमारी सबसे बड़ी भूल थी क्योंकि रानी पैने नाखूनों वाली वह सिंहनी है जो घर आये शिकार को छोड़ती नहीं है। कवि श्रीपत जी आगे कहते हैं कि दुश्मनों ने समझा था कि रानी सुकोमल स्त्री है यह उनका बड़ा भारी भ्रम था क्योंकि रानी रेशम की साड़ी में लिपटी लोहे का खंजर है।
योग मदिरा
आया हूँ मधुशाला, भर ला हाला से यह प्याला।
रंग न भदरंग होने पावे, रंग रहै गुल लाला।।
ला प्याले पर प्याला, आला फिर-फिर जावे ढाला।
पी जाऊँ दिल भर कर, ला, ला, हो जाऊँ मतवाला।।
कवि कहता है कि आज मैं शराबखाने में आया हूँ, यह प्याला है जिसको मदिरा से भरकर ले आओ, इसका रंग बेरंग नहीं होना चाहिये एवं रंग अदृश्य रहना चाहिये। आज जितने जाम पे जाम लाना हो ले आओ क्योंकि आज मैं दिल खोलकर पीना चाहता हूँ, शराब पीकर मैं मतवाला हो जाना चाहता हूँ अर्थात् किसी भी प्रकार का होश न रहे।
विशद, ऐसी आवे फिर सम हो गोरा काला।
मस्त रहूँ मस्ती में अपनी पुरुष लखूं न बाला।।
इच्छाएं न रहें किसी की होवें शमन कसाला।
शाँति-निकेतन बन जावे फिर यह मेरी मधुशाला।।
कवि श्रीपत कहते हैं कि मदिरालय की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यहाँ पर आने वाला हरशख्स चाहे वह गोरा हो या काला, अमीर हो या फिर गरीब, सभी बराबर हैं। कवि कहता है कि मैं अपनी मस्ती में मस्त रहना चाहता हूँ, किसी पुरुष को देखूँ न स्त्री को। मेरे मन में किसी भी प्रकार की इच्छा शेष न रहे और न ही कोई किसी की इच्छाओं को नष्ट करे। कवि की इच्छा है कि मेरी यह मधुशाला शांति-निकेतन बन जाये। जहाँ सिर्फ और सिर्फ अमन खुशहाली हो।
आंखों में वह महातेज हो मुख-मंडल द्युति वाला।
आलोकित हो उठे भवन फिर निशि दिन रहे उजाला।।
बीणा-हृदय करूँ मैं झंकृत खोल मधुर स्वर ताला।
‘श्रीपति’ तन मन तार बजें मिल राग अनन्त निराला।।
(सभी छंद डॉ. संतोष भदौरिया के सौजन्य से)
इस पद में कवि अध्यात्म की ओर मुड़ता है, वह उस अलौकिक शक्ति का आभास पाता है जिससे वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित है। कवि कहता है कि मुख की अद्वितीय आभा एवं आँखों में वह महातेज होना चाहिये जिससे घर (हृदय रूपी घर) चमक उठे और सदैव उसमें अमर प्रकाश प्रकाशित रहे।
वह आगे कहता है कि अभी तक मैंने अपने स्वर को वेद रखा था लेकिन आज हृदय को वीणा बनाकर एवं स्वरों पर जो ताला रखा है उसे खोलकर मधुर ध्वनि निकालूँगा कवि श्रीपत जी आगे कहते हैं कि मेरे इस शरीर एवं मन के जो तार हैं वे बज उठे हैं और उस अनन्त निराले राग से एकाकार स्थापित करेंगे जिससे सभी राग निकलते हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)