कन्नौज नैमिषारण्य के पास बसा है। वहाँ के राजा अजयपाल के जयचंद और रतीभान दो प्रतापी पुत्र थे। जयचंद राठौरवंशी राजपूत थे। उनकी पुत्री संयोगिता जब विवाह योग्य हुई तो अपने दरबारियों की सलाह पर उन्होंने संयोगिता का स्वयंवर (Sanyogita Swayambar ) रचाने का निश्चय किया। उन्होंने दूर-दूर तक के राजाओं को न्योता भेज दिया।
दिल्लीपति पृथ्वीराज को जान-बूझकर निमंत्रण नहीं दिया। जयचंद और पृथ्वीराज दोनों की माताएँ बहनें थीं। जयचंद की माँ बड़ी थी, परंतु राजा अनंगपाल ने पृथ्वीराज को गोद लेकर दिल्ली की राजगद्दी का वारिस बनाया था।
संयोगिता स्वयंवर… कन्नौज की लड़ाई
वैसे भी पृथ्वीराज बारह वर्ष की आयु तक वन में एक आश्रम में पला था, अतः कन्नौजपति राजा जयचंद उसे अपने से हीन मानता था। इसके विपरीत उसकी पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज को मन से पसंद करती थी। दिल्ली की एक नृत्यांगना उसकी दासी थी, जिसने संयोगिता को पृथ्वीराज की बहादुरी के कई किस्से सुना दिए थे। स्वयंवर का मंडप सजाया गया। मंडप के द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ति खड़ी कर दी गई।
पृथ्वीराज का मित्र चंदरवरदायी नामक भाट वहाँ पहुँचा। उसने पृथ्वीराज के इस अपमान को सहन नहीं किया और मन-ही-मन दुःखी हुआ। इधर संयोगिता आभूषणों से सजी सखियों के साथ पूरे मंडप में घूमकर लौट आई। द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ति देखकर वरमाला मूर्ति को पहना दी।
अन्य सब राजा भी अपना अपमान सहते विष का चूंट पीकर वापस चले गए। जयचंद को जैसे ही पता चला, उसे बहुत क्रोध आया। उधर कवि चंदरवरदायी ने पृथ्वीराज को सारा समाचार दिया। पृथ्वीराज संयोगिता की मंशा जानकर प्रसन्न हुआ। उसने अपने साथ हरीसिंह और मरहठा वीर को लिया तथा चंदरवरदायी के साथ कन्नौज प्रस्थान को तैयार हो गए।
अपने चाचा कान्ह कुमार सिंह से कहा कि आप भारी सेना लेकर कन्नौज पहुँच जाना। मैं पहले जा रहा हूँ। वहाँ युद्ध होना निश्चित है। पृथ्वीराज ने चंदरवरदायी के चाकर का वेश बनाया और कन्नौज के दरबार में पहुँच गए। दरबार स्वर्ग के राजा इंद्र की तरह शोभायमान था। कवि चंद को दरबारी पहचानते थे। उन्हें बैठने को चौकी दी गई।
चाकर बने पृथ्वीराज पीछे खड़े रहे। जयचंद को संदेह तो हुआ, परंतु बिना सबूत के पृथ्वीराज को कैसे पकड़ सकता था? राजा ने दिल्ली वाली बाँदी को अपने दरबार में बुलवाया, ताकि पृथ्वीराज की पहचान करके बता सके। दासी समझदार थी। उसने पहचानने से इनकार कर दिया। वह भी पृथ्वीराज और संयोगिता को मिलवाना चाहती थी।
राजा की आज्ञा से चंदरवरदायी और दोनों साथियों का बाग में ठहरने का प्रबंध कर दिया गया। चंदरवरदायी भाट ने महलों में सूचना भेज दी कि पृथ्वीराज बाग में पधार चुके हैं। फिर तो संयोगिता संग-सहेली लेकर बाग में जा पहुँची। वहाँ जाकर पृथ्वीराज के गले में जयमाला पहना दी और पान खिलाकर उनकी आरती उतारी। इस प्रकार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। पृथ्वीराज ने राजकुमारी को दिल्ली ले चलकर विवाह रचाने का आश्वासन दिया।
प्रेमपूर्ण भरोसा पाकर वह महलों को लौट गई, परंतु राजा जयचंद को पृथ्वीराज के बाग में उपस्थित होने की सूचना मिल गई। राजा ने मोतियों का थाल सजाया और तीस हाथी, दो सौ घोड़े लेकर बाग को रवाना हो गए। चंदरवरदायी ने संकेत किया, पृथ्वीराज खड़े हो गए। उन्होंने पान का बीड़ा जयचंद राजा को पकड़ाया और हाथ जोर से दबा दिया।
भेंट तो चंदरवरदायी को पकड़ा दी, परंतु उन्हें विश्वास हो गया कि चंदरवरदायी के साथ चाकर नहीं, स्वयं पृथ्वीराज ही है। राजा के वापस लौटते ही पृथ्वीराज और चंदरवरदायी बाग से निकल गए और कन्नौज से तीन कोस दूर जाकर डेरा जमा लिया। चाचा कान्ह कुमार को पत्र लिखा कि तुरंत भारी सेना लेकर आ जाओ। पत्रवाहक तुरंत दिल्ली चला गया। कान्ह भी सेना सहित तुरंत चल दिए और तीन दिन में कन्नौज पहुँच गए।
इधर पृथ्वीराज ने अपना घोड़ा तैयार किया और महल के पास नदी के किनारे जा पहुँचे। वहाँ मछलियों को दाना डालने लगे। संयोगिता भी मछलियों को चुगाने के लिए थाल में मोती लेकर पहुँच गई। उसने कहा, “प्राणनाथ! आपके पास थोड़ी सी सेना है। कन्नौज की फौज को कैसे जीत पाएँगे? अतः मेरा अपहरण करके अपने साथ ले चलो।” पृथ्वीराज ने कहा, “चिंता मत करो। हमारी फौज चार घंटे में पहुँच जाएगी। चुराकर नहीं, हम तुम्हें जीतकर दिल्ली ले जाएँगे।” ।
उधर कन्नौज में राजा जयचंद ने लंगरी राय नामक सेनापति को आदेश दिया। सेना के सभी अंग तैयार होने लगे। हरीसिंह बोले, “राजकुमारी का डोला सजाकर रणखेत में रख दिया जाए। जो जीतेगा, वह इसे ले जाएगा। हरीसिंह की बात सुनकर कन्नौजी सरदार लंगरी राय ने कहा, “डोले की बात भूल जाओ। अब यहाँ से जीवित बचकर ही नहीं जा सकोगे।
इसी के साथ दोनों की सेना आगे बढ़ीं। हाथी, घोड़े और पैदल अपने-अपने सामने वाले सैनिकों से भिड़ गए। दिल्ली के सैनिक दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे। कन्नौज के सिपाही पीछे हटने लगे तो लंगरी राय ने उन्हें ललकारा, “युद्ध में मर जाओगे तो तुम्हारा नाम होगा और यदि चारपाई पर पड़े ही मृत्यु हो गई तो कोई नहीं पूछेगा।”
लंगरी राय का ही साथी धीरज सिंह आगे बढ़ा और हरि सिंह से युद्ध करने लगा। धीरज सिंह की तलवार का वार हरि सिंह ने अपनी ढाल पर झेल लिया। चौथी बार जो उसने जोरदार वार किया तो तलवार की केवल मूठ हाथ में रह गई। इसके पश्चात् हरि सिंह ने जवाबी वार किया। धीरज ने ढाल तो अड़ाई, परंतु गैंडे की खालवाली ढाल ही फट गई।
धीरज सिंह का सिर कटकर दूर जा पड़ा। खून के फव्वारे के साथ उसका धड़ रणभूमि में गिर पड़ा। शाम होते ही युद्ध रोक दिया गया। उन दिनों रात में युद्ध न करने की प्रथा थी। अगले दिन प्रातः जयचंद राजा ने लंगरी राय को आदेश दिया और संयोगिता का डोला सजाकर रणखेत में रखवा दिया गया। ऐलान कर दिया गया, जो जीतेगा, वह डोला ले जाएगा।
हमा और जमा नाम के दो मजदूर डोला लेकर आए। राजकुमारी को सजाकर उसमें बिठाया गया और डोला मैदान में रख दिया गया। पृथ्वीराज को भी सूचना मिल गई। दोनों ओर के सैनिक डोले के पास रण को जीतने पहुँच गए। लंगरी राय ने ललकार कर कहा, “किस में दम है, जो डोले को हाथ भी लगा सके। दिल्ली तक भी उसको नहीं छोड़ेंगा।
युद्ध आमने-सामने का था। तलवारों से तलवारें भिड़ गई। शूरवीर कट-कटकर गिरने लगे। हाथियों की सूंड़ कट-कटकर गिरने लगीं। गोविंद राय ने कन्नौज के वीरों को डोला रखकर लौट जाने को कहा। हमा-जमा मजदूर भी सैनिक ही थे। उन्होंने तलवार चलाकर गोविंद को गिरा दिया। उसने सिर कटने के बाद भी कई सैनिक मार गिराए।
हरि सिंह ने भी हमा-जमा पर तलवार का वार कर दिया। अब लंगरी राय और हरि सिंह आमने-सामने आ गए। तब हाथी सवार हरि सिंह ने तलवार का जोरदार वार किया और लंगरी राय रणभूमि में गिर गया। राजा जयचंद को लंगरी राय की मृत्यु का समाचार मिला तो वह चिंता में पड़ गया। कन्नौज के चार सेनानायक बलि चढ़ गए थे, जबकि दिल्ली के तीन सेनापति युद्ध में काम आए थे।
फिर तो जयचंद स्वयं समर में कूद पड़ा। उसने सैनिकों का मनोबल बढ़ाते हुए कहा, “वीरो! तुमने हमारा नमक खाया है, अब उसे हलाल करने का समय आया है। डोला दिल्ली किसी कीमत पर नहीं जाना चाहिए।” इधर राजा जयचंद युद्ध में उतरे तो उधर पृथ्वीराज ने कान्ह देव चाचा को युद्ध में उतार दिया।
जयचंद और कान्ह देव की सेना जबरदस्त युद्ध करने लगी। इधर पृथ्वीराज ने डोला दिल्ली की ओर आगे बढ़वा दिया तथा जीत का डंका बजवा दिया। पचास कोस तक संयोगिता का डोला आगे बढ़ गया। सौरों (शूकर खेत) के मैदान में पहुँचा तो जयचंद फिर वहाँ पहुँच गया। उसने कहा, “डोला जीत कर ले जाते तो तुम्हें वीर मानता। तुम तो चोरी से डोला लेकर भाग रहे हो।
पृथ्वीराज ने डोला फिर खेत में रख दिया और पुनः युद्ध शुरू हो गया। कोई कटार चला रहा है तो कोई भाला मार रहा है। कोई कोटा-बूंदी की तलवार से वार कर रहा है तो कोई भारी सांग उठाकर फेंक रहा है। तब जयचंद बोले, “मित्रो! सदा समय एक सा नहीं रहता। तोरई की बेल सदा नहीं फलती। सावन का महीना हमेशा नहीं रहता।
पत्ता पेड़ से टूटकर फिर उस डाल पर नहीं लग पाता। मनुष्य की योनि बार-बार नहीं मिलती। अब एक बार मिली है तो यश प्राप्त करने का अवसर मत छोड़ो। लड़ते हुए युद्ध में प्राण चले जाएँगे तो आपकी कीर्ति युगों तक गाई जाएगी।”
कन्नौज के वीरों ने राजा की बात सुनी तो भयंकर मार-काट अपना-पराया कछ न देखते हए तलवारें चलाना शरू कर दिया। उधर दिल्लीवाले वीर भी दोनों हाथों में तलवारें लेकर चलाने लगे। जुनब्बी और गुजराती तलवारें खट-खट आवाज के साथ चल रही थीं। रक्त की नदियाँ बहने लगीं। सौरों क्षेत्र में भयंकर युद्ध हुआ।
जयचंद की लाखों सेना समर भूमि में कटकर गिर गई। डोला तब तक आठ कोस और आगे बढ़ गया। पृथ्वीराज जंग जीत गए। तब तक जयचंद के भाई रतिभान के पास समाचार पहँच गया कि संयोगिता का डोला पृथ्वीराज बलपूर्वक ले गया। वह भी तुरंत सेना सहित युद्धभूमि में आ पहुँचा।
रतिभान भी अपनी हाथी, घोड़ों और पैदल सेना लेकर पहुँचा। रतिभान जब अपने हाथी पर सवार होने लगा तो अपशकुन हुआ। किसी बुजुर्ग ने टोका कि अपशकुन हो गया, कुछ समय रुककर प्रस्थान करना। रतिभान ने कहा, “पंडितजी! मैं क्षत्रिय हूँ, जो बनिए-ब्राह्मण सिर पर मुकुट पहनकर धूमधाम से बरात ले जाते हैं, शकुन-अपशकुन का विचार उनके लिए है।
क्षत्रिय युद्ध के लिए पाँव बढ़ाकर पीछे नहीं हटाते। चाहे प्राण रहें या न रहें, हमारे अपशकुन का कोई महत्त्व नहीं। क्षत्रिय का तो धर्म यही है कि दाँव लगे तो चूके नहीं। शत्रु को तुरंत मार देना चाहिए। अपनी कथनी कच्ची पड़ जाए तो पड़े। शत्रु को न मारने की कसम खाकर भी मार ही दो, छोड़ो मत।”
रतिभान ने जाकर डोला रोक लिया। मुकुंद ठाकुर डोला के रक्षक ने कहा कि डोला तो अब दिल्ली जाकर ही रुकेगा। तब रतिभान ने भी वही बात कही, पहले डोले को खेत में रख दो, फिर जो युद्ध में जीते, वह डोला ले जाए। मुकुंद ठाकुर ने ललकार स्वीकार की, डोला खेत में रख दिया और दोनों दलों में भारी युद्ध शुरू हो गया।
मुकुंद ठाकुर ने भाला चलाया, परंतु रतिभान ने वार को बचा लिया। फिर मुकुंद ने तलवार खींच ली और चेहरे पर वार किया। ढाल से वार रोक लिया गया। इधर तलवार टूट गई। ठाकुर ने सोचा, जिस तलवार से हाथियों के सूंड़ काटे, घोड़ों के पाँव काट डाले, आज वह धोखा दे गई। फिर रतिभान ने पलटकर वार किया। मुकुंद ठाकुर डोले पर ही झूल गए। उनके गिरने से पृथ्वीराज कुछ घबराए। मुकुंद ठाकुर जैसे वीर का इस अवसर पर मारा जाना बहुत दुःखद है।
पृथ्वीराज की ललकार से दिल्ली के योद्धा फिर डोले पर जूझ पड़े। दिल्ली केवल आठ कोस दूर रह गई थी। रतिभान ने बड़े-बड़े शूरवीरों को मार दिया था। पृथ्वीराज को चिंतित देखकर कान्ह देव आगे बढ़े। उन्होंने कहा, “चिंता मत करो, जब तक शरीर में प्राण है, युद्ध से पीछे नहीं हटूंगा। कहते हुए कान्ह देव ने अपना हाथी आगे बढ़ा दिया।
कान्ह देव ने फिर डोला खेत में रखवा लिया और युद्ध होने लगा। रतिभान ने सांग उठाकर मारी। कान्ह देव ने ढाल अड़ा दी और वार बचा लिया। रतिभान ने फिर अपनी तलवार से वार किया। कान्ह देव की ढाल फट गई और मस्तक पर घाव लगा।
फिर कान्ह देव ने पृथ्वीराज को चेताया। बोले, “मेरे मस्तक पर टाँके लगाकर पट्टी कर दो, मैं अभी युद्ध करूँगा।” तब पृथ्वीराज ने कमान खींची और तीर चलाया। फिर कान्ह देव रतिभान से जा भिड़े। कान्ह देव की तलवार का वार अब की बार खाली न गया। रतिभान का शरीर निष्प्राण होकर गिर गया। तब तक डोला दिल्ली के मुख्य द्वार पर पहुँच गया।
अब चंद कवि, पृथ्वीराज और जयचंद ही जीवित बचे। दोनों तलवार खींचकर झपटने को तैयार थे तो संयोगिता ने डोले से बाहर निकलकर अपने पिता जयचंद से हाथ जोड़कर विनती की … “अब बहुत हो चुका। राजा पृथ्वीराज मेरे स्वामी हैं। इन पर हाथ उठाना मुझे विधवा बनाना है।” जयचंद रुक गया तो संयोगिता ने पृथ्वीराज से भी विनती की, “मेरे पिता पर भी अब वार मत करो। डोला दिल्ली पहुँच गया। अब आप इन्हें कन्नौज लौट जाने दें।”
राजा जयचंद कन्नौज के लिए वापस चल पड़े। संयोगिता का डोला महल में उतर गया। राजमहल में संयोगिता का भव्य स्वागत किया गया। यदि संयोगिता यही विनती अपने पिता से पहले कर देती तो इतने वीर न मरते। इतने परिवार बरबाद न होते। झूठी शान के लिए इतनी सेना को मरवाना कहाँ तक उचित हैं! वह जमाना ही शान दिखाने का था। उन्हें जनता के दुःखदर्द की परवाह नहीं थी, जबकि सेना उनके लिए प्राण देने में जरा भी नहीं हिचकती थी।