बुंदेलखण्ड के ‘साकों’ की रचना का मूल आधार तो प्रशंसा ही है, किसी भी व्यक्ति विशेष के बारे में बढ़ा चढ़ा कर लिखना, उस व्यक्ति का गुणगान करना, उस व्यक्ति के बारे में , उसके चरित्र के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बखान करना आदि किन्तु उनकी प्रस्तुति को देखते हुये Sake ke Prakar तीन हैं- शौर्य प्रधान, आदर्श प्रधान और प्रशस्ति प्रधान।
बुंदेलखण्ड की लोक-गाथा साके के प्रकार
शौर्य प्रधान
बुंदेलखण्ड में प्रचलित साकों में वीरों की वीरता का वर्णन ही प्रधान है, चाहे उन्होंने वीरता का प्रदर्शन आत्म-सम्मान की रक्षा या स्वदेशी रक्षा के लिए किया हो, उनमें प्रमुख रूप से वीरों के ही आक्रोश का वर्णन है। उनके शौर्य का बखान बढ़ -चढ़ कर है।
महाराज छत्रसाल के शौर्य और साहस से तो सारा संसार भली-भाँति परिचित ही है। उन्होंने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये थे। रीवा में आज भी बुंदेला दरवाजा बना हुआ है। बानपुर नरेश महाराजा मर्दनसिंह ने अंग्रेजों को पीछे खदेड़ दिया था। महारानी लक्ष्मीबाई के मार्ग का अनुगमन करते हुए आगे बढ़ते गये। उनकी वीरता को देखकर अंग्रेज चकित हो गये थे। उनके साके में उनके शौर्य का अद्भुत वर्णन है।
बखतवली शाह जिनके नाम से शाहगढ़ नगर बसा हुआ है। वे सन् 1857 में अमर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उन्होंने अपने क्षेत्र में स्वराज आंदोलन का शुभारंभ किया था। महारानी अवंतीबाई की शौर्य गाथा तो सारे कौशल प्रदेश में गाई जाती है।
राजा हिन्दूपति ने लोहागढ़ के मैदान में अंग्रेजों से डटकर सामना किया था, जिनमें रज्जब बेग पठान का शौर्य विशेष उल्लेखनीय है…।
संजा होतन बंद भओ, जुद्ध फिरे सब ज्वान।
रज्जब ने तब आनकर, माँ के परसे पान।
बजो नगाड़ो जुद्ध कौ, ऐंन होत नईं भोर।
चले खेत खौं सूरमा, बाँध-बाँध सिर मोंर।
रज्जब ने उठ कमर में, अपनी कसी कटार।
हिन्दूपति के सामनें, आकैं करी जुहार।
राजा धनसिंह ने अंग्रेजों से घमासान युद्ध किया था। यदि उनके साथ धोखा नहीं होता, तो उन्हें कोई मार नहीं सकता था। कहाँ तो अंग्रेजों की विशाल सेना और कहाँ अकेले धनसिंह? वे कहाँ तक युद्ध करते? अंत में लड़ते-लड़ते उनकी मृत्यु हो गई। इसी कारण से गाथा के प्रारंभ में ही कहा गया है…।
‘तोरी मत कौंने हरी रे धनसिंह, तोरी मत कौंने हरी रे।’
आदर्श प्रधानता
वीर व्यक्तियों का चरित्र उज्ज्वल होता है। वे महान कार्य करके समाज के समक्ष उत्तम आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे स्वार्थ वृत्ति जैसी विचार धारा से कोसों दूर रहते हैं। उनका त्याग और बलिदान अपने लिए नहीं सारे समाज के लिए ही मूल्यवान होता है।
वे महान तपस्या और परिश्रम के बल पर ऐसे मार्ग निर्मित कर गये हैं, जिन पर आज के लोग चलने का प्रयास कर रहे हैं। मधुकरशाह की टिकैत से तो सारा भारत भली भाँति परिचित ही है, जिन्होंने अकबर जैसी महान शक्ति से टकराकर हिन्दू संस्कृति की रक्षा की थी।
इससे बड़ा आदर्श और क्या हो सकता है? प्रवीण राय ने अपने पातिव्रत धर्म का पालन किया था। उसने अपने गुरूदेव आचार्य केशवदास जी से मंत्रणा करते हुए स्पष्ट ही कहा था…।
आई हों बूझन मंत्र तुम्हें, जिन स्वासनसों सिगरी मति खोई।
देहत जो कि तजों कुल कानि, हियेन लजों लजि हैं सब कोई।
स्वारथ औ परमारथ कौ पथ चित्त बिचार कहों तुम सोई।
जाय रहें प्रभु की प्रभुता, अरू मोरों पतिव्रत भंग न होई।
एक वेश्या को अपने पातिव्रत धर्म के भंग होने का कितना अधिक भय है? अपने पातिव्रत की रक्षा के लिए प्रवीण राय अपने गुरूदेव से मंत्रणा करती है। जब बादशाह अकबर उसे अपने दरबार में स्थाई रूप से रखने का प्रस्ताव रखते हैं, तब उसे गुरूदेव जी की मंत्रणा का स्मरण हो आता है और तुरंत ही दरबार में कह देती है…।
विनती राय प्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भकत को, बारी बायस श्वान।
ये एक भारतीय नारी का आदर्श अनुकरणीय है, आदर्श योग्य है।
लाला हरदौल का प्रेम तो सारे बुंदेलखण्ड का आदर्श ही था। वह अपनी सत्यता की परीक्षा देने के लिए स्वेच्छा से विष मिश्रित भोजन करके प्राण त्याग देते हैं। राजा जुझार सिंह ने अपनी रानी पार्वती से स्पष्ट कह दिया था, यदि तू सच्ची पतिव्रता नारी है, तो मेरी आज्ञानुसार हरदौल को विष दे दे। साके में इस स्थिति का वर्णन है…।
एक ओर है पति की आज्ञा, एक ओर देवर प्यारौ।
करों प्रभू अब निनवारौ।
अंत में वह पातिव्रत धर्म को श्रेष्ठ समझकर हरदौल को विष दे देती है। उसकी करूण कथा को सुनकर लोग आज भी रो पड़ते हैं। हरदौल विष मिश्रित भोजन करने के लिए स्वतः ही तैयार हो जाते हैं। यह बुंदेलखण्ड का अनुकरणीय आदर्श है। हरदौल के त्याग का स्मरण करते हुए आज सारा देश बुंदेलखण्ड को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है।
प्रशस्ति प्रधान
सच पूछा जाय तो साके का मूलाधार तो प्रशस्ति ही है। साकों की रचना तो बुंदेलखण्ड के महापुरुषों और आदर्श पुरुषों की प्रशस्ति गायन के लिए ही की जाती है। जिन महापुरुषों ने अपने शौर्य, त्याग, तपस्या और बलिदान का परिचय दिया था, वे सबके सब प्रशंसा के योग्य थे। तत्कालीन लोक गायकों का ध्यान उनके उत्तम कार्यों की ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने उनकी प्रशंसा में अनेक लोकगाथाओं की रचना कर दी।
हालाँकि उन लोक गाथाओं को विद्वानों ने लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं किया फिर भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक परम्परा के कारण आज तक सुरक्षित हैं। समय-समय पर उनमें कुछ परिवर्तन और संशोधन भी होता रहा। इसी कारण से उनके मूल रूप का पता लगाना कठिन है। कुछ तो ऐतिहासिकता से इतनी दूर हट गईं हैं कि लोग उन्हें संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। यदि उन सबका विधिवत विश्लेषण किया जाये, तो लोग सत्यता के बहुत कुछ समीप पहुँच सकते हैं।
प्रशस्ति गायन की परंपरा बहुत प्राचीन है। इस पावन वसुंधरा पर अवतरित होने वाले महापुरुषों का यश बहुत समय से गाया जा रहा है। राजा हिन्दूपति, धनसिंह, मर्दनसिंह, महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान को लोग कैसे भूल सकते हैं। इस प्रकार की यश गाथाएँ बुंदेलखण्ड में अनेक हैं। लाला हरदौल, वीरसिंह जू देव, छत्रसाल, मधुकरशाह, प्रवीण राय और आचार्य केशव की यश गाथाएँ इस देश के वयोवृद्ध व्यक्ति समय-समय पर गायन किया करते हैं।
हर साके में किसी न किसी महापुरुष की प्रशस्ति का गायन किया जाता है। हिन्दूपति की प्रशस्ति का वर्णन करते हुए साकेकार कह उठता है…।
कटे सूर सामंत वर, हिन्दूपति की वान।
प्रान-दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।
हरदौल के साके में नारियाँ गाया करती हैं-
जैसी लाला नाय निभाई, सई सदा निभइयौ।
नजरिया के सामनें तुम हरदम लाला रइयौ।
यह प्रशस्ति प्रधान गाथा लेखन की परम्परा आज भी चल रही है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’