लक्ष्मीबाई कौ राछरौ ‘कविवर’ मदनेश जी की बुंदेली भाषा की एक अमूल्य धरोहर है। इसमें ओज और शौर्य का उत्कृष्ट स्वरूप दिखाई देता है। Rani Laxmibai Ko Rachhro में टीकमगढ़ राज्य के दीवान ‘नत्थे खाँ’ और महारानी लक्ष्मीबाई के विवाद और युद्ध का वर्णन है।
इसी वीर काव्य के एक छंद का शिल्प देखने योग्य है-
तब तक ताने वान लीनी है मिलाय तान,
झाँक झुक झाने आँग दीनी जो झड़ाक दै।
घारे घहरात थहरात लौ लपक्की तब,
तमक्की तड़ित सीमा तड़की तड़ाक दै।
मदन महीप जापै बैठीं गढ़ टोली पंति,
तागज गरै पै गोला गड़की गड़ाक दै।
भारी है दीमान जानें जारी है निसान वह,
पर्वत समान पील पटकौ पड़ाक दै।
बुन्देलखंड की लोक गाथा रानी लक्ष्मीबाई कौ राछरौ
झाँसी के मुरली मनोहर मंदिर के सामने मैदान में नवरात्रि का प्रसिद्ध मेला लगा था। मंदिर के चबूतरे पर महारानी लक्ष्मीबाई विराजमान होकर मेले का आनंद ले रही थीं। टीकमगढ़ की महारानी ‘लड़ई सरकार’ के दीवान नत्थे खाँ महारानी लक्ष्मीबाई से ईर्ष्या रखते थे और समय-समय पर अँगे्रजों को उनके विरुद्ध भड़काया करते थे।
उसी बीच दीवान नत्थे खाँ हाथी पर बैठकर मेले की भीड़ में उपस्थित हुए। हाथी के कारण मेले में भगदड़ मच गई। रानी ने रंग-भंग होने का कारण पूछा, तो लोगों ने बताया कि एक हाथी पर सवार व्यक्ति मेले में घुसकर उपद्रव कर रहा है। यह सुनकर महारानी आश्चर्यचकित होकर सोचने लगी कि ये ऐसा कौन सामर्थवान व्यक्ति है, जो मेरे सामने मेले में उपद्रव करने की हिम्मत कर रहा है। इस घटना का वर्णन कविवर ‘मदनेश’ जी ने राछरे में किया है-
दोहा- मुरलीधर मंदिर बिसै, डारो तखत सुपान।
श्री महारानी लक्ष्मीबाई, तहाँ विराजी आन।।
कवित्त- ताही समैं चढ़कैं गजेन्द्र पै पठान आन।
घुसो घमासान आन, देत है उठेला कौ।
हाथी को महावती ने, बीच बिचलाय राखौ।
चारो ओर झूमें झुकैं, हल्ला भयो हेंला कौं।
कवि मदनेश’ आय बाई के अगाड़ी अड़ौ।
हटतन पील लखौ, कारन झमेला कौं।
भगे नर-नारि भीर छटकैं मैंदान भई।
महा रस रंग कर दयौ भरे मेला कौ।
मेले का रंग-भंग होता हुआ देखकर महारानी जी ने तिलमिलाकर कहा –
दोहा-बाई ने दीनों हुकम, को यह काकों आय।
कहौ वेग लैं जाय गज, धम रहो मचाय।
कवित्त-
दीनों हुकम जाय कैं सिपाइ समझाय कई।
को हौ आये कासैं तुम नैंक नईं सरमात हौ।
मेला माह कैसों तुम उधम मचाय राखौ।
देख कैं पराओ सुख, नेंक न सिहात हौ।
कवि मदनेश’ जगत रानी जू विराजी यहाँ।
तिनकौ हिये में तनक न भय खात हौ।
मान लेव जाऔ न घटाऔ मान मान जाव।
सोच कैं बताऔ अब जात कै न जात हौ।।
सुनते ही नत्थे खाँ क्रोधित होकर बोला-
दोहा- नत्थे खाँ बोला तबैं, वचन सहित अभिमान।
टीकमगढ़ दीवान हम, सुन अबला नादान।।
इतना कहकर नत्थे खाँ खून का घूँट पीकर बदला लेने की प्रतिज्ञा करते हुए मेला छोड़कर चला गया और उसने तत्कालीन अंग्रेज वायसराय से मिलकर झाँसी पर आक्रमण करा दिया। और तो और तत्कालीन टीकमगढ़ महारानी ‘लड़ई सरकार’ ने अंग्रेजों की सेना के साथ अपनी सेना भी भेजी थी। यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में टीकमगढ़ की तत्कालीन महारानी ‘लड़ई सरकार को गद्दार की संज्ञा दी गई है।
जाते-जाते नत्थे खाँ टीकमगढ़ महाराज की प्रशंसा करने लगा-
जानें बौ बुंदेलखंड मंडल महीपत खौं।
महीन्द्र जासौ महेन्द्र नाम पायो है।
छाजत छिती पै छत्र राजन में नाम बड़ौ।
छत्रिन के वंश में बंुदेला नाम गायो है।
ताके दीवान हम न जाने को जहान बीच।
जान कहें को जो कहाँ से कौन आयो है।।
नत्थे खाँ स्वयं सेना लेकर झाँसी पर जा धमका। कवि ने झाँसी की भवानी शंकर तोप का वर्णन किया है-
चतुरंगिनी सैन सज करकें, नत्थे खाँ चढ़ आया।
डेरा डाल दिया झाँसी पर, रण का बिगुल बजाया।
दुर्ग-द्वार पर बुंदेलों की, चमक उठीं तरवारें।
कर्ण भेदकर हृदय गूँजती, वीरों की हुंकारें।
देख दुर्ग चढ़ दृश्य वीर, बाला ने हुकम सुनाया।
शीघ्र गुलाम गोस खानें, झुककर आदाब बजाया।
चढ़ी दुर्ग पर तोप भवानी, शंकर सुमर भवानी।
और तोपची ने जिसके, पूजन की रीति बखानी।
चलती जब यह प्रथम, एक सैनिक की बलि लेती है।
फिर बन काल रूप अरिदल में, प्रलय मचा देती है।
सुन गाथा सैनिक दल से, इक वीर सामने आया।
और भवानी शंकर पर, बलि देने शीश झुकाया।
देख दृश्य रानी नयनों में, बही अश्रु की धारा।
शिथिल हुए सब अंग कमल वन, मानो तुषार का मारा।
रानी ने भाव-विभोर होकर कहा-
तुच्छ राज पर निरपराध का, खून नहीं बहने दूँगी।
विधवा के इस वीर बहादुर को, नहीं मैं मरने दूँगी।
अंत में लड़ते-लड़ते महारानी लक्ष्मीबाई की विजय हुई और नत्थे खाँ पराजित होकर टीकमगढ़ लौट गया।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त