Homeबुन्देलखण्ड का शौर्यRaja Parmal Chandel राजा परमर्दिदेव / परमाल चन्देल

Raja Parmal Chandel राजा परमर्दिदेव / परमाल चन्देल

Raja Parmal Chandel का उस समय बुन्देलखण्ड के आठ किलों पर झंडा फहराता था। इन्हे परमर्दिदेव के नाम से भी जाना जाता है बारीगढ़ (महोबा के पास),कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मडफा, मौदहा, कालपी और महोबा। सेना नायकों में बनाफल वंश के दस्सराज-बच्छराज (Dassraj- Bachchhraj) के वीर पुत्र आल्हा-ऊदल (Alha Udal) और मलखान (Malkhan) थे जिनकी वीरता द्वारा महाराज परमर्दिदेव / परिमाल की विजयपताका फहरा रही थी।

महोबा बुंदेलखंड शौर्य का प्रतीक राजा परिमाल चन्देल

बुंदेलखंड शौर्य का प्रतीक चंदेल वंश
महोबा बुंदेलखंड शौर्य का प्रतीक चंदेल वंश यमुना, नर्मदा, चम्बल, बेतवा, धसान, केन, सिन्ध, पुष्पावती और तमसा (टोंस) आदि पवित्र नदियों से घिरा विशाल क्षेत्र जिसे बन्देलखण्ड कहते हैं, प्राचीन काल में दशार्ण तथा चन्देली देश कहलाता था। इसकी प्रमुख राजधानी चन्देली (चन्देरी) थी। चन्देरी का दुर्ग महाराज यशोब्रह्म चन्देल ने आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व बनवाया था। चन्देरी से लगभग आठ मील दूर बूढ़ी चन्देरी का किला है जो 5000 वर्ष प्राचीन है। इसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं।

इस देश में चन्देल वंश के महान् यशस्वी अजेय योद्धा हुए हैं। उनकी शासन-प्रणाली अनुपम रही है। महाराज चन्द्रब्रह्म चन्देल का बनवाया हुआ विश्व-विख्यात कालिंजर का किला लगभग 4000 वर्ष पुराना है। महाभारत काल के प्रसिद्ध पांडवों के चन्द्रवंशी क्षत्रिय राजाओं में चन्देल यादव (जादो), राठौड़, हैहय, तोमर क्षत्रियों का वर्णन आया है। चन्देल शासकों ने अपनी विजयपताका भारतवर्ष के बाहर बलख-बुखारे तथा काबुल-कन्दार तक फहराई थी।

वंश-चन्द्रवंश,
गोत्र-चन्द्रायण
साखा-कोथमी
वेद-सामवेद
उपवेद -धनुर्वेद
शिखा-वाय
सूत्र–गोमिल
परवर–तीन यज्ञोपवीत के
आंगिरस, बार्हस्पत्य,
चन्द्ररत्रय
पद-वाम
अल्लि—दानेसुरा चन्देल
इष्ट देव-शिव विष्णु
इष्टमाता-दुर्गा
स्वामी-मंगल

सम्प्रदाय—गौ
वर्ण–क्षत्रीय, अग्निपावक
कर्म-यज्ञ, पक्षी कबूतर
कुल देवी-अम्बिका
नदी-नर्मदा
ध्वजा-श्वेत

तीर्थप्रयाग मुद्रा-कमल पर बैठी हुई महावीर तथा लक्ष्मी की चतुर्भज मूर्ति।
चन्देल वंश के अनेक प्रसिद्ध राजाओं में महाराज धंगब्रह्म 950 से ई० तक शासनारूढ़ रहे। इसके अतिरिक्त महाराज गंडब्रह्म 999 से 1025 ई० तक सिहासनारूढ़ रहे। यह बड़े वीर एवं युद्ध-प्रिय राजा थे। इन्होंने 1020 ई० में डेढ़ लाख सेना से महमूद गजनवी पर धावा करके विजय-श्री प्राप्त की थी। दूसरी बार 1023 ई० में जब इन्होंने धावा बोला तब गजनवी को इनसे सन्धि करनी पड़ी। इस समय चन्देलों के पास चौदह सुदृढ़ एवं विशाल किले थे।

चंदेल वंश में महोबा के अन्तिम राजा परिस है इनका जन्म कालिजर में हुआ। महाराज परिमाल का शासनकाल सं० 1115 से 1203 तक रहा जो चन्दबरदाई के होता है । महाराज परिमाल बदाजीतदेव, आसाजीतदेव, समाजीतदेव, कामजीतदेव, और महाराज परिमाल की कीर्ति का वर्णन कालिंजर के नीलकंठ मंदिर मे एक शिलालेख में इस प्रकार आया है ।

आकाश प्रसर प्रसयत दिशस्तवं प्रथ्वि पृथ्वी भव।
प्रत्यक्षी कृतमादि राज यश सां दुष्माभि रज्ज भितम॥
अद्य श्री परिमाद्धि पार्थिव यशो राविकाशो।
दयादबीजोच्छवास विदीर्ण दाडिममिव ब्रह्माऽमालोक्यते ॥
कोतिस्ते नत दूतिका मुररिपोरं के स्थितामिन्दिरामानीय।
प्रददोतवेति गिरिशः श्रुस्वधिनारीश्वरः ॥
ब्रह्मा भूच्चतुराननः सुरपतिश्चक्षुः सहस्रं दधौ स्कंदो।
मंदमतिविवाहविमुखौ धत्तै कुमार ब्रतम ॥
नागौ भाति मदेन खं जल रुहेः पुर्णेन्दुना शर्वरी।
शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सर्वैर्मन्दिरम॥
वाणी व्याकरणेन हंस मिथुनधः सभा पंडितैः।
सत्पुत्रेण कुलं त्वया वसुमती लोकत्रयं विष्णुनां॥
आधार ‌ (‘चदेल चन्द्रिका’ पृष्ठ १७)

राजा परिमाल चन्देल का साम्राज्य
King Parimal Chandel’s Empire
Raja Parmardidev/Parimal Chandel का उस समय बुन्देलखण्ड के आठ किलों पर झंडा फहराता था। ये इस प्रकार हैं : बारीगढ़ (महोबा के पास) ,कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मडफा, मौदहा, कालपी और महोबा एक तम्रपत्र इनको वि० सं० 1223 में कालिंजर में दिया गया। उपाधि ‘कालिंजराधिपति चन्देल महाराजाधिराज लिखी है।

महाराज परमर्दिदेव परिमाल के राजमन्त्री माहिल कूटनीति के पण्डित थे। वही राज्य का कार्य-भार सम्हालते थे। सेना नायकों में बनाफल वंश के दस्सराज- बच्छराज (Dassraj- Bachchhraj) के वीर पुत्र आल्हा-ऊदल (Alha Udal)और मलखान (Malkhan) थे जिनकी वीरता द्वारा महाराज परिमाल की विजयपताका फहरा रही थी। इसका प्रमाण यह मिलता है कि राजा परिमाल ने दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर अपने पुत्र ब्रह्मजीत के साथ पृथ्वीराज की पुत्री बेला का विवाह रचा था।

महाराज परिमाल का अश्वमेध यज्ञ
Ashwamedha Yagya of Maharaj Parimal
महाराज परमर्दिदेव परिमाल ने भारत और बाहर के समीपवर्ती देशों में निरंतर जब विजय प्राप्त की तब इनका मन अनायास युद्ध से विराम लेने के लिये विवश हो उठा और अन्त में इन्होंने अपनी तलवार को चिर शान्ति प्रदान करने के लिए असि-प्रच्छालन महा-विजय यज्ञ (Asi-Prachchhalan Maha Vijay Yagya ) Non-Operation Mighty Victory Yagya किया जो सम्भवतः द्वापर युग के अश्वमेध यज्ञ की ही परम्परा में रहा हो।

यज्ञ का प्रबन्ध-कार्य राजमन्त्री ने भारत स्थित तथा समीपवर्ती विदेशों के राजाओं को युद्ध का अन्तिम निमन्त्रण देकर यह संदेश भेजा कि यज्ञ की तिथि के पूर्व जो भी नरेश राजा परिमाल से युद्ध करना चाहते हों वह अपनी सेना लेकर महोबा की रणभूमि में अपना रणकौशल दिखाने के लिये पधारें, क्योंकि यज्ञ के पश्चात् महाराज परिमाल फिर शस्त्र ग्रहण नहीं करेंगे। महाराज के अनुपम रणकौशल और उनकी अजेय सेना के समक्ष यज्ञ की अन्तिम तिथि तक किसी भी नरेश का साहस उनसे लोहा लेने का नहीं हुआ। फलतः उन्होंने अपना असि-प्रच्छालन यज्ञ भारत के समस्त राजाओं की उपस्थिति में बड़े समारोह से सम्पन्न किया।

महाराज परिमाल ने ५२ लड़ाइयाँ लड़ीं, जिनका वर्णन इनके दरबारी कवि जगनिक ने आल्ह छन्द में बड़ी ही रोचकता के साथ किया है। और विचित्र बात तो यह है कि महाराज परिमाल के पूर्ण शत्रु दिल्लीपति के दरबारी कवि श्री चन्दबरदाई ने परिमाल की प्रशंसा में जो ‘परिमालरासो’ Parimalraso लिखा है उससे महाराज परिमाल की यशःकीर्ति और भी बढ़ जाती है।

वीररस के विख्यात कवि श्री चन्दबरदाई ने ‘परिमालरासो’ में जो वर्णन किया उसका कथानक इस प्रकार है कि एक बार राजा परिमाल महोबा से कालिजर की यात्रा कर रहे थे। साथ में इनके वीर आल्हा और ऊदल भी थे। आल्हा को मार्ग में सुन्दर मृगों का एक झुंड चौकड़ी भरता हुआ दिखा जिससे आकर्षित हो उन्होंने अपना घोड़ा उस झुंड की ओर बड़े वेग से छोड़ दिया और कई मृगों को अपने तीरों द्वारा वेध दिया।

महाराज परिमाल आल्हा की इस तीरन्दाजी को देख हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए। किन्तु मन्त्री माहिल के हृदय में आल्हा के प्रति द्वेषाग्नि धधकने लगी। कालिंजर पहुँचने पर जब परिमाल रनवास में विनोद कर रहे थे तो अवसर पाकर माहिल ने वीर आल्हा-ऊदल के विरुद्ध चुगली का जाल इस प्रकार बिछाया जिसका वर्णन चन्दबरदाई ने इस प्रकार किया है।

करी केलि परिमाल नृप सब रनवास समेत।
माहिल मंत्री भूप कौं मतौ कुमत को देत ।
अल्हन हय दौराय के मारे मृग हैं धाय ।
ऐसे इनके पाँच हैं नृप कै एकौ नाय ।
घोड़े आप मगाय के देओ अल्हन और ।
नाहि करै तौ घर तजै जायँ और ही ठौर ।

आल्हा-ऊदल के साथ षड्यंत्र
Conspiracy with Alha-Udal
आल्हा-ऊदल के पास पाँच ऐसे घोडे थे कि जिनमें युद्ध और उड़न की शक्ति विद्यमान थी। इन्हीं के बल पर युद्ध में इनको पूर्ण विजय प्राप्त हुआ करती थी। इन्हीं घोड़ों का आश्रय लेकर माहिल ने वीर आल्हा-ऊदल के विरुद्ध परिमाल के हृदय में अनबन की भावना उत्पन्न कर दी। माहिल ने कहा कि महाराज जो पाँच घोड़े आल्हा-ऊदल के पास हैं वे आपके तबेले में रहने योग्य हैं ।

इस कारण उनसे वे घोड़े लेकर बदले में उनको और घोड़े दे दिये जायँ तो अच्छा हो। यदि वह आपकी आज्ञा का उल्लंघन करें तो उस अपराध में उनको देश-निष्कासन का दण्ड दे दिया जाय, क्योंकि उन पाँचों घोड़ों का आपके पास रहना राजा की दृष्टि से अत्यन्त हितकारक है। मंत्री की सम्मति मान कर परिमाल ने आल्हा-ऊदल को यही आदेश दिया, जिससे वह हृदय में अत्यन्त दुखित हो गये।

आल्हा-ऊदल ने अपनी माता देवला से आकर बताया कि माता राजा माहिल ने भूपत परिमाल से हमारे बछेरों (घोड़ों) का शौर्य देख यह चुगली की कि आल्हा-ऊदल के पाँचों उड़न बछेराओं को माँग लिया जाय और यदि वे अस्वीकार करें तो देश-निष्कासन दे दिया जाय। यह सुनकर माता देवलदे हृदय में क्षुभित हो अपने पुत्र आल्हा-ऊदल से कहने लगी पुत्र ! अपने घोडों को देना स्वीकार नहीं करना और यदि राजा परिमाल इस अवज्ञा के अपराध में देश-निकाला देते हैं तो यहाँ से चलकर कनवत (किन्नौज) में पाँगुर दल के राजा जयचंद से मिलना चाहिए।

माता देवलदे की आज्ञानुसार आल्हा-ऊदल ने राजा परिमाल को अपने नामी घोडों को देना अस्वीकार कर दिया और इस राजाज्ञा के उल्लंघन के अपराध में उनको निर्वासन का जो दंड मिला उसको स्वीकार करके उन्होंने अपने परिवार सहित कनवज के लिए प्रस्थान किया।

यात्रा में आल्हा-ऊदल ने अपने बाहुबल के पराक्रम से मार्ग के कुरहट राज्य केहरसिह-विरसिंग राजाओं को पराजित किया और जो कुछ धनराशि अर्जित हुई उसे लेकर कनवज के राजा जयचन्द से जाकर मिले। राजा जयचन्द बनाफल वीर-पराक्रमी आल्हा-ऊदल की यश-कीर्ति को पहले से ही जानते थे। इस कारण उन्होंने खुश हो दरबार में उच्च स्थान दे दिया।

यह वृत्तान्त जब माहिल को ज्ञात हुआ तब उन्होंने एक योजना बनाकर पृथ्वीराज चौहान के पास दिल्ली जाकर राजा परिमाल के विरुद्ध यह षड्यन्त्र रचा। उन्होंने कहा कि महाराज अब राजा परिमाल से बैर भजाने का अच्छा अवसर है। क्योंकि परिमाल ने अपने पुत्र के साथ पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला का विवाह पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके जबरन किया था।

ठीक इसी के प्रतिकूल माहिल ने पृथ्वीराज चौहान को सम्मति दी कि आपको चाहिये कि परिमाल चन्देल की पुत्री चन्द्रावली से आप अपने पुत्र का विवाह महोबा पर चढ़ाई करके करवालो, क्योंकि परिमाल ने वीर आल्हा-ऊदल को देश निकाला दे दिया है और परिमाल शस्त्र त्याग कर चुके हैं। आपको अपने वैर का बदला लेने और चन्द्रावली से अपने पुत्र का विवाह करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त है।

माहिल परिहार का हरकारा (पत्रवाहक) जब दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान को पत्र देता है तब वे अपने गुरु कवि चन्दबरदाई को सुनाकर शीघ्र माहिल को उसका उत्तर लिख उनके हरकारे को अपना पत्र देकर विदा करते हैं । उपरान्त अपने सामन्त सरदारों को महोबा के कीर्तिसागर की कजरिया देखने को प्रोत्साहित करते हुए अपनी भावना प्रकट करते हैं ।

पृथ्वीराज का आदेश पाकर शूर सामन्त सुसज्जित होने लगे पृथ्वीराज चौहान की सेना में सौ सामन्त ऐसे थे जो एक-एक लाख योद्धाओं को परास्त करने की शक्ति रखते थे, लेकिन महोबा के महाराज परमर्दिदेव परिमाल चंदेल की सेना में ऐसे पाँच धवल थे जिनमें एक-एक में सौ सामन्तों पर विजय प्राप्त करने का शौर्य था। किन्तु इनके होते हुए भी परिमाल की सेना वीर आल्हा-ऊदल के बिना निर्बल सी प्रतीत हो रही थी, और राजा परिमाल को भी इसका अनुमान हो रहा था।

राजा परिमाल की यह चिन्तित अवस्था देख उनकी रानी मल्हना ने आल्हा-ऊदल की माता देवलदे को महोबा की स्थिति के सम्बन्ध में करुणाजनक पत्र लिखा और कवि जगनिक द्वारा उसे कन्नौज भेजा।  राज माता ने पत्र मे लिखा…. आल्हा आज हमारी लाज बचा लो। दुश्मन के हाथों से अपना देश, राज्य, सरताज बचा लो।

आज तुम्हें बहिनों की आह पुकार रही है। नगर महोबे को हर माता व्याकुल राह निहार रही है। (महोबा खण्ड-काव्य) कन्नौज पहुंच कर जगनिक ने देवलदे को पत्र दिया और आल्हा से महोबा चलने का आग्रह किया। जगनिक की बात आल्हा को तीर-सी लगी।

जगनिक के कहने पर जब आल्हा महोबा चलने को तैयार नही उन्होंने महोबा की रक्षा के लिए मल्हना का पत्र देकर माता देवलदे से प्रार्थना की। माता का हृदय द्रवित हो गया और वह अपने वीर पुत्र अल्हा-ऊदल से मातृभूमि की रक्षा करने के लिए कहा । जब आल्हा-ऊदल ने माता देवलदे के वचनों को सुना तब उनका मस्तक लज्जा से झुक गया और हृदय में मातृभूमि की रक्षा के लिए वीर भाव जागृत हो उठा ।

आल्हा ऊदल ने जगनिक को आश्वासन देकर महोबा के लिए विदा किया और अपने सम्मान का ध्यान रखते हुए लाखन से विचार-विमर्श करके यह निश्चय किया कि हम बुन्देलखण्ड की रक्षा के लिए योगियों का वेष धारण करके चलेगे और पृथ्वीराज से लोहा लेंगे।

अन्त में इन तीनों वीरों ने महाराज जयचन्द से आज्ञा लेकर महोबा को प्रस्थान किया और महोबा पहुँच कर कीतिसागर के समीप एक उद्यान में अपना डेरा डाल लिया। पृथ्वीराज चौहान की सेना ने जब महोबा के कीर्तिसागर पर भुजरियों के उत्सव के समय धावा बोला तब प्रथम मोर्चा परिमाल के वीर पुत्र समाजीत से हुआ जिसका वर्णन चन्दबरदाई ने इस प्रकार किया ।

जुरै आय वीरं दुहूँ सैन वारे ।
सुमर अप्प इष्टम महा क्रुद्ध भारे ।
चलें तीर नेजा बंदूक बरच्छी।
परै फुट्ट न्यारे महातेज कच्छी।

इस युद्ध में समाजीत वीरगति को प्राप्त हुआ। उपरान्त ब्रह्मजीत मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज के सम्मुख युद्ध करने को तैय्यार हुआ।

माँ की पा आशीश चौगुना जोश भर गया।
ब्रह्मा की रग-रग में, फिर नव रोश भर गया।
ब्रह्मा की शमशीर जहाँ भी जिस पर पड़ती।
गुब्बारे की भाँति उसी की गर्दन उड़ती।

पहुँचा देता वीर-बीर को, मत्युलोक से स्वर्ग धाम को।
ब्रह्मा दोनों कर से लड़ता दाँतों से पकड़े लगाम को।
आ जाती थी अनायास ही जाने शक्ति कहाँ से इतनी।
मातृभूमि के लिए हृदय में जाने भक्ति कहाँ से इतनी।
जैसे ब्रह्मा की बाहों में प्रलयंकर का क्रोध भरा था।
अरि सेना का सिन्धु सोखने कुंभज-सा प्रतिशोध भरा था।

(महोबा खण्ड काव्य)

पृथ्वीराज चौहान का युद्ध छत्रसाल गैरवार और डौंगरसी दउआ तथा ब्रह्मजीत से हुआ। पृथ्वीराज चौहान ने अपने बल-पौरुष द्वारा ब्रह्मजीत को दस हजार हाथियों के घेरे में घेर लिया । महाराज परिमाल की सेना ने अपने सेनापति ब्रह्मजीत को जब दस हजार हाथियों के घेरे में घिरा देखा तब वह भयभीत होकर रणभमि त्याग कर भागने लगी। इस अवसर पर ब्रह्मजीत के साथ केवल पन्द्रह शूर रह जाने वर्णन इस प्रकार है।
विचल चमू परमाल की समर न आयस अंच।
ब्रह्माजित्त कुमार सँग रये सूर दस-पंच ।

राजा परिमाल के वीर पुत्र ब्रह्मजीत को जब पृथ्वीराज चौहान अपने दस सहस्र हाथियों के मध्य रणभूमि में घिरा देखा तब उन्होंने गुरु चन्दबरदाई से आज्ञा लेकर अपने सौ सामन्तों को ब्रह्मजीत का वध करने का आदेश दिया।

पृथ्वीराज चौहान की यह घोषणा जब राजा परिमाल को विदित हुई तब वह आतंकित हो उठे। उसी अवसर पर समीप के उद्यान में योगी वेष में जो आल्हा-ऊदल तथा उनके साथी निवास कर रहे थे, वह राजा परिमाल को धैर्य बँधा कर रणआँगन में कूद गये। उनके साथी राजा जयचन्द के वीर पुत्र लाखन ने प्रथम पृथ्वीराज से मोर्चा लिया, किन्तु लाखन भी उस हाथियों के घेरे में घिर गया।

जब योगी वेषधारी ऊदल ने यह देखा तो वह क्रुद्ध होकर रण में आ गये और बड़ा घनघोर युद्ध हुआ। अन्त में वीर ऊदल ने अपने रणकौशल द्वारा लाखन और ब्रह्मजीत दोनों को हाथियों के घेरे से मुक्त कर लिया। इसके उपरान्त योगियों और पृथ्वीराज चौहान का जो घनघोर युद्ध हुआ उसका वर्णन चन्दबरदाई ने इस प्रकार किया है।

चलो पिष्ट चहुँआन निस्साँन बज्जें।
मनों मेघ आसाड़ के नाद गज्जें।
इतै जोगि सिंगी सुमुख्खं बजाब।
सुनें व्योम देवं सुमेघं लजाबैं।
तबै ब्रह्मजित्तं सुयं अश्व छिन्नों।
चढ़ौ लघु जोगी सुउतसाह किन्नों।
तबै ‘हिरनगिन्नों’ बाज बाजी सुपायो।
करो खग्ग जमकाल सौंजुध्ध ठायो ।

तब जोगि हत्तं मनुज अस्त्र लिन्नों।
सतं वीर के सीस दो-दो सु किन्नों।
भगी फौज पीथल्ल की जोगि जानं ।
गयौ अश्व पेलत जहाँ चहूँआनं।

हनों राज पील गिरौ भम आय ।
पकर जोगि हत्तं सुराज उठायं ।
तब आय गुरु चंद बानी उचार ।
अहो जोगि ईसं सुराजै न मार ।

पृथ्वीराज चौहान युद्ध में आहत हो जब भूमि पर गिर पड़े तब ऊदल ने उनको पकड़कर बध करना चाहा। यह देखकर चन्दबरदाई अति आतुरता के साथ घटना स्थल पर पहुंचकर कहने लगे ‘योगीराज ! राजा का बध करना उचित नहीं है।’ चन्दबरदाई के विनम्र शब्दों को सुनकर योगी ऊदल ने पृथ्वीराज को मुक्त कर दिया।

इसके उपरान्त चन्दबरदाई ने मूच्छित पृथ्वीराज को अपने हाथी पर बैठा कर शिविर को प्रस्थान करने के प्रथम योगियों की प्रशंसा में इस प्रकार के भाव प्रदर्शित किये।

तबै चंद गुरु राय सन्मुख्ख आयं ।
भयौ राज मुरछा सुपीलं चड़ायं ।
कहै चंद जोगी बड़ौ जुध्ध किन्नों।
भगी फौज जोजन्न चारं परिन्नों।

युद्ध की रणभेरी कई दिनों तक कीर्तिसागर के तट पर बजती रही जिसमें विजयश्री ने कभी चन्देलों को वरण किया और कभी चौहानों को। तब तक भाद्र कृष्ण प्रतिपदा का वह महत्त्वपूर्ण वीर पर्व आ गया जिसकी प्रतीक्षा में दोनों सेनाओं के मोर्चे लगे हुए थे। प्रातःकाल रानी मल्हना और उनकी पुत्री चन्द्रावली का डोला सजा।

आगे-आगे नगर की कुछ वधुएँ अपने-अपने हाथों में भुजरियों के दोने सजाये हुए कीर्तिसागर पर सिराने मधुर गीत गातीं चल रही थीं जिसके पीछे कहार अपने-अपने कंधे पर रानी मल्हना और चन्द्रावली का डोला लिये चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे चल रहे थे अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित महुबिया जवान।

भुजरियों की लडाई
Bhujariyo Ki Ladai

कीर्तिसागर के तट पर जब यह भुजरियों को सँजोये हुए नगर की वधुएँ और मल्हना और चन्द्रावली का डोला पहुँचता है तब राजा परिमाल की ओर से योगी और उधर स्वयं पृथ्वीराज रण के लिए सुसज्जित हो उठते हैं ।

दिल्लीपति पृथिवीराज चौहान, जो अपनी सेना का संचालन कर रहे थे। चन्देली वीरो ने संग्राम में अपने बाहुबल का ऐसा पराक्रम दिखाया कि चौहान सेना भाग खड़ी हुई । यह देख पृथ्वीराज चौहान ने कोधित होकर पीलवान को हुंकारा, जिससे उसने अपने हाथी को आल्हा के सन्मुख कर दिया और शीघ्र पृथ्वीराज ने अपने धनुष को सन्धान कर आल्हा पर शब्दभेदी बाण की वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु आल्हा को दूर्गा का यह वरदान कि तेरा शरीर वज्र के समान रहेगा।

दुर्गा के अभय वरदान के कारण पृथ्वीराज चौहान के बाण जो आल्हा के वक्षस्थल पर पड़ रहे थे वे सब भूमि पर गिरने लगे। यह देख पृथ्वीराज चौहान को भान हो गया कि यह योगी नहीं, दस्सराज का वीर पुत्र आल्हा है। उसके प्रभाव से प्रभावित होकर वे हाथी के हौदे से भूमि पर उतरे और नतमस्तक हो आल्हा से अपनी पराजय स्वीकार करने लगे।

किन्तु आल्हा कहने लगे कि हम तो चन्देलवंश की संस्कृति की रक्षा के हेतु युद्ध लड़ रहे थे। यदि आप पराजय स्वीकार करते हैं तो यह याचना आपको महाराज परिमाल के सन्मुख करनी चाहिए। विवश हो चौहान ने ऐसा ही करके दिल्ली को प्रस्थान किया।

इसके पश्चात योगियों ने रानी मल्हना और बेटी चन्द्रावली द्वारा भुजरियों का पूजन कराकर कीतिसागर में विसर्जन करवाया। उपरान्त राजा परिमाल ने योगी वेषधारी वीर आल्हा-ऊदल से अपनी भूल, जो उनसे अपने मंत्री माहिल की मंत्रणा से हुई थी, स्वीकार की, और महोबा चलने का आग्रह किया। इस समय राजा परिमाल और आल्हा ऊदल के नेत्रों में एक-दूसरे से विलग होने के कारण छलक रहे थे जिनसे यह भासित होता था कि एक-दूसरे के हृदय के वे कितने निकट हैं।

राजा परिमाल का विशेष प्रेम देख आल्हा विनम्र हो गये। किन्तु ऊदल ने महोबा जाना स्वीकार नहीं किया। अन्त में आल्हा ने राजा परिमाल को धैर्य बंधाते हुए वचन दिया कि हम किसी भी संकटकालीन अवस्था में महोबा आने को तैयार रहेंगे।

इसी समय राजा परिमाल की पुत्री चन्द्रावली ने आल्हा की बाँह पकड़ते हुए कहा-“भैया, अब कहाँ जात हो, तुम्हारे बिना महोबो सूनो लगत है। यह सुनकर आल्हा-ऊदल का हृदय उमग उठा । लेकिन उनके सामने एक कठिन समस्या थी, अपनी माता देवलदे की, और साथी लाखन की। इस कारण उन्होंने बहन चन्द्रावली को समझाकर कनवज को प्रस्थान किया ।

कालान्तर में महाराज परिमाल ने रानी मल्हना के आग्रह पर आल्हाऊदल को मनाने के लिये अपने राजकवि जगनिक को कनवज भेजा। राजकवि जगनिक ने कनवज पहुँचने पर राजा जयचन्द को आल्हा-ऊदल को विदा करने का वह पत्र दिया जो कि उनको महाराज परिमाल ने दिया था। राजा जयचंद ने उसे स्वीकार कर आल्हा-ऊदल को सम्मानपूर्वक विदा कर दिया।

क्या है आल्हा ?

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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