यह बुन्देलखंड की प्रमुख लोकगाथा है। Raja Dhansingh Ko Rachhro मे बुंदेली संस्कृति केअनुसार शकुन-अपशकुन को प्रमुख स्थान दिया जाता है। ये सारा अनुभव और भुक्त भोगी लोगों का ज्ञान है, जो सत्यता के बहुत समीप है। कहा भी गया है- हमारी संस्कृति मे वयोवृद्ध लोगों की सलाह मान्य होती है अन्यथा… ‘जो न मानें बड़न की सीख, लै खपरिया माँगै भीख।’
बुंदेलखंड की लोकगाथा राजा धनसिंह कौ राछरौ
बुन्देलखंड की इस प्रमुख लोकगाथा में शकुन-अपशकुन पर विशेष विचार किया गया है। बाबा तुलसी ने मानस में अनेक स्थलों पर शकुन साधने की चर्चा की है। छींक, आँख फड़कना, सर्प, हिरण अथवा पशुओं का मार्ग काटना, खाली घड़ा, मार्ग में काना मिल जाना। अपशकुन सूचक माना जाता है। इस गाथा में शकुन पर विशेष विचार किया गया है।
राछरे के कथानक को सुनकर ऐसा लगता है कि यह लोक गाथा ब्रिटिश कालीन है, जो सन् 1857 की क्रान्ति पर आधारित है। सन् 1857 में अंग्रेजों ने बुन्देलखंड के छोटे-छोटे रजवाड़ों पर हमला करके उन पर अधिकार कर लिया था। उस समय अनेक बुंदेला वीर मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हीं वीरों में से एक ‘राजा धनसिंह’ थे, जिनका बुन्देलखंड के इतिहास में उल्लेख है।
इतिहास में बताया गया है कि धनसिंह ओरछा और बरूआ सागर के बीच स्थित ‘सुनौनिया’ के जागीरदार थे। वे एक बहादुर और साहसी जागीरदार थे। अंग्रेजों ने उसकी जागीर की गढ़ी पर हमला कर दिया। इतना सुनते ही धनसिंह आग-बबूला हो गये और अकेले ही घोड़े पर सवार होकर सामना करने पहुँच गये।जाते समय अनेक अपशकुन हुए। माता, पत्नी और परिवार जनों ने उन्हें बहुत रोका, किन्तु सबकी अवहेलना करते हुए चले गये, जिसका दुष्परिणाम हुआ।
कहाँ अकेले धनसिंह और कहाँ अंग्रेजों की विशाल सेना । पहाड़ से सिर मारने पर सिर ही फूटेगा, पहाड़ का क्या बिगड़ सकता है? आक्रमण का समाचार पाते ही वह सीधा सेना के बीच घुसकर भयंकर मारकाट करता रहा। उसे ओरछा और बरुआसागर के मैदान में विजयश्री प्राप्त हुई। वह आगे बढ़ता ही गया और विशाल सेना के बीच घिरने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
गाथाकार उसे बुद्धिहीन मानता है, जो बिना सोचे -समझे अकेला ही युद्ध करने को तैयार हो जाता है। इतिहास में तो इस गाथा का विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं है, किन्तु लोक-मुख में तो यह गाथा आज भी सुरक्षित है। गाथा का शुभारंभ भी धनसिंह की बुद्धिहीनता से हुआ है। जोगी इकतारे की धुन में गाते हुए दिखाई देते हैं-
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह, तोरी मत कोंने हरी रे !
उन्होंने युद्ध क्षेत्र में जाते समय शुभ शकुन का ध्यान नहीं रखा। इसी कारण से युद्ध क्षेत्र में उनकी मृत्यु हो गई थी। उन्होंने छींकते हुए घोड़े की सवारी की थी। यह बहुत बड़ा अपशकुन था। छींकत बछेरा पलान्यो, बजत भये असवार।
परिवार जनों ने अकेले जाने से बार-बार रोका, किन्तु हठवश उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। यह उसी हठ का दुष्परिणम था। हालाँकि थे तो वे बहुत वीर, उन्होंने जाते ही अनेक वीर अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था-
जातन मारो गोर खौं, गढ़ एरच के मैदान।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
जाते समय माता, बहिन और रानी ने बहुत ही रोका, किन्तु वे सबकी बातों को टालते हुए युद्ध क्षेत्र में अकेले ही चले गये और सेना से घिरकर उनकी मृत्यु हो गईः-
माता पकरें फेंट री, बैंन घोड़े की बाग।
रानी बोले धनसिंह की, मोहैं कौंन की करकैं जात।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
वे इतने अधिक आक्रोश में थे कि सबसे भला-बुरा कहकर घोड़ा बढ़ाकर चले गये-
माता खौं गारी दई, बैंदुल खौं दओं ललकार।
बैठी जौ रइयौ रानी सतख डा, मोतिन भरा दओं माँग।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
जाते समय अनेक तरह के अपशकुन हो गये, जिनको सारे बुन्देलखंड में अपशकुन की कोटि में रखा जाता है, जैसे- बायीं तरफ टिटहरी और दाहिनी ओर सियार का चिल्लाना और मुँह के सामने तीतुर का बोलना, बुन्देलखंड में अपशकुनों की ओर संकेत है-
डेरी बोलें टीटही, दाहिनी बोलें सिहार।
सिर के सामैं तीतुर बोलें, पर भू में मरन काहे जात।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
कुछ वीर अवसर देखकर शत्रु का सामना करते हैं। इन्होंने किसी भी तरह के बचाव का प्रयत्न नहीं किया। ये तो सीधे घोड़े पर चढ़े हुए अंग्रेज सेना के शिविर के बीच में जा पहुँचे और बिना सोचे समझे ही शत्रु सेना से जा भिड़े-
कोउ जो मिले ढिल्ली-ढिल्ला, कोउ जिल्ला के बाग।
जो मेले धनसिंह जू, जाँ ठठे कसन के पाल।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
प्रारंभ में तो उनकी लगातार जीत होती गई, किन्तु अंत में चारों ओर से शत्रु सेना से घिरकर उनकी मृत्यु हो गई-
पैंले फते भये ओरछा, दूजे बरुआ के मैंदान,
तीजे फते भये पाल में, सो मारे गयो कुँवर धनसिंह।
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
अंग्रेज सिपाहियों ने इतना घोर संग्राम किया कि धनसिंह के सारे साथी मैदान छोड़कर भाग गये। धनसिंह का मृत शरीर रण -क्षेत्र में पड़ा रह गया और उनका घोड़ा खाली पीठ लौट आया-
भागन लगे भगेलुवा, उड़ रई गुलाबी धूर,
रानी देखैं धनसिंह की, घोरौ आ गऔ उबी नी पीठ,
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह !
खाली पीठ घोड़े को आता हुआ देखकर रानी वास्तविक स्थिति से परिचित हो गई और स्वामी भक्त घोड़े से भला-बुरा कहने लगीं-
काटो बछेरा तोरी बचखुरी, मेटों कनक औदार,
मेरे स्वामी जुझवाय कैं, तैं आय बँधो घुड़सार।
तोरी मत कोने हरी रे धनसिंह !
घोड़ा दुःखी होकर रानी के समक्ष अपना साक्ष्य प्रस्तुत करता है। महारानी जी आप मुझे कोई दण्ड मत दीजियेगा, इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। शिविर में उनके साथ धोखा हो गया है। वे मुझ पर सवारी नहीं कर पाये थे-
काय खौं काटों रानी बजखुरी, काय खौं मेटों कनक औ दार।
दगा जो हो गओ पाल में, मो पै हो नई पाये असवार।
तोरी मत कोंने हरी रे धन सिंह !
इस गाथा में बुंदेली वीरों के शौर्य और साहस का चित्रण किया गया है। यहाँ के वीर शत्रु के समक्ष जीते जी पीठ दिखाना नहीं जानते। धनसिंह अंग्रेजों की विशाल वाहिनी से भिड़ गये। लड़ते-लड़ते प्राण त्याग दिये, किन्तु पाँव पीछे नहीं रखे। उनके कार्य और चरित्र जन-जन के लिए अनुकरणीय हैं।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)