Panvare Ki Visheshtayen  पंवारे की विशेषताएँ

बुन्देलखण्ड की लोक-गाथायें पंवारे परमार वंशीय क्षत्रियों की लोकगाथाएँ हैं, किन्तु ये शब्द शौर्य गाथाओं के लिए रूढ़ हो गया है। राजपूत काल में अनेक वीर क्षत्रियों ने अपने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए शौर्य का प्रदर्शन किया था। अधिकांश पंवारे वीर रस प्रधान हैं यही Panvare Ki Visheshtayen हैं

बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा पंवारे की  विशेषतायें

शौर्य प्रधान पंवारे
ये राजपूतकालीन शौर्यगाथाएँ हैं। ये हमारी भारतीय संस्कृति की धरोहर हैं। आदिकाल से ही इस भूमि पर महावीर अवतरित होते आये हैं, जिन्होने मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवन का बलिदान कर दिया था। इस प्रकार के आत्मबलिदान और जौहर की घटनाएँ राजपूतकाल में घटित होती रही हैं। राजपूत, क्षत्रियों को अपनी आन-बान और मर्यादा प्राणों से भी अधिक प्रिय थी।

उन दिनों देश में पड़ोसी देशों के लुटेरों और यवनों का आतंक छाया हुआ था। कुछ मुसलमान शासक स्वेच्छाचारी थे। वे अपने धर्म के प्रसार-प्रचार और काम-पिपासा की तुष्टि के लिए हिन्दूधर्म और संस्कृति को नष्ट करने पर तुले हुए थे। किन्तु देश के कुछ वीर सपूतों ने उनकी एक न चलने दी। उन्होंने पूरी ताकत और साहस के साथ शत्रुओं का सामना किया और उन्हें पीछे ढकेल दिया। जायसी कृत ‘पद्मावत’ में अलाउद्दीन खिलजी की वासनिक भावनाओं का वर्णन किया गया है, जिसने पद्मावती को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण  किया था।

राजा रत्नसिंह महावीर और बलशाली थे। घोर संग्राम हुआ। गोरा और बादल लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। लड़ते-लड़ते राजा रत्नसिंह की मृत्यु हो गई। पद्मावती ने जौहर कर लिया और अलाउद्दीन हाथ मलता रह गया। यही स्थिति मथुरावली की भी रही। उसने तंबू में आग लगाकर प्राण त्याग दिये थे। इस प्रकार की अनेक घटनाएँ भारत में घटित होती रहीं, जो शौर्य प्रधान गाथाओं के रूप में प्रचलित हैं।

ये सब पंवारे के ही प्रकार हैं। बुंदेलखण्ड के कारसदेव की लोकगाथा भी राजपूत काल की है। इसमें कारस की वीरता का वर्णन किया गया है। इस गाथा में राजा ‘गढुवाढार’ का नाम आया है, जो किसी राजा के नाम का विकृत रूप है। इसमें वर्णित युद्ध की घटना राजपूत काल के युद्धों से मेल खाती है। इस क्षेत्र में ‘अजयपाल’ नाम के देवता की पूजा की जाती है।

महाभारत में ऐसा उल्लेख है कि पाण्डवों ने प्रवास काल में राजा विराट के यहाँ नौकरी की थी। उन दिनों अर्जुन को गोचारण का काम मिला था और उन्होंने अपने बाण  से गोखुर के रोग नष्ट कर दिये थे। ऐतिहासिक दृष्टि से अजयपार /अजयपाल का विकृत रूप दिखाई देता है जो ‘पाल’ वंश से सम्बन्धित और राजपूत काल से संबंधित तथा राजपूत कालीन ही कहे जा सकते हैं।

भक्ति कालीन पंवारे
अधिकांश पंवारे शौर्य और भक्ति के मिश्रित स्वरूप हैं। एक ओर तो उनमें अपनी आन-बान और मर्यादा पर मर-मिटने की भावना दिखाई देती है और दूसरी ओर अपने आराध्य के प्रति अटूट श्रद्धा और भक्ति। प्रत्येक वीर का कोई न कोई आराध्य निश्चित होता है और अपने आराध्य का स्मरण किये बिना वे किसी भी काम के लिए आगे कदम नहीं रखते।

आल्हा- उदल के आराध्य ‘मनियादेव’ थे। वे उनकी पूजा करने के बाद ही युद्ध के लिए जाया करते थे। जगदेव के पंवारे में तो स्पष्ट ही बताया गया है कि वह माँ हिंगलाज भवानी का परम भक्त था। उसने अपना सिर काटकर देवी जी के चरणों में अर्पित कर दिया था। इससे बड़ी भक्ति और क्या हो सकती है? यही कारण है कि यह पंवारा नवरात्रि के अवसर पर गाया जाता है। नवरात्रि के गीतों में ही इसको मान्यता दी गई है। उनकी भाव भक्ति का वर्णन एक अचरी में किया गया है…

आज्ञा भुमानी सुन दै दई, जगदेव बाँधौ तरवार,
डेरी सोहैं कटरियां, दांई सोहैं तरवार,
लंगरे अंगवान  अये  खप्पर  लयें  हात,
नरियल लयें हात,
उतरी कमान  जगत  की,
अये दुर्गा देत चढ़ाय,
राजा जगत से  मां भले हो मांय।

इसी तरह की भाव-भक्ति का दृश्य ‘कारसदेव’ की गोटों में दिखाई देता है। कहा जाता है कि कारसदेव का जन्म झाँझ नाम के ग्राम में एक गूजर के घर हुआ था। उसकी माता का नाम सरनी और बहिन का नाम ऐलादी था। सरनी निःसंतान थी। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भगवान शंकर का व्रत करती थीं, जिसका वर्णन एक गोट में किया गया है…

बारा बरस तपिया तपी, करे न अन्न अहार।
सरनी गई असनान खौं, अहेले तला के पार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।
सौ-सौ दल कमला खिले, भ्रमर रहे गुंजार।
एक कमल पै ऐसें लगैं,  जैसें  दियला  जले  हजार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।
उठा  सरनी  ओली  लये,  कारस  को  पुचकार।
जप-तप सब पूरन भये, मोरी शिव ने सुनी पुकार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।
अजयपार, हरदौल को तो बुंदेलखंड का लोक देवता मानकर उनकी पूजा की जाती है।

पंवारों की प्रमुख विशेषताएँ
1 – शौर्य और भक्ति का समन्वित स्वरूप
2 – लोक भाषा का प्रयोग
3 – लोक संगीत में आबद्ध
4 – लोक विश्वास का आधिक्य
5 – प्राचीन इतिहास का प्रभाव

शौर्य और भक्ति का समन्वित स्वरूप
पंवारों के भेद के अन्तर्गत शौर्य और भक्ति के समन्वित रूप का विधिवत विवेचन किया गया है। वैसे इनका मूलाधार शौर्य और भक्ति ही है। देश में जितने भी वीर हुए हैं, वे किसी न किसी देव के भक्त निश्चित ही रहे हैं। अधिकांश वीर आदिशक्ति भवानी के ही भक्त रहे हैं। कुछ वीर तो ऐसे हुए हैं, जो अपने आराध्य के चरणों में अपना सिर काटकर चढ़ा चुके हैं।

रावण जैसे शक्तिशाली राजा ने भगवान शंकर के चरणों में अपने सिर काट-काटकर चढ़ा दिये थे। फिर शिवजी ने उसे अमर होने का वरदान दिया था। इसी प्रकार राजा जगदेव ने माता हिंगलाज के चरणों अपना सिर काटकर चढ़ा दिया था। उनकी कृपा से उनके धड़ में से नया सिर उत्पन्न हो गया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो जितने बड़े वीर हुए हैं, वे उतने ही बड़े भक्त भी हुए हैं। वे अपने आराध्य के चरणों में सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहे हैं।

लोक भाषा का प्रयोग
बुन्देलखण्ड की समस्त लोक गाथाएँ बुंदेली में ही लिखी गईं हैं। पंवारे राजस्थान, ब्रज और बुन्देलखण्ड में गाये जाते हैं और वे सबके सब लोक भाषा में ही हैं। बुन्देलखण्ड में गाये जाने वाले पंवारे शुद्ध बुंदेली में ही प्राप्त होते हैं। वे इतने सहज और सरल हैं कि जिन्हें समझने के लिए जरा भी मानसिक व्यायाम करने की आवश्यकता नहीं होती।

इस क्षेत्र की सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय गाथा ‘जगदेव कौ पंवारौ’ है। ये प्रायः नवरात्रि के अवसर पर गाया जाता है। इसका आकार इतना बड़ा है कि वह चैसठ दरबारों में विभक्त है। नवरात्रि में रात-दिन गाये जाने पर भी पूरा नहीं होता। फिर भी कुछ वयोवृद्ध लोगों को वह पूरा का पूरा कंठस्थ है। ये सब लोक भाषा का ही प्रभाव है।

लोक संगीत में आबद्ध
अधिकांश पंवारे गेय (पद्य) हैं। वे किसी न  किसी लोक ध्वनि में आबद्ध होते हैं और उनमें लोक संगीत की प्रधानता होती है। ‘जगदेव कौ पंवारौ’ तो देवी जी के गीतों के साथ गाया जाता है। इस कारण  उसकी लोक ध्वनि देवी जी के भजनों (भक्तों) के समान होती हैं। लोक गायक इसे ढोलक, नगरिया, झाँझ और झेला के साथ गाते हैं।

इनके गायन में स्वर के आरोह-अवरोह का विशेष ध्यान रखा जाता है। गाते-गाते जब पंचम पर पहुँचते हैं तो गायक भावावेश में घुटनों के बल खड़े हो जाते हैं और कभी-कभी नाचने लगते हैं। सुरहिन का पंवारा देवी जी के गीतों के साथ गाया जाता है। ये लोक संगीतबद्ध है। मथुरावली लोकगाथा इकतारे के साथ गाई जाती है, जिसमें लोक माधुर्य का समावेश होता है।

कारस देव कौ पंवारौ गाने के लिए डौरू (डमरू) का उपयोग किया जाता है और इसे एक विशिष्ट लोक ध्वनि में गाया जाता है। इसकी लोक ध्वनि बड़ी ही विचित्र और अटपटी सी होती है। ऐसा लगता है कि कारस भगवान शंकर के प्रिय भक्त थे। कारस का जन्म भगवान शंकर की ही कृपा से हुआ था।

इसी कारण से उनकी गाथा का गायन डमरू के साथ किया जाता है। यह लोक गाथा ‘गोटों’ के रूप में गाई जाती हैं, जिसमें कारस के समग्र जीवन का चित्रण होता है। कुछ विद्वान इसे ‘अजयपार का पंवारा’ भी कहा करते हैं। ग्रामीण जन रविवार और बुधवार को अजयपार मंदिर के सामने बैठकर गाया करते हैं।

लोक विश्वास का आधिक्य
पंवारो में लोक विश्वास आधिक है। शकुन-अपशकुन, मूर्ति पूजा, मंत्र और साधना को प्रमुख स्थान दिया गया है। वीर जब युद्ध के लिए जाता है, तो सर्वप्रथम शुभ-शकुन का विचार करता है। छींक पर सब से ज्यादा विचार किया जाता है।

दाहिनी छींक शुभ और बायीं छींक अशुभ, भरा घड़ा शुभ और खाली घट अपशकुन सूचक होता है। कहा जाता है कि छींकते हुए कोई कार्य करना ठीक नहीं है। उसी प्रकार से काने पर बहुत विचार किया जाता है। कहा जाता है कि –गैल में मिलें काना, तो लौट घर आना। राजा धनसिंह की लोक गाथा में कहा गया है।

छींकत बछेरा पलान्यो, बरजत भये असवार, तोरी मत कौनें हरी रे धनसिंह।
यही स्थिति भक्ति भावना की भी है। भक्त अपने आराध्य के चरणों में सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहता है। जगदेव के पंवारे में कहा गया है कि जगदेव भवानी हिंगलाज का भक्त था। पूजा करते-करते उसने देवी जी के चरणों में सिर काटकर चढ़ा दिया था। जिससे भवानी प्रसन्न हो गई और उनकी ही कृपा से उसके धड़ में से नया सिर उत्पन्न हो गया था। इसी तरह कारसदेव की गाथा में बताया गया है कि कारस की माता सरनी ने पुत्र की प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक शंकर जी की कठोर तपस्या की थी और उनकी कृपा से कमल पर राजकुमार प्रकट हो गये थे।

बारा बरस तपिया तपी, करे न अन्न अहार।
सरनी गई असनान खौं, अहेले तला के पार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।
हालाँकि यह एक आश्चर्यजनक घटना है, किन्तु ऐसा लोक विश्वास है कि ईश्वर की कृपा से सब कुछ संभव है।

‘नौरता’ लोक गाथा में कहा गया है कि ‘सुआटा’ नाम का राक्षस कन्याओं को उठाकर ले जाता था और उन्हें खा लेता था। यह क्रम अनेक वर्ष तक संचालित रहा। अंत में राक्षस को प्रसन्न करने के लिए कन्याएँ उसकी पूजा करने लगीं। यह परंपरा आज भी चली  आ  रही  है। 

नवरात्रि  के  अवसर पर कन्याएँ  आज भी  नौ  दिन तक ‘सुआटा’ की पूजा किया करती हैं। लोक-विश्वास रूढ़ियों के रूप में बदल गया है। यही स्थिति तंत्र-मंत्र की भी है। पंवारों में तंत्र-मंत्र और इंद्रजाल क्रियाओं को प्रमुख स्थान दिया गया है। लोक विश्वास के ही कारण इनमें कुछ काल्पनिक घटनाओं का समावेश हो जाता है।

प्राचीन इतिहास का प्रभाव
पंवारो के नामकरण  से स्पष्ट है कि ये परमार वंशीय लोक गाथाएँ हैं। परमार वंश राजपूत के अन्तर्गत आता है। वर्धन साम्राज्य के सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् भारत में राजपूत काल का शुभारंभ हुआ। सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक राजपूत काल माना जाता है।

अन्य राजपूतों की तरह परमार वंश की उत्पत्ति भी अग्नि कुंड से हुई थी। परमार भी अन्य राजपूतों के समान विदेशी थे। अग्नि द्वारा पवित्र कर इन्हें हिन्दू धर्म में दीक्षित किया गया, किन्तु कुछ विद्वान उन्हें भारतीय क्षत्रियों की संतान मानते हैं। परमारों ने नवीं शताब्दी में आबू पर्वत के समीपवर्ती प्रदेश पर अपने राज्य की स्थापना की थी।

जगदेव के पंवारे में जगदेव और भोज तथा धारा नगरी का वर्णन है। भोज तो परमार वंश के प्रतापी और प्रतिभाशाली राजा थे। उनकी राजधानी धार नगरी थी। यह गाथा परमार वंशीय इतिहास से सम्बन्धित है। मथुरावली गाथा भी राजपूत कालीन प्रतीत होती है, जिसके कारण  हम उसे मुगलकालीन मानते हैं। कुछ भी हो, किन्तु उसे अनैतिहासिक नहीं कहा जा सकता।

अजयपाल लोक गाथा ‘पाल’ वंशीय राजाओं से सम्बन्धित है, जिसका इतिहास में स्पष्ट उल्लेख है। कारसदेव गाथा भी इतिहास से सम्बन्धित है। कल्पना प्राचुर्य के कारण  ऐतिहासिकता कुछ धूमिल सी हो जाती है, किन्तु इसका मूलाधार इतिहास ही है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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