Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यPandit Ghasiram Vyas Ki Rachnayen पंडित घासीराम व्यास की रचनाएं

Pandit Ghasiram Vyas Ki Rachnayen पंडित घासीराम व्यास की रचनाएं

Pandit Ghasiram Vyas का जन्म झांसी जिले के मऊरानीपुर कस्बे के सम्वत् 1903 की अनन्त चतुर्दशी को हुआ था। इनके पिताजी का नाम पं. मदन मोहन व्यास तथा माताजी का नाम श्रीमती राधारानी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मऊरानीपुर में ही हुई। हिन्दी मिडिल उत्तीर्ण करने के पश्चात् संस्कृत का अध्ययन उन्होंनें गुरुवर श्री गणपति प्रसाद चतुर्वेदी की पाठशाला में किया।

विह्नलता
एक समय काहू सुजान सौं, ब्रज कौ सुन्यो सँदेसौ।
भई दशा विह्नल मोहन की, देखत लगै अँदेशौ।।

नंद से दीन, दुखी यशुदा से,
जके बलबीर से धावत दौरैं।

श्याम सखान से ठाँड़े ठगे,
गिरमान कबौं बछरान से तौरैं।।

‘व्यास’ कहैं रहैं भीगी सनेह सौं,
गोपिन सी अखियाँन की कोरैं।

होत कदंब से अंग छनै छन,
हीय उठें यमुना सी हिलोरैं।।

राधिका, राधिका टेरैं हँसैं,
कबौं मौन रहें कबौं आँसू बहाबैं।

‘व्यास’ कहैं इमि दीन दयालु की,
ऊधव देखि दशा दुख पावैं।।

बात कह्यो चित चाहै कछू,
पर बैन नहीं मुखतें कहि आवैं।

बुद्धि विवेक बढ़ावैं अयान से,
सोचैं सुनें सकुचैं रहिजावैं।।

श्रीकृष्ण जी ने किसी समय किसी सज्जन से ब्रज का संदेश सुना और ऐसे व्याकुल हो गये कि अनिष्ट की आशंका होने लगी। कभी वे नन्द बाबा की तरह दीनता प्रदर्शित करते तो कभी माता यशोदा के समान दुखी हो जाते, कभी बलवीर की तरह हठ करते हैं कभी दौड़ने लगते हैं, कभी सखाओं की तरह कुछ आश्चर्य से मानो स्तब्ध से खड़े हो जाते हैं और कभी लगता जैसे कोई गाय का बछड़ा गले की बंधी रस्सी तोड़ने का प्रयास कर रहा हो।

व्यास कवि कहते हैं कि उनकी आँखों की कोरें गोपियों की तरह प्रेम के जल से भीगी रहती हैं, प्रति क्षण उनके शरीर अंग कदंब की तरह हो जाते हैं और हृदय में यमुना की तरह तरंगें उठती हैं। कभी-कभी राधिका-राधिका कह कर बुलाने लगते हैं, कभी हँसने लगते हैं, कभी मौन हो जाते हैं और कभी आँसू बहाने लगते हैं ।

व्यास कवि कहते हैं कि दीनों पर दया करने वाले श्री कृष्ण की यह हालत देखकर उद्धव जी दुखी हो जाते हैं। कभी-कभी श्री कृष्ण जी मन से कुछ बात कहना चाहते हैं किन्तु मुख से शब्द नहीं निकलते। कभी-कभी कुछ ऐसे विचारों को अभिव्यक्त करते हैं मानो इन्हें इसका ज्ञान ही न हो, फिर कुछ सोचने लगते हैं और कुछ संकोच करते हुए चुप रह जाते हैं।

विश्रव्धय नवोढ़ा़
सहज श्रृंगार शुचि घार अंग अंगन में,
चारु नव छब की छटान छिति छोड़ै है।

केलि कृत कलित कलान चरचान सुन,
मुर मुसकाय मोद मान मुख मौड़े हैं।

‘व्यास’ कहैं प्रीतम के संग परयंक पर,
पौंढ़ी प्रेम पूरन प्रतीत जिय जोड़ै है।

नींद त्याग सुभग सुजान कौन कारन तें,
निज पट तात तान गाढ़े कर ओढ़ै है।।

नायिका साधारण श्रृँगार अपने पावन अंगों में धारण करके मनोहर नवल सौन्दर्य की प्रभा धरा पर बिखेर रही है। क्रीड़ा के कृत्य प्राप्त होने वाली तुष्टि चर्चा सुनने पर वह मुड़कर मुस्करा लेती है और मन में आनंद का अनुभव करते हुए मुख दूसरी ओर मोड़े रहती है। व्यास कवि कहते हैं कि नेह में परिपूर्ण और विश्वास हृदय में रखे हुए प्रियतम के साथ पलंग पर लेटी हुई है किन्तु किस कारण से अपनी नींद को त्याग कर वह भाग्यवान चतुर नायिका अपना वस्त्र अच्छे से खींचकर ओढ़े हुए है।

प्रेम गर्विता
मेरी शुचि मान सीख धारत हिये में लखि,
कबहुं न दीख परदार परदावैंरी।

मेरौ गुन गायके अघाय सुखपाय नाहिं,
कहत सुनाय नाहि नेह हू लजाबैंरी।

‘व्यास’ कहैं आली प्रीत पाली वनमाली रीत,
निपट निराली यों निकाली न छिपावैरी।

आली तू बताय कौन कारन अमान मान,
मेरे बिन कान काहे पान हू न खाबैंरी।।

नायिका कहती है कि मेरा मन परामर्श मानकर वे उसे हृदय से धारण करते हैं उन्हें कभी भी परस्त्री के पास जाते नहीं देखा। मेरी प्रशंसा वे सभी को सुनाने में कभी लजाते नहीं है और न कभी छकते हैं। व्यास कवि कहते हैं कि हे सखि! वनमाली श्रीकृष्ण ने नेह की परम्परा को बड़े अनोखे ढंग से पालन करते हुए उजागर किया, कभी गुप्त नहीं रखा। हे सखि! तू बता किस कारण से वनमाली अभिमान रहित होकर मेरे बिना पान भी नहीं खाते।

रूप गर्विता
उमँग उछाय छाय पूजन प्रतीत रीत,
मंदिर पुनीत आई शुभ अवसर में।

दूर तें विलोक बहु विकसित भांत भांत,
धाई गौर हरवर हेत हरवर में।

‘व्यास’ कहैं सुमति सुजान हौ सखीरी सुनौ –
हारी हीय अमित उपाय कर कर में।

मिलत न ढूढ़े कौन कारन सु ऐकौ आज,
प्रफुलित सुमन सरोज सरवर में।

उतर अटातें अति तृषित मंगायौ शुभ,
सलिल समोद अनुराग रस वोरे कौ।

तुरत सुजान गुणवान सखि दीनो आन –
लाय कर मधुर महान घट कोरे को।

‘व्यास’ कहैं ज्योंही चाह अधर लगायो ताहि –
पान हेतु सहज सुभाव भल भोरे कौ।

कारन सुकौन अनुमान ढुरकायौ बाल,
निर्मल पुनीत जल कंचन कटोरे कौ।

प्रात उठ अमित अनंद की उमंग संग,
अतन तरंग अंग अंग दरसावै है।

सुभग सखीन संग लैकें परवीन आन,
पनघट की न कल कौतुक सुहावै है।

‘व्यास’ कहैं विशद विचार चारु नीके उर,
विविध विनोद सों प्रमोद सरसावै है।

सुमति सुजान कौन कारन सुजान घट –
भर भर वारि वार वार ढुरकावै है।

अधिक उत्साह भरी नायिका परम्परागत आस्था सहित किसी शुभ समय पर मंदिर में पूजन के लिये आई। उस सुन्दरी ने दूर से खिले हुए विविध प्रकार के पुष्प देखे तो जल्दी में वह शीघ्रता से उस ओर भागी। व्यास कवि बताते हैं कि वह कहती है कि- हे अत्यन्त बुद्धिमान और चतुर सखी ! सुनो, मैं अनेक प्रयत्न कर कर के थक चुकी किन्तु क्या कारण है कि आज एक भी खिला हुआ कमल का पुष्प सरोवर खोजने पर भी नहीं मिल रहा।

अत्यन्त प्यास से व्याकुल नायिका ने छत से नीचे उतर कर आनन्द प्रेम रसयुक्त वाणी से आनंद सहित उत्तम जल मंगाया। तुरंत चतुर गुणवान नायक ने उत्तम कोरे घड़े का मीठा जल लाकर दिया। व्यास कवि कहते हैं कि अनुमान कर बताओ कि क्या कारण है कि उसने जैसे ही स्वाभाविक रूप में भोलेपन से पीने की इच्छा से होठों से लगाया कि तुरंत सोने के कटोरे के पावन निर्मल जल को लुढ़का दिया।

नायिका प्रातःकाल असीमित आनंद की पूर्णता के साथ उठती है, उसके प्रत्येक अंग से कामदेव की हिलोरें उठतीं दिखाई देती है। मनोहर और चतुर सखियों को साथ लेकर पनघट पर सभी क्रियायें करने का परिहास उसे अच्छा लग रहा है। व्यास कवि कहते हैं कि उसके हृदय में स्वच्छ, सुन्दर और उत्तम विचार है । वह अनेक क्रीड़ायें करके आनंद बिखेर रही है किन्तु क्या कारण है कि वह बुद्धिमान और चतुर नायिका जानबूझकर बार-बार घर में पानी भरती और लुढ़काती है।

आगत पतिका
आली दिन रैन है न चैन चित प्यारे दिन,
डूबी रहौं शोक सिन्धु विरह अथाहने।

मन बहलायवे कौं आज हौं कलिन्दी तीर,
गई जो कछूक दूर सुमति सराहने।

‘व्यास’ कहैं भली भांत हृदय विचार चारु,
भेद तौ बतावो कौन कारन अचाहने।

सुमति प्रसंग भरे आनँद उमंग भरे,
पंथ काट गयेरी कुरंग कर दाहिने।

प्रीतम कौ आगमन समुझ सुभागमन,
अति अनुरागमन मांग कौ मंगावैरी।

सौतिन के साल हीय मोतिन के माल जाल –
जोतिन जगावै काम जोतन जगावैरी।

सुरँग दुकूल ‘व्यास’ बैंदी छवि मूल झूल,
शीशफूल राशिफूल प्रेम सौं पगाबैरी।

सखिन दुरावै भेद नाहिनै बतावैं आजु,
क्यों न दृग कंजन में अंजन लगावैरी।

विरह दुखाती नैन नीर झरलाती रहै,
अति अकुलाती देख अवध बिताती है।

सोचन सकाती कबौं नींद हू न आती नेक,
रोज बहु भांति भले शकुन मानती है।

‘व्यास’ कहैं पाई प्रेम पाती प्राण प्रीतम की,
सुभग सुहाती बाम भुज फरकाती है।

मोद मद माती है विनोद बरसाती है,
सु -बाल अधराती माहिं गाती क्यों प्रभाती है।

हे सखि ! प्रियतम के बिना मन में रात-दिन शान्ति नहीं रहती। मैं विरह के अथाह समुद्र में डूबी रहती हूँ। दुःख की बात को भुलाकर मन को दूसरी ओर ले जाने के प्रयास में मैं आज यमुना नदी के किनारे कुछ दूर तक गई जिसकी सुबुद्धि ने प्रशंसा की।

व्यास कवि कहते हैं कि अच्छी तरह से हृदय में विचार कर इस भेद को उजागर करें कि किस कारण से वह निस्पृह हो गई। तभी, हे सखी ! काला हिरण दाहिनी ओर को छोड़ते हुए रास्ता काट गया जिससे उस बुद्धिमान नायिका के मन में नवीन प्रसंग का भाव आते ही आनंद की हिलौरें उठने लगी। प्रियतम के आने की बात मन में जानकर नायिका अपने मन में अत्यधिक प्रेम को बढ़ा रही है। सौत हृदय को कष्ट देने वाली मोतियों की माला पहिने हुए है और कामदेव को जागृत करने की अनेक क्रियायें करती है।

लाल रंग का दुकूल, माथे पर झूलना सहित बेंदी और ऊपर शीश फूल एवं राशि फूल आदि सम्भाल कर सजाती है। किन्तु सखियों से एक बात छिपाये हुए है, इस भेद को आज नहीं खोल रही कि नयन कमलों में अंजन क्यों नहीं लगा रही है ? विरह की वेदना से दुखी नायिका की आँखों से लगातार जल बह रहा है। अत्यन्त व्याकुलता के साथ अवधि व्यतीत करती है। चिंता में कभी अधिक दुखी रहती है, कभी-कभी नींद भी नहीं आती है। प्रति दिन अनेक प्रकार से शुभाशुभ लक्षणों पर विचार करती है।

व्यास कवि कहते हैं कि प्रियतम का प्रेम पत्र पाकर सुखद अनुभव कर रही है और उसकी बायीं बांह स्पंदित हो रही है (शुभ सकुन-बायां भाग फरकना)। आनंद में उन्मादित होना उसे अच्छा लगता है और वह परिहार भी खूब कर रही है किन्तु वह बाल यौवना आधी रात में प्रभाती क्यों गाती है?

माननी
साज कर सकल श्रृगार चारु अंग अंग,
वसन सुरंग रंग धार के नवीनो है।

बैठी है प्रवीन शीश महल सखीन मध्य,
चित हित चीन प्रेम पूरन सुकीनो है।

‘व्यास’ सुख मान आयो वाही समै कान तहँ,
सुखमा निधान गुणवान रस भीनो है।

कारण सुकौन बाल परम प्रमोद पाय,
सामुने सु पीठ कर फेर मुख लीनो है।

सभी प्रकार श्रृंगार अपने सभी सुन्दर अंगों में सजाकर अच्छे रंग के नये वस्त्रों को उसने धारण किया है। वह चतुर नायिका शीश महल में सखियों के बीच बैठी है और उसका मन हित चिन्तन करते हुए प्रेम की पूर्णता को प्राप्त है। व्यास कवि कहते हैं कि उसी समय आनंदित मन से सुख-सौन्दर्य, गुणवान और नेह रसासिक्त कन्हैया (श्रीकृष्ण) वहाँ आ गया फिर क्या कारण है कि उस बाल यौवना ने परम आनंद पाकर भी उसके (नायक के) सामने पीठ कर ली और मुख भी दूसरी ओर कर लिया।

धीरा-धीरा
सेज पर सुभग सुजान प्राण प्यारे संग,
पौंड़ी रस रंग भरी अंग छबि छाती है।

सुनत विदेश कौं पयानो परभात ही तें,
जुगति जनाती सोच सोच सकुचाती है।

‘व्यास’ कहैं लाती नैन नीर सरसाती कछू –
दुख दरसाती मुख मोर मुसकाती है।

मोद मद माती है विनोद बरसाती फेर –
बाल अधराती मांहि गाती क्यों प्रभाती है।

नायिका अपने सुखद और प्रवीण प्रियतम के साथ नेह रस से पूर्ण और अंगों की कान्तिमय आभा के साथ शैय्या (पलंग) पर लेटी हुई है। प्रातः प्रियतम को विदेश जाने की बात को सुनते ही युक्तियाँ सोचती और कुछ कहने में संकोच भी करती है। व्यास कवि कहते हैं कि कभी वह आँखों में पानी बहाती है। कुछ दुख भी प्रकट करती है और कभी मुख मोड़ कर मुस्करा लेती है। आनंद में उन्मादित होना उसे अच्छा लगता है और वह परिहास भी खूब कर रही है किन्तु वह बाल यौवना आधी रात में प्रभाती क्यों गाती है ?

रति-प्रीता
नवल वधू कौ नित नवल सुजान संग,
नवल सनेह पुंज सरसत जावै है।

गोद भर परम प्रमोद सों विनोद कर,
कोक की कलान में प्रवीन सुख पावै है।

‘व्यास’ कहैं मदन सुसास साज नीकी भांत,
कारन सु आज कछु समुझ न आवै है।

आधीरात ही तें कौन बात कौं विचारैं सारे –
गीत उपचारैं क्यों मलार गीत गावै है।

कलित कलान केलि कीन्ही केलि मंदिर में,
काम की अलेल झेल सुख सरसानी त्यों।

सहज स्वभाव वर विविध विभाव भाव,
हाव भाव ठानै सारी रैन रुचि मानी ज्यों,

‘व्यास’ कहैं कौन हेत भूल भूल भ्रम भ्रम –
वाही भाँत फेर धार निपट नदानी यों।

शारद की शेष की सुरेश की विहाय बाल –
प्रात काल नारद की कहत कहानीं क्यों।

नई वधू का नये नायक के साथ ढेर सा नूतन प्रेम पनपता जा रहा है। रतिविद्या में निपुण नायक नायिका को गोद में लेकर अत्यन्त आनंद की उमंग में क्रीड़ायें करते हुए सुख प्राप्त करता है। व्यास कवि कहते हैं कि अच्छी तरह से कामदेव की सज्जा सजाती है किन्तु यह बात समझ में नहीं आती कि आधी रात के समय किस बात का विचार करके सभी गीतों को छोड़कर मलार गीत गाती है।

नायिका ने सुन्दर कलाओं से क्रीड़ा मंदिर में विविध काम-क्रीड़ाओं का आनंद लिया और काम के आवेग को सरस और सुखमय बनाते हुए स्वभाव की सहजता के साथ भाव-विभावों की विविधता और प्रेमातुर अवस्था में आकर्षक चेष्टाओं से पूरी रात्रि को अनुरागमयी और रुचिपूर्ण कर लिया। व्यास कवि कहते हैं कि वह पुनरावृत्ति करती है पूरी तरह नादान की तरह भ्रमात्मक स्थिति में एक ही भूल की पुनरावृत्ति न जाने किस लिये करती है। शारदा, शेष और सुरेश को छोड़कर वह बालयौवना नारद की कहानी क्यों कहती है?

क्रिया विदग्धा
दोहा – कौतुक करत विचित्र यह बार बार किहि हेत।
भरे देत ढुरकाय घट, रीते शिर धर लेत।।

छंद – परम प्रसन्न मन आई प्रात काल जल –
भरत कलिन्दी तीर सहज प्रतीतेरी।

खेलत सुजान श्याम सहित सखान तहाँ,
आयगे कहूं ते सुख मान अनचीतेरी।

‘व्यास’ कहैं रीते कहा करत कुरीतें जान,
सुभग सुरीते जान मान मन मीते री।

कारन सुकौन भरे देत ढुर काय बाल,
बार बार सिर धर लेत घट रीते री।

देख द्युति दिव्य जाती लागै अति थोर थोर,
काम कामनी की कमनीय कांति कोर कोर।

ठाड़ी प्रातकाल बाल परिजन पास आय,
आति सकुचात हीय माहिं तृन तोर तोर।

‘व्यास’ वर बैंन सुन चारु चतुराई कर,
वेग निज श्रवण विभूषण सों छोर छोर।

शुक मुख देत कौन कारण तें चोर चोर,
नीके पद्मराग मणि मंजु मुख मोर मोर।

नायिका अपने किस हित पूर्ति के लिये यह अनोखा कौतुक करती है कि जल से भरे हुए घटों को बार-बार खाली करके इन खाली घटों को अपने सिर पर रखती है। अत्यन्त आनंदित मन से नायिका प्रातःकाल के समय सहज ही यमुना नदी के किनारे पानी भरने के लिये जाती है। उसे विश्वास है कि चतुर श्याम सुन्दर (श्रीकृष्ण) अपने बाल सखाओं सहित अनचाहे ही मुदित मन से इस ओर आयेंगे।

व्यास कवि कहते हैं कि खाली करने की अनरीत जानते हुए क्यों करती हो? अपने मन भावन के लिये सुखद सुरीति ही अपनाइये। (प्रश्न पुनः) वह कारण कौन सा है जिससे बाल यौवना बार-बार भरे घट खाली करके सिर पर बिना पानी के घट सिर पर रख लेती है। नायिका की अलौकिक शोभा देखकर रति (कामदेव की पत्नी) के अंग-अंग मनोहर लावण्य भी अत्यन्त कम लगता है। बाल नायिका (नव यौवना) प्रातःकाल परिजनों के पास आकर खड़ी है वह हृदय में अत्यन्त संकोच कर रही है और खड़ी-खड़ी तिनका तोड़ती है।

व्यास कवि कहते हैं कि श्रेष्ठ वचनों को सुनने के लिये वह अपने कानों को सुन्दर चातुर्य के साथ आभूषणों से अलग कर लेती है। क्या कारण है कि उत्तम लाल माणिक्य रत्न के समान रक्तिम आभा युक्त मंजुल मुख को मोड़-मोड़ कर वह नायिका छिपते-छिपाते सी धोती के अंचल को मुख में देती है।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

पंडित घासीराम व्यास का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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