Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीOrchha – Angrejo Se Sandhi ओरछा - अंग्रेजों से संधि

Orchha – Angrejo Se Sandhi ओरछा – अंग्रेजों से संधि

भारतीचंद के पश्चात्‌ वि० सं० 1833  में इनके भाई विक्रमाजीत राजा हुए। इस समय ओड़छा (ओरछा ) का राज्य नाम मात्र को था। यदि अंग्रेज लोंग न आ गए होते तो इनका राज्य मराठों ने ले लिया होता । राज्य की ऐसी हीन व्यवस्था हो गई थी कि राजा के पास सिर्फ  50  जवान, 1  हाथी और 2 घोड़े रह गए थे।

विक्रमाजीत ने तब भी हिम्मत नही हारी और अपने योग्य मंत्री जंगबहादुर की सलाह के अनुसार किसी प्रकार संघर्ष करते रहे और फिर  अपने राज्य का बहुत सा इलाका मराठों से ले लिया। विक्रमाजीत ने वि० सं० 1840  में अपनी राजधानी टीकमगढ़ बनाई और संवत्‌ 1864  ( 23-12 -1812  ) विक्रमीय मे Orchha की  Angrejo Se Sandhi हो गई ।

इस समय राजा ने बड़े गर्व  से कहा  था कि हमारे पूर्वज  सदा स्वतंत्र बने रहे, कभी किसी की मातहती ( अधीनता ) स्वीकार नहीं की। इन्होंने वि० सं० 1874  मे अपने कुँवर घर्मपाल को गद्दी दे दी पर यह वि० सं० 1889  मे निसंतान मरा। इससे फिर राजा विक्रमाजीत को राज्य की बागडोर  अपने हाथ मे लेनी पड़ी । पर होता वही है जे ईश्वर को मंजूर होता  है। वे  वृद्ध तो थे ही इधर पुत्र शोक से और भी जर्जर  हो गए । इससे शीघ्र ही मर गए। इससे इनके भाई तेजसिंह राजा हुए। यह 7  वर्ष राज्य कर वि० सं० 1868  मे मृत्यु हो गई ।

तेजसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ इनका पुत्र सुजानसिंह राजा हुआ किंतु धर्मपाल  की रानी ने आपत्ति की और  गोद लेने का दावा किया। इससे रियासत के दो  भाग हो गए जिन्हें नया और पुराना राज्य कहने लगे । लड़ई रानी का हिस्सा पुराना राज्य कहलाता था। इस झगड़े के कारण  राजा सुजानसिंह  झांसी चले गए और वहाँ दो  वर्ष तक रहे। बाद मे ओरछा आए पर इनके साथी पृथ्वीपुर में लड़ाई में मारे गए, जिससे ये फिर झांसी चले गए।

सरकार ने राजा  तेजसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ ये ही गद्दी पर बने रहे और लड़ाई रानी का दावा खारिज कर दिया गया किंतु ये छोटे थे इससे लँड़ई रानी ही प्रबंधक नियुक्त  की गई। इनके कोई संतान नहीं हुई । इससे इनकी मृत्यु के पश्चात्‌ देवीसिंह ने दावा किया परंतु सरकार ने उसका दावा खारिज करके लड़ई रानी को हमीरसिंह को वि० सं० 1811 में गोद लेने की आज्ञा दे दी। इनके पिता मदनसिंह दिगोड़ा में रहते थे । स्वर्गवासी सुजानसिंह और हमीरसिंह इन दोनों का राज्य-प्रबंध अच्छा नही था किंतु रानी की बुद्धिमानी से राज्य को किसी प्रकार की क्षति नही  पहुँची।

वि० सं० 1814  के राज-विद्रोह के समय रानी ने अंग्रेजों का पक्ष का समर्थन किया। अब अंग्रेज लोग ग्वालियर से भागकर वानपुर से टीकमगढ़ वापिस आए तब राजा ने अपने गुरु प्रेमनारायण की सम्मति से इनका अच्छा सत्कार किया और झांसी तोड़ने  के समय नत्थेखाँ वजीर ने स्वतः जाकर अंग्रेजों की  सहायता की। वि० सं० 1919  में हमीरसिंह को भी गोद लेने की सनद मिली । महारानी लंडई रानी स॑० 1924  में मरी ।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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