दोपहर की नींद ले चुकने के बाद भी नन्दा अलसाई लेटी रही, उसने पलंग की दाहिनी ओर करवट ली, तो देखा सुभाष उससे पहले ही उठ चुके हैं। ‘अब उठना ही पड़ेगा’, वह मन ही मन बड़बड़ाई, फिर बिस्तर से उठ गयी और कूलर बंद करने के बाद सीधे बाथरूम में चली गयी।
जब से सुभाष जनपद न्यायाधीश के पद से सेवा-निवृत्त हुए हैं, दोनों पति-पत्नी गर्मी से तपती दोपहर सोकर गुजारते हैं। सुबह-शाम खाने-पीने, पढ़ने-पढ़ाने और मिलने-मिलाने में आराम से कट जाता और जब कभी निखिल व आभा अपने परिवार के साथ उनके पास आ जाते हैं, तब तो समय का कुछ पता ही नहीं चलता।
निखिल व आभा के बच्चों से पूरे बंगले में रौनक छा जाती है। दो ही बच्चे थे उनके, बेटा निखिल, जो आई.ए.एस. है और इस समय केन्द्र सरकार की सेवा में दिल्ली में है तथा बेटी आभा, जिसका पति सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता के पद पर कार्यरत है। ‘‘अरे नन्दा, क्या बाथरूम में ही रहने का विचार है? बाहर भी निकलो। देखो, किसका टेलीग्राम आया है?’’ सुभाष की आवाज ने टेलीग्राम की सूचना देकर नन्दा के कानों में मिसरी घोल दी।
‘टेलीग्राम जरूर निखिल या आभा का होगा, नन्दा तौलिए से मुंह पोंछती हुई बाथरूम से बाहर आ गयी। सुभाष पहले से तैयार करके रखी चाय की प्याली उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘‘लो चाय पियो, तुम्हारे लिए स्पेशल चाय बनाई है।’ ‘नहीं, पहले बताइए टेलीग्राम किसका है?’’ नन्दा ने उत्सुकता से पूछा। सुभाष ने अपने कुर्ते की जेब से टेलीग्राम निकालते हुए कहा, ‘‘आभा परिवार सहित परसों आ रही है।’’ ‘‘सच!’’ प्रसन्नता से भरकर नन्दा ने सुभाष के हाथ से टेलीग्राम झपट लिया, जैसे कोई बच्ची मनपसन्द गुड़िया को पाते ही झपट लेती है।
सुभाष पिछले चालीस वर्षों से नन्दा की इस आदत से भली-भांति परिचित थे। उन्होंने मुस्कराते हुए चाय की प्याली अपने होंठों से लगा ली। नन्दा ने प्यार से सुभाष की ओर देखते हुए अपनी प्याली हाथ में ले ली। ‘सुभाष उसे कितना चाहते है’ वह मन ही मन बुदबदुई। ‘‘अब तो भई, तुम्हारी लाड़ली बिटिया आ रही है। खुशियां मनाओ।’’ सुभाष ने प्याली टेबल पर रखते हुए कहा। नन्दा भी प्रसन्नता से फूली हुई थी। बोली, ‘श्योर माई लार्ड।’
ये तीन शब्द नन्दा बहुत ही प्रसन्न होने पर कहती थी, सुभाष यह अच्छी तरह जानते थे। वे भी बिटिया के आने की खुशी में डूबे हुए थे। नन्दा ने कहा, ‘‘सुनिए, घर में चिप्स खत्म हो चुके हैं। आभा को आलू के चिप्स कितने पसन्द हैं, यह तो आप जानते ही हैं। आलू के चिप्स बनाने होंगे।’’
‘‘अवश्य, मैं अभी रामदीन को सब्जी मंडी भेजता हूं।’’ ‘‘लेकिन रामदीन तो छुट्टी पर है।’’ नन्दा सुभाष की बगल में बैठते हुए बोली। ‘‘तो क्या हुआ? हम खुद अपने हुजूर के लिए आलू ले आते हैं।’’ सुभाष नन्दा का हाथ दबाते हुए प्यार से बोले। ‘‘छोड़िए भी।’’ नन्दा ने सुभाष के हाथों से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा। दो दिन की प्रतीक्षा नन्दा को बहुत भारी पड़ रही थी। आज सुभाष रामदीन को अपने साथ लेकर पुरानी फिएट कार स्वयं ड्राइव करते हुए आभा व उसके परिवार को लेने रेलवे स्टेशन गये थे।
सुभाष ने आवश्यकता न होने पर ड्राइवर हटा दिया था और मौके-बेमौके कार स्वयं ड्राइव कर लेते थे। रामदीन के अलावा कोई नौकर भी नहीं था। कारण कि सुभाष केवल नन्दा के हाथ का ही बना खाना खाते थे। इस प्रकार रामदीन उनके छोटे-मोटे कार्यों के लिए पर्याप्त था। सुभाष जब शासकीय-सेवा में थे, तब भी नन्दा नौकरों से बहुत कम काम लेती थी। ज्यादातर वह अपने व सुभाष के काम स्वयं किया करती थी।
दीवार घड़ी ने दिन के दस बजाए। ‘हिमसागर एक्सप्रेस आ चुकी होगी’, नन्दा बड़बड़ाई और फिर एक बार वह सोफे से उठकर पूरे बंगले के निरीक्षण को निकल गयी कि कहीं कुछ ऐसा तो नहीं है, जिससे आभा व उसके परिवार को दिक्कत महसूस हो। सब कुछ व्यवस्थित देखकर वह बाहर बरामदे में पड़ी आरामकुर्सी पर बैठ गयी। ‘अब किसी भी समय उनकी पुरानी फिएट आ सकती है।’ नन्दा अपने आपसे बोली।
आभा के दो प्यारे फूल से बच्चे सोनू, मोनू नन्दा की स्मृति में छा गये, ‘नटखट कहीं के’। तभी कार के हॉर्न से वह चौंक गयी। नन्दा स्वयं गेट खोलने जाती किन्तु सुभाष पहले ही गेट खोलकर मुस्कराते हुए दिखाई दिए। कार उनका दामाद हरीश ड्राइव कर रहा था। हरीश ने कार पोर्टिको में खड़ी कर दी। आभा कार से उतरकर नन्दा से चिपट गयी, ‘‘मम्मी।’’
मां-बेटी प्रसन्नता की फुहार आंखों में लिए आलिंगनबद्ध हो गयीं। तीन दिन हँसी-खुशी के साथ कब निकल गये, किसी को कुछ पता नहीं चल पाया। चौथे दिन हरीश ने अपने धर्म पिता व मां से अपने साथ चलने का आग्रह किया। हरीश व आभा के अलावा सोनू-मोनू के आग्रह को वे टाल न सके और अगले दिन ही उनके साथ चल दिए।
ट्रेन के वातानुकूलित कम्पार्टमेंट में सोने से पहले हरीश ने उन्हें बताया कि उसकी पोस्टिंग माता-टीला बांध में हो गई है। फिलहाल वह झांसी में शिफ्ट हो गया है। नन्दा ने भी सुना, ‘झांसी और माता-टीला’…ये दोनों शब्द उसके कानों में गूंजने लगे। ट्रेन के तेज गति के हिचकोलो में नन्दा के अलावा सभी सो रहे थे लेकिन उसका अतीत आज उसे सोने नहीं दे रहा था। लाख कोशिश के बावजूद वह सो नहीं सकी और अतीत में खो गयी।
आज से लगभग बयालीस वर्ष पहले की बात है, तब वह कोई सोलह-सत्राह वर्ष की शोख-सुन्दर बाला थी। उस समय उसके पिता सहायक अभियंता के पद पर पदोन्नति पाकर फर्रुखाबाद से स्थानान्तरित होकर झांसी आए थे। वह अपने माता-पिता की इकलौती पुत्रा थी। पिता के द्वारा प्रदान की गयी स्वतंत्राता एवं मां के लाड़-प्यार ने उसे चंचल बना दिया था। मैट्रिक की परीक्षा उसने प्रथम श्रेणी में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण की थी। इसी खुशी में उसके पिता ने अपने पूरे स्टाफ को घर में दावत पर आमंत्रित किया था। इसी दावत में नन्दा की प्रथम भेंट रज्जन से हुई थी।
रज्जन अवर अभियंता के रूप में हाल में नियुक्त हुआ था। इक्कीस वर्षीय सुन्दर-सजीला रज्जन उसे पहली ही मुलाकात में पसन्द आ गया था। फिर प्रारम्भ की मुलाकातें कब प्यार में बदल गयीं, उसे कुछ पता नहीं चल पाया। हां, उसे इतना जरूर आभास हो गया था कि अब वह रज्जन के बिना संसार में एकाकी रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। रज्जन के प्रेम में डूबी वह उस तरह पागल हो चुकी थी कि उसे समाज में अपने माता-पिता की इज्जत का भी कोई ध्यान नहीं रहा। बात जब उसके पिता के कानों तक पहुंची, तब उन्होंने अपनी बेटी की स्वतंत्राता प्रतिबंधित कर दी।
इस पर नन्दा ने अपने माता-पिता से भी स्पष्ट कह दिया कि वह यदि विवाह करेगी तो सिर्फ रज्जन से, अन्यथा…। परन्तु यह विवाह नहीं हो सका, कारण वह उच्चकुल की लड़की थी और रज्जन नीची जाति का था। फिर एक दिन वह अपने घर से भाग कर सीधे रज्जन के क्वार्टर में पहुंच गयी थी। रज्जन उसे अचानक अपने घर आया देख बेहद खुश हुआ था, परन्तु कुछ पल बाद ही वह उदास हो गया और भर्राई आवाज में बोला था, ‘‘नन्दा हम दोनों इस जीवन में जीते जी कभी एक नहीं हो सकते हैं।’’
‘‘यह तुम सोचते हो लेकिन हम मर कर तो मिल सकते हैं।’’ नन्दा आवेश में बोली, ‘‘मरने से तो हमें कोई नहीं रोक सकता।’’ फिर रज्जन ने उसकी मांग में सिन्दूर भरना ही चाहा था कि क्वार्टर के बाहर उसके पिता का कठोर स्वर गूंजा, ‘‘रज्जन! नन्दा…!!’’ दोनों पीछे के दरवाजे से भाग निकले। एक ही दिशा में भागते-भागते वे कितनी दूर निकल आए थे, इसका भान उन्हें तब हुआ, जब सरकार द्वारा प्रस्तावित माता-टीला बांध का बोर्ड उन्हें सामने दिखाई दिया और फिर वे दोनों साथ जीने-मरने की कसमें दोहराते हुए एक-दूसरे का हाथ दुपट्टे से बांधकर बेतवा नदी में कूद गये थे।
…परन्तु वह बचा ली गयी। तीन दिन बाद उसकी बेहोशी टूटी थी, तब उसे ज्ञात हुआ कि रज्जन उसे छोड़कर दूसरी दुनिया में जा चुका है। रज्जन को अपने सामने न पाकर वह पागलों की तरह हरकतें करने लगी थी। उसके पिता को उनके मित्रों ने सलाह दी कि वे अपना स्थानान्तरण कहीं और करवा लें। अतः उसके पिता अपना स्थानान्तरण करवाकर इलाहाबाद आ गये। वहां पर पड़ोस की हमउम्र रेनू ने उसका एकाकीपन दूर किया। रेनू के प्रयास से ही वह पुनः कॉलेज जाने लगी। दो वर्ष इलाहाबाद में बीत गये, परन्तु इस बीच वह दो पल के लिए भी अपने से रज्जन की स्मृति अलग न कर पाई।
रेनू उसे हमेशा समझाती रहती। रेनू के कारण ही उसने पुनः आत्महत्या का कभी प्रयास नहीं किया। हां, उसने यह दृढ़-निश्चय कर लिया था कि वह आजीवन विवाह नहीं करेगी और रज्जन की स्मृति के साथ शेष जीवन बिता देगी। परन्तु उसका यह निश्चय भी पूरा नहीं हो सका। एक दिन रेनू ने अपनी बर्थ-डे पार्टी में पहली बार सुभाष से उसकी भेंट कराई थी। फिर रेनू के प्रयास से ही उसका विवाह सुभाष से हो गया था।
विदाई के समय रेनू ने उससे वचन लिया था कि वह अपने अतीत को भूल जाएगी, वर्तमान में जिएगी और भविष्य को संवारेगी। नन्दा ने रेनू को दिए वचन को निभाने का संकल्प लिया और जल्दी ही वह सुभाष से प्रेमपूर्ण व्यवहार पाकर अपने अतीत से काफी दूर आ गयी। ‘‘जीवन पलायन के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए है।’’ रेनू के द्वारा कहा गया वाक्य उसे सदैव सम्प्रेरित करता रहता। कभी वह सोचती, ‘काश! यदि वह रज्जन के साथ मर गयी होती तो…’ नन्दा ने सुभाष की बर्थ की ओर देखा। सुभाष अपनी श्वेत-घनी मूंछों के पीछे मुस्कान छिपाए सो रहे थे। सुभाष अब उसका जीवन और उसके जीने का लक्ष्य बन चुके थे। यदि वह इस संसार में न होती, तो…
वह कल्पना नहीं कर सकती थी कि उसका प्यारा पुत्रा निखिल नहीं होता, जो आज देश की सेवा कर रहा है, उसकी प्यारी बेटी आभा और उसके मासूम बच्चे सोनू और मोनू उसे प्यार से ‘नानी’ कहने के लिए न होते। एक बार फिर उसके मस्तिष्क में रेनू के कहे शब्द गूंज उठे… ‘‘नन्दा, जीवन पलायन के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए है।’’ नन्दा के चेहरे पर आत्मसन्तुष्टि के साथ प्रसन्नता के भाव उभर आए। उसके चेहरे पर पश्चाताप का कोई चिद्द नहीं था।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
आलेख -महेंद्र भीष्म