नाव घाट में थाह नहीं। बंधानिया में राह नहीं । वैसे तो नर्मदा में जहाँ उतरकर पानी पिओ, जहाँ स्नान कर लो, वहीं घाट है। परन्तु एक घाट मेरे बचपन की स्मृतियों का है। वह है नाव घाट Nav Ghat । यहाँ केवल गाड़ी बैल से या पैदल ही जाया जा सकता है । मेरा गाँव यहाँ से पन्द्रह कि.मी. दूर है। लेकिन मेरी बड़ी जीजी (बहन) का गाँव (ससुराल) यहाँ से 3 कि.मी. है। पिताजी की नर्मदा के प्रति अगाध श्रद्धा है। इस कारण वे बरसात के मौसम को छोड़कर प्रायः प्रत्येक अमावस को नर्मदा स्नान के लिए जाते।
चौदस के दिन दोपहर को गाड़ी सजती। सवारी के बैलों को घुँघरमाल पहनायी जाती । माँ और पिताजी के साथ मैं और मेरे भाई – बहन उस सवारी गाड़ी (छोटी बैलगाड़ी) में बैठकर दो उम्मीद लिये जाते। हमारे लिए पहली इच्छा तो बड़ी जीजी से मिलने, देखने, साथ रहने की होती और दूसरी नर्मदा स्नान के साथ-साथ नर्मदा किनारे रेत में सोने की, खेलने की होती।
हमारी वह बैलगाड़ी जब कच्चे रास्ते में भागती, जीजी का घर पास आता जाता, त्यों-त्यों हमारी उत्कण्ठा और तीव्र होती जाती । खुशी आँखों में प्रतीक्षा बनकर बैठ जाती । खुशी तब बैलगाड़ी के आगे-आगे रास्ते पर जीजी के घर की ओर दौड़ लगाती चलती । हमारी वह बैलगाड़ी धरती पर चलने वाले पुष्पक विमान की तरह लगती ।
जीजी के घर पहुँचकर उसे भी साथ में ले लेते। उसे भी गाड़ी पर बिठाकर नर्मदा के नाव घाट Nav Ghat की ओर बढ़ते जाते । दिन अस्पताल में जाने वाला होता। पिताजी बैलों को तेज करते । कोशिश यह रहती कि दिन रहते घाट पर पहुँच जायें। नर्मदा के एक किलोमीटर दूर से ही जंगल लग जाता है। हम गाड़ी पर से उतर जाते । रात में जलाने के लिए नीचे पड़ी सूखी लकड़ियाँ बीनते हुए जाते। थोड़ी काम पूरती लकड़ियों को लेकर हम पैदल-पैदल ही गाड़ी के पीछे चलते हुए नर्मदा तक जाते ।
नाव घाट Nav Ghat में नर्मदा के किनारे बहुत ऊँचे हैं। खासकर पूर्वी किनारा तो बहुत ही ऊँचा है। हमारा गाँव इस किनारे की तरफ ही है । इधर से ही नर्मदा में नीचे जाना पड़ता है । किनारे से नर्मदा का पानी बहुत गहराई में है । ऊपर किनारे पर से नर्मदा गाड़ी के रास्ते की संधि से जितनी दिखाई दे जाय बस उतनी ही दिखती है। नीचे जाने पर ही नर्मदा का विस्तार दिखता है । यह नर्मदा इतनी गहरी है कि उसकी थाह नहीं है। कई खटियों की रस्सी डालने के बाद भी थाह नहीं है । बंधानिया मेरी जीजी का गाँव है। इस क्षेत्र के बारे में लोक में एक कहावत है-
नाव घाट में थाह नहीं। बंधानिया में राह नहीं ।
नाव घाट Nav Ghat की विशेषता यह है कि किनारे से नीचे उतरेंगे तो आधे किनारे के बाद समतल भाग आता है । जिसका विस्तार किनारे से नर्मदा जल तक लगभग दो सौ – तीन सौ मीटर होगा । इस भाग के बाद फिर उतार है जो नर्मदा जल तक चला जाता है । यह उतार पता नहीं कितनी गहराई तक तल में गया है। इस प्रकार ऊपर किनारे से लेकर पानी तक दो स्तर हैं । जहाँ तक रेत का फैलाव है, वहाँ बरसात को छोड़कर अन्य मौसम में पानी नहीं रहता है।
रेत खुली रहती है। रेत का यह फैलाव नर्मदा की गोदी सरीखा है । यह रेतीला विस्तार इतना अधिक है कि लगभग एक हजार बैलगाड़ियाँ यहाँ छूट सकती हैं। इस रेत से भरे समतल के बाद लगभग सौ फुट नीचे पानी है। प्रकृति ने ही ये रेत की और पत्थर की सीढ़ियाँ बना रखी हैं। यहाँ पक्का घाट नहीं है। लेकिन इस रेत से भरे पानी से नहाते घाट की अपनी सुन्दरता है । यहाँ नर्मदा का स्वरूप साक्षात् माँ का है । यहाँ पानी बिलकुल थमा हुआ है और बहुत गहरा है । माँ की गंभीरता मानों जल की थिरता और गंभीरता में प्रतिमूर्त हो रही है। थोड़े ऊपर फैली मुलायम रजतवर्णी बालू का विस्तार माँ की गोदी का सुख देता है ।
नाव घाट Nav Ghat की दूसरी विशेषता यह है कि यहाँ नर्मदा उत्तर-दक्षिण बहती है। बहाव की यह दिशा थोड़ी दूर तक ही है । नर्मदा के पूर्वी तट पर ढाढरिया गाँव है। इस पार पश्चिम तट पर नावघाटा गाँव है । दूर दक्षिण में सरई गाँव दिखाई देता है । इन सभी गाँवों में अधिकांश लोग ढीमर जाति के हैं । शेष अन्य वर्गों के। पश्चिमी तट पर घनघोर जंगल है। ऊँचे पहाड़ हैं। यह विन्ध्याचल है । सरई से नीचे छोटी तवा नदी आकर नर्मदा से मिलती है । इसे मेल (संगम) घाट कहते हैं। छोटी तवा और नर्मदा के संगम पर टापू है ।
नर्मदा दोनों ओर से बहती है । बीच में द्वीप लगभग तीन – चार कि.मी. के विस्तार में फैला है। वानस्पतिक सुन्दरता से सजा-धजा है। नाव घाट में स्नान के लिए आसपास के क्षेत्र के लोग आते हैं । कभी-कभी जमाल उतारने के, देव घूमने के, मान देने के दृश्य भी दिखाई देते है। लोग अरज करते हैं कि माँ तेरा साथ बना रहे। तेरी गोदी में पड़े रहें । खेलते रहें। दो रोटी का अन्न – चून मिलता रहे। मानव की बेलहरी बनी रहे ।
वैसे तो प्रायः नर्मदा के सभी घाटों पर नावें चलती हैं। पर इस घाट का अन्य कोई नाम न होकर नाव घाट ही है । यह नाम इस क्षेत्र के लोगों द्वारा ही रखा हुआ है और कई पीढ़ियों से यही नाम है । नाव घाट में हम रात विश्राम करते। गाड़ी के पास सूखी लकड़ियाँ जला लेते । सूखे कंडे बीनकर लाते । उनका जगरा लगता । उसी पर दाल सिजती और उसी पर बाटी सेंकी जाती । भोजन के बाद गर्मी की रात में उस रेत पर सोने के सुख के सामने खाट, पलंग, गद्दों पर सोने का सुख फीका लगने लगता ।
मखमल से ज्यादा नरम और माँ के आँचल सी ठंडी रेत पर गड़बड़ गोटी खाना, कथा-वार्ता कहना, नर्मदा की दूर से आती कल-कल ध्वनि को सुनना, जल में किसी प्राणी द्वारा की जाने वाली छपाक की आवाज को सुनना, उस पार के लिए देखना देर रात तक चलता रहता। इतने में उस पार से किसी कुलवधू ने दीपक छोड़ा, हम सब खड़े हो जाते। दीपक को नर्मदा में दूर तक बहते देखते रहना भला लगता ।
माँ और पिताजी सुबह दिन की किरण फूटने से पहले ही नहा लेते। हमको नर्मदा की थपकियों के कारण भुनसारे ज्यादा ही नींद आती। फिर भी फटाफट उठ जाते। सूरज निकलते-निकलते आसपास के सैकड़ों लोगों का मेला लग जाता। कोई बैलगाड़ी को नाव में रखकर उस पार ले जाता । बैल नाव के किनारे-किनारे तैरते निकलते । पर रास नाव में बैठे हुए बैलों के मालिक के ही हाथ में होती । जानवरों को तैरने की प्रकृति ने जन्मजात कला दी है। मैंने देखा है भरी पूर में छोटे-छोटे, केड़ा – केड़ी अपनी माँ के साथ तैरते हुए आसानी से पार हो जाते हैं। पानी को काटने का हुनर प्रकृति ने उन्हें दिया है।
सुबह नहा-धोकर हम तैयार हो जाते । माँ और जीजी दाल-बाटी- चूरमा बनाती । शुद्ध घी की सुगन्ध से रग-रग महक उठती । पिताजी पहले नर्मदा जल के पास जलते अंगारे पर घी – चूरमे का हवन करते। माँ-पिताजी दोनों मैया के हाथ जोड़ते। आचमन करते । ऐसा ही हमें भी करने को कहते। फिर सब मिलकर भोजन करते । खास बात यह कि रेत पर ही भोजन बनता । कितनी ही सावधानी बरतें, रेत कहीं न कहीं तो बाटी में चूरमें में मिल ही जाती। पिताजी कहते यह नर्मदा मैया का प्रसाद है।
वास्तव में नाव घाट में रेत शक्कर जैसी ही बारीक है । रेत पर अमावस की सुबह का यह मेला दिन चढ़ते-चढ़ते विरल होने लगता। लोग जाते समय या भोजन के पहले ऊपर किनारे पर बसे साधु की कुटिया में दाल, आटा, नमक, घी, शक्कर आदि का सीधा देते। ऐसा वे हर अमावस को करते । किनारे पर कुटिया में एक साधु महाराज और उनकी चेली वर्षों से रह रहे हैं । अब वह साधु देवलोकवासी हो गये । सन्यासिनी अभी भी है। वहीं रहती है । बड़ी ही मृदुभाषी । सौम्य स्वभाव । विदुषी । यहाँ पर परिक्रमावासी भी रूकते हैं और दूसरे दिन आगे बढ़ जाते हैं।
नाव घाट के दक्षिण में एक फर्लांग पर पूर्वी किनारे पर पक्की (चूने- ईंट से बनी ) बनी हुई मढ़ी है। इसमें एक महात्मा रहते थे । मढ़ी बहुत पुरानी है । सुनसान जगह है। आसपास जंगल है। एक तरफ नर्मदा बह रही है। वे महात्मा मौनी बाबा थे। शायद गूँगे थे । कहाँ से आये थे ? कब से वहाँ रह रहे थे? उनकी कितनी उम्र थी ? ठीक से कोई नहीं बता सकता। उन्हें भी लोग सीधा पहुँचाते थे। उनसे उनकी जीविका चलती थी।
वर्षों पहले एक रात डाकुओं ने उनकी हत्या कर दी। उनका पोस्टमार्टम हरसूद में हरसूद के पास की नदी में उनकी दाह क्रिया की । नर्मदा किनारे जीवन भर रहने वाले को आखिरी में नर्मदा नहीं मिली । भाग्य की बात है। सम्पूर्ण नर्मदा क्षेत्र में रहने वाले लोगों (स्त्री – पुरूष) की यह अंतिम इच्छा होती है कि मरने के बाद उनका दाह संस्कार नर्मदा किनारे हो । कहते हैं भागवान को ही मरने के बाद नर्मदा मिलती है । अर्थात् जो भाग्यवान होता है मरने के बाद उसी के बेटे उसे नर्मदा किनारे दाह संस्कार के लिए ले जाते हैं ।
नर्मदा की ममता से व्यक्ति जीते जी और मरने के बाद भी दूर नहीं होना चाहता । यह जीवन की अमर-स्रोत नदी है। बैलों को नर्मदा में नहलाया जाता । पानी पिलाया जाता । गाड़ी जुत जाती। यात्रा वापस होती । घाट चढ़ते तक नर्मदा की जय बोलते मन ही मन कक्षा पहले नम्बर पास होने की अरदास करते । घाट चढ़ते- चढ़ते नर्मदा की ओर मुड़कर तब तक देखते जब तक कि वह पूरी तरह ओट में नहीं हो जाती। बैल दुड़की लगाते। हम घर लौट आते ।
रह-रह कर उन यादों के सहारे नाव घाट पर कभी-कभी चला जाता हूँ । नर्मदा सागर परियोजना के कारण नाव घाट में कई पुरूस पानी भर जायेगा। (चार हाथ की गहराई बराबर एक पुरूस) रेत का वह विस्तार हमेशा-हमेशा के लिए जल मग्न हो जायेगा । वहाँ अभी अथाह पानी है । बाँध के कारण तो सारे किनारे, किनारे के गाँव, खेत, जंगल, मढ़ी, कुटिया और मेरा गाँव (फेफरिया) सब डूब जायेंगे । नर्मदा का आज जल-समाधिस्थ हो जायेगा। आने वाली संतति को कल्पना भी नहीं होगी कि यहाँ नर्मदा के आँगन में कभी मानव किलोल किया करता था । इस घाट पर बिताये बचपन के उन उजले दिलों की रोशनी अभी भी मन में बिछी है ।
शोध एवं आलेख डॉ. श्रीराम परिहार