बुन्देली के कवि Narayan Das Soni ‘Vivek’ का जन्म 11 सितम्बर सन् 1938 को टीकमगढ़ में हुआ। इनके पिता जी का नाम श्री मट्ठू लाल सोनी तथा माता जी का नाम श्रीमती गनेशीबाई था। इनका विवाह 1958 में सिंधवाहा (महरौनी) निवासी भगवती सोनी के साथ हुआ।
चौकड़ियाँ
तुमने चुरियाँ जब खनकाईं, मन भओ पत्ता नाईं।
तुमने लटें समारी अपनी, बास भरीं मन भाईं।
उमग उठो मन दरस परस खों, तनकऊ चैना नाईं।
कैसी चुम्मक रूप तुमारौ, खिंचत जात ओइ ताईं।
नायक नायिका से कहता है कि जब तुमने चूड़ियों को खनकाया तो मेरा मन पत्ते की तरह विचलित हो गया। जब तुमने अपनी केश सज्जा की, तो उनकी सुगन्ध मेरे मन में समा गई। मेरा मन तुम्हारे दर्शन व स्पर्श को व्याकुल हो उठा है। तुम्हारा रूप चुम्बक की तरह है, मेरा मन उसी ओर लगता खिंचता जा रहा है।
नैना तीर सें गजब तुम्हारे, चलत गैलारे मारे।
तीर करत घायल जब लागत, नैन चलत ही मारे।
तीर के घायल मरत एक दिन, नैन के रोज विचारे।
घालत तीर जान के दुश्मन, नैना प्राण प्यारे।।
तुम्हारे नेत्र रूपी बाण अद्भुत मारक हैं, इन्होंने अनेक राहगीरों को घायल किया है। तीर तो लगने पर घाव करता है किन्तु तुम्हारे नेत्र तो चलते-चलते बिना लगे घायल कर रहे हैं। तीर से घायल व्यक्ति एक दिन ही मरता है जबकि तेरे नेत्रों से घायल प्रतिदिन मरता है। तुम्हारे प्राणों से प्रिय ये नेत्र मेरे जान के दुश्मन हो गये हैं, जो प्रतिदिन घायल करते हैं।
तुम्हरी बिंदिया ईंगुर बारी, लागत बड़ी प्यारी।
माथे बीच दमक रई जैसें, सूरज ऊँगन न्यारी।
सुन्दरता बड़ जात चौगनी, मुइयाँ लागत प्यारी।
बिंदिया बिना लागै मों सूनौ, बिन गुलाब की क्यारी।
तेरी अबीर से लगी ये बिंदी अत्यधिक प्रिय लगती है। माथे के बीच में ऐसे दमक रही है जैसे सूरज उग रहा हो। इस बिंदी से तुम्हारे मुख का सौन्दर्य चार गुना बढ़ जाता है। बिना बिंदी के ये तुम्हारा मुख उसी तरह सूना लगता है जिस तरह बिना गुलाब के क्यारी होती है।
मन में फूलीं नईं समावें, काऊ सें का कावें।
जा दिन सें गौने की सुन लई, मन-मन मिसरी खावें।
रात दिना ऊ दिन की लग रई, जा दिन उन संग जाबें।
वो दिन आओ हिलकियाँ बंध गईं, नैहर छूटे जाबें।।
जिस दिन से नायिका ने द्विरागमन (गौने) की बात सुनी है उसी दिन से वह अत्यधिक प्रसन्न है। मन ही मन प्रफुल्लित है, वह किस से क्या कहे? मन में ही मिसरी का स्वाद ग्रहण कर रही है। रात-दिन उसी घड़ी के बारे में सोचती रहती है जिस घड़ी उसे अपने प्रिय के साथ जाना है। वह शुभ दिन भी आ गया किन्तु उस दिन तो उसे रोना इसलिए आ रहा है क्योंकि उसका मायका छूटा जा रहा है।
ऐसौ मो लओ तुमने सैनन, कोऊ का मोहै बैनन।
सबसें बाँके नैन तुमारे, ऊ सें बाँकी चितवन।।
छब तुमरे नैनन की जैसी, है नइयाँ कऊँ त्रिभुवन।
रुच-रुच कें ब्रह्मा ने गढ़ दये, रूप दओ मन मोहन।।
तुमने इशारों के द्वारा मुझे इतना मोहित कर लिया कि कोई वचनों के द्वारा भी नहीं कर सकता था। तुम्हारे नेत्र सबसे सुन्दर हैं और उनसे सुन्दर तुम्हारी चितवन (नेत्रों से देखना) है। तुम्हारे नेत्रों जैसा सौन्दर्य तीनों लोकों में किसी का नहीं है। इनको विधाता ने बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाया है जिन्हें कृष्ण ने अपना मोहिनी रूप दिया है।
कोऊ कछु कात रयै तुमसें, मों न मोड़ियो हमसें।
करियौ ऐन भरोसे मो पै, दगा न हुइये हमसें।।
कइयक कैबे बारे मिलहैं, झूँटी साँची, तुमसें।
हमतौ भूल गये ई जग खों, प्रीत करी ती जब सें।।
तुमसे कोई कुछ भी कहता रहे किन्तु मुझसे मुँह मत मोड़ना। मुझ पर विश्वास रखना, तुम्हारे साथ मेरे द्वारा धोखा नहीं किया जाएगा। कई लोग सत्य व असत्य बातें कहने वाले मिलेंगे। मैंने जब से तुमसे प्रेम किया है तब से सारे संसार को भूल गया हूँ।
भोंयें हो रईं काम कमानें, जानें की के लानें।
पलकन रेख डोर में बाँदीं, जानें रसिक सयाने।
चितवन बान चड़े तिन ऊपर, पुतरन तके निसानें।
देखत बान होत जे घायल, लगत होश उड़ जानें।।
कवि नायिका के नेत्रां का वर्णन करते हुए कहता है कि तुम्हारी भौंहें धनुष के समान हो रही है जिससे जाने कौन घायल होगा? पलकों की रेख धनुष की डोरी के समान बंधी है, यह प्रेमी ही जानते हैं। तुम्हारा देखना बाण चढ़ाने के समान है और नेत्र पुतलियाँ निशाना साधती हैं। तुम्हारे इस तरह देखने से ये सब घायल होकर बेहोश हो जाएँगे।
रोउत-रोउत नैना हारे, आये न प्रान प्यारे।
रीत गये घट इन नैनन के, सूक गये अंसुआ रे।।
नैनन कोये सांवरे पर गये, जिय की जरन धुंआरे।
झुलस गई जा चंदन देहा, नेहा बिना तुमारे।।
रुदन करते-करते मेरे नेत्र थक गए हैं लेकिन मेरे प्राणों के प्रिय प्रियतम नहीं आये हैं। इन नेत्रों के घट खाली हो गए तथा अश्रु सूख गए हैं। नेत्रों की कोरें हृदय की धुंआयुक्त जलन से श्यामल हो गई हैं। तुम्हारे प्रेम के बिना मेरी यह चन्दन सी देह झुलस कर काली हो गई है।
जो कऊँ तुम सुरमा हो जातीं, अखियाँ ठंडक पातीं।
भनक न परती काऊ जग में, तुम अखियन में रातीं।
जब हम सोते पलक मूँद कें, अखियन में सो जातीं।
अखियाँ नोनी लगतीं तुमसे, तुम बिन सूनी रातीं।।
नायक नायिका से कहता है कि यदि तुम काजल हो जाती तो मेरे नेत्रों में उससे शीतलता रहती। संसार में किसी को ज्ञात भी न होता और तुम नेत्रों में रहतीं। जब हम पलकों को बन्दकर सोते तो तुम भी आँखों में ही सो जाती। तुम्हारे बिना जो मेरी आँखें सूनी रहती है वे तुम्हारे रहने से अच्छी लगती हैं।
फेरत पीठ माव कौ मइना, मनुआं करत कही ना।
लगत बसंत, बैर बैरन भई, मन में नइयाँ चैना।
मन के रंग भरे फूलन में, भौंरा बन गये नैना।
मन उमंग से उपजीं तितलीं, कोयल मन के बैना।।
माघ के महीने ने जैसे ही पीठ फेरी अर्थात् वह जैसे ही बीता, मन वश में नहीं रहता है। बसन्त के आगमन से हवा शत्रु हो गई है, जिससे मन में शांति नहीं है। फूलों में विभिन्न प्रकार के रंग हैं और मेरे नेत्र भ्रमर बनकर उनके पास मंडरा रहे हैं। मन में प्रसन्नता से तितलियाँ प्रकट हो गई हैं तथा वचन कोयल के समान मीठे हो गये हैं।
बिरमा माया जाल बनाओ, प्रानी खों उरझाओ।
ज्ञानी कात छोड़ माया खों, ईसुर निस दिन ध्याओ।
निन्यान्वे माया के फन्दें, एक ने ईसुर पाओ।
होती नईं जरूरी माया, विधि नें काय बनाओ।
विधाता ने प्राणियों को उलझाने हेतु मायारूपी जाल का निर्माण किया है। ज्ञानी कहते हैं कि माया का परित्याग कर प्रतिदिन ईश्वर का ध्यान करो। निन्यानवे से सौ करने के चक्कर में एक ने भी ईश्वर को प्राप्त नहीं किया। कवि प्रश्न करता है कि यदि माया आवश्यक नहीं थी तो विधाता ने उसे क्यों रचा?
सब कोउ कात बुरई है माया, उर पापी है काया।
काया उर माया की जोड़ी, मन बिरथा भरमाया।
कम हैं पुन्न पाप हैं जाँदा, पाप का राज कहाया।
जी कौ राज ओई सी कानें, रनें ओइ की छाया।।
सभी लोग माया की बुराई करते हुए कहते हैं कि यह पाप की काया है। शरीर तथा माया की जोड़ी ने व्यर्थ में भ्रम उत्पन्न कर दिया है। जब पुण्य कम और पाप अधिक हैं, तो पाप का राज्य कहलाया। कवि कहता है कि जिसका राज्य है, उसी की प्रशंसा करके, उसकी ही छत्रछाया में रहना है।
नारायण दास सोनी ‘विवेक’ का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख -डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)