Munshi Ishwari Prasad Shrivastava ( Khare) बुन्देलखण्ड के जिला महोबा के रहने वाले थे। इनका जन्म विक्रम संवत् 1886 (सन् 1829) में कन्नौज में हुआ। इनके पिता केदार सहाय अवध नवाब के यहाँ जमींदार थे। मुंशी ईश्वरी प्रसाद श्रीवास्तव (खरे) के पिता श्री केदर सहाय की मृत्यु सन1835 ई. में हो गई।
Munshi Ishwari Prasad Shrivastava ( Khare) की माँ अपने 6 वर्षीय पुत्र को लेकर अपने मायके महोबा आ गई। माता ने अपनी जमा पूँजी और मायके की सहायता से अपने पुत्र को पाला-पोसा और पढाया। ईश्वरी प्रसाद ने गुरुओं से उर्दू, हिन्दी, संस्कृत, फारसी छंद व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर मदरसे में नौकरी कर ली।
1870 में वे मेरठ मदरसे में गणित के अध्यापक हुये। 1872 के अंत में वे कुलपहाड़ मिशन स्कूल के हेडमास्टर बन गये वहीं से सन् 1884 में वे रिटायर्ड होकर महोबा आ गये। वे अध्ययनशील व्यक्ति थे। तंत्र शास्त्र में दखल रखते थे। उन्होंने कविता, नाटक एवं इतिहास भी लिखा। मिश्र बंधु विनोद 3-4 खंड चतुर्थ संस्करण पेज 99 में उनके बारे में कहा है- ‘वे कन्नौज के निवासी हैं’ उनके छंद…
1 – बिहारी सतसई पर कुण्डलियां,
2 – जीवन रक्षावली
3 – व्याकरण मूलावली
4 – नाटक रामायण, ‘राम विजय तंरग नाटक’,
5 – तवारीख महोबा (आल्हा समर सारावली) गद्य में लिखी।
Munshi Ishwari Prasad Shrivastava ( Khare) के दो नाटक नल दमयन्ती और ऊषा अनुरुद्ध भी थे। कविवर श्री जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर ने भी कविवर ‘बिहारी’ पुस्तक में इनका उल्लेख किया है। आल्हा समर सारावली की प्रकाशन तिथि सन् 1909 है। ‘‘सन् ईसा प्रमान 1909 जानिये तीन जून शुभ आन ग्रीष्म अविदात तिथि’’ (ग्रंथ की भूमिका से)।
वर्तमान में इनके दो प्रकाशित ग्रंथ उपलब्ध हैं एक ‘आल्हा समर सारावली’ दूसरा नाटक ‘राम विजय तरंग’। राम विजय तरंग नाटक बालकाण्ड ही प्रकाशित है। इसकी प्रकाशन तिथि सन् 1914 द्वितीय संस्करण है। इसमें दोहा, चैपाई, सोरठा, कवित्त एवं देशी लोक रागों एवं कव्वाली, गजल के द्वारा रामायण का नाटकीकरण किया गया है। इस पर पारसी थियेटर इन्द्र सभा और प्रचलित रामलीलाओं का प्रभाव है। पुस्तक पठनीय सरस लोकरंजन से भरी है। मुंशी ईश्वरी प्रसाद ने दीर्घ जीवन जिया वे सन् 1927 में स्वर्गवासी हुए।
सवैया
चन्द्र अनेकन की दुति जोर रचो चतुरानन आनन जोई।
कुंद कली से भली नवली धवली अवली रद जाति सँगोई।।
खंजन के मद गंजन नैन सुवैन अमी मृदु मंजुल सोई।
केशर गंध फली इशुरी सिय के तन के सम एक न कोई।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
अनेक चन्द्रमाओं की आभा को एकत्र करके ब्रह्मा ने इनके मुख की रचना की। मकरंद के पुष्प की कली से भी उज्जवल दंत पंक्ति सुशोभित है। खंजन पक्षी के मद को चूर करने वाले उनके नयन हैं अर्थात् खंजन नयन से भी सुन्दर नयन हैं। अमृत के समान कोमल और मनोहर वाणी है। ईश्वरी कवि कहते हैं कि केशर एवं अन्य सुगंधित द्रव्य कुछ भी सीताजी के शरीर के समान नहीं है।
सवैया
चारु बिचार निहार रहे छवि दार मनी मुकताहल साने।
शारद नारद शेष महेश, बिरंचहु से नहिं जात बखाने।।
ईश्वरी राज कुमार लखौ छीनत है छट लौ हठ ठाने।
आसन हेत नरेशन के बहु हाटक मंच बिमान समाने।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
श्री राम और लक्ष्मण बालकों के साथ मणि और मुक्ताओं से सजी शोभा युक्त रंगभूमि की रचना सुन्दर मनोभावों में देख रहे हैं। जिनका वर्णन माँ शारदा, नारद मुनि, भगवान शंकर और ब्रह्मा जी भी नहीं कर सकते। वही शोभा धाम मनोहर राजकुमार सुन्दर विमान के समान विविध कौशल से बने उस देश-देश से आये राजाओं के बैठने के स्थान को आश्चर्य से देख रहे हैं।
सवैया
लाल प्रबाल के जाल बिचित्र सुचित्त चुराबन हार पुरंदर।
ईश्वरी ऐसे उतंग लसै मनु आय बसे गिर मेरु के कंदर।।
थाकि रहे दश आठहु नैन लखे रचना पचना धाबि सुन्दर।
पेखनि हेतु भुआलन के पुर बालन के हित ये रुचि मंदिर।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
लाल प्रवाल के बने हुए सुन्दर जाल देवराज इन्द्र के मन को चुराने वाले हैं। ईश्वरी कहते हैं कि ऊंचे मंच पर बने हुए बैठने के स्थान ऐसे लगते हैं कि मानो सुमेर पर्वत की गुफायें हों। पंचानन (भगवान शंकर) ने अपनी दसों आँखों से और चतुरानन (ब्रह्मा जी) ने अपनी आठों आंखों से मंच की उस सुन्दर रचना की शोभा देखी और चकित रह गये। उन्हीं विविध देशों के राजाओं के बैठने के लिये बने सुन्दर स्थलों को बालकों का मन रखने के लिये रामचन्द्र जी बड़ी प्रसन्नता से देख रहे हैं।
कवित्त
बाढ़ै अंग अंगन में तरंग रंग यौवन की,
तासु पै सलोनौ शील सोहैं शुचि प्यारी को।
रूप की निकाई दई दई ने सम्हार भूरि,
पूरि रही शोभा भौन औन जहां नारी को।।
ईश्वरी कमान भौंह शानदार बान दीठ,
मीठे मृदुबैन ऐन ऐन उँजियारी को।
साँचे कैसी ढारी कनिक पूतरी सम्हारी,
ज्यौं सुमना सौं नरमगत सुमना कुमारी कों।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
यौवन की भावनात्मक हिलोर के साथ प्रत्येक अंग में तरुणाई की परम छवि इन्दुकला की भांति सवाई बढ़ने लगी, साथ ही उसके स्वभाव में पावन सुशीलता भी निखार ले रही है। कवि ईश्वरी कहते हैं कि परमात्मा ने नारी के उत्तम रूप में रुच-रुच कर दीप्तमय शोभाधाम तो बनाया ही है साथ ही उस सुन्दरी को भौहों रूपी कमान पर नजर के बाण प्रहार के लिये और आकर्षण के लिये मधुर, प्रिय तथा मीठी वाणी भी दी है। सुमनों से भी कोमल वह सुमना कुमारी (नेपाल नरेश की बेटी) ऐसी लगती है मानो बड़ी चतुराई से स्वर्ण की पुतली सांचे में ढाल कर बनाई गई हो।
दोहे
रंग रूप सुकुमारता सब, विधि रही समाय।
पखुरी लगी गुलाब की, गात न जानी जाय।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
नायिका की देह में दैदीप्यमान वर्ण सौन्दर्य और कोमलता को एक साथ समाहित कर दिया है। उसके शरीर पर गुलाब के पुष्प की एक पंखुड़ी लगी हुई है तो उसमें इतनी एकरूपता है कि शरीर और पंखुड़ी को अलग करना संभव नहीं।
कवित्त कनक लतासी शुचि आनन प्रकाशी चन्द्र हाँसी,
चन्द्रका सी खासी अति छबि भारी है।
सुन्दर गुणवारी है अपारी बहु प्यारी,
वर रूप अधिकारी चारी सोहें सुकुमारी है।
शील सुघराई चतुराई सुन्दराई भरी अंग की,
निकाई स्वच्छ अमित करारी है।
बानी है सुधा सी सुखराशी हर भांति भांति,
ऐसी जगमोहन जगमोहन कुमारी है।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
सोने की लता की तरह सुन्दर छरहरे बदन वाली नायिका के चेहरे की आभा चन्द्रमा की चाँदनी से भी अधिक शोभा वाली है। वह उत्तम गुणों से युक्त, नेह से भरपूर और कोमल अंगों वाली है। उसमें सुशीलता के साथ ही निपुणता, सुडौलता, चातुर्य कुशलता और सुन्दरता उसके उत्तम अंगों में असीमता के साथ अच्छी तरह समाई हुई है। उसकी वाणी में अमृत तुल्य मिठास है और सब प्रकार से सुख की धाम है ऐसे उपरोक्त गुणों से युक्त वह जगमोहन कुमारी है।
कवित्त
आनन प्रकाश स्वच्छ-चन्द्रिका उदास होत,
देख नैन कंज मीन खंजन लखि हारी है।
मन्द नन्द हाँस चारु बोले मृदु बैन ऐन,
शीलता सुभाय यहाँ चातुरी सम्हारी है।।
गुण में निपुनाई सुधराई हर भाँति भाँति,
प्रीत रीत जाने सों बुद्धि की तरारी है।
तात मातु प्यारी भौन शोभा विस्तारी,
भूरि इशुरी सुलक्षण विज्जक्षण कुमारी है।।
(सौजन्य – वीरेन्द्र बहादुर खरे)
जिसके निर्मल चेहरे को देखकर चांदिनी उदास हो जाती है नयन कमलों को देखकर सज्जन पक्षी भी सकुचा जाता है। वह धीमे-धीमे हंसते हुए उत्तम कोमल वचनों को बोलती है और उसके स्वभाव में शीलता और चातुर्य समाहित है। सभी गुणों में निपुणता और कुशलता है, वह प्रीत की गति तथा प्रकृति को समझती है और बुद्धिमत्ता में आगे है। माता-पिता की अत्यन्त प्रिय है और उससे घर की शोभा का विस्तार है। ईश्वरी कवि कहते हैं कि इस प्रकार वियक्षिण कुमारी उपरोक्त सभी गुणों से परिपूर्ण है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)